सोमवार, 2 जुलाई 2012

विचार गुप्तचर


* अगर मानव नहीं बदला :-
* बलरामपुर के अग्र दार्शनिक कवि बाबू जगन्नाथ जी [स्व.] के कुछ अशआर जिन्होंने मेरी ज़िन्दगी में खड़मंडल डाल दिया , हंस की भाषा में कहें तो ' बिगाड़ा ' :-
       अगर मानव नहीं बदला , नयी दुनिया पुरानी है ;
       कहीं शैली बदलने से नयी होती कहानी है ?
प्रगति के हेतु कोई एक पागलपन ज़रूरी है ;
तुम्हारे मार्ग में बाधक तुम्हारी सावधानी है |
       जहाँ स्वाधीनता के दो पुजारी युद्ध करते हों ;
       वहां समझो अभी बाकी गुलामी की निशानी है |
[यह शेर सुभाष - गांधी विवाद को इंगित करता है ]

* आज़म खान पूरी तरह से बदतमीज़ , बददिमाग , और बदनीयत इंसान है |
* किसी भी समाज में काम में कार्य कुशलता और कौशल का महत्त्व तो सर्वदा रहा है और सदा रहेगा | तात्कालिक भावना वश इससे हमेशा इनकार नहीं किया जा सकता , भले अभी इसे थोडा किनारे डालना औचित्यपूर्ण हो | कल्पना करें यदि पूरे देश या विश्व में दलित ही हो जाँय तब भी कोई दलित भी कुशल इंजिनियर - कारीगर , डाक्टर -सर्जन कि ही सेवाएँ प्राप्त करने की प्राथमिकता देगा |
* अब एक प्रश्न है दलित हितों में सवर्णों की भागीदारी का | निश्चय ही देना चाहिए और बहुत से समझदार -संवेदनशील बुद्धिजीवी ऐसा कर भी रहे हैं | लेकिन यदि सामान्य ठेठ बुद्धि से सोचा जाय तो सवर्णों से इसकी आशा क्यों की जाय ? अव्वल तो अविश्वास के कारण वः दलितों को स्वीकार ही नहीं है क्योंकि उनका दर्द स्वानुभूत नहीं , तो फिर सवर्ण इस आग में अपनी हथेली क्यों जलाये ? स्वाभाविक है ,जिसका हिस्सा कुछ जा रहा है , वह उसे स्वेच्छा  से तो स्वीकार नहीं करेगा , कानून के दबाव में भले कर रहा है | क्या दलित इसे ख़ुशी - ख़ुशी स्वीकार कर लेते यदि उन्हें कुछ त्यागना पड़ता ? सबूत है , अपने दलित भाइयों के लिए ही क्या वे मलाई छोड़ने को तैयार हुए ? तब सामाजिक न्याय का वितंडा उठा दिया गया | एक और बात है , जब आप उनके महापुरुषों , बाप दादाओं को अविरल गालियाँ देते फिर रहे हैं , उन्हें अपमानित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं , तो उनसे यह आशा करें ही क्यों कि वः आपको सचमुच आदर सम्मान दे दे ?
* आंबेडकर जी संविधान के निर्माता थे , यह उसी प्रकार का सच है जैसे - दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल, साबरमती के संत तुने कर दिया कमाल " है | लेकिन विडम्बना है कि अब इनमे से किसी के खिलाफ कुछ नहीं कहा जा सकता | आजादी का पोल तो फिर भी खोल दिया जाता है , पर यह कोई नहीं बताता कि इस संविधान को आंबेडकर स्वयं अपना नहीं मानते ,न उसका श्रेयलेते हैं | उन्होंने जो ड्राफ्ट किया वह यह नहीं है | सभा में तमाम बहसों के बाद यह पास हुआ | खैर श्रेय देने में कोई हर्ज़ नहीं है लेकिन यह भी मन्ना चाहिए कि यह आंबेडकर की प्रतिभा के आगे अत्यंत  सूक्ष्म काम था | उनकी महत्ता को एक किताब की ड्राफ्टिंग तक में सीमित कर देना मेरे ख्याल से उनका समुचित सम्मान नहीं है | लेकिन क्या किया जा सकता है ? जो हो रहा है वही  ठीक है | कल को कहा ही जायगा -" अन्ना द्वारा लिखित लोकपाल विधेयक -----" |   -विचार गुप्तचर [जासूस]


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