राजनीति के इस मोड़ पर सेक्युलरवाद:
- - - - - - - - - - - उग्रनाथ
मेरी अपनी, भारतीय धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र की समझ यह बनी है कि secularism की सारी किताबी परिभाषाएँ नहीं चलेगी । इसकी परिभाषा यह होनी चाहिए कि धर्म राज्य व्यवस्था के अधीन हो । दोनो में दूरी, separation का concept असफल है । State यदि हस्तक्षेप, assert न करेगा तो धर्म ruling स्थिति में आ जायेगा । इसे contain करना राज्य का काम होना चाहिए । और राज्य को Bradlaugh ian Secular, Complete scientific, Godless Thisworldly होना चाहिए । परलोक, That world को मानने वाले किसी समूह को राजनीति से बाहर रखना चाहिए । फिर व्यक्तिगत आस्था की स्वतंत्रता की संरक्षा का प्रश्न तो बेकार है उठाना । निजी सोच भावना, दिल दिमाग में कोई क्या रखता है, उससे यूँ भी किसी को परेशानी, या मतलब कहाँ होता है? यह उलझाने वाली बातें है । यही राज्य चाहता है । उलझे रहो जिससे उनका धर्म न जाने पाए । यही धर्म चाहता है कि उलझे रहो जिससे इनकी राजनीति चले ।
इस शताब्दी तक यह तार्किक निष्कर्ष आ चुका है कि धर्म और राजनीति दोनो का मकसद एक है, दोनो एक हैं । तो राज्य तो किसी एक की ही चलेगी? इस लोक की, या परलोक की । दोनो हाथ में लड्डू वाली होलियोक की शुभेच्छा न चल पायी भले गाँधी जैसों ने बड़ी कोशिशें कीं । असफल होना ही था क्योंकि विचार यह वैज्ञानिक नहीं कि लोकतंत्र में पराई दुनिया का हस्तक्षेप हो ।
केवल राजनीति का राज्य होना चाहिए । धर्म जिसे आवश्यक लगे वह राजनीति को अपना धर्म बनाये ।
क्या मानववाद, लोकतंत्र, संविधान, वैज्ञानिक चिंतन आस्था का विषय नहीं हो सकते हमारे ? धर्म बनने के लिए किस गुण की कमी है Secularism, इहलोकवाद में ?
धर्म को केवल जड़ से नहीं , इनका नामोनिशां मिटना चाहिए संसार से ।
आखिर हम डार्विन, स्टीफेन हाकिंग की दुनिया में जी रहे हैं ? किसी आसमानी, ब्रह्मलोक में तो नहीं ? (Sorry, so I said ! 😢)
,,उग्र
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