सोमवार, 28 सितंबर 2020

मेरानिर्णय

राजनीति के इस मोड़ पर सेक्युलरवाद:
- - - - - - - - - - -  उग्रनाथ
मेरी अपनी, भारतीय धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र की समझ यह बनी है कि secularism की सारी किताबी परिभाषाएँ नहीं चलेगी । इसकी परिभाषा यह होनी चाहिए कि धर्म राज्य व्यवस्था के अधीन हो । दोनो में दूरी, separation का concept असफल है । State यदि हस्तक्षेप, assert न करेगा तो धर्म ruling स्थिति में आ जायेगा । इसे contain करना राज्य का काम होना चाहिए । और राज्य को Bradlaugh ian Secular, Complete scientific, Godless Thisworldly होना चाहिए । परलोक, That world को मानने वाले किसी समूह को राजनीति से बाहर रखना चाहिए । फिर व्यक्तिगत आस्था की स्वतंत्रता की संरक्षा का प्रश्न तो बेकार है उठाना । निजी सोच भावना, दिल दिमाग में कोई क्या रखता है, उससे यूँ भी किसी को परेशानी, या मतलब कहाँ होता है? यह उलझाने वाली बातें है । यही राज्य चाहता है । उलझे रहो जिससे उनका धर्म न जाने पाए । यही धर्म चाहता है कि उलझे रहो जिससे इनकी राजनीति चले ।
इस शताब्दी तक यह तार्किक निष्कर्ष आ चुका है कि धर्म और राजनीति दोनो का मकसद एक है, दोनो एक हैं । तो राज्य तो किसी एक की ही चलेगी? इस लोक की, या परलोक की । दोनो हाथ में लड्डू वाली होलियोक की शुभेच्छा न चल पायी भले गाँधी जैसों ने बड़ी कोशिशें कीं । असफल होना ही था क्योंकि विचार यह वैज्ञानिक नहीं कि लोकतंत्र में पराई दुनिया का हस्तक्षेप हो ।
केवल राजनीति का राज्य होना चाहिए । धर्म जिसे आवश्यक लगे वह राजनीति को अपना धर्म बनाये ।
क्या मानववाद, लोकतंत्र, संविधान, वैज्ञानिक चिंतन आस्था का विषय नहीं हो सकते हमारे ? धर्म बनने के लिए किस गुण की कमी है Secularism, इहलोकवाद में ?
धर्म को केवल जड़ से नहीं , इनका नामोनिशां मिटना चाहिए संसार से । 
आखिर हम डार्विन, स्टीफेन हाकिंग की दुनिया में जी रहे हैं ? किसी आसमानी, ब्रह्मलोक में तो नहीं ? (Sorry, so I said ! 😢)
,,उग्र

शुक्रवार, 11 सितंबर 2020

स्वधर्म

स्वधर्मे निधनं श्रेयः, परधर्मो भयावहः - - 
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तमाम माथापच्ची के बाद यह निष्कर्ष निकला कि इस बात पर माथापच्ची व्यर्थ है कि हमें कैसे इस दुनिया से विदा किया जाय, अर्थात हमारा अन्तिम संस्कार किस विधि से हो ? हिन्दू रीति से या इस्लामी तरीके से ?
पेंच यह फँस रहा था कि हम ठहरे बुद्धिवादी नास्तिक लोग । स्वर्ग नर्क, पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करते । अब यदि हिन्दू रीति से क्रियाकर्म हुआ और हमारे सत्कर्मों के फलस्वरूप ईश्वर ने ब्राह्मण घर में पैदा कर दिया तब तो हमारी ऐसी दुर्गति होगी कि ज़िंदगी नरक हो जायेगी । और यदि इस्लामी तरीके से दफ़्न किये गए थे भी वही दिक्कत । जन्नत जहन्नुम हो जायगी । 72 हूरें कौन झेलेगा ? 
इस पेंच में अम्बेडकर भी टपक पड़े थे । घोषणा कर दी - हिन्दू पैदा तो हुआ लेकिन हिन्दू मरूँगा नहीं । अब बताइये, अपना तो बौद्ध धर्म में हो लिए, हमको हिन्दू मुसलमान छोड़ गए । हो तो हम भी जायँ बौद्ध, और वह तो हैं ही । लेकिन क्या वहाँ कम पाखण्ड है/होगा ? कहीं निजात नहीं । क्या किया जाए ।
तब आता है एक सनातन उद्धारकर्ता श्लोक । स्वधर्मे निधनं श्रेयः - - - और स्वधर्म का मतलब जिस धर्म में पैदा हुए । फिर क्या था? हमने अम्बेडकर को उलट खड़ा किया, जैसे मार्क्स ने हीगल को किया था । फार्मूला निकला - जिस धर्म में पैदा हुए उसी धर्म में मरेंगे । भाई वाह कि पैदा हुए हिन्दू धर्म में उसने हमें गू मूत में लपेटा, और अब जब साफ सुथरे हुए तो मरने कहीं और चले जायँ? नहीं हमें पैदा करने की गलती वही झेले जिसने हमें पैदा किया । पैदा किया तो अंतिम संस्कार भी करो । दूसरा धर्म कोई तुम्हारा नौकर, सेवक, सहायक है क्या, जो तुम्हारी गन्दगी ले जाये ?
इस प्रकार सिद्धांत निकला - जहाँ से शुरू वहीं पर अंत । जहाँ पैदा हुए, वहीं मरेंगे । और इसके बीच जीवन भर धर्म की जड़ में मट्ठा डालकर इसकी सेवा करो । 😢
,,उग्रनाथ के 74 वर्ष पूरे होने पर आप मित्रों को शुभकामनाएँ ।💐

शुक्रवार, 31 जुलाई 2020

Dgspn

.        (संस्कृति-समाज-सत्ता का जोड़, श्रंखला-18)

                  (व्यक्ति विरोध या विचार विरोध)

         अम्बेडकरवाद एक तरफ "सामाजिक बदलाव" से जुड़ा है,  दूसरी तरफ यह "धम्म" से भी जुड़ा है | बाबा साहेब का कार्य दो ध्रुवी है | बड़ा कठिन है यह मार्ग | दो अंतर्विरोधों को साथ लेकर चलना कितना दुरूह है ! भगवान बुद्ध ने कहा है "दो" हैं मार्ग | बाबा साहेब को दोनों मार्गों को साथ लेकर चलना पड़ रहा है | इसलिए ही अम्बेडकरवादियों में अंतर्विरोध नजर आ रहा है, द्वंद नजर आ रहा है | अम्बेडकरवादी जब "समाज" की बात करते हैं, तो धम्म बीच में आ जाता है | जब "धम्म" की बात करते हैं, तब समाज बीच में आ जाता है |  जबकि दोनों की दिशाएं अलग अलग हैं | सवाल यह है कि दोनों में सामंजस कैसे बिठाएं ? नहीं, दोनों मार्गों पर एक साथ चलना सम्भव नहीं है |
       वस्तुत: "धम्म" सम्रद्धता की नींव पर ही खड़ा हो सकता है | किसी भवन को बनाने के लिए नींव पहले ही रखनी होगी | नींव केवल पहले ही नहीं, मजबूत भी रखनी होगी | बाबा साहेब सम्रद्ध समाज के ऊपर धम्म का आलीशान भवन प्रस्थापित करना चाहते हैं | बाबा साहेब के "सामाजिक मिशन" के आधार में "धम्म के जीवन मूल्य" समाए हुए हैं | यदि बाबा साहब के मिशन में से धम्म के पहलुओं को निकाल दिया जाए, तो यह मिशन निरर्थक हो जाएगा | बाबा साहेब को यदि बौद्ध जगत ने महत्व दिया है, तो वह बुद्ध के कारण ही दिया है |
       बुद्ध ने एक मानवीय दृष्टि दी है, कि विचार से तो सहमति व असहमति हो, परन्तु व्यक्ति से सदा सहमति बिना शर्त बनी रहे | बुद्ध किसी भी परिस्थिति में "मनुष्य" को इन्कार नहीं करते | इसमें हमेशा ऊपर उठने की सम्भावना बनी रहती है | बुद्ध ने मनुष्यों के बीच जोड़ने का इन्सुलेशन (रसायन) मैत्री भावना के माध्यम से दिया है | यह मैत्री-भाव भेदभाव रहित, व बिना शर्त है | इसमें ना तो पापी और पुण्यात्मा में भेद किया है, ना ही  ब्राह्मण शुद्र में,  ना ही गरीब अमीर में, ना ही स्त्री पुरुष में |
        बुद्ध "भेदवाद" (विचार) से तो असहमत हैं, पर भेदवादियों (मनुष्य) से नहीं | बहुत बारीक अन्तर है | बुद्ध "मन" से तो असहमत हैं, पर "चित्त" से नहीं | क्यों ? क्योंकि मन परिवर्तनशील (अनित्य) है, चित्त सनातन (एस धम्मो सनन्तनो) है | क्योंकि मन के बदलने की सम्भावना के आधार पर व्यक्ति को नहीं छोड़ा जा सकता है | व्यक्ति का विरोध न होकर, विचार का विरोध हो, सोच का विरोध हो, दृष्टि का विरोध हो | सभी व्यक्तियों के तो पक्ष में होना है, सभी व्यक्तियों के प्रति तो भले का भाव रखना है, तभी तो हम बुद्ध की मैत्री "भाव-भावना" का पालन कर पाएगें | नहीं तो सारा मिशन, धम्म के जीवन मूल्यों से भटक जाएगा | अम्बेडकरवादियों से चूक इसी बिन्दु पर हो रही है | उन्होंने "विचार के विरोध को ही व्यक्ति विरोध से जोड़ दिया है |" वे इस पहलू पर विचार करते वक्त अपने अन्दर द्वेष ले आए हैं | यही अलगाव व घृणा की जड़ बन कर अम्बेडकरवादियों की छवि खराब कर रही है  |
      बुद्ध की इस दृष्टि से प्रभावित होकर बाद में संतों की व नाथ पंथों की श्रंखला ने अपनी उदार भाषा में कुछ इस ढंग से अभिव्यक्त किया है | संतों ने कहा है, "पाप से घृणा करो, पापी से नहीं |" यही बुद्ध की व बाबा साहब की मूल देशना है | मेरी दृष्टि इसी पर आधारित है | मैं इसी पर चलते हुए आगे बढ रहा हूं |

गुरुवार, 30 जुलाई 2020

Neglect than Opposing God IHU

Reaction -
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एक अंतरराष्ट्रीय Humanist and Ethical Union से जुड़े भारतीय मानवतावादी संघ की यह नीति है (Published 27 July) कि :-
"The idea of God is likely to suffer more from neglect than opposition. But Atheists can't leave the subject alone!"
तो जी हुज़ूर, हमने राम मंदिर के मामले को अस्सी के दशक से ही लगभग छोड़ा ही हुआ है । कुछ विरोध भी करते तो कैसे करते ? नास्तिकों के पास इतनी ताक़त कहाँ थी ? हमारी ताक़त तो आपलोग होते । लेकिन आपतो हमें पीछे खींचने में लग गए । विरोध न करो, बस नज़रअंदाज़ करो । यह तरीका ज़्यादा प्रभावी होगा और मसला जल्दी से मर जायेगा ।
जी हमारे मान्य गुरुवर, सचमुच वही फलित हुआ । मामला कचहरी से तय हो गया और अब राम मंदिर 5 अगस्त से बनना शुरू होने जा रहा है । कोई गगनचुम्बी मूर्ति भी राम की लगने जा रही है, कितने मीटर की है आप भी जानें, या पता करके मोद पाएँ । हम भी निश्चिंत घर में बैठे हैं ।
और इसी क्रम में अब आपका पेज पढ़ना भी neglect करने लगे हैं । शायद idea of god more suffer कर जाए । और हम सब अपने लक्ष्य को प्राप्त कर प्रसन्न हों !☺️😊😢
,,उग्र

बुधवार, 1 जुलाई 2020

जिसकी लाठी वही सेक्युलर

सेक्युलरवाद: तब और अब (भाग- दो, अंतिम)
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पिछला लेख पूरा न हुआ कि मेरे मोबाइल का हिंदी (हिंदू हिंदुस्तानी नहीं) कीबोर्ड ख़राब हो गया । इसलिए इस लेख का जल्दी उपसंहार कर दूँ वरना अनुकूल विषय न होने के कारण यह फिर रुष्ट न हो जाये । 
अनुभव यह कि भारत में पश्चिमी सेकुलरी तो चलने से रही । यहाँ ब्रॉडला होलियोक का सिद्धान्त नहीं चलेगा । वहाँ एक पोप था तो राज्य ने छुटकारा पा लिया । यहां तो पोप ही पोप, पाप ही पाप , कैसे इनसे तालमेल बिठाये ?
अब इसके दर्शन, धर्म व्यक्तिगत, Thisworldy, परलोक विरुद्ध, धर्म राज्य से , राज्य धर्म से दूर, और Public health आदि की पारिभाषिक अध्ययन, समीक्षा और चीर फाड़ में न जाइए वरना हम आप उलझ जाएँगे जैसे देश 70 सालों से इसमें हैरान परेशान है । 
बस खुश होने की बात यह है कि हर संस्था पार्टी इसके गुण गाती है, जैसे विज्ञान की गाती है, चाहे इनकी मानें एक नहीं । हिन्दू भारत ने इसे पंथनिरपेक्ष जैसा शब्द अपनाया, तो गौर कीजिए यह तो हिन्दू ही हुआ। इसी में अनेक पंथ गुंफित पल्लवित हैं । मतलब धर्म को छूना नहीं । यह तो देश का प्राण है, धर्म तो नैतिकता है, कर्तव्य है । आगे भी कृपा यह कहकर की कि हिन्दू तो स्वाभाविक सेक्युलर है, विश्वबंधुत्व से लैस है, कोई पश्चिम इसे नीति का पाठ न पढाये । इन्होंने यहाँ चार्वाक को उद्धृत न कर सनातन को ही सुयोग्य बताया । इस तरह यह शब्द देश में जिंदा या मरा पड़ा रहा । बाद में संविधान में इसका नाम अंग्रेज़ी में जोड़ा गया । 
तो मुक्तक यूँ बनता है :-
'हिंदुस्तान के मानी सेक्युलर
देश की बूढ़ी नानी सेक्युलर;
सती साध्वी? यानी सेक्युलर,
लालकृष्णअडवानी सेक्युलर !"
इस तर्ज़ पर शिवसेना, बजरंग दल सब सेक्युलर ।
तो मुस्लिम समाज क्यों पीछे रहता ? उसने भी दावा किया , इस्लाम भाई चारा, शांति, अम्न चैन, प्रेम मोहब्बत का मज़हब है । मानना ही पड़ेगा । बस केवल वह हम लोग सेक्युलर नहीं माने जायँगे जो सेक्युलर नाम की सतत गाली दोनो तरफ से खाने को पाते हैं । तो ऐसी दशा में निष्कर्ष क्या निकला? वही उपसंहार है । इसकी व्यावहारिक अंतरराष्ट्रीय परिभाषा बड़ी विनम्रता पूर्वक यह बनती है । 
कि जिस देश में जिसकी लाठी उसी के पास सेक्युलर थाती । प्रत्येक देश का बहुजन सेक्युलर माना जाय, इस ज़िम्मेदारी के साथ कि वह अल्पजन का ख्यालबात रखे । शेष तरीके से secularism सम्भव नहीं । उदाहरणार्थ -
खाड़ी मुल्कों में इस्लाम को सेकुलर स्वीकार किया जाय (तभी यह इस पर खरा भी उतरेगा)! यूरोप में Secularism को सेक्युलर मान उसकी प्राथमिकता स्वीकार किया जाय (अब पोप क्षीण शक्ति है, और जनता भी पर्याप्त नास्तिक सेक्युलर) ! चीन में मार्क्सवाद को सेकुलर संज्ञा दें।
 अब भारत की बात करना तो गैरज़रूरी है । यहाँ हिन्दू को सेक्युलर न माना गया औऱ इनपर अल्पसंख्यकों की नैतिक जिम्मेदारी न मानी गयी तो अनिष्ट होगा । सब अपने देश पर सेक्युलर राज्य फ़रमायें । 
यहीं नागरिकों का फर्ज़ भी बनता है कि अरब देश में हिंदुत्व का झंडा न लहरायें, इस्लाम के अंतर्गत रहें। यूरोप अमरीका में हिन्दू मुसलमान उत्पात करने की न सोचें । वहाँ democratic civil secular व्यवहार करें ।
दुनिया बंटी हुई है । बँटा हुआ सेक्युलरवाद ही चलेगा । जब Communist International नहीं चला तो कैसे उम्मीद करें, International Secularism चल पायेगा ? यह नितांत व्यावहारिक, practical नीति है । उसके किताबी सिद्धांत पर तो मैं इतना लचर (या अद्भुत?☺️) सुझाव देते हुए भी दृढ़ता से कायम हूँ, उसे जानता, समझता, लागू करने के प्रयास करता हूँ । साथी मित्र scientific temper के साथ, विज्ञान को जनचेतना में उतारने, हिंदी अर्थ में विज्ञान धर्म फैलाने में संलग्न हैं ।  कुछ उत्साही मित्र वैज्ञानिक समाजवाद में भी धर्म के गुण ढूँढ चुके हैं, शायद आ ही जाए। वह सब चलता रहेगा सफल भी होगा , क्योंकि यह भारतीय धर्मनिरपेक्षता के अंतर्गत छूट प्राप्त है कि किसी भी महान मूल्य को धर्म की प्रतिष्ठा दी जाय । अतएव- 
जय मानव, जय व्यक्तित्व, जय विज्ञान, जय समाजवाद, जय नागरिक धर्म !👍💐
,,,उग्र

सोमवार, 22 जून 2020

मार्क्सवाद सिद्धांत है, विचारधारा नहीं, रोज़ बदलने वाली

Suresh Srivastava
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भागो की मौत का जिम्मेदार कौन?
   जनसत्ता, 17 जून 2015 में, 'हक़ के लिए' आलेख में भागो के ज़रिए निवेदिता ने रेखांकित किया है कि भागो जैसी हज़ारों दलित  महिलाएँ लोगों के हक़ के लिए लड़ते हुए जान दे देती हैं पर दलित महिला होने के नाते उनकी मौत ख़बर नहीं बनती है। वे भूल जाती हैं कि दूसरों के हक की लड़ाई लड़ने वाले/वालियां अपने आप को खाँचों में नहीं बाँटते/बाँटती हैं, जिनकी रुचि केवल ख़बरों में होती है, वे ही लड़ाकुओं को स्त्री या पुरुष, दलित या सवर्ण, अगड़ा या पिछड़ा, हिंदीभाषी या अहिन्दीभाषी, हिंदू या मुसलमान जैसे खाँचों में बाँट कर, वंचितों की हक़ की लड़ाई के लिए आवश्यक एकजुटता को कमज़ोर करते हैं। और अगर कुछएक, चाहे वह भगत सिंह हो या निर्भया हो, का बलिदान ख़बर बन भी जाता है तो भी वह उद्देश्य, जिसके लिए बलिदान दिया गया, क्या कहीं भी पूरा होता नजर आता है। इतिहास कहता है कि इसका उत्तर तो 'नहीं' के अलावा कुछ और नहीं हो सकता है। नब्बे साल पहले के भगतसिंह हों या आज के दौर के नक्सलवादी या माओवादी हों, उन बेशक़ीमती जवानियों की असफल शहादत और असमय मौत का ज़िम्मेदार कौन है? क्या राजसत्ता के कारकुन जल्लाद या सिपाही, या सामंतों की रनबीर सेना के हथियारबंद दस्ते? या फिर अस्तित्व के लिए संघर्षरत शोषित वर्ग के स्वघोषित पैरोकार बुद्धिजीवी, जो शोषितों को शोषकों विरुद्ध उकसाने का काम बख़ूबी अंजाम देते हैं, पर जो स्वयं न तो शोषण की क्लिष्ट प्रक्रिया को समझते हैं और न ही उसमें सार्थक हस्तक्षेप कर सकने की क्षमता विकसित कर सकने का रास्ता जानते हैं।
   बुद्धिजीवियों का एक वर्ग है जो समाजवाद की दुहाई तो देता है पर मार्क्सवाद को सिद्धांत के रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। यह वर्ग अभिव्यक्ति की व्यक्तिगत आज़ादी को अनुल्लंघनीय नियम के रूप में स्वीकार करता है और अस्मिता की राजनीति को क्रांतिकारी संघर्ष मानता है, इसलिए उसके पास न कोई सिद्धांत हो सकता है और न ही वह संगठित संघर्ष के महत्व को समझ सकता है। पर जो मार्क्सवादी होने का दम भरते हैं और कम्युनिस्ट पार्टी के नाम पर एकजुटता का दावा करते हैं, वे भी मार्क्सवाद को एक सिद्धांत के रूप में न देखकर एक विचारधारा के रूप में देखते हैं जिसको निरंतर विकसित किये जाने की आवश्यकता है, और विचारधारा को विकसित करने के नाम पर, वैज्ञानिक समाजवाद को नकार कर, काल्पनिक समाजवाद को अपनी-अपनी कल्पना के अनुसार परिभाषित कर, फ़िलवक्त के लिए प्रासंगिक विकसित समाजवाद के रूप में पेश करते रहते हैं। 
   इस प्रचलित धारणा, कि कम्युनिस्ट पार्टी ग़रीबों की पार्टी होती है, का अनुकरण कर भागो भी कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गयी, बिना यह जाने-समझे कि बिना क्रांतिकारी सिद्धांत के कोई भी क्रांतिकारी पार्टी नहीं हो सकती है। लेनिन ने आगाह किया था कि ' जो कोई भी संसदवाद तथा बुर्जुआ प्रजातंत्र के अनिवार्य आंतरिक अंतर्विरोधों, जिनके चलते मतभेदों के समाधान पहले के मुक़ाबले कहीं अधिक व्यापक हिंसा के कारण और अधिक उग्र होते हैं, को नहीं समझता है, वह व्यापक मजदूरवर्ग को ऐसे फ़ैसलों में विजयी अभियान के लिए तैयार करने के मक़सद से संसदवाद के आधार पर कभी भी उसूल सम्मत प्रचार तथा आंदोलन नहीं चला सकता है।' और पिछले नब्बे साल के इतिहास में हर निर्णायक अवसर पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियों द्वारा लिए गये ग़लत फ़ैसले और व्यापक मजदूरवर्ग को विजयी अभियान के लिए तैयार करने में उनकी असफलता, इस बात की तसदीक़ करते हैं कि भारतीय कम्युनिस्टों के बीच उस सिद्धांत की समझ नदारद है, जिस सिद्धांत के बारे में मार्क्स ने कहा था कि 'सिद्धांत जनता के मन में घर कर लेने पर भौतिक शक्ति में परिवर्तित हो जाता है और जनता के मन में घर वह तब करता है जब वह पूर्वाग्रहों को बेनक़ाब करता है।' 
   मौजूदा विखंडित कम्युनिस्ट पार्टियों के रूप में संशोधनवाद अपनी अंतिम सांसें गिन रहा है और उनके अवसान में निहित है भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन का प्रस्थान बिंदु। 

सुरेश श्रीवास्तव 
22 जून 2015
marx-darshan.blogspot.in

पाखण्ड पार्टी

पाखण्ड पार्टी?
(भारतवर्ष का सनातन अधिकार)
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इसमें कोई शक़ नहीं कि "हम भारत के लोगों" को भारतीय दार्शनिक दिशा नहीं दे सके । कि धर्म का क्या रहना क्या फेंका जाना है?और godless spirituality भी कोई चीज है । धर्म सम्प्रदाय विहीन जीवन भी सम्भव है?  लेकिन यह पाखण्डी धर्मगुरुओं के वश की बात न थी, न है । इसका प्रणयन मार्क्सवाद के अनुसार ही सम्भव है । लेकिन मार्क्सवादी तो पहला काम यह करते हैं कि देश से बाहर चले जाते हैं । और यह भी नहीं कि क्यूबा से चेग्वेरा बनकर आते, पता नहीं कहाँ की बहस में फँस समय नष्ट करते हैं ।
अन्यथा बिल्कुल समीचीन था, यह उनकी तार्किक बौद्धिक क्षमता में थी कि वह Historical Materialism ऐतिहासिक भौतिकवाद की तरह Historical Spiritualism, ऐतिहासिक अध्यात्मवाद / प्रतिपादित करते । 
ज़मीनी स्थिति यह है कि नास्तिक भी कर्तव्य च्युत हैं, वामपंथ तो नास्तिकता के प्रथम step को भी ज़रूरी नहीं मानता, तो क्या खाक़ कुछ सोचेगा ? इनपर शोध करने के बजाय धर्म और अध्यात्म से ऐसा मुँह चिढ़ाते हैं मानो यह मनुष्य के विषय ही न हों, जब कि सबके सब धर्म योग में खूब संलिप्त, मुब्तिला हैं । (पाखण्ड करते भारती?)
अब तो बड़ी मुश्किल स्थिति है । मैं अपने को isolated और अकेला पाता हूँ। कोई नया चिंतन आ ही नहीं रहा। कोई सुनता ही नहीं, और मैं यह मान ही नहीं सकता कि मैं सम्पूर्णतः गलत हूँ। तो उस पर विचार तो होना चाहिए। मैं कहता हूँ धर्म को वैज्ञानिक बनाओ तो भाई कहते हैं धर्म अलग है, विज्ञान अपनी सीमा में रहे । तो यदि कहूँ राजनीति को वैज्ञानिक बनाओ तो भी कौन सुनेगा? इसी वाहियात राजनीति में सबको मज़ा जो आ रहा है। यह तो तब जब वैज्ञानिक समाजवाद जैसी विचारधारा उपलब्ध है और राजनीति को विश्वविद्यालयों में राजनीति विज्ञान के रूप में ही पढ़ाया जाता है ( उसमें विज्ञान कहाँ है?)!
तो ठीक है भाई, व्यक्ति अलग, समाज अलग, राज अलग, धर्म अलग, अध्यात्म अलग, सोच अलग कर्म अलग ही जिया जाय ! यही तो "पाखण्ड पार्टी" है !☺️ Join it friends !💐(छुद्रनाथ)

मंगलवार, 16 जून 2020

विज्ञान धर्म की स्थापना

Rakesh Mishra Kumar To Ugranath
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वैज्ञानिकता को बिलकुल धर्म कह सकते हैं ।भारत में तो ज़रूर कह सकते हैं ।इसे संप्रदाय ,पंथ ,
मसलक नहीं कह सकते क्योंकि कि वैज्ञानिकता ,धर्मों की तरह बाँटी नहीं जा सकती ।
भारत में धर्म के पहले ही अनेक अर्थ हैं ।मनु के मुताबिक़ अहिंसा ,सत्य ,अस्तेय ,शौच ,इन्द्रिय निग्रह धर्म के 10 लक्षण हैं ।महाभारत के अनुसार जो भी धारण करने योग्य है ,वह धर्म है ।धर्म शब्द का अर्थ स्वभाव भी होता है ।वैज्ञानिकता तो मनुष्य का स्वभाव है ,इसलिए धर्म है ।अंग्रेज़ी में ईश्वर और उसकी प्रेषित किताब की लिखत को religion कहा गया 
मगर इसका एक शब्द कोशीय अर्थ किसी धारणा ,नियम सिद्धान्त के लिए दृढ़ विश्वास भी है ।अगर कहें कि humanism is my religion या कि patriotism is my religion तो मैं नहीं समझता कि इसमें कोई व्याकरणिक गलती है ।
बुद्ध का धम्म किसी देवी -देवता में विश्वास और इबादत से कोई ताल्लुक़ नहीं रखता अपितु मानवीय आचार का बयान है ।
इसलिए मैं आपका समर्थन करता हूँ ।वैज्ञानिकता ही हमारा धर्म है जिसे हम प्रचारात्मक धर्मों के मुक़ाबले ज़्यादा जोश ओ जुनून के साथ फैलाएँगे भी ।

गुरुवार, 11 जून 2020

Religiosity

मैं एक बड़ा काम करना चाहता हूँ । बड़ा काम कहने के लिए कह रहा हूँ, विनम्रतावश, वरना कवि के लिए किसी चाँद तारे की दूरी कुछ ख़ास नहीं होती ।
बात यह थी कि मैं Spirituality और Religiosity को धर्म के हाथ से छीनकर Science के हाथ में देना चाहता हूँ । क्योंकि यह सब काम धर्म के वश का नहीं है । विज्ञान ही है जो इनका सही उपयोग कर सकता है । करता ही है, करता ही रहा है । सच्चे आध्यात्मिक और धार्मिक तो वैज्ञनिक ही हैं, जो सृष्टि, सृजन की चरणों में बैठकर उसे भलीभाँति समझना चाहते हैं । सृजनकर्ता की सच्ची पूजा आराधना तो विज्ञान करता है । धर्म अनावश्यक इसमें टाँग अड़ाकर छिछली कल्पनाओं के बल पर बड़ा भारी spiritual और religious होने का खिताब अपने माथे पर धरने की धृष्टता करता रहा । अब उसकी यह हिमाक़त चलने न पाएगी । वह यह मान ले कि आदमी को मूर्ख बनाने का उनका धंधा है धर्म, और धंधे तक ही सीमित रहें । ज्ञान विज्ञान पर उनका दावा निरर्थक और अनावश्यक है, वह माना न जायगा । व्यक्ति चाहे तो कोई धार्मिक आस्था व्यक्तिगत सीमा तक रखे, इसका अधिकार secularism और democracy की राजनीतिक व्यवस्था उसे देती है । लेकिन उसके आगे वह न बढ़े । बढ़ेगा तो लताड़ा, अपमानित और सम्भवतः किसी समय राज्य द्वारा दंडित भी किया जा सकता है । धार्मिक भावना को ठेस लगना तो साधारण बात है, जिसे हम संज्ञान में ही नहीं लेते ।
यह भी नहीं चलेगा कि इन दोनों महान मानुषिक क्षेत्रों का दोनो ही इस्तेमाल करें, दोनो अपना कब्ज़ा रखें । इससे भ्रम होगा कि कोई ज्ञान वैज्ञानिक है या धर्मिक । इसलिए मैं इन विषयों पर विज्ञान के एकाधिकार देना चाहता हूँ ।
अर्थात कोई वैज्ञानिक ही आध्यात्मिक और धार्मिक चेतना युक्त हो सकता है, कोई पोप पुजारी नहीं । धार्मिकों को तो निकृष्टजन समझा जाए, जैसा कि वह हैं । और एक उदाहरण के लिए मार्क्स को मैं महान धार्मिक आध्यात्मिक व्यक्ति की संज्ञा देना चाहता हूँ ।
तो यह काम मैंने किया religious, spiritual. (☺️हास्य का इमोजी लगा दूँ जिससे कोई बुरा न माने😊)
और आपको क्या काम करना है? वह यह कि जब कोई बाबा टाइप आदमी जोकर जैसे कपड़े पहने (ऐसे बहुत मिलेंगे आपको) दावा करे कि वह बड़ा धार्मिक और आध्यात्मिक शक्ति वाला है, तो ज़रा उस पर ठठाकर हँस दें, उसकी जोरदार खिल्ली उड़ा दें । ध्यान दीजियेगा, कोई वैज्ञानिक अपने बारे में ऐसा कुछ नहीं कहेगा । वह तो प्रकृति का विनम्र सेवक है । आपको बिना उसके बताए उसको आदर प्रदान करना है । 
#हैशा (उग्रनाथ नागरिक)
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PS- टैग करना/ किया जाना मुझे अच्छा नहीं लगता । तो ध्यानाकर्षण हेतु कुछ मित्र चिंतकों को mention भर कर रहा हूँ । Gauhar Raza, Vir Narain, Surendra Ajnat,  Hirday Nath, Narendra Tomar, Rakesh Mishra Kumar, Vijay Kumar, Abhishek Wasnik, Dilpawan Tirkey, Azad Rao, Nitin Gaur, Chandan Singh एवं साथी।
जो मित्र इस group में न होंगे वह comment न कर सकेंगे, इस के समाधान हेतु इसे अपने Timeline पर भी share कर रहा हूँ जहाँ वह कमेंट कर सकेंगे । सादर स्वागत है।💐

बुधवार, 27 मई 2020

जीवन प्रपत्र

अलबत्ता मेरे प्रगतिशील, बुद्धिवादी लोग मुझसे नाराज़ हो जाते हैं, लेकिन मैं अपनी बात कहने से तो बाज़ आऊँगा नही । 
बात यह है कि हमें जीवन के किसी भी क्षेत्र Column को खाली नहीं छोड़ना चाहिए, भले उसमें Nota या N/A, not applicable ही लिखें , लेकिन कुछ दर्ज ज़रूर करें जितनी बुद्धि कहे, जानकारी हो । ऐसा नहीं करेंगे तो  हमारे जीवन का प्रपत्र, Form या Progress Report अधूरा रह जायेगा जो  प्रकृति को acceptible, मान्य न होगा । आप फेल हो जायेंगे।
अब वह क्षेत्र चाहे अपने नाम, पिता का नाम, निवासी, राष्ट्रीयता का हो या फिर आगे जाति धर्म संस्कृति,सम्प्रदाय, राजनीतिक विचारधारा का हो, और इनसे जुड़े तमाम प्रश्न ! अतिरिक्त भी कोई क्षेत्र सड़क बाग जंगल की झाड़ियों से निकाल पकड़कर उस पर अपनी बौद्धिक टाँग लगा देनी चाहिए, जो उचित लगे ।
यदि ऐसा न किया गया, और आपने कोई Field छोड़ दिया, तो उस पर काला कौआ, पैने चोंच वाले गिद्ध, नहीं तो छिपकली, चमगादड़, साँप बिच्छू कॉकरोच ही । और तब आप इनके वहाँ होने का परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहिएगा । राजनीति ही नहीं, विज्ञान, अध्यात्म, धर्म देश सबके साथ यही हो रहा है क्योंकि हमने उन्हें उनके भरोसे छोड़ रखा है । अध्यात्म पाखण्ड है, धर्म की क्या ज़रूरत ? जाति कहाँ बची है , और फिर यह भी कि हम तो राजनीति से दूर हैं, बड़ी गंदी जगह है, दूर ही रहेंगे ।

बहरहाल आप विशिष्ट हों तो हों, यह सामान्य मनुष्य की संचेतना है ।👍
(उग्रनाथ)

सोमवार, 18 मई 2020

सड़क पर शूद्र

ये जो सड़क पर आ रहे हैं, सारे के सारे शूद्र हैं, भले उनमें कुछ जन्मना कथित ब्राह्मण जाति के हों । लेकिन जो कमाकर खाता है वह शूद्र है । ब्राह्मण तो बैठे ठाले दूसरे के श्रम पर खाता है । 
दूसरी ओर सत्त्ता पर ब्राह्मण शोषक विराजमान है । सत्ता सदैव ब्राह्मण कही जायगी क्योंकि वह शोषक है और सम्प्रति तो अत्याचारी भी । 
तो बंटवारा ब्राह्मण और शूद्र के बीच है । कब तक हम ब्राह्मण को पूँजीवादी, सामंतवादी, बुर्ज़ुआ, फासिस्ट आदि तमाम नामों से नवाज़ते और जनता को अस्पष्टतः भ्रमित करते रहेंगे, जबकि वह ब्राह्मण शब्द को समूल आसानी से समझ और आत्मसात कर लेता है ? जनता के बीच जनता की भाषा के साथ नहीं जाना क्या हमें कम्युनिस्टों की तरह ?
दूसरी ओर कम्युनिस्टों की तरह ही हम कब तक इंतजार करेंगे कि ये सड़क के लोग वर्गचेतना से लैस हों, मार्क्सवाद में प्रवीण हों तब हम क्रांति करेंगे ? अथवा हम कब तक इनसे इंतज़ार करेंगे कि ये अम्बेडकरवादी बनें और जय भीम का नाद करें ? अथवा ये बौद्ध धम्म ग्रहण करें , नमो बुद्धाय का उद्घोष करें तब दलित राजनीति सफल हो ? नहीं, दलित सवर्ण कुछ नहीं । ये दोनो ही जन्मना पहचानें हैं, जो सही नहीं है और हम जाति धर्म विरोधियों को स्वीकार भी नहीं होना चाहिए । विभाजन केवल ब्राह्मण (शोषक) और शूद्र (शोषित) में है, वह भी देसी शब्दावली में । गौर करें तो इस विचार में मार्क्सवाद और अंबेडकर वाद सम्मानजनक रूप में समाहित है, कहीं कोई खोट या कमी नहीं, यदि कोई वादी अपने वाद को जड़ता से पकड़े बैठा न हो ? 
तो सारे श्रमिक शूद्र हैं और सारी सत्ता ब्राह्मण । द्वंद्व केवल इन दोनों के बीच होना चाहिए, न कि जाति धर्म सम्प्रदाय के नाम पर ।
(श्रावस्ती सम्यक/suggestion)

चकमक

चकमक पत्थर रगड़ते रगड़ते आख़िर तो चिंगारी निकली । धीरे धीरे आग फैलाता रहूँगा ।
श्रावस्ती सम्यक(suggestion)
For - शूद्र सरकार

दडाकू

मारकर सामान लूटने वालों को भारत की भाषा में डाकू कहते हैं, जिसे साधारणतः नागरिकऔर जनता पसन्द नहीं करती । हम लूटी हुई वस्तुओं का उपयोग करना उचित नहीं समझते ।।इसके विपरीत हम अपनी जनता जनार्दन मालिक से उसकी सहमति से सत्ता का काम अपने सिर लेंगे और जैसा सदियों से समाज की सेवा करते रहे उसी प्रकार राज्य पर बैठकर सेवा करेंगे । 👍
- - शूद्र सरकार via श्रावस्ती सम्यक (suggestion)

शनिवार, 16 मई 2020

मेरे मित्र

मेरे लिए खुशी की बात है कि मेरी मित्र सूची में तमाम प्रबुद्ध लोग हैं । तमाम क्या, सब के सब।👍😊

लेकिन स्थानीय स्तर पर जो प्रबुद्ध जन हैं वह मेरे बारे में शायद यह जान गए हैं कि यह पागल वाहियात आदमी है और फिज़ूल का विचार नाटक, कदमताल क्रांति और दिमाग़ी खुराफ़ात किया करता है । 😢 इसलिए अब कोई मित्र, विशेषकर युवा मेरी तरफ़ झाँकने नहीं आते । आने को क्या फोन तक नहीं करते 😢। बस बूढ़े मित्र ज़रूर कभी हाल चाल पूछ लेते हैं । सबका शुक्रिया !💐
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- -  उग्रनाथ, (श्रावस्ती तीर्थ यात्रा में) @ शूद्र सरकार

अकेला

मैं भी बिल्कुल बिजूका हूँ । अजीब आदमी । मैं Individualism का समर्थक हूँ , व्यक्तिजन वाद, एकलव्य वाद का । जिसकी पहली शर्त है व्यक्ति, personal से मुक्त हो जाना । है न उल्टी बात ? तो इसे लोग कैसे समझ पाएँ? कह दूँ यह आध्यात्मिक अवस्था है तो गाली पाऊँ क्योंकि अध्यात्म को super natural शक्ति स जोड़ा जाता है और साधु संतों के कर्मों से यह बदनाम है । जब कि मेरा अंतर्मन inner sense इसी दुनिया, इसी शरीर और मन में व्याप्त है ।
कह दूँ प्रज्ञा वान होना व्यक्तिजनवाद है, तो भाई कहते हैं तुम तो गीता के शब्द बोलने लगे । कैसे धोखेबाज हो तुम भाई? तब भी कहता हूँ व्यक्तिगत स्वार्थ से परे, लाभ हानि जीवन मरण की चिंता से मुक्त होना वैयक्तिक इयत्ता को प्राप्त होना है । मैं वही एकलव्य हूँ । अकेला ही आया, पैदा हुआ, अकेला ही जाऊँगा , मतलब मरूँगा । बाकी ज़िंदगी तो इसी एकल आदमी की दुनियादारी है ।

बुधवार, 6 मई 2020

फेंको पाश , कविता

(विशुद्ध कविता -)
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फेंको पाश, 
फेंकते रहो रस्सियाँ
मेरे ऊपर मेरे आसपास
फेंको पाश !

बाँधो मुझे बाँध सको तो
देखो मैं बंधता हूँ या नहीं
तुम्हारे किसी जाल में 
फँसता हूँ या नहीं 

सम्भव है मैं फँस जाऊँ
बँध जाऊँ किनारे किसी डोर से
हिम्मत न हारो 
फेंको पाश, फेंकते रहो बंधन 

फिर भी मैं नहीं फँसूं
जिसकी पूरी संभावना है
अगर मैं नहीं बंधूँ
होना तो यही है
तो बन्द कर देना फेंकना पाश
उलीचना रस्सियाँ, और 
चले आना मेरे पास 
मैं बँध जाऊँगा

मत फेंको पाश !
- - - - उग्रनाथ

शुक्रवार, 1 मई 2020

इतिहास

मैं जो इतिहास से एक लाख प्रकाश वर्ष दूर रहता हूँ, उससे मैं बुद्धिमान / विद्वानों की गोष्ठियों में अपमानित और त्याज्य तो अवश्य हो जाता हूँ । लेकिन लाभ यह हो जाता है कि तमाम गयी गुज़री सूचनाओं से बच जाता हूँ ।  मेरा स्वास्थ्य ठीक रहता है ।

Blasphemy

लेकिन धर्म समस्या तो तब बनते हैं जब वह दूसरे धर्मों के प्रति किसी अवधारणा को धारण कर लेते हैं । ( यही इनका मूलाधार ही है। सारे धर्म अपने से पहले के धर्म की Blasphemy पर बने हैं )।
इस्लाम तो खूब बदनाम हुआ काफिरों के प्रति अपने दृष्टिकोण और सम्भवतः कार्यवाहियों के लिए ।
हिन्दू सदियों से चुप रहा , लेकिन अब तो यह भी मुसलमानों के प्रति द्रोही और घृणित अवधारणा और आचरण के लिए विश्वविख्यात हो रहा है ।
अब इसके बाद तो राजनीति का क्षेत्र आ जाता है ।

मई दिवस

कृष्ण कुमार !
अवश्य बन्धु! मैं आपसे एक निजी हलचल शेयर करना चाहता हूँ । मूर्ति बनाने में हर्ज़ क्या है? यह तो मनुष्य की रूहानी, स्वाभाविक फितरत है । बच्चे भी गुड्डा गुड़िया, बालू के घर बनाते हैं । हम निश्चय ही बड़े उग्र थे कि मूर्तिपूजा क्यों हो रही है ? बल्कि मैं तो कभी इस्लाम का प्रशंसक हुआ कि यह इसकी मुखालिफत में खड़ा हुआ। लेकिन देखिए तो यह भी इसका खूब शिकार हुआ । क्या मस्जिद अपने आप में मूर्ति नहीं?और अल्लाह की लिपि की फ़ोटो?और हार्डबाउंड कागज़ की किताब? ये हज़रत की एक बाल पर मरे जा रहे हैं, और किसी मज़ार के टूटने पर हताहत ?
तो अनुभव यही है कि इससे वंचित कोई नहीं । फिर भारत ही दोषी क्यों ? मैं तो सीधे ईश्वर से पूछता हूँ - उसने हमें मनुष्य के रूप में मूर्तिमान क्यों किया ? हमें कोरोना की तरह सूक्ष्म, अदृश्य रहने देता 😢 । लेकिन नहीं, हमारा तो बिजूका खड़ा कर दिया और खुद के लिए कहता है मेरी मूर्ति मत बनाओ ? सरासर गलत बात । हम कैसे मान सकते थे । सो मंदिर मस्जिद के नाम पर प्रेमपूर्वक रहने लगे !☺️
और एक महीन बात (आप वैचारिक घनिष्ठ हो, इसलिये)! इस्लाम से मैं पक्का सहमत हूँ । इसलिए मूर्ति तो बने लेकिन उसे मूर्ति ही मानें, ईश्वर नहीं । न मस्जिद को अल्लाह का घर । यह तो मेरी दृष्टि में अल्लाह का अपमान है । मूर्तिपूजा का विरोध लौकिक व्यवहार में इस तरह मान्य और उपयोगी है कि हम व्यक्तिपूजा से बचें । व्यक्तिगत आदर और उसके विचार का सम्मान दीगर बात है । लेकिन यदि मार्क्स लेनिन, राम कृष्ण , गौतम बुद्ध, शंकराचार्य, पीएम सीएम राष्ट्रपति महोदय आते हैं तो बराबर से बैठें, पकोड़े खाएँ चाय पियें । हम उनसे आक्रांत, झुक झुक क्यों जाएँ ? वह भी मूर्ति, हम भी मूर्ति । सभी मूर्तियों का सम्मान हो फिर ? मजदूर भी हमारी सम्मानित मूर्तियाँ हैं । 👍💐
(यह तो अच्छा खासा मई दिवस का लेख हो गया । ☺️हास्य हा 😊)
उग्रनाथ, श्रावस्ती बौद्ध/ कर्मनिष्ठ पार्टी

श्रावस्ती

जैसे मुसलमानों में रोहिंग्या हो गए, वैसे बौद्धों में हम श्रावस्ती हो गए । कोई समस्या ? Any problem ?

धर्मो रक्षति

मेरी भाषा भी धर्मो रक्षति रक्षितः जैसी हो रही है । मैं भी कह रहा हूँ  धर्म है तो तुम भी हो । आलोचना कुछ भी करो । वही आलोच्य धर्म आपकी पहचान भी है । या कोई दूसरी पहचान ग्रहण करो । फिर उसकी प्रंशसा आलोचना करो । यह खामख्याली और बचकाना उत्तेजना भर है, अव्यवहारिक - कि मेरा कोई धर्म नहीं । हो सकता है, लेकिन सामने वाला तुम्हारी पैदाइश से तुम्हारा धर्म जाति और राष्ट्रीयता पहचानता है । वह तुम्हें तुम्हारे नाम , चेहरे से पहचान लेगा। क्या कर लोगे? और जब वह आपको उसी तरह पुकारेगा-.ओ काले हिंदुस्तानी! ओ कमीने हिन्दू! ओ कटुए! तो आपको बोलना पड़ेगा । यथार्थ से मुँह चुराने से कोई लाभ नहीं । गर्व, घमंड न करो , न हवा में उड़ो। जहाँ हो उसमें द्वंद्व पूर्वक रहो, अपना निजी स्थान बनाओ । पहचानें सामूहिक विवशताएँ हैं। तुम्हारी क्रांतिकारिता से कोई लाभ नहीं हो रहा है । उल्टे क्रांति को नुकसान हो रहा है । जिसकी ज़मीन पक्की होनी चाहिए। पदार्थवादी ।

गुरुवार, 30 अप्रैल 2020

डायरी 30 अप्रेल 20

विनम्र निवेदन by उग्रनाथ नागरिक /30-4-20/ 6 pm
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1 - मेरी एक कविता याद आ गयी:-
" जब मन कह दे 
मन को विनय नमन करने दो,
पूजा को लेकिन,
दिनचर्या मत बनने दो !"
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2a - किसी यात्रा में
रुकना न चाहिए
सुस्ता भले लें।
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2b - सच बोलना
जहाँ तक हो पाये,
अच्छा लगता ।
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3 - एक सवाल कल से परेशान किये है :-
क्या विज्ञान के भरोसे जीवन जिया जा सकता है ?😢
आख़िर तो आदमी को, मानव सभ्यता को जीना उसकी मान्यताओं में है ?😘
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4 - मेरा ख्याल है, मनुष्य को अपनी मूर्खता भी जीने का अधिकार होना चाहिए !👌
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5 - मैं भी मामूली आदमी था । सोचने के नाते विशिष्ट हुआ । और इतना विशिष्ट सोचा, कि सब कुछ छोड़-छाड़ कर बेहद मामूली हो गया ।
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6 - क्या कोई मित्र बता सकते हैं कि डॉ आंबेडकर ने बौद्ध धर्म की किस शाखा में दीक्षित हुए थे ? हीनयान, महायान, वज्रयान आदि । बहरहाल हमने उनके लिए "श्रावस्ती बौद्ध" शाखा तजवीज़ की है - बौद्ध की आधुनिकतम ज्ञानी, वैज्ञानिक, प्रगतिशील शाखा, जिसमें दलित पूर्ण सम्मानित हैं । श्रावस्ती उत्तर प्रदेश की वह बौद्ध तीर्थस्थली है बौद्ध परिपथ से जुड़ी, जहाँ बुद्ध ने बीस (या 25?) वर्षावास व्यतीत किये । सहेट महेट, अंगुलिमाल की गुफा यहाँ है । और दुनिया के बौद्ध देशों चीन जापान कोरिया आदि के भव्य स्तूप और विश्राम गृह अवस्थित हैं ।
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7 - Mental Distancing / Distancing with Faith varieties.
इसके बारे में तो किसी ने ध्यान ही न दिलाया, पूरे कोरोना काल में । आज फेसबुक पर हिन्दू मुस्लिम मित्रों को उलझते देखा तब ख़्याल आया । और याद आया रूसो वाल्टेयर का प्रसिद्ध संवाद - I do not agree with you, but I can laydown my life for your right to say.
क्या आप समझते हैं हिन्दू होशियार नहीं होते ? देख लीजिए उनके वैज्ञानिकता के दावे ! सर्व ज्ञान गुण सम्पन्न ! आइंस्टीन, न्यूटन सारे विदेशी गणितज्ञ, सर्जन, चिकित्सक इन्हीं के वेद प्रमाण को पुष्ट करते हैं । 
यही हाल इस्लाम का होगा, यदि उनसे पूछें तो !
तो भैये आप लोग अपने ज्ञान विज्ञान में खुश और मस्त रहिये । कल से हम भी अपने ज्ञान की ऐसे ही भूरि प्रशंसा करेंगे । लेकिन ज़रा दूर रहिये, आपस में भी और हमसे भी। जिससे सबका ज्ञान स्वस्थ सुरक्षित रहे । उस पर आपसी ईर्ष्या घृणा और विवाद का कोरोना हानि न पहुँचा सके । यह विचार मेरा पहले से था, इस वायरस ने आसान कर दिया । वह गंगा जमुना मेरी समझ में कभी न आया । तो गंगा अलग बहे जमुना अलग बहाओ । हम तो सरस्वती हैं , अदृश्य । कहीं नहीं दिखते ।☺️
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अंतिम- मैं चाहता हूँ दिन भर diary लिखता रहूँ । फिर शाम को इकट्ठा post करूँ । हर बिंदु के बाद उसे पोस्ट करना पड़ना पड़ता है और मित्र उसे पढ़ लेते हैं । save as draft करता हूँ, तो वह draft फिर ढूँढे नहीं मिलता । search करना पड़ता है । क्या कोई मित्र सलाह दे सकता है ?
-- बौद्ध श्रावस्ती

मंगलवार, 28 अप्रैल 2020

बौद्ध

नमो बुद्धाय ! चाहे इसे धार्मिक अभिवादन के रूप में लें, बरक्स जयश्रीराम☺️, अथवा बुद्धिवाद, rational, scientific temper के रूप में । यह हथियार काम आता है/ आ सकता है । बिना हथियार (धर्म) हथियारों (धर्मों) से नहीं लड़ सकते, भले वह नाम, प्रतीक मात्र हो , व्यक्ति समाज का पहचान भर हो । कभी कभी पतली सी लकड़ी संटी भी कुत्तों को भगाने के लिए ज़रूरी होती है । मैं तो हिन्दू हूँ, इसे त्याग कर भी । तो क्या बताऊँ परिचय आपको । Atheist rational, बुद्धिमान हूँ तो बौद्ध मुझे सटीक denote करता है । यही कहता/ कहना चाहता हूँ । कोई ज़रूरी नहीं औपचारिक धर्म परिवर्तन । उसमें दिल कहाँ बदलता है । कोई ज़रूरी नहीं भंते मुझे उपदेश दें । और भारतीय रणनीति - बौद्ध अब प्रकटतः दलित, शोषित निम्न वर्ग का धर्म बन चुका है । क्या इसे राजकीय संरक्षण नहीं मिलना चाहिए? या हमारा समर्थन सहयोग ? क्या प्रबुद्ध जन भूल गए कि हिन्दू बौद्ध इस्लाम कोई भी धर्म धर्म के अतिरिक्त सघन राजनीति भी होते हैं ? तो बोलो साथी किस ओर हो तुम ? अमीरों के या वंचितों के ? यहीं, इसी से तुम्हारा नैतिक, आध्यात्मिक गुरुता का भी परीक्षण हो जायेगा । Yes, धर्म आध्यात्मिक आधार भी देते हैं, सिर्फ कर्मकांड और राजनीति ही नहीं । बुद्ध की विपस्सना एक secular सर्वधर्मिक, भेदभाव रहित उपासना है । भारत को ऐसे बुद्धवाद/, बुद्धिवादी मार्ग की ज़रूरत है ।
लेकिन यह सब उनके लिए है जिनमें कुछ कर्मणा है, जिन्हें कुछ करने की अभीप्सा, नैतिक अनुभूति है । जिन्हें कुछ नहीं करना उनसे क्या मतलब धर्म से, क्या मतलब राज्य से, क्या मतलब पीड़ित मानवता से ? धार्मिकता की छिछली समझ से बस रोली चंदन पोत घण्टा मजीरा बजाते रहें । 
- - उग्रनाथ श्रावस्तिक
(बुद्धवादी साम्यवादी संस्कृति)

शनिवार, 25 अप्रैल 2020

दलित एक्टिविस्ट

मैं मूलतः Dalit Activist हूँ ।
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अब आपको असली बात बताता हूँ ।
दरअसल नास्तिकता की मेरी Policy mature हो गयी है । बार बार मन की कम्पनी से नोटिस मिल रही थी । ADMI (Atheist Democratic Minority of India) Group में सदस्यों की संख्या डेढ़ लाख ? मज़ा आ गया । मोदी की भाषा में मेरा भी वक्ष 56 के करीब है । साथियों को हार्दिक बधाई!💐
पर कोरोना period में मुझे group से physical distancing करनी पड़ी । कोरन्टीन हेतु अपने मूल निवास में आ गया । मैं मूलतः दलित activist हूँ । उन्हीं की दशा और मानवता के अगाध प्रेमवश मैं पक्का, यहाँ तक कि कटु, cantankerous atheist हुआ । मेरा वह मुकाम पक्का हुआ । अब कोई भय नहीं कि मुझे कोई डिगा दे ।
तो Humanism, Radical Humanism के रास्ते, सैद्धांतिक राजनीति में रुचि के नाते खुद को सेक्युलरवाद के काम में संलग्न हो गया  । Secular Register (fb group) । इसमें एक राज्य की हैसियत से सबका ख़्याल रखना पड़ता है । ज़िम्मेदारी बढ़ जाती है (नास्तिकता में तो उग्रता, उद्दंडता चल जाती थी)!
लेकिन वह, Secularism तो राज्य का विषय है और उसकी बागडोर मेरे हाथ नहीं । तो अपने मूल कार्य क्षेत्र में खेती कर रहा हूँ । (संस्कृति चित्त भूमि की खेती है - - आचार्य नरेंद्र देव)।
और किसी भी मानववादी के कार्य तो जग विख्यात है - विवेकानंद दरिद्र नारायण का नाम बताते हैं, तो गांधी अपने चिंतन में अंतिम व्यक्ति का ध्यान करने को । बस यही मेरा ध्यान, अध्यात्म, मनोयोग है ।
अब बस दो एक बातें clear करनी हैं। बात क्या मनोयुद्ध का लेखा जोखा/ progress report अपने मालिक मित्रों के सामने ।
 सच, लगा तो यह रहा है कि जयभीम हमारा बहुत भला न कर पायेगा, व्यक्ति पूजा पर ठहर जाएगा । दलित आस्तिकता और अंधविश्वास से भी नहीं उबर रहे हैं, न समाजवाद की वैज्ञानिक धारा मार्क्सवाद में उनका नेतृत्व रुचि नहीं लेने दे रहा है, बल्कि उनसे द्वंद्व में है। भले मैं कम्युनिस्टों से झगड़ा कर रहा हूँ कि इन्हें सर्वहारा, prolitariat मानो , लेकिन उनकी भी वाजिब दिक्कत है और दलित वामपंथ के सुयोग्य नहीं बन रहे हैं । फिर भी हम इन्हें साथ तो देंगे ही । तो जयभीम को लालभीम बनाने की चेष्टा है। इन्हें हमारे वामपंथ की ओर लाना तो है । Communism is the only way । तो हमने भी इनके अम्बेडकरी बौद्ध धर्म में strategically आना स्वीकार किया । (कुछ मजबूरन, कुछ मसलहतन)। प्रेम बड़ा adjustment, नमनीयता माँगता है। इसी प्रकार हम इन्हें नास्तिकता और अनास्तिक नैतिकता से परिचित करा सकेंगे, इनके साथ रह, घुलमिलकर, ऐसी उम्मीद है । और साम्य, वाम राजनीति सीखने के लिए इस अदना एकलव्य ने एक मार्क्सवादी कल्पित शिक्षक भी Tuition पर लगा लिया है ☺️। दलितोयवस्की (fb group) ! जिससे शायद इनकी कम्युनिस्ट पार्टी बन सके, या वर्ग संघर्ष में शिरकत कर सकें। उसी में हमारा भी भला है । सोचा यही है , बाकी भूल चूक लेनी देनी ।☺️👍
अब बस । कक्षाएँ चल रही हैं online, जिसके हम आप सभी भागीदार, तालिबे-इल्म हैं (चीन जाना नहीं सम्भव)! ☺️ लालभीमबुद्धायसलाम ! 💐
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-- उग्रनाथ @ CCA, (Communist Culture in India)

बुधवार, 22 अप्रैल 2020

अम्बेडकर को माला

पुरखों की पूजा
यह पोस्ट लम्बा नहीं लिखूँगा लेकिन इस पर लम्बा ध्यान देने की ज़रूरत है । बड़ी व्यापक फेनोमेना है यह । कोई इस आडम्बर के पीछे नहीं झाँक रहा है । 
ठीक है कि पुरखे याद आते हैं और यदि वह महापुरुष हुए तो उनके प्रति आभारी, नतमस्तक होना कोई अपराध नहीं है । लेकिन जैसे ही हम आंबेडकर की मूर्ति पर माला चढ़ाते हैं, हम दुनिया को बता देते हैं कि हम दलित हैं । आख़िर अपने को दलित बताना हम क्यों चाहते हैं? अपनी पुरानी अवस्था को इंगित करने के लिए ? फिर तो हम दलित ही बने रहेंगे, तरक्की करके भले हम बादल पर चढ़े हुए हों । अरे बन्धु भूलना है हमें । पुरखों की पूजा करके तो वस्तुतः हम उनके सारे किये धरे पर पानी फेर देते हैं । फिर तो उनकी मूर्ति ही बचेगी और हम बचेंगे दलित के दलित ।
तुलना कर लीजिए । जब वह परशुराम जयंती मनाते हैं तो वह यही तो उद्घोषित करते हैं कि हम ब्राह्मण हैं ब्राह्मण रहेंगे? उन्हें ब्राह्मण होने का मौका देने में आपका भी हाथ है । बाद में उन्हें गाली देना तो बस ढोंग मात्र है आपका ।
क्षमा न कीजिये, मैं क्षमा वमा नहीं माँगता ।
(उग्रता @CCI, Communist Culture in India/ भारत में कम्युनिस्ट संस्कृति)

आय वर्ग

जात पात कुछ नहीं है । कोई अपनी जाति लेकर हरवक्त उसे चाटता नहीं है । फिर, जो रोग सर्वत्र, सबकी खोपड़ी में व्याप्त हो, वह महत्वहीन हो जाती है । सार्वजनिक होकर अपना महत्व खो देती है । "अरे यह किसी न किसी जाति का होगा ही", यह ज्ञान और भावना जातिवाद का असर समाप्त कर देती है । हाँ, जातिवादी लोग इसका कभी कोई खास इस्तेमाल करने के लिए अपनी जेब से निकाल लेते हैं । जैसे वोट फोट माँगते समय ।
वरना सच बात तो यह है, ज़मीनी हक़ीक़त यह है कि आदमी अपने आय वर्ग से पहचाना है । खानसामा को पंडितजी कहकर बुला भले लें, उसकी इज़्ज़त उतनी ही है जितनी घर में झाड़ू पोंछा करने वाले की ।
सत्य से मुँह न मोड़ो, न हवा में रहो । फ़र्क़ कम ज़्यादा आमदनी वाले के बीच है । आप चाहे कम्युनिस्ट बनो या बनो, आप जानो , लेकिन बराबरी के लिए संघर्ष का और कोई रास्ता नहीं हॉ ।
- - उग्रता @ श्रावस्ती

सोमवार, 20 अप्रैल 2020

हाथ में हाथ

धार्मिकों की जब आलोचना करो तो वह अपने धर्म पर और दृढ़ आरूढ़ हो जाते हैं । खूंटा कसकर पकड़ लेते हैं । उन्हें छेड़ो नहीं तो वह हाथ ढीले रखते हैं ।
इसलिए मैं उन्हें छेड़ता नहीं । जब उनके हाथ ढीले होते हैं, उन हाथों को अपने हाथ में ले लेता हूँ ।

कॉकरोच

कल आपको हमने अपने धर्म के बारे में बताया । पाखण्ड नाम है हमारे धर्म का । संस्कारों, त्योहारों की नौटंकी । 😢
तदन्तर अपने भगवान को ढूंढने में लग गया । आखिर कौन है मेरा ईश्वर ? तब तो जिन ढूंढा तिन पाइयाँ ।
आख़िर मिल ही गया मुझे मेरे ईश्वर । हिट spray छिड़ककर आखिरी कॉकरोच को घर से भगाया । तो पकड़ में आ गया । कॉकरोच है मेरे ईश्वर का नाम । ये दोनों मेरे घर में नहीं रहने पाते ।

मंगलवार, 14 अप्रैल 2020

मेरा क्या

मेरे विचार यदि किसी अन्य, या किन्हीं दूसरों के विचार नहीं बनते तो वह बेकार हैं । हथेली पर लेकर मुझे चाटना थोड़े ही है !😢

मुराद

Democracy, और democracy के साथ साथ साम्यवाद, communism का कैसे तालमेल बिठाऊँ, यह मेरे लिए बहुत बड़ा उलझन का कारण रहा ।
कल युवा मित्र Gaurav Pratap Singh ने अंबेडकर का विचार उद्धृत कर बहुत कुछ/ क्या पूरा रास्ता साफ किया । उनका आभार, अंबेडकर जी के प्रति अनुग्रहीत ।
लोकतंत्र, democracy के आधार मूल्य समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व (बुद्ध के term में मैत्री) को भारतीय भावभूमि में मैंने केवल "मुहब्बत" के शाश्वत गुण से जोड़ एक कार्यस्थल चुना ।:-
"मुराद" : मुहब्बत राजनीतिक दल

कहने की आज़ादी

कुछ कहने की (अभिव्यक्ति की) आज़ादी का तभी कोई मतलब होगा जब अभिव्यक्ति (कथन) को सुना भी जाय ।
यहाँ तो हाल यह है कि क्यों सुनें? इसे तो गीता रामायण ने कहा, इसे तो बुद्ध चार्वाक ने कहा, इसे तो गांधी अंबेडकर ने कहा, मार्क्स लेनिन ने कहा, जीसस मोहम्मद ने कहा ।
फिर कोई मेरी तुम्हारी बात क्यों सुने? Freedom of thought and expression का क्या अचार डालेंगे ? वह आपको क्यों मिले ?

सोमवार, 13 अप्रैल 2020

आह, अफीम

आज एक राजनीतिक पोस्ट पर विचार करते समय मार्क्स की संदेशना का सूत्र समझ में आया (उनका आशय कुछ भी रहा हो)! कि उन्होंने क्यों धर्म को पीड़ितों की आह कहा ?
मैं अभी मानकर चल रहा हूँ कि राजनीति मनुष्य की मौलिक आवश्यकता है - व्यक्ति समूहों की व्यवस्था के काम और जीवनोपयोगी वस्तुओं, संसाधनऔर सुविधाओं के वितरण, नियमन और संचालन के लिए ।
यहाँ तक तो ठीक, लेकिन समूहों का आकार बढ़ने के साथ अपने ही राज्य (शासक सामंत कुछ भी कह लें) पर भुक्तभोगियों की पकड़ समाप्त (नहीं तो कम) होती गयी । मनुष्य सत्ता के सामने लाचार हो गया ।
तब उसने धर्म की ईजाद की जिसका सदस्य वह सत्ता से अलग रहकर भी हो सकता था । और कसरत, गाने बजाने, चीखने चिल्लाने में मस्त रह सकता था ।
राजनीतिक सत्ता में अपना माकूल स्थान न पाकर वह आह, आह कह बैठा। इसीलिए मार्क्स ने "धर्म" को पीड़ित मनुष्यता की "आह" बताना उचित समझा।
और इसी धर्म को अफीम कहना पड़ा, जिसके प्रभाव में मनुष्य हवास खोकर भूल जाता है कि उसका असली काम,कर्तव्य तो राज्य/व्यवस्था को वैज्ञानिक तरीके से चलाना/चलवाना है ।
(उग्र नागरिक, Radical Humanist)

कोरोना मंदिर

देखिये, क्रोनोलॉजी पकड़िये । बहुत पहले कभी एक निर्जीव वायरस ने मनुष्य के मस्तिष्क पर हमला किया था । तो मनुष्य ने उस अदृश्य अज्ञात को ईश्वर बताकर मंदिर में बैठा दिया । पूजा पाठ आराधना संकीर्त्तन में संलग्न मनुष्य को अब महसूस ही नहीं होता कि यह वही संहारक प्रलयंकारी वायरस है, जिससे संक्रमित होकर अब यह अभ्यस्त, conditioned हो गया है । 👍right?
उसी प्रकार इस नए निर्जीव, अदृश्य महाविनाशक किरोना के समक्ष नतमस्तक होकर इसका मंदिर बना देना चाहिए जिसमें वह पड़ा रहे मुँह पर मास्क लगाकर । अन्यथा तो यह भी सर्वव्यापी की तरह घूमता रहेगा और कहर मचाता रहेगा ।😢

रविवार, 12 अप्रैल 2020

प्रेम

मोहब्बत करने वाले बिना ज्ञानवान, धनवान, शक्तिमान होकर भी दुनिया पर कब्ज़ा कर सकते हैं ।
(नागरिकजी @ मोहब्बत International)

Love International

घृणा को दिल से निकालने के लिए थोड़ा मशक्कत करनी होती है ।
इसी को इस तरह भी कह सकते हैं कि प्रेम मोहब्बत करने के लिए मन की घृणा को थोड़ा/बहुत दबाना, परे हटाना, उससे मुक्ति पाना होता है।
अब उच्छृंखल, आज़ाद ख़्याल लोग लोकतन्त्र और स्वतंत्रता संग्राम का हवाला देकर इस बंधन को गुलामी या पराधीनता की संज्ञा देकर नकारें नहीं, तो यह मनुष्यता के लिए हितकर होगा ।
इस बात को दो एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जाय तो विचार कुछ ठीक से जन मस्तिष्क तक पहुंचे :-
जैसे हम अधिकांश नागरिकों की प्रवृत्ति में शासन सत्ता सरकार के प्रति एक अजीब सा विक्षोभ, कहें तो घृणा उपजी है । तो क्या इसी से हम अपनी नागरिकता को संचालित होने दें ? नहीं, इस मन को मारकर ही हम अनुशासित व्यवहार द्वारा लिख पढ़कर भी सत्ता पर विचार प्रहार कर सकते हैं । सत्ता से अपना प्रेम, अपनी संलग्नता सर्वथा समाप्त तो नहीं कर सकते?
इसी प्रकार बहुलांश हिन्दू के मन में सहजीवी मुस्लिमों के प्रति आधारहीन, विचारहीन, दुष्प्रचार जनित घृणा जमकर व्याप्त हो गयी है (सरकार सम्मिलित)। हो सकता है इनके पास इसके पक्ष में मजबूत कारण हों । हम उसपर बहस विवाद न कर चलो उनका आरोप सही मान लेते हैं । तिस पर भी अपने मन से, चाहे योग ध्यान अध्यात्म पूजा पाठ द्वारा ही, इस घृणा को उन्हें निकालना ही होगा । चलिए इसे हठयोग कह लेते हैं, यह तो भारतीय है? ऐसा हर युग, सनातन से लेकर अब तक किया गया और आगे भी जब तक सृष्टि है तब तक करना ही पड़ेगा । यही धर्म है, धारण करने योग्य । इसी हठयोग, धर्म और अध्यात्म द्वारा मनुष्य से प्रेम करना ही पड़ेगा । इसे बंधन गुलामी न समझें। यह धर्म है, धर्म का अनुशासन है । इससे बंधना ही पड़ता है ।
तो अपनी घृणा से बलपूर्वक, नफ़रत से ज़बरदस्ती छुटकारा लेकर हिन्दू जमात को मुस्लिम जाति/ जनजाति से एकतरफा मोहब्बत की पैदावार करनी ही होगी, अपनी भारतीयता को सिद्ध (caa?) सफल और उच्चतर बनाने की ख़ातिर ।👍
(Love International)

ज़िद्दी

ज़िद्दी जमात (fb group)
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ज़िद्दी जमात: पिद्दी की ज़ात, खुराफ़ात ही खुराफ़ात, एकलव्य वाला पुरुषार्थ- आत्मविश्वास के साथ, डर को दे मात- बाबू उग्रनाथ!

Sense

ABSolute NONsense (fb group)
हँसते हुए महामारी कोरोना, प्रलयंकारी ईश्वर और विकासवादी राज्य का सामना करना।
(मजदूर वर्ग)

शनिवार, 11 अप्रैल 2020

वचन

मुझसे कोई पवित्र वचन की प्रत्याशा न करे ।

राज़

तमाम राज़
तमाम राज़दार?
संभल कर !

झूठ

झूठ का भी औचित्य होता है ।

बच्चों के नाम

प्रेम प्रहार
मुझे सन्देह है कि यदि मेरे बच्चे कल को शारजाह अथवा कनाडा में ही बस जायँ, तो दो तीन पीढ़ी बाद भी वह अपने बच्चों के नाम संस्कृत में धराएँगे ?😢

सच तो

कुछ कहूँगा,
कुछ नहीं कहूँगा
सच्ची भी बातें !

अकर्म

मैंने काम यह किया कि मैंने कुछ नहीं किया । (अकर्म?☺️)
मैंने अपने परिवार को अपनी ओर मोड़ने की कोई कोशिश नहीं की, बच्चों को कोई दिशानिर्देश नहीं दिया, मित्रों को विचारधारा नहीं पकड़ाई ।
सब उन्होंने अपने मन से अपना काम किया ।
और मेरा काम हो गया, होता गया ।
मैंने कुछ नहीं किया - यही मैंने काम किया ।

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2020

धारणा की स्वतंत्रता

कोई व्यक्ति कोई भी विचार, वाद सिद्धांत कभी भी धारण कर सकता है , इसकी आज़ादी है, होनी ही चाहिए ।
और आगे वह उससे विमत, विरत, असहमत, बल्कि उसका आलोचक और विद्रोही भी हो सके, इसकी स्वतंत्रता भी उसे होनी चाहिये । किसी व्यक्ति या संस्था को उस पर उँगली उठाना नहीं चाहिए । इसी में democracy है, इसी में secularism है ।
- - मित्र नागरिक

बहस

युवावस्था में वैचारिक तीब्रता थी, तब मित्र से बहस में डर नहीं लगता था ।
अब बहस से डरता हूँ कहीं मित्र खो न जाएँ ।

फेल सरकार

दुःखद सूचना --
यह कि भारत ने अपनी ऋषिसुलभ आध्यात्मिक ज़िम्मेदारी नहीं निभाई ।
योगी जी ने, कुछ पुजारियों ने और शिवराज जी अवश्य कुछ हिम्मत दिखाई प्रतिबंध परे सार्वजनिक धार्मिक राजनीतिक कार्यक्रम करके । और चर्च के अनुयायी , इस्लाम के प्रचारकों ने तो अवश्य भक्ति दिखाई । लेकिन सरकार ने कोई भारतीय आध्यात्मिक कर्तव्य नहीं पूरा किया ।
थाली तोड़ने, दिया जलाने के आडम्बर के स्थान पर यह गीता, जिसे ये राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित करने वाले हैं, का तो उध्दरण देकर देश को आश्वस्त कर ही सकते थे ?
मृत्यु अवश्यम्भावी है । आत्मा अजर अमर है । इससे क्या डरना? अवश्य, संवैधानिक वैज्ञानिक दृष्टि से महामारी से सचेत / बचकर रहना तो लौकिक दृष्टि से आवश्यक है । तो मेरे प्यारे देशवासियो, यह - यह वह एहतियात पूरा बरतो, और अपना सामान्य जनजीवन धैर्य निष्ठा और नागरिकता के साथ जियो । हम और पूरे देश की राजकीय, चिकित्सकीय मशीनरी तुम्हारे साथ है । और किन्ही की यदि मौत आ ही जाती है तो शोक न करो और खुशी खुशी स्वीकार करो । हे पार्थ , गीता।की बात सुनो । जीवन का हथियार कमरे में बन्द होकर मत डालो । तुम्हारा क्या था, क्या लेकर आये थे क्या ले जाओगे । अर्जुन कोरोना से इस प्रकार युद्ध करो ।
अन्यथा किस दिन काम आयेंगी ये धर्म की किताबें जिनमें विश्व का सारा ज्ञान विज्ञान सनातन से भरा पड़ा है ? जिनके बल पर अपनी विश्व गुरुता का दावा सीना ठोंककर करते हो ? अपनी पारी आयी तो देश को अंदर करके निकल लिए?
निश्चय ही भारत ने अपनी आध्यात्मिक, मानसिक, नैतिक साहस की ज़िम्मेदारी नहीं निभाई । इन्हें नम्बर मिले बस दस बटे सौ ।
क्योंकि यदि वायरस पूर्ण समाप्त न हुआ तो क्या साल छः महीने तालाबंदी को खींचना उचित होगा?😢
(गुरुनाथ)

गुरुवार, 9 अप्रैल 2020

धर्म व्यक्तिगत नहीं , राज्य

आप धर्म की बात कर रहे हैं (सेक्युलरवाद के तहत), हम तो राजनीति को भी व्यक्तिगत बनाये हुए हैं । मजबूरन हम राज्य के मामलों में बोल नहीं सकते ।
जबकि विदेशी Secularism की अँग्रेज़ी परिभाषा के अनुसार हमें धर्म को व्यक्तिगत बनाना बताया गया था ।
तो इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि अब हम धर्म को  सार्वजनिक मनाये दे रहे हैं, और राज्य को , राज्य की राजनीति को, व्यक्तिगत मान समझ छुपाकर या चुपकर मना ले रहे हैं ।
यह शोध की बात है । secularism के शास्त्रीय विद्यार्थी इस पर चर्चा कर सकते हैं । Secularism and Democracy के इस भारतीय कायापलट पर विश्वविद्यालयों के राजनीति विभाग कृपया इस पर ध्यान दें , यदि उन्होंने secularism के दर्शन को भी व्यक्तिगत न बनाया हो । और वह भी इस syndrome के शिकार न हों कि विदेशी सेक्युलरवाद भारत पर फिट नहीं बैठता, और यह कि इसमें खोट ही खोट है । भला धर्महीन राज्य का क्या मतलब ? etc etc - -  ! रामचन्द्र कहि गए सिया से - - - यही तो ?😢

बुधवार, 8 अप्रैल 2020

कम्युनिस्ट इसलिए

कम्युनिज़्म इसलिये, क्योंकि सबको सबके साथ रहना है ।
जैसे मेरे ही आसपास, पड़ोसी मित्र और परिजन भी मुझे नापसंद हैं। नालायक हैं और उनसे मेरी बैठती नहीं ? तो क्या करें? साथ तो जीना खाना, उठना बैठना रहना ही है । यह कम्युनिज़्म नहीं तो क्या है? द्वंद्व (तनाव) की वहाँ भी गुंजाइश है । बल्कि विचारधारा का प्रमुख आवश्यक अंग । Dialectical Materialism !
और उदाहरण लीजिये । यूँ कहने का सही समय नहीं है, फिर भी । यदि मुसलमान साम्यवाद अपनाए होते तो क्या धर्म सम्प्रदाय के नाते इतने अपमानित होते ?होते तो उतने, उन्ही के साथ जितने वामपंथी दुत्कारे जाते हैं । पर बचाव और संघर्ष में सब साथ होते ।
यही अवस्था दलित की है । अंबेडकर के नाम पर अलग खिचड़ी पकाते हैं । केवल ब्राह्मणवाद को गाली, जबकि स्वयं हिन्दू हैं । प्रकारांतर हिन्दू को पुष्ट कर रहे हैं, और आक्रामक, जिसका दुष्परिणाम इनके साथ मुसलमानों को भी झेलना पड़ता है ।
और हिन्दू भाई बहन? इनके बारे में कुछ न कहना । इनने अपने कुएँ में भाँग डाल रखी है । जिसे कम्युनिस्ट अफीम कहते हैं ।
(दलितोयवस्की)

मंगलवार, 7 अप्रैल 2020

Two Pages

हमारी उल्टी माया जानते हैं क्या आप ?
हमारे पास दो Pages हैं internet पर, जो नागरिकमुनीजी ने बनाये ।
तो "नागरिक धर्म" (our citizenship is our religion) के माध्यम से हम राजनीतिक कार्य, चिंतन/ लेखन/ अभिव्यक्ति आंदोलन करते हैं । और
नम्बर दो, दुनियावादी दल (secularist party) के ज़रिए धर्म, अध्यात्म, बुद्धिवाद, नास्तिकता, का प्रचार करते हैं ।
क्योंकि हमें तो कोई संदेह नहीं कि धर्म और राजनीति एकमिक्स हैं । इन्हें अलग नहीं किया जा सकता, यह एक बात है, इन्हें अलग किया भी नहीं जाना चाहिए यह समझने की बात है । यदि आपको सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की दोषपूर्ण विचारधारा से लड़ना है । वह दोनो को एक करके कुएँ में भाँग डालते हैं । तो हमें भी रणनीति के तहत के दवाइयों की पोटली बनाकर पानी साफ करना पड़ेगा ।
तदन्तर, एक और clarification :- हम भारतीय धर्म को सेक्युलर बना रहे हैं, और विदेशी सेक्युलरवाद को भारतीय खाँचे में ढाल रहे हैं ।
और फिर? मियाँ की जूती मियाँ के सर ! ह ह हा☺️👌

आसमानी

मुझे आसमानी / Transcedental किताबों, ईश्वरों, देवदूतों, शिक्षाओं के बारे में कुछ नहीं कहना ।
उसी क्रम में मैं यह जोड़ना, बात आगे बढ़ाना चाहता हूँ कि मनुष्य, नर नारी भी तो आसमानी इयत्ताएँ, Identities हैं बिल्कुल material और चेतन भी ?
और ये लोग भी तो जीवंत, बोलते बतियाते, कुछ कहते सुनते हैं ?
तो ये लोग भी तो आसमानी हैं ? इनकी बात भी सुनी, विवेकानुसार मानी जानी चाहिए ?