Suresh Srivastava
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भागो की मौत का जिम्मेदार कौन?
जनसत्ता, 17 जून 2015 में, 'हक़ के लिए' आलेख में भागो के ज़रिए निवेदिता ने रेखांकित किया है कि भागो जैसी हज़ारों दलित महिलाएँ लोगों के हक़ के लिए लड़ते हुए जान दे देती हैं पर दलित महिला होने के नाते उनकी मौत ख़बर नहीं बनती है। वे भूल जाती हैं कि दूसरों के हक की लड़ाई लड़ने वाले/वालियां अपने आप को खाँचों में नहीं बाँटते/बाँटती हैं, जिनकी रुचि केवल ख़बरों में होती है, वे ही लड़ाकुओं को स्त्री या पुरुष, दलित या सवर्ण, अगड़ा या पिछड़ा, हिंदीभाषी या अहिन्दीभाषी, हिंदू या मुसलमान जैसे खाँचों में बाँट कर, वंचितों की हक़ की लड़ाई के लिए आवश्यक एकजुटता को कमज़ोर करते हैं। और अगर कुछएक, चाहे वह भगत सिंह हो या निर्भया हो, का बलिदान ख़बर बन भी जाता है तो भी वह उद्देश्य, जिसके लिए बलिदान दिया गया, क्या कहीं भी पूरा होता नजर आता है। इतिहास कहता है कि इसका उत्तर तो 'नहीं' के अलावा कुछ और नहीं हो सकता है। नब्बे साल पहले के भगतसिंह हों या आज के दौर के नक्सलवादी या माओवादी हों, उन बेशक़ीमती जवानियों की असफल शहादत और असमय मौत का ज़िम्मेदार कौन है? क्या राजसत्ता के कारकुन जल्लाद या सिपाही, या सामंतों की रनबीर सेना के हथियारबंद दस्ते? या फिर अस्तित्व के लिए संघर्षरत शोषित वर्ग के स्वघोषित पैरोकार बुद्धिजीवी, जो शोषितों को शोषकों विरुद्ध उकसाने का काम बख़ूबी अंजाम देते हैं, पर जो स्वयं न तो शोषण की क्लिष्ट प्रक्रिया को समझते हैं और न ही उसमें सार्थक हस्तक्षेप कर सकने की क्षमता विकसित कर सकने का रास्ता जानते हैं।
बुद्धिजीवियों का एक वर्ग है जो समाजवाद की दुहाई तो देता है पर मार्क्सवाद को सिद्धांत के रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। यह वर्ग अभिव्यक्ति की व्यक्तिगत आज़ादी को अनुल्लंघनीय नियम के रूप में स्वीकार करता है और अस्मिता की राजनीति को क्रांतिकारी संघर्ष मानता है, इसलिए उसके पास न कोई सिद्धांत हो सकता है और न ही वह संगठित संघर्ष के महत्व को समझ सकता है। पर जो मार्क्सवादी होने का दम भरते हैं और कम्युनिस्ट पार्टी के नाम पर एकजुटता का दावा करते हैं, वे भी मार्क्सवाद को एक सिद्धांत के रूप में न देखकर एक विचारधारा के रूप में देखते हैं जिसको निरंतर विकसित किये जाने की आवश्यकता है, और विचारधारा को विकसित करने के नाम पर, वैज्ञानिक समाजवाद को नकार कर, काल्पनिक समाजवाद को अपनी-अपनी कल्पना के अनुसार परिभाषित कर, फ़िलवक्त के लिए प्रासंगिक विकसित समाजवाद के रूप में पेश करते रहते हैं।
इस प्रचलित धारणा, कि कम्युनिस्ट पार्टी ग़रीबों की पार्टी होती है, का अनुकरण कर भागो भी कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गयी, बिना यह जाने-समझे कि बिना क्रांतिकारी सिद्धांत के कोई भी क्रांतिकारी पार्टी नहीं हो सकती है। लेनिन ने आगाह किया था कि ' जो कोई भी संसदवाद तथा बुर्जुआ प्रजातंत्र के अनिवार्य आंतरिक अंतर्विरोधों, जिनके चलते मतभेदों के समाधान पहले के मुक़ाबले कहीं अधिक व्यापक हिंसा के कारण और अधिक उग्र होते हैं, को नहीं समझता है, वह व्यापक मजदूरवर्ग को ऐसे फ़ैसलों में विजयी अभियान के लिए तैयार करने के मक़सद से संसदवाद के आधार पर कभी भी उसूल सम्मत प्रचार तथा आंदोलन नहीं चला सकता है।' और पिछले नब्बे साल के इतिहास में हर निर्णायक अवसर पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियों द्वारा लिए गये ग़लत फ़ैसले और व्यापक मजदूरवर्ग को विजयी अभियान के लिए तैयार करने में उनकी असफलता, इस बात की तसदीक़ करते हैं कि भारतीय कम्युनिस्टों के बीच उस सिद्धांत की समझ नदारद है, जिस सिद्धांत के बारे में मार्क्स ने कहा था कि 'सिद्धांत जनता के मन में घर कर लेने पर भौतिक शक्ति में परिवर्तित हो जाता है और जनता के मन में घर वह तब करता है जब वह पूर्वाग्रहों को बेनक़ाब करता है।'
मौजूदा विखंडित कम्युनिस्ट पार्टियों के रूप में संशोधनवाद अपनी अंतिम सांसें गिन रहा है और उनके अवसान में निहित है भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन का प्रस्थान बिंदु।
सुरेश श्रीवास्तव
22 जून 2015
marx-darshan.blogspot.in
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