बुधवार, 4 जुलाई 2012

दलित - स्मृति



शेर - फेर कर मुँह बैठते तो हो ,
         तुम्हारे सामने शीशा लगा है |

or - पीठ मेरी और करके बैठते तो हो ,
       ख्याल है कुछ,सामने शीशा लगा है |
or - पीठ करके मेरी जानिब बैठिये तो बैठिये ,
       जानिए भी एक शीशा आपके है सामने |,
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* सोच रहे हैं
ज़िन्दगी के बारे में
जियेंगे कब ?
* जितनी खुशी
मिली है जीवन में
बहुत तो है !
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* मनुस्मृति की आलोचना तो होती है | गलत या सही मैं नहीं जानता , मैंने उसे पढ़ा ही नहीं | लेकिन यह तय है कि भारत में यदि दलित शासन स्थापित करना है और उसे कायम रखना हो तो उसे भी एक दलित - स्मृति बनानी पड़ेगी ,या ऐसा ही कुछ | और यदि उन्होंने उसे सारे "मनुष्यों" पर लागू करने योग्य समझा तो उसे साधारण मनुष्य मनुस्मृति की ही संज्ञा देंगे | जैसे  मनुस्मृति भी किसी एक की रचना नहीं बल्कि समय के साथ बनते रहने वाली नियमों की किताब रही है | तो दलित - स्मृति से  हिंदुस्तान को कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए |
* मैं सोच रहा हूँ कि इन विषयों पर नहीं बोलूं . तो एक अंतिम बात - | ऐसा नहीं कि लोग इसे समझते हैं होंगे लेकिन विचारों - आन्दोलनों की भीड़ में लोग भूल ज़रूर जाते हैं | वह यह कि हिंदुस्तान में सभ्यता की निजात हिन्दू में ही है , चाहे आप उसका कितना ही विरोध करें , चाहे बिलकुल उलट कर रख दें | चाहे आप धर्म विरोधी नास्तिक हों, या धर्मच्युत दलित ! नास्तिक और दलित आप तभी तक हैं जब तक आप हिन्दू हैं , हिन्दू में ही इसकी सम्भावना है | यदि आप हिन्दू नहीं हैं तो आप दलित नहीं हैं , हो ही नहीं सकते | किसी अन्य धर्म में दलित नहीं होते , नास्तिक तो कुछ दबे -छिपे मिल भी जायंगे | फिर आरक्षण कहाँ से पाएंगे , किस्से माँगेंगे ? और हाँ , किसको गलियाँ देकर अपना मन हल्का करेंगे ?

* मेरा ख्याल है , जो "फल" हमारे पूर्वज आदम और हव्वा ने खाया था , यदि वह सेव या गेहूँ था ,तो वह भी प्रतीकात्मक रूप से यौन अंगों - पेल्विस [ कटि प्रभाग ] तथा स्त्री जननांग का ही द्योतक रहा होगा | और , नहीं तो "फल/फ्रूट" का अर्थ रहा होगा - योनिक संसर्ग के 'फल'-स्वरुप प्राप्त "आनंद का "फल" |      


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