डायरी नोटबुक अख़बार , दिनांक - १/७/२०१२
* दिल मेरा है /
खेत , उनका हल -
चल रहा है |
* अब आज़ादी और लोकतंत्र का मतलब है -
सारांशतः -" दलितों का शासन , जिन्होंने कभी
राज्य का मुंह नहीं देखा | "
* संविधान का निर्माण ही सही , चलिए आंबेडकर जी ने किया न ! आपने क्या किया ? क्या कर रहे हैं ? उनकी मार्किंग आपको
तो मिलेगी नहीं !
* अंग्रेजों ने राज किया , तो मुसलमानों ने भी किया ही है | अंग्रेजों ने तो कुछ रेलवे वगैरह भी दिया , मुसलमानों ने क्या दिया - कब्रें और इमारतें , बुर्ज़ और गुम्बदें ! इनसे पहले ब्राह्मणों ने भी बहुत राज
कर लिया | अब दलितों की पारी है |
* हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई " जैसा एक
नारा हिंदुस्तान के लिए और ज़रूरी है -" अवर्ण सवर्ण सिख अनुयायी , आपस में सब भाई भाई " | भले जैसे हिन्दू मुस्लिम एक नहीं हो सकते , अवर्ण सवर्ण भी एक नहीं होंगे | पर नारे तो दोनों चलेंगें , एक चल ही रहा है ,दूसरा भी चलना
चाहिए | इस नारे का रूप यूँ भी हो सकता है कि -
" अवर्ण सवर्ण - भेद नगण्य " |
* यह लोकतंत्र / अब उनका है / जिन्हें नहीं
मालूम कि / लोकतंत्र का / मतलब क्या है ? - [कविता ?]
* शासन का दकियानूसी विचार कुछ इस प्रकार होगा -- ये अहीर गंडरिया
चमार सियार लाला लूली , बनिया बक्काल भला
शासन करना क्या जानें ? शासन वे करें
जिन्हें शासन की कुछ तमीज हो !" लेकिन अब तो लोकतंत्र है और यह विचार किसी भी
हिसाब से चलने वाला नहीं है | तो फिर चलने वाला
क्या है ? क्या लोकतंत्र के नाम पर फिर उन्ही का
शासन स्थापित हो जाय जिन्हें राज्य करने का कथित शऊर होना बताया जाता है - यानी
क्षत्रिय राजा -रानियों और उनके गुरु ब्राह्मणों , कारिंदों -कारकुनों
कायस्थों का ? इस प्रकार तो वही दकियानूसी शासन घूम फिर
कर फिर उतर आएगा [ ऐसा हो भी रहा है जिसे हम देख सकते हैं , अपने अकूत छल-बल -धन के बदौलत वही लोग फिर शासन में आ रहे
हैं ] | फिर तो लोकतंत्र का कोई मतलब नहीं रह
जायगा यदि वही बाबू भैया - नवाब सुलतान, हिन्दू मुसलमान लोग
ही सत्ता में आ गए ! इसलिए समझदारी का लोकतंत्र यह होगा कि राज्य की हकदारी अब
दलितों को प्राप्त हो जाये | अब यह जैसे भी हो , चुनाव -बेचुनाव द्वारा या समझदारी से न्याय के लिए समर्पण
द्वारा | दलितों की कोई कमी है क्या ? उन्ही में से अपना विधायक -सांसद छांटिए | कोई सवर्ण, कोई अँगरेज़ , कोई मुसलमान किसी चुनाव में खड़ा न हो ऐसा प्रतिबन्ध-
प्रावधान संविधान द्वारा कीजिये |
* क्या औरत -मर्द में फर्क नहीं है ? क्या हम उस अंतर को पहले मिटाकर , उनको मर्द बनाकर या अपने को औरत बनाकर फिर
उनके साथ जीने का कार्यक्रम बनाते हैं ?तब उनके साथ तो हम उस फर्क के साथ
जीते मरते हैं, बल्कि उस फर्क के
लिए ही जान देते हैं | उसी प्रकार हम यह नहीं जानते कि जातियों में क्या अंतर है ? उसे किसने बनाया या यह कैसे बनी ? हमने उसे मिटाना चाहा पर वह नहीं मिटी, तो हो सकता है कोई फर्क होता ही हो औरतों मर्दों ज़नखों की
तरह इनमे भी ! अंतरों का क्या कहा जाय , वह नित नए रूपों
में दुनिया में आ रही हैं | तो यदि दलित पैर से पैदा हुए तो क्या हम मोज़े धोते
नहीं ? जूते चमकाते नहीं ? वे भी तो हमारे अंग - आभूषण हैं ? हम उनके साथ उनके अपने फ़र्कों के साथ भी रह सकते हैं और
रहेंगे | मुझे लगता है यह झगड़ा हमारे किन्ही
दुश्मनों का लगाया हुआ है , जिसे न सवर्ण समझ
पा रहे हैं न दलित | समझ रहे हैं तो वे जो इस विभाजन का लाभ
उठाकर अवर्ण - सवर्ण सब पर शासन करने के
स्वप्न पाले हुए हैं | वे सफल भी होंगे
यदि हम नहीं समझे |
* वर्ण भेद का विनाश चेक एंड बैलेंस द्वारा
भी तो किया जा सकता है ! चलिए आप मानते
हैं ,
या मैं खुद इस अहंकार में हूँ कि मैं आप
से जन्म में श्रेष्ठ हूँ , तो आप विज्ञानं में
मुझसे श्रेष्ठ हैं [ ज्ञान नहीं कहूँगा क्योंकि वह तो निरर्थक पंडिताऊ विषय है ] | मेरे विचार से दलितों का गणित और विज्ञानं के क्षेत्र की
उच्चतम पढ़ाई , समुद्र की गहराई -अंतरिक्ष में उड़ान में
महारत होने की कला उन्हें उच्च और श्रेष्ठ स्थान समाज में दिला सकती है , यदि वे प्रयास करें | यह सूत्र मैंने
वहां से लिया है जहाँ आंबेडकर कहते हैं की गाँव छोड़कर भागो | पर दलित हैं की उसी गाँव के कीचड़ में पड़े हाय दलित हाय
ब्राह्मण चिल्ला रहे हैं | इसे मैंने अमरीका
के अश्वेतों से भी सीखा जो रंगभेद के
शिकार थे , पर उन्होंने हर क्षेत्र में अपनी योग्यता
का झंडा गाड़ा | खेलों में , फिल्मों में यहाँ तक की सेक्स वीडियो में भी उन्होंने अपनी
क्षमता के बल पर ख्याति और अनुशंसा हासिल की | यहाँ क्यों नहीं हो सकता यदि मुट्ठी भर नौकरियों का लालच छोड़कर अपनी प्रतिभा प्रदर्शित करने का
हौसला कर लिया जाय ?
* अब यह बात मैं सार्वजानिक रूप से नहीं कह
सकता | इसलिए केवल नीलाक्षी जी से कहता हूँ | उन पर मुझे भरोसा है , भले वह मुझसे नाराज़
हो जायँ | पहला तो यह की मैंने उनके कुछ नाम विचारे
हैं - "मीना मीनाक्षी " , " मीनाक्षी मीन
" , और एक " अच्छी मीनाक्षी " भी तो
खूब लयपूर्ण है , 'साक्षी' भी एक काफिया है ! दूसरे यह कि तनिक एकांत में वैचारिक
गहनता से यह निष्पक्षता से [दलित -ब्राह्मण खाँचे से ऊपर उठकर {पता नहीं वे क्या हैं}] साक्षी भाव से
सोचें कि इतने दिनों के आरक्षण से दलितों को सामाजिक सम्मान मिलने में बढ़ोत्तरी
हुई है कि अवमानना और तिरस्कार का ? समाज की मानसिकता
यदि अनुकूल नहीं हुई तो सरकारों के कहने
से तो वह सम्मान देने से रहा | वैसे यह मेरा ख्याल
ही है जो गलत हो सकता है , इस मुद्दे पर मैं आपकी समझ या सर्वेक्षण -अनुमान को ही ऊपर
रखूँगा | फिर , यदि तनिक कुछ मिला भी हो तो क्या वह एक मानुषिक इयत्ता के
लिए पर्याप्त है ? आधुनिक लौकिक सम्मान तो वाकई मिलता है
सत्ता और सम्पदा से | राज्याश्रित होकर कोई सम्मान , सच्चा मान कैसे पा सकता है , यह मेरी समझ से बाहर है , वह भी तब, जब कि शेष समाज
उसका विरोधी हो ? [May Skip it , and
forgive me]
* [व्यक्तिगत] :- आखिर मैं अपने मन का दर्द
किससे कहूँ ?-------------------
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