पुरखों की पूजा
यह पोस्ट लम्बा नहीं लिखूँगा लेकिन इस पर लम्बा ध्यान देने की ज़रूरत है । बड़ी व्यापक फेनोमेना है यह । कोई इस आडम्बर के पीछे नहीं झाँक रहा है ।
ठीक है कि पुरखे याद आते हैं और यदि वह महापुरुष हुए तो उनके प्रति आभारी, नतमस्तक होना कोई अपराध नहीं है । लेकिन जैसे ही हम आंबेडकर की मूर्ति पर माला चढ़ाते हैं, हम दुनिया को बता देते हैं कि हम दलित हैं । आख़िर अपने को दलित बताना हम क्यों चाहते हैं? अपनी पुरानी अवस्था को इंगित करने के लिए ? फिर तो हम दलित ही बने रहेंगे, तरक्की करके भले हम बादल पर चढ़े हुए हों । अरे बन्धु भूलना है हमें । पुरखों की पूजा करके तो वस्तुतः हम उनके सारे किये धरे पर पानी फेर देते हैं । फिर तो उनकी मूर्ति ही बचेगी और हम बचेंगे दलित के दलित ।
तुलना कर लीजिए । जब वह परशुराम जयंती मनाते हैं तो वह यही तो उद्घोषित करते हैं कि हम ब्राह्मण हैं ब्राह्मण रहेंगे? उन्हें ब्राह्मण होने का मौका देने में आपका भी हाथ है । बाद में उन्हें गाली देना तो बस ढोंग मात्र है आपका ।
क्षमा न कीजिये, मैं क्षमा वमा नहीं माँगता ।
(उग्रता @CCI, Communist Culture in India/ भारत में कम्युनिस्ट संस्कृति)
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