कृष्ण कुमार !
अवश्य बन्धु! मैं आपसे एक निजी हलचल शेयर करना चाहता हूँ । मूर्ति बनाने में हर्ज़ क्या है? यह तो मनुष्य की रूहानी, स्वाभाविक फितरत है । बच्चे भी गुड्डा गुड़िया, बालू के घर बनाते हैं । हम निश्चय ही बड़े उग्र थे कि मूर्तिपूजा क्यों हो रही है ? बल्कि मैं तो कभी इस्लाम का प्रशंसक हुआ कि यह इसकी मुखालिफत में खड़ा हुआ। लेकिन देखिए तो यह भी इसका खूब शिकार हुआ । क्या मस्जिद अपने आप में मूर्ति नहीं?और अल्लाह की लिपि की फ़ोटो?और हार्डबाउंड कागज़ की किताब? ये हज़रत की एक बाल पर मरे जा रहे हैं, और किसी मज़ार के टूटने पर हताहत ?
तो अनुभव यही है कि इससे वंचित कोई नहीं । फिर भारत ही दोषी क्यों ? मैं तो सीधे ईश्वर से पूछता हूँ - उसने हमें मनुष्य के रूप में मूर्तिमान क्यों किया ? हमें कोरोना की तरह सूक्ष्म, अदृश्य रहने देता 😢 । लेकिन नहीं, हमारा तो बिजूका खड़ा कर दिया और खुद के लिए कहता है मेरी मूर्ति मत बनाओ ? सरासर गलत बात । हम कैसे मान सकते थे । सो मंदिर मस्जिद के नाम पर प्रेमपूर्वक रहने लगे !☺️
और एक महीन बात (आप वैचारिक घनिष्ठ हो, इसलिये)! इस्लाम से मैं पक्का सहमत हूँ । इसलिए मूर्ति तो बने लेकिन उसे मूर्ति ही मानें, ईश्वर नहीं । न मस्जिद को अल्लाह का घर । यह तो मेरी दृष्टि में अल्लाह का अपमान है । मूर्तिपूजा का विरोध लौकिक व्यवहार में इस तरह मान्य और उपयोगी है कि हम व्यक्तिपूजा से बचें । व्यक्तिगत आदर और उसके विचार का सम्मान दीगर बात है । लेकिन यदि मार्क्स लेनिन, राम कृष्ण , गौतम बुद्ध, शंकराचार्य, पीएम सीएम राष्ट्रपति महोदय आते हैं तो बराबर से बैठें, पकोड़े खाएँ चाय पियें । हम उनसे आक्रांत, झुक झुक क्यों जाएँ ? वह भी मूर्ति, हम भी मूर्ति । सभी मूर्तियों का सम्मान हो फिर ? मजदूर भी हमारी सम्मानित मूर्तियाँ हैं । 👍💐
(यह तो अच्छा खासा मई दिवस का लेख हो गया । ☺️हास्य हा 😊)
उग्रनाथ, श्रावस्ती बौद्ध/ कर्मनिष्ठ पार्टी
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