शुक्रवार, 6 जुलाई 2012

थोड़ा अपशब्द


[मैंने थोड़ा - थोड़ा अपशब्द लिखना शुरू कर दिया है - केवल प्रिय सम्पादक पर]
अपशब्द :=
* लड़के मनबढ़ हो रहे हैं , तो लड़कियों के भी दिमाग ख़राब हो रहे हैं | इसमें कोई आन्दोलन जोड़ने की ज़रुरत नहीं, समाज को देखने की बात है | और यह केवल बड़े घरों की बात नहीं है , उच्च - मध्य -निम्न घरों में भी लडकियाँ खूब मनमानी कर रही हैं , और अपने अलावा अन्य किसी के भी उपयुक्त नहीं बन रही हैं |  

* जब तक आर्थिक स्थिति का तकाज़ा था तब तक आरक्षण ठीक था , अब उसमें सामाजिक स्थिति का भी हवाला आ गया तो मानो गुड़ में गोबर मिल गया | भाई ,एक ही लक्ष्य रखते तो वह प्राप्त भी हो जाता , और वह भी दो विरोधाभासी चीज़ें ---? खैर छोड़िए , लेकिन इससे और नुकसान दलितों का इस प्रकार हुआ कि देखा देखी छोटे बड़े भूमिधर ओ बी सी ने भी सामाजिक उत्थान के नाम पर आरक्षण की दावेदारी ठोंक दी | जबकि दरहकीकत न वे आर्थिक रूप से इतने कमज़ोर थे न उनकी सामाजिक दशा ही दलितों जैसी अछूत की थी | लेकिन मिल रहा है तो क्यों न लें , देने वाला ठाकुर राजा तो था ही ? देने वाला दबंग , लेने वाला दबंग | इससे यह तो शायद नहीं हुआ कि दलित का हिस्सा उन्होंने छीना , लेकिन यह ज़रूर हुआ कि वे ओबीसी को आरक्षण के खिलाफ उभरे असंतोष और सवर्ण गुस्से के स्वाभाविक रूप से परोक्षतः शिकार हो गए | उसे लगा कि यह तो एक सिलसिला शुरू हो गया है जो उसके गले तक आ जायगा | अब इसी प्रकार मुसलमानों को आरक्षण देने के खिलाफ फिज़ा भी अंततः दलितों को देय आरक्षण पर ही भारी पड़ेगा , यद्यपि प्रकटतः उनका कुछ काटा नहीं जा रहा है | यह सब आरक्षण का प्रतिशत बढ़ाकर किया जायगा | लेकिन साधारण जनाकांक्षा यह हो सकती है कि अब सारे ही आरक्षण ख़त्म करो , जब उसे पचास फीसद से ऊपर जाना   ही है | वाकयी , यदि इसका क्षेत्र सीमित और सुनिश्चित सुपात्रों तक होता तो वह स्वीकार्य भी होता और प्रभावकारी भी | इसका क्षेत्र फैलने और फैलते जाने से इसकी  उपयोगिता अपना रंग खोती दिख रही है
* कोई यह  कहने को तैयार ही नहीं है कि नहीं , मैं अलित -दलित -आभन -बाभन कुछ नहीं ,केवल सामान्य आदमी हूँ | मुझे न आरक्षण चाहिए न अपमान , मुझे साधारण नागरिकता चाहिए | अब आप बताइए , यदि कोई अपना दलित होना नहीं त्याग सकता , जबकि दलित होना कोई 'होना' नहीं है , तो भला ब्राह्मण अपना ब्राह्मण होना छोड़ देगा इसकी उम्मीद कैसी , जिसमें कि वह सुख से है ? जिनके पास खोने को कुछ नहीं है जब वही अपनी जाति को मरे बन्दर की तरह सीने से चिपकाये है तो फिर वह अपनी जाति  क्यों छोड़ेगा जिसमे वह मज़े से है ? बल्कि वह तो और खुश ही होगा कि आप उसका दिया हुआ 'दलित' नाम मैले की टोकरी की भाँति उठाये हुए हैं | ज़ाहिर है इस मूल परिवर्तनकारी कार्यक्रम पर इनके नेतृत्व ने काम ही नहीं किया | कटु वचन हो जायगा , क्योंकि यदि दलित नहीं होंगें तो उनकी नेतागिरी कैसे चलेगी ? इसलिए ज्यादा से ज्यादा आरक्षण और कुछ मुट्ठी भर नौकरियों के लिए इन्हें धरना -आन्दोलन की राजनीति में फँसाये रहो , बिना इस और ध्यान दिए कि इससे इनकी कितनी जगहँसाई हो रही है |

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें