रविवार, 1 जुलाई 2012

जात-पांत जाने वाले नहीं



*अनुभव के आधार पर यह तो मान लेना पड़ेगा हमने , आपने , बहुतों ने कोशिश कर ली पर जात - पांत , छोटा बड़ा , गरीब -अमीर कहीं जाने वाले नहीं | अब सोचना यह है कि इनके साथ साथ आदमी की तरह कैसे जिया जाए ? ठीक है आप फलाँ हैं , तो है ; मैं अमुक हूँ तो हूँगा | भले जाति नाम न हटाइए , हालाँकि यह उम्मीद गैरवाजिब नहीं कि हम जितना कर सकते हैं उतना तो करते | उपनाम प्रमाणपत्रों में पड़े रहने देते और प्रचलन के लिए कोई तखल्लुस चुन लेते , उसे पूँछ की तरह हमेशा प्रदर्शित न करते ! अब इतने तो हम गुलाम नहीं ! चलिए वह भी नहीं तो घालमेल आन्दोलन शुरू कर दें -सिंह वर्मा शर्मा आगम निगम सब इतना घालमेल कर दें कि कोई यह जान ही न पाए कि सामने वाला किस जाति का है , कोई जाति है भी कि नहीं ! कुजात बन जाएँ सभी | यह भी न हो पाए तो जाति पड़ा रहने दें सुषुप्तावस्था में ,पर आपस का भेदभाव व्यवहारिक स्तर पर मिटायें | इतनी मात्रा में हम जाति में हैं पर इसके आगे नहीं | तब आंबेडकर केवल दलितों के नेता नहीं  होंगें और वह [ कोई नाम सोच लीजिये ] केवल ब्राह्मणों का आदरणीय नहीं होगा | आपके पिता मेरे सम्मान्य होंगे , आप भी मेरे पिता का आदर करेंगे [ऐसा ही क्या हम पढ़े लिखे साथियों के बीच होता नहीं है ? कहाँ देते हैं ब्राह्मण मित्र के पिता को गालियाँ, कम से कम उनके ठीक सामने ?] | आखिर समय के साथ हमारा निज का कुछ व्यवहार बदलेगा कि नहीं ? या हम यूँ ही हमेशा ढाल तलवार उठाये आमने -सामने रहेंगे ? क्या हम अम्बेडकर के सामने सर झुका कर , खिसियाकर मिमियाते हुए हमेशा यही कहते रहेंगे - माफ़ करना प्रभु तुम्हारे आगे हम कुछ भी नहीं कर पाए , एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाए, तुम्हारे मार्ग को तुम्ही तक सीमित , तुम्ही पर बंद कर दिया हमने ? सोचना होगा क्या यह उनका आदर होगा या निरादर ?   कुछ न हो पाए तब तो हमें अपनी " मजबूरी " स्वीकार कर लेनी चाहिए कि न हम जाति बदल सकते हैं , न अपना नाम बदल सकते हैं यहाँ तक कि अपना उपनाम भी नहीं बदल सकते | फिर जाति का भूत हम अपने सर से क्या खाक मिटायेंगे ? सचमुच यह केवल मान्यता का काल्पनिक भूत ही है , इसमें यथार्थ तत्त्व कुछ भी नहीं | यह नहीं मिट रहा है यह बात मुझे विचलित करती है जबकि जानता हूँ कि बस इसे एक बार सर से झटक कर हटाया जा सकता है | मुझे न कहिये , पर कितनों ने हटाया नहीं क्या ?

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