गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

katuvachan sudha 7,oct,5-30p

*1=मैं राजनीति में होता तो बयान देता कि मेरी पार्टी की वोटर लिस्ट  में कोई हिन्दू -मुसलमान नहीं है ,सब केवल अमन पसंद नागरिक है |मै सख्ती से दोनों पक्ष को बैठाकर किसी समझौते पर पहुँचने के लिए बाध्य करता ,या सर्वोच्च निर्णय मानने के लिए | या फिर पूरे मुक़दमे को पार्टी [यों ],बुद्धिजीवियों के बीच देकर देशहित  में नीति लागू करता |किसी भी हालत में इसे हिन्दू मुस्लिम द्वंद्व न बनने देता |और यह निश्चित संभव इसलिए होता क्योकि मै इस बात का बिलकुल ख्याल न करता की कोई मुझे वोट देगा या नहीं |और हाँ ,मै धार्मिक विद्रोह से भी नहीं डरता |मुझे पता है कि इनमे नैतिक साहस कुछ नहीं होता ,क्योंकि ये सत्य -आधारित नहीं होते और राज्य कीथोड़ी सख्ती  या सिर्फ उसकी रीढ़ की हड्डी यदि इन्हें दिखाई पड़ जाय,तो ये शेर अपनी माँदों में छिप जांय| सेकुलरिज्म को अभी इन्होंने देखा नहीं है |वह इतना लुंज -पुंज और दयनीय  नहीं होता कि वोट के लिए वह सप्रदायों कि चापलूसी करे ,और उसकी अपने  कोई नैतिक मूल्य न हों |वह दृढ़ जनतांत्रिक होता है ,जनमत हासिल करने कि पूरी सदेक्षा  के बावजूद |और वह अपनी सत्ता  क़ीशक्ति व ज़िम्मेदारी के प्रति सतर्क एवं संवेदनशील होता है |लेकिन इनकी गलती भी क्या है|
 इन्हें सेकुलर सत्ता का कोई पाठ पदाया भी तो नहीं गया |न उसका कभी दर्शन  ही कराया गया |

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