शनिवार, 7 जुलाई 2012

साला मैं तो साहब


मेरे ख्याल से हम एक छोटी लेकिन  महत्वपूर्ण भूल कर रहे हैं | जिस व्यवस्था - अव्यवस्था के बारे में हम अपना दिमाग बाहर उलझाते हैं , वह तो आधिकांशतः मनुष्य के अन्दर है | क्या समझते हैं यदि बाहर की , यानी राजनीतिक -सामाजिक , व्यवस्था सब ठीक बना दी जाय , तो मनुष्य उसे ध्वस्त करके  नहीं रख देगा ? या एक व्यवस्थाविहीन समाज में व्यक्ति नितांत अनुशासित और व्यवस्थित व्यवहार नहीं कर सकता ? बहुत से लोग इसी जर्जर व्यवस्था में अपने कार्यों को सेवा में तब्दील कर रहे हैं , और तमाम लोग हैं जो अच्छी -भली व्यवस्थाओं की जड़ों में मट्ठा डाल रहे हैं | समस्या यही है कि हम आदमी नहीं बन रहे हैं , हम व्यवस्था के अंग बन रहे हैं | और विडम्बना यह कि खुशी से फूले नहीं समां रहे हैं कि अरे मैं तो व्यवस्था चला रहा हूँ - ' साला मैं तो साहब बन गया '

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