*अनुभव के आधार पर
यह तो मान लेना पड़ेगा हमने , आपने , बहुतों ने कोशिश कर ली पर जात - पांत , छोटा बड़ा , गरीब -अमीर कहीं
जाने वाले नहीं | अब सोचना यह है कि इनके साथ साथ आदमी की तरह कैसे जिया जाए ? ठीक है आप फलाँ हैं
, तो है ;
मैं अमुक हूँ तो हूँगा | भले जाति नाम न
हटाइए , हालाँकि यह उम्मीद गैरवाजिब नहीं कि हम जितना कर सकते हैं
उतना तो करते | उपनाम प्रमाणपत्रों में पड़े रहने देते और प्रचलन के लिए कोई
तखल्लुस चुन लेते , उसे पूँछ की तरह हमेशा प्रदर्शित न करते ! अब इतने तो हम
गुलाम नहीं ! चलिए वह भी नहीं तो घालमेल आन्दोलन शुरू कर दें -सिंह वर्मा शर्मा
आगम निगम सब इतना घालमेल कर दें कि कोई यह जान ही न पाए कि सामने वाला किस जाति का
है , कोई जाति है भी कि नहीं ! कुजात बन जाएँ सभी | यह भी न हो पाए तो
जाति पड़ा रहने दें सुषुप्तावस्था में ,पर आपस का भेदभाव व्यवहारिक स्तर पर मिटायें | इतनी मात्रा में हम
जाति में हैं पर इसके आगे नहीं |
तब आंबेडकर केवल दलितों के नेता नहीं होंगें और वह [ कोई नाम सोच लीजिये ] केवल
ब्राह्मणों का आदरणीय नहीं होगा |
आपके पिता मेरे सम्मान्य होंगे , आप भी मेरे पिता का
आदर करेंगे [ऐसा ही क्या हम पढ़े लिखे साथियों के बीच होता नहीं है ? कहाँ देते हैं
ब्राह्मण मित्र के पिता को गालियाँ,
कम से कम उनके ठीक सामने ?] | आखिर समय के साथ हमारा निज का कुछ व्यवहार बदलेगा कि नहीं ? या हम यूँ ही हमेशा
ढाल तलवार उठाये आमने -सामने रहेंगे ?
क्या हम अम्बेडकर के सामने सर झुका कर , खिसियाकर मिमियाते
हुए हमेशा यही कहते रहेंगे - माफ़ करना प्रभु तुम्हारे आगे हम कुछ भी नहीं कर पाए , एक कदम भी आगे नहीं
बढ़ पाए, तुम्हारे मार्ग को तुम्ही तक सीमित , तुम्ही पर बंद कर
दिया हमने ? सोचना होगा क्या यह उनका आदर होगा या निरादर ? कुछ न हो पाए तब तो हमें अपनी " मजबूरी " स्वीकार
कर लेनी चाहिए कि न हम जाति बदल सकते हैं ,
न अपना नाम बदल सकते हैं यहाँ तक कि अपना
उपनाम भी नहीं बदल सकते | फिर जाति का भूत हम अपने सर से क्या खाक मिटायेंगे ? सचमुच यह केवल
मान्यता का काल्पनिक भूत ही है ,
इसमें यथार्थ तत्त्व कुछ भी नहीं | यह नहीं मिट रहा है
यह बात मुझे विचलित करती है जबकि जानता हूँ कि बस इसे एक बार सर से झटक कर हटाया
जा सकता है | मुझे न कहिये ,
पर कितनों ने हटाया नहीं क्या ?
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