आज एक राजनीतिक पोस्ट पर विचार करते समय मार्क्स की संदेशना का सूत्र समझ में आया (उनका आशय कुछ भी रहा हो)! कि उन्होंने क्यों धर्म को पीड़ितों की आह कहा ?
मैं अभी मानकर चल रहा हूँ कि राजनीति मनुष्य की मौलिक आवश्यकता है - व्यक्ति समूहों की व्यवस्था के काम और जीवनोपयोगी वस्तुओं, संसाधनऔर सुविधाओं के वितरण, नियमन और संचालन के लिए ।
यहाँ तक तो ठीक, लेकिन समूहों का आकार बढ़ने के साथ अपने ही राज्य (शासक सामंत कुछ भी कह लें) पर भुक्तभोगियों की पकड़ समाप्त (नहीं तो कम) होती गयी । मनुष्य सत्ता के सामने लाचार हो गया ।
तब उसने धर्म की ईजाद की जिसका सदस्य वह सत्ता से अलग रहकर भी हो सकता था । और कसरत, गाने बजाने, चीखने चिल्लाने में मस्त रह सकता था ।
राजनीतिक सत्ता में अपना माकूल स्थान न पाकर वह आह, आह कह बैठा। इसीलिए मार्क्स ने "धर्म" को पीड़ित मनुष्यता की "आह" बताना उचित समझा।
और इसी धर्म को अफीम कहना पड़ा, जिसके प्रभाव में मनुष्य हवास खोकर भूल जाता है कि उसका असली काम,कर्तव्य तो राज्य/व्यवस्था को वैज्ञानिक तरीके से चलाना/चलवाना है ।
(उग्र नागरिक, Radical Humanist)
उग्रनाथ'नागरिक'(1946, बस्ती) का संपूर्ण सृजनात्मक एवं संरचनात्मक संसार | अध्यात्म,धर्म और राज्य के संबंध में साहित्य,विचार,योजनाएँ एवं कार्यक्रम @
सोमवार, 13 अप्रैल 2020
आह, अफीम
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