सोमवार, 2 जुलाई 2012

दलितों के हाथ में सत्ता


* दलितों के हाथ में सत्ता देने के मकसद के पीछे कोई दया भाव नहीं बल्कि हमारा और राष्ट्र का बड़ा स्वार्थ छिपा हुआ है |
एक तो यह कि यह सचमुच उनकी हकदारी की बात है ,और यदि किसी को उसका वाजिब हक दिलाने में हम किंचित भी सहायक होते हैं तो इससे बड़ा स्वान्तःसुखाय काम और क्या हो सकता है ?दूसरे यह की हमारे नास्तिकता  के आन्दोलन को यही वर्ग आगे ले जायगा | तीसरे  फिर उसके  प्रभाव में  व्यक्ति का प्रादुर्भाव और उत्थान होगा , जो कि हमारा अभीष्ट है | यदि व्यक्ति हमेशा जाति-पांति -संप्रदाय - धर्म- ईश्वर के चंगुल में फँसा रहा तो उसका वैयक्तिक स्वातंत्र्य कैसे फलेगा और मानुषिक  अस्मिता कैसे विकसित होगी ? इसीलिये हम दलितपन को भी एक धार्मिक संगठन बनने से बरजते हैं | छोडो भाई आदमी को ,  ब्राह्मण तो उसे नहीं छोड़ेगा तो दलित को तो छोड़ दो | उसे लेकर हम नयी दुनिया बनायेंगे |

* समाज में स्वाभाविक रूप से यह होता है कि सब अपना अपना काम करते हैं | उसमें वे कुशल होते हैं , और उसे अंजाम देने में सफल होते हैं | लेकिन एक काम ऐसा है लोकतंत्र में राज्य बनाने का कि इसमें सबको शासन बनाने का काम करना होता है | अपना वोट देकर सब इसके पाप -पुण्य का भागीदार bante hain | ज़ाहिर है वे इस काम में पटु तो होते नहीं , सो उसे बिगाड़ कर अधिकतर पाप के ही भागी होते हैं और उन्ही के वोट के बल पर चतुर चालक लोग अपने लिए इसी दुनिया में स्वर्ग का निर्माण कर लेते हैं |
* यदि सिंचाई और सार्वजानिक निर्माण विभाग ईमानदार ही होते तो हर वरिष्ठ मंत्री इन विभागों को क्यों हथियाना चाहते ?

* अरविन्द केजरीवाल चहक कर कहते हैं देखो मैंने कहा न था कि वह मंत्री भ्रष्ट है ? इसी प्रकार और भी १५ मंत्री भ्रष्ट हैं | लेकिन क्या हमने यह नहीं देखा कि वह मंत्री पुराने कायदे कानूनों के मार्फ़त ही सजायाफ्ता हुआ , लोकपाल बिल से नहीं ?

* एक दर्शन उग्र राष्ट्रवाद के विरोध के नाम पर राष्ट्र को ही नकार रहा है , टब के पानी के साथ बच्चे को भी फेंके  दे रहा है , दूसरी तरफ एक नीति बड़ी सहजता से देश को  दारुल इस्लाम तक पहुँचाने की समझदारी और बुद्धिमत्ता से लैस है | कौन विजेता होगा , समझना कहाँ मुश्किल है ?

* जंगलों में कुछ विद्वान दार्शनिक अपने वसूलों का प्रैक्टिकल  ज़मीन पर उतारने के नाम पर भोले भाले आदिवासियों को बकरा बनाकर बलि पर चढ़ा रहे हैं , तब दलित आन्दोलन उनका कोई विरोध नहीं कर  रहा है | अच्छी गफलत में हैं वे |
जब कुछ महान सिद्धांत परस्त लोग अपने क्षेत्र के समस्त आदिवासियों को मरवा देंगे , तब वे किनके सहारे बचेंगे ?
सरकार को क्या है ? उसी के पास जवानों की कहाँ कमी है ? पुलिस में  और भर्तियाँ  कर लेगी | फिर पुलिस आदिवासियों को मारे , आदिवासी पुलिस को मारें उसके ऊपर क्या फर्क पड़ता है ? लेकिन सामाजिक आंदोलनों को तो इसका दुष्परिणाम सोचना था ? यह नहीं सोचते माओवादी , सरकार की तरह वह भी संवेदनहीन संस्था है | और यह तो भविष्य के गर्भ में है कि जब इनका शासन आएगा तब ये कौन सा स्वर्ग उतार लायेंगे ?
अभी तो सीमा आज़ाद भी बच जायेंगी और तमाम सिद्धात सहयोगी , जिनकी कोई कमी नहीं है | फिर उनके लिए अक्षम कोर्ट के दरवाजे खुले हैं | ये कोई माओवादी अदालतें तो हैं नहीं कि सुनवाई का कुछ नाटक हुआ और फिर  ठांय - ठांय | इतना परेशान होने कि ज़रुरत क्या है ? क्या इतनी बड़ी क्रान्ति की कोई कीमत नहीं अदा करेंगे ?
कोई दुःख इतना बड़ा नहीं होता कि सरकार से इस तरह का युद्ध छेड़ देते आदिवासी , यदि उन्हें बरगलाया - उकसाया न गया होता | क्या ये परेशानियाँ मुग़लों-अंग्रेजों के ज़माने में न थीं ? या सब लोकतान्त्रिक सरकारों को डावांडोल करने का इरादा है ? आदिवासी , आदिवासी तो थे अशिक्षित , वे इतना बड़ा दर्शन सीखकर माओवादी कैसे हो गए ? फिर जब तुम इस व्यवस्था को ही नहीं मानते ,तो इससे मानवाधिकार की आशा ही क्यों करते हो ? अपने वकील संगठनों से इसकी गुहार क्यों लगवाते हो ?
बड़े भोलेपन से कहा जाता है कि उनके झोले में तो बस कुछ किताबें थीं | क्या किताबें कुछ नहीं कहतीं ? किताबों को इतना नज़रअंदाज़ वाम संगठनों ने तो कभी नहीं किया , बल्कि कई तो किताबों के प्रकाशन और विपणन को ही अपना एकमात्र कार्य ही बनाये हुए हैं , इस प्रत्याशा में कि ये ही एक दिन क्रांति लायेंगीं | मेरा कोई ऐतराज़ नहीं है , पर इतना झूठ क्यों बोलते हैं लोग जो बर्दाश्त से बाहर हो जाय , आँखों में धुल झोंकने के समान ? ठीक है ताल ठोंक कर कहो कि हमारा संघर्ष है व्यवस्था के साथ | तो फिर व्यवस्था का अत्याचार भी झेलने का साहस रखो , रोते क्यों हो ? सुकरात ने क्या सच बोलकर सत्ता का विष पिया नहीं था ? 2/7/12

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