ये जो सड़क पर आ रहे हैं, सारे के सारे शूद्र हैं, भले उनमें कुछ जन्मना कथित ब्राह्मण जाति के हों । लेकिन जो कमाकर खाता है वह शूद्र है । ब्राह्मण तो बैठे ठाले दूसरे के श्रम पर खाता है ।
दूसरी ओर सत्त्ता पर ब्राह्मण शोषक विराजमान है । सत्ता सदैव ब्राह्मण कही जायगी क्योंकि वह शोषक है और सम्प्रति तो अत्याचारी भी ।
तो बंटवारा ब्राह्मण और शूद्र के बीच है । कब तक हम ब्राह्मण को पूँजीवादी, सामंतवादी, बुर्ज़ुआ, फासिस्ट आदि तमाम नामों से नवाज़ते और जनता को अस्पष्टतः भ्रमित करते रहेंगे, जबकि वह ब्राह्मण शब्द को समूल आसानी से समझ और आत्मसात कर लेता है ? जनता के बीच जनता की भाषा के साथ नहीं जाना क्या हमें कम्युनिस्टों की तरह ?
दूसरी ओर कम्युनिस्टों की तरह ही हम कब तक इंतजार करेंगे कि ये सड़क के लोग वर्गचेतना से लैस हों, मार्क्सवाद में प्रवीण हों तब हम क्रांति करेंगे ? अथवा हम कब तक इनसे इंतज़ार करेंगे कि ये अम्बेडकरवादी बनें और जय भीम का नाद करें ? अथवा ये बौद्ध धम्म ग्रहण करें , नमो बुद्धाय का उद्घोष करें तब दलित राजनीति सफल हो ? नहीं, दलित सवर्ण कुछ नहीं । ये दोनो ही जन्मना पहचानें हैं, जो सही नहीं है और हम जाति धर्म विरोधियों को स्वीकार भी नहीं होना चाहिए । विभाजन केवल ब्राह्मण (शोषक) और शूद्र (शोषित) में है, वह भी देसी शब्दावली में । गौर करें तो इस विचार में मार्क्सवाद और अंबेडकर वाद सम्मानजनक रूप में समाहित है, कहीं कोई खोट या कमी नहीं, यदि कोई वादी अपने वाद को जड़ता से पकड़े बैठा न हो ?
तो सारे श्रमिक शूद्र हैं और सारी सत्ता ब्राह्मण । द्वंद्व केवल इन दोनों के बीच होना चाहिए, न कि जाति धर्म सम्प्रदाय के नाम पर ।
(श्रावस्ती सम्यक/suggestion)
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