धार्मिक भावना
१- अन्य
सामान्य अतिक्रमणों के विपरीत जब कभी वैध / अवैध मंदिर तोड़े
जायेंगे तो उनका
प्रखर -प्रबल विरोध होगा | कहा जायगा -यह जनता की
धार्मिक भावना पर चोट / प्रहार / कुठाराघात है | इसलिए मेरा सुझाव है कि मंदिरों के न बनने देने को सेकुलर सरकार को
अपनी धार्मिक भावना बना लेनी चाहिए और उसे इसी प्रकार प्रदर्शित / व्यवहृत करना चाहिए | अर्थात उसे कहना चाहिए कि मंदिर बनने से उसकी
धार्मिक भावना को चोट लगती है | सचमुच , हर मंदिर उसकी
छाती पर मूसल समान होना चाहिए |
२- मैं
सत्संगों में भाग नहीं लेता क्योंकि वहां मेरी धार्मिक भावना आहत होती है | संत और उनके भक्त ईश्वर -अल्ला
चिल्लाते हैं ,जो मेरी उस आस्था
के विपरीत है कि ' ईश्वर नहीं है ' |
16/5/12
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' प्रिय संपादक " [ 46167 /84 ] हिंदी मासिक
यह शीर्षक मेरे पास १९८४ से रजिस्टर्ड है
| पुराना दिनमान पढ़ते , उसमे लिखते (सीखते) मेरे मन में यह सनक सवार
हो गयी कि लोकतंत्र में लोक की आवाज़ को मुखर करती हुयी संपादक के नाम पत्रों की एक
पत्रिका चलायी जानी चाहिए / चल सकती है | सो मैंने यह शीर्षक लेकर [संयोगवश यह
मिल भी गया] इसे शुरू कर
दिया | पर मैं परिवार के पालन के लिए गलत जगह सरकारी
नौकरी में था | इसलिए इसे बहुत विस्तार देकर अपने सपनों के अनुकूल सफल न बना सका | कोई ग्लानि नहीं
पर उल्लास को संतोष कहाँ ? मेरे मूल विश्वास में अब भी ज़रा भी कमी नहीं आई है कि ऐसा पत्र यदि संसाधनों
और पत्रकारिता के कौशल के साथ डटकर चलाया जाय तो इसे दैनिक तक ले जाया जा सकता है
और इसकी सफलता , जनतंत्र की सफलता होगी | कोई अभिमान नहीं पर आत्मविश्वास अवश्य है कि अभिव्यक्ति की आजादी के प्रति
मैंने अप्रतिम आस्था अपने भीतर विकसित की , और मिशनरी तरीके
से अपनी आमदनी से पत्र को हर संभव तरीके से चलाया , यहाँ तक कि हार्ट
अटेक होने पर बिस्तर पर पड़े - पड़े पोस्ट
कार्ड लिखकर भी [जिसकी चर्चा उस समय टी वी पर सुरभि कार्यक्रम में भी हुई ] | सार्वजनिक रूप से
असफल होने पर फिर उसे अपने व्यक्तिगत रचनाओं का पत्र / किताब बना
दिया जो अब भी छिटपुट चल रही है | पर यह तो कोई बात नहीं हुई , और ६६ की उम्र के बाद तो कुछ होना भी नहीं है | उसे अब बंद करना
पड़ेगा ,जो मेरी मृत्यु से पूर्व ही मेरी मृत्यु होगी | इसलिए अब प्रस्ताव
करना चाहता हूँ अपने तमाम मित्रों से कि कोई इसे ले ले और चलाये | कोई शुल्क नहीं | कोई आग्रह भी नहीं
कि उसे मेरे कल्पित रूप में ही चलाया जाय | कैसे भी चले एक आस
,एक प्यास ज़रूर है कि वह अभियक्ति की आग और मशाल बने तो कितना अच्छा हो ----
*उसी तरह का एक और
पत्र अंग्रेज़ी में READERS write [weekly ]भी है - A journal
of letters to the editor . RNI -1991
*एक और पंजीकृत
पत्र है " संक्षिप्त सत्य
प्रतिलिपि (हिंदी मासिक )"
RNI -1991,
*और आख़िरी है - " नास्तिक धर्मनिरपेक्षता ( हिंदी मासिक )" RNI -1991
मेरा ईमेल पता है - priyasampadak@gmail.com
और मोबाइल नं.है - 09415160913 .धन्यवाद !
16/5/2012
इस सम्बन्ध में मेरे अनुभव में एक अद्भुत - आदर्श व्यक्ति का चित्र है जिसके पास
ज्ञान, कौशल , प्रजातान्त्रिक सोच , विपरीत / विभिन्न
विचारों को समाहित करने वाला और पत्रकारिता के अनुभवों एवं गुणों से युक्त है और "प्रिय संपादक " के मर्म को भली
भाँति समझता है | वह हिंदुस्तान के दिल्ली एडिशन के एडिटर थे | अब फ्रीलांसिंग कर
रहे हैं , दिल्ली [वैशाली , गाज़ियाबाद] में रहते
हैं | नाम है उनका श्री प्रमोद जोशी | उनका परामर्श और
सहयोग बहुत उपयोगी हो सकता है , यदि ज़रुरत पड़े तो , और जहाँ तक मैं
अनुमान कर सकता हूँ , वे सहर्ष इसे प्रदान करेंगे | लेकिन सौ की एक बात है कि सफल पत्र चलाने के लिए पर्याप्त
प्रारंभिक धन चाहिए | फिर तो यदि प्रोफेसनल तरीके से निकाला गया तो यह निश्चय ही आत्मनिर्भर और
पाठकों को ग्राह्य होकर विख्यात हो जायगा , और असंभव नहीं कि
कई लोगों के आमदनी का स्रोत भी | मुझे तो इसको चलते देखने के अलावा और कोई चाह
नहीं है | 17/5/12
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[हाइकु कविता ]
इस तन में
कुछ रखा नहीं है
फिर भी पिले | #
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तिस पर भी
हमें अपने कवियों - कार्टूनिस्टों
पर , पत्रकारों - पढ़ाने वाले
मास्टरों - शिक्षाविदों
पर, कोर्स की किताबें बनाने वालों पर, हवाई जहाज के
पायलटों- बस के ड्राइवरों पर , आपरेशन करने वाले
डाक्टरों - दवा देने वाली
नर्स पर , इंजीनियरों
[वगैरह -वगैरह] पर भरोसा करना ही
चाहिए |
थोड़ा स्पष्ट हो लें कि यह मामला
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का तो है ही नहीं | वह तो १९४९ से ही
सुरक्षित है | प्रश्न है क्या -क्यों - कैसे पढ़ाया जाय ? किताबों, खासकर टेक्स्ट
बुक्स में illustrations की ज़रुरत है या कार्टूनों की [यदि वह कार्टून की किताब नहीं है ] ? संभव है दोनो विद्वानों ने उन
पर ध्यान न दिया हो क्योंकि उनके मन में कोई खोट नहीं होगा, और प्रौढ़ बुद्धि
के लिए उसमें कुछ भी अनुचित नहीं है | और अनुचित नहीं है
इस त्रुटि की ओर सांसदों द्वारा इंगित किया जाना [प्रो. के घर कुछ उत्पात
को छोड़कर], और इसे सरकार द्वारा मान लिया भी उचित ही था | इतनी दकियानूसी उत्तेजना भी
ज़रूरी नहीं है | न इस वर्ष से पर अगले एडिशन में करेक्शन कर लिया जाना चाहिए | देखना होगा कि
२०१२ , १९४९ नहीं है |तब मंडल कमीशन - सच्चर कमेटी आदि नहीं थे, राम बिलास - मायावती नहीं थीं | उन नेताओं की बात और थी , उनमे बराबरी का
भाव और रिश्ता था | अब भले नेहरु -पटेल -गाँधी के बीच कोई
जातीय फैक्टर नहीं है , पर जैसे ही आंबेडकर का नाम
जुड़ता है , समीकरण बदल जाता है | और यह यथार्थ है | इसलिए मानना होगा
कि उस अस्पष्ट कार्टून को नासमझ अध्यापक prejudiced व्याख्या दे सकता
है , और अशिक्षित छात्र उसका मजाक बना सकता है | हमारा निवेदन है
ऐसी संभावित भ्रामक स्थितियों से बचना चाहिए | मुझे पक्का
विश्वास है विद्वानों ने उस समय इसमें कोई बुराई नहीं देखी होगी , वस्तुतः है भी
नहीं , वर्ना वे स्वयं उसे हटा देते | इसके लिए उन्हें सजा के लिए आरोपित करना तो
निहायत बचकाना होगा | इन पर विश्वाश नहीं करेंगे तो कहाँ , किस देश से
लायेंगे superhuman बुद्धिजीवी ? क्या जो नई कमेटी
बनी है वह बिना विश्वास के चलेगी ? क्या उनका किया धरा हर किसी के आपत्ति से मुक्त
होगा ? संवाद - विवाद अवश्य
चलना चाहिए पर एक अनुशासन के साथ |
16/5/12
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हम गीता के उपदेश को दूसरी तरह से समझने का प्रयास क्यों न करें ? यह किसी भगवान ने
कहा हो या न कहा हो , हमें अपना काम मन लगाकर निष्ठांपूर्वक करना ही है | यह तो जीवन
व्यापार है , कभी लाभ होगा तो कभी हानि | हानि की आशंका से हम काम से तो विरत नहीं हो
सकते ! और जब हम अपना काम
मनोयोग से करेंगे , तो प्रकारांतर से
वह ईश्वर का आज्ञा पालन , उसकी पूजा हो ही जायगी ! यही कृष्ण
का उपदेश भी था | उन्होंने कहा - कर्म करना तुम्हारा अधिकार है , फल की चाह करना नहीं | हमने उसे यूँ समझा
- कि कर्म तो हमारा
कर्तव्य ही है , उसके लिए हमें
ताकीद क्या करना ? उसे न करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता | न कर्तव्य हमारा
अधिकार है , न उसके फल की हमें चिंता है |+ + + इसके अतिरिक्त--
अपने आनंद के लिए गीता उपदेशक से यूँ भी बात की जा सकती है
:- " हे प्रभो ! कर्म करना तो हमारा अधिकार नहीं बल्कि कर्त्तव्य है | अधिकार तो तुम्हारे पास है की तुम हमें उसका फल दो , न दो |" या " यदि कर्म
करना हमारा अधिकार ही मान लो , तो फिर तुम्हारा यह
निश्चित कर्त्तव्य बनता है कि तुम हमें उसका पूरा फल दो | "
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मेरी बात मानो
[कविता ]
किसी की बात मानो न मानो
मेरी बात मानो ,
माँ -बाप का कहा
न मानो ,
गुरू का आदेश न मानो ,
किसी किताब में लिखी बात न मानो
कोई धर्म न मानो ,
किसी परंपरा का पालन न करो ,
और ऐसा बार -बार कहने
वाले
जागृत- प्रबुद्ध
गौतम बुद्ध
की भी बात न मानो |
किसी की बात न मानो , लेकिन
मेरी बात ज़रूर मानो ||
15/5/12
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आंबेडकर कार्टून विवाद पर मैं इतना जोड़ने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ कि
मैं तो हमेशा कहता रहा हूँ कि राज्य दलितों को दे दो | वही सवर्ण
हिन्दुओं और मुसलमानों , सबका दिमाग दुरुस्त करेंगे / कर पाएंगे | दलितों के सम्प्रति विरोध का विरोध ज़रा अब वे
मुसलमान और उनके हिमायती सेकुलर लोग ज़रा कर के तो दिखाएँ ! किस मुँह से
करेंगे जब वे स्वयं ७२ छेद वाली चलनियाँ हैं ? उन्होंने तो खुद डेनमार्की कार्टूनों का आत्यंतिक विरोध या उनका समर्थन किया
था | वह कार्टून तो विदेश में बना था , इसलिए भारत में
उसका इतना विरोध तो ज़रूरी न था | लेकिन यह कार्टून तो भारत में बना ,तो इसका विरोध
क्या अमरीका में किया जायगा ? मज़ाक भी सामने वाले की सहनशीलता का अनुमान लगा
कर ही किया जाना उचित होता है | फिर यह शक्ति संतुलन और प्रदर्शन का भी मुद्दा
बनता है , भले उतनी भक्ति भावना या मूर्तिपूजा का पुट इसमें न हो | और फिर देखा देखी
पाप , देखा देखी पुन्य का भी तो मामला है ! तो , जैसी करनी वैसी भरनी | यह तो राजनीति है | यदि सलमान रुश्दी
का आना रुक सकता है , उनकी भाषा -शैली पर कोई
छात्र शोध नहीं कर सकता , तो आंबेडकर पर
कार्टून -युक्त किताब भी
हटानी ही पड़ेगी | अब विरोध रत दलितों का कोई विरोध करे तो हम भी देखें ! हर घटना का
कोई एब्सोल्यूट उत्तर नहीं होता | सभी सत्य समय / समस्या
सापेक्ष होते हैं , इनके तुलनात्मक
अध्ययन की आवश्यकता होती है | मैं तो कार्टून विरोधियों का आलोचक तब भी था , अब भी हूँ | लेकिन जब मैं हाजी
याकूब का कुछ बिगाड़ नहीं पाया जिन्होंने कार्टूनिस्ट के सर पर ५ या ५० लाख या करोड़
की सुपारी घोषित की थी , तो अब मैं किस मुँह से इस उबाल का विरोध करूँ ? क्या सबको सारी
डिमोक्रेसी सिखाने की ज़िम्मेदारी हमारी ही है ? वे खुद क्यों न
कुछ समझें और उसका पालन करें , जिसकी नक़ल और लोग भी करें ? पर यह बात तो अपनी
जगह पर है कि यदि मोहम्मद साहेब पर कार्टून न बनाया जाता तो इस से इस्लाम की
प्रतिष्ठा कुछ बढ़ न गयी होती , या यदि आंबेडकर पर कार्टून किताब में शामिल न
किया गया होता तो इस से राजनीति की पढ़ाई में कुछ कमी रह जाती |
14/5/12
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कार्टून विवाद में मैं इस बार नहीं
पड़ूँगा । कुछ साल पहले भूलवश पड़ गया था । नतीजा , खास सेक्युलर मित्रों से हाथ
गँवाना पड़ा । 14/5/2012
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[ कविता ]
प्रश्न करके ही
क्या पा जायँगे बच्चे
जब हम उनको
कुछ बताएँगे ही नहीं ,
उन्हें अपने अलावा
किसी और का उत्तर
स्वीकार नहीं |
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[ कविता ]
कभी -कभी याद
आता तो है लोकतंत्र
जब कुछ लेना होता है ,
भूलते हैं , जब
कुछ देना होता है |
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अब सही जगह आ गए बाबा रामदेव | अब उनके पराभव को कोई
माई का लाल रोक नहीं सकता | अब बाबा कोई नया योगासन
करें तो शायद बच जाएँ |13/5/2012
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