मैं भी बिल्कुल बिजूका हूँ । अजीब आदमी । मैं Individualism का समर्थक हूँ , व्यक्तिजन वाद, एकलव्य वाद का । जिसकी पहली शर्त है व्यक्ति, personal से मुक्त हो जाना । है न उल्टी बात ? तो इसे लोग कैसे समझ पाएँ? कह दूँ यह आध्यात्मिक अवस्था है तो गाली पाऊँ क्योंकि अध्यात्म को super natural शक्ति स जोड़ा जाता है और साधु संतों के कर्मों से यह बदनाम है । जब कि मेरा अंतर्मन inner sense इसी दुनिया, इसी शरीर और मन में व्याप्त है ।
कह दूँ प्रज्ञा वान होना व्यक्तिजनवाद है, तो भाई कहते हैं तुम तो गीता के शब्द बोलने लगे । कैसे धोखेबाज हो तुम भाई? तब भी कहता हूँ व्यक्तिगत स्वार्थ से परे, लाभ हानि जीवन मरण की चिंता से मुक्त होना वैयक्तिक इयत्ता को प्राप्त होना है । मैं वही एकलव्य हूँ । अकेला ही आया, पैदा हुआ, अकेला ही जाऊँगा , मतलब मरूँगा । बाकी ज़िंदगी तो इसी एकल आदमी की दुनियादारी है ।
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