* जनता की सब बात मानी ही नहीं जाती ,उसे कुछ बातें मनाई भी जाती है सरकारों द्वारा |क्योंकि जनता की सीमित दृष्टि होती है ,जब कि शासन को सम्पूर्ण जनता की समग्र दृष्टि का प्रतिनिधित्त्व करना उसकी ज़िम्मेदारी है |
* एक पक्ष तो दिल्ली जा ही रहा है ,शायद दूसरा भी जाये |क्या होगा वहां जाने से ? उसने तो १९९३ में ही इंकार कर दिया था नरसिम्हाराव से |ऐसी दशा में अब उसका भी निर्णय कुछ बहुत फर्क न होगा ,यदि उसे कोई फैसला लिखना ही पड़ा हाईकोर्ट कि तरह |जिसे टालना हो वह रुके ,जिसे निपटाना हो वह अभी सोचे | समस्या यह है कि अभी तीन हिस्सों का मालिकाना हक किसका हुआ ? क्या निर्मोही अखाडा अपने प्रभाग पर कोई कुश्ती -दंगल का क्लब या सीता रसोई पर कोई साँझा ढाबा खोल सकता है ? क्या वक्फ बोर्ड वहाँकोई रोजरी,गुलाबों की क्यारी ,विकसित कर सकता है ?क्या रामलला वहां सर्वशिक्षा अभियान चला सकते हैं ?कर सकते हैं तो क्यों ? नहीं कर सकते तो क्यों ?कैसे ,किस प्रकार आदि अनेक समस्याएं हैं |अतः इनका हल इन विजित -विजेता पक्षकारों पर नहीं छोड़ा जा सकता क्योंकि ये उनकी निजी संपत्तियां नहीं हो गयी |इसलिए भूमिका सरकार की बनतीहै |उसे इन स्थानों पर अदालत की भावना के अनुरूप और वादकारों से राय लेकर निर्माण कार्य स्वयं करना चाहिए |यह निरपेक्षता का ह्रास न होगा |मैं यहाँ यह तो नहीं कहुगा कि वह सबको समेत कर अपना कोई अस्पताल बनाये ,पर मंदिर -मस्जिद ही वह उनकी सीमाओं में स्वयं तामीर करे |उनके डिज़ाइन भले पंडित -मौलाना से दिखा ले पर उनका कोई हस्तक्षेप न होने दें ,वरना उनके बीच झगडा चलता रहेगा |उनका अनुरक्षण भी सरकारके हाथ ही रहना उचित होगा | और अपनी शेष जमीन पर कोई सार्वजनिक उपक्रम करे| मसला यह है कि विवादित स्थल पर भी किसी का निजी मालिकाना हक नहीं दिया गया है ,और जिन्हें दिया गया है वे अपने समुदाय के कोई प्रतिनिधि नहीं हैं |#
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