सोमवार, 23 जुलाई 2012

संस्थाओं के नामों की अदला बदली


मैं जिलों सड़कों ,पार्कों संस्थाओं के नामों की अदला बदली के सख्त खिलाफ हूँ क्या मैं परिवर्तन विरोधी हूँ नहीं मैं इसे परिवर्तन के काम में बाधा मानता हूँ यह एक निरर्थक नकारात्मकऔर फ़िज़ूल का काम है कोई सार्थक काम तो है नहीं इनके पास और कुछ मेहनत का काम न करना पड़े तो इन नामलोभी नेताओं के लिए बहुत आसान होता है कुछ नामपट बदल कर फ़ौरन ख्याति कमा लिया जाय हर्रे लगी न फिटकिरी ,लो मैंने यह तीर मार लिया लोग कहते हैं किंग जार्ज का नाम रहने देना गुलाम मानसिकता है मैं उलट कहता हूँ कि जार्ज का नाम हटाना और इससे यह भ्रम पालनाकि हमारी गुलामी मिट गयीहम आज़ाद हो गए और इस तरह की अन्य कवायदें करना ही वस्तुतः गुलामी की निशानी है कवायद ही है इसलिए कि इससे कुछ भी हासिल नहीं होता ऐसा करके क्या इस तथ्य को इतिहास से मिटा सकते हैंया सत्य को झुठला सकते हैं कि भारत पर कभी अंग्रेजों का शासन था नहीं तो रहने दीजिये उनकी यादगार अवशेषों को जिससे पीढ़ियाँ उन्हें देखकर सबक लें और गुलाम होने से अपने को बचाएँबचाए रहने की कोशिशें जारी रखें कभी गाफिल न रहें मैं तो यह भी कहने का दुस्साहस रखता हूँ कि आर्य - शक -हूण तमाम तो लोग हिंदुस्तान आये ,मिटाओगे उनकी निशानियाँ क्या मिटा सकोगे तब तो खुद ही मिट जाओगे और सचमुच मिटना ही हो तो फिर मुग़लों के स्थापत्य - कुतुबमीनार इमामबाड़े ताजमहल को थोडा छू कर तो देखो वे भी तो मूलतः बाहर से आये आक्रमणकारी थे पर इन्हें तो सजाया- संवारा- संरक्षित किया जा रहा है किंग जार्ज का नाम हटाया जा रहा है क्योंकि अंगेज़ यहाँ नहीं हैं उन्हें जो कुछ करना कराना था कर के चले गएकोई ज़मीन उठाकर नहीं ले गए मुग़ल यादगारें इसलिए आदरणीय हैं क्योंकि मुसलमान यहाँ हैं और बाकायदा हैं क्या यह सोच गुलामी की सोच नहीं है यह किसी तर्कशील न्यायप्रिय स्वतंत्रमना लोकतान्त्रिक ,समतावादी समाज की नीति तो नहीं हो सकती भाई सबको सामान दृष्टि से देखो और जो अपना पक्ष प्रस्तुत करने के लिए उपस्थित नहीं है उस पर मौत का फरमान न जारी करो और यदि मारने का ही निर्णय हो चूका है तो सबको मारो जो दोषी रहे हैं |
इसलिए मैं मायावती जी द्वारा जार्ज या पुराने जाने माने उसी नाम से प्रतिष्ठित संस्थानों के नाम बदले जाने के खिलाफ था सच थोड़ा कड़वा हो जायगा लेकिन यह उनकी हीनभावना का द्योतक और नतीजा था लेकिन फिर अबजब उसका नाम बदला जा चुका था उसे फिर बदलने का कोई औचित्य नहीं है कल और कल कोई और कोई और आयेंगे और कोई रिक्शावाला भी मरीज को सही अस्पताल नहीं पंहुचा पायेगा प्रश्न है ,यह सिलसिला कब तक चलेगा कहीं विराम लगेगा या नहीं अरे भारत भाग्य विधाताओकुछ नया बनाओ तो उसका नया नाम कुछ भी रखो पुराने से क्यों छेड़- छाड़ करते हो इस सम्बन्ध में कोई नए राष्ट्रीय नीति बननी चाहिए नहीं तो ये देश -प्रदेश के भी नाम  इतनी बार बदलेंगे कि उन्हें पहचाना ही न जा सकेगा असंभव नहीं कि अपने माता पिता के भी मेरी तो माँ निहायत साधारण गैर महत्व पूर्ण महिला थीं मैं उनका वही नाम कायम और याद रखना चाहता हूँ जो देहातीपन अनपढ़पन का शब्द है गाँव पर मेरे स्कूल का नाम उसी के नाम है और उस पर मैं अपनी गरिमा  की पहचान टिकाने में गर्व महसूस करता हूँ ऐसा बिलकुल भय नहीं लगता कि  कहीं मैं दकियानूस न माना जाऊँ माना करे कोई हाँयह भी हो रहा है कि कुछ नए प्रशासनिक अफसर अपनी देहाती पत्नी को गाँव छोड़ आये हैं और नयी आधुनिक शादी कर ली है मुझे गर्व है कि मेरी अशिक्षित देहाती पत्नी मेरे साथ है मैंने उसका नाम तक नहीं बदला और कुछ लोग कहते हैं मैं "कवितायेँ अच्छी कर लेता हूँ" |
मैं लोकतान्त्रिक मानस के स्थायित्व का पक्षधर हूँ मेंढकों का कूद- फांद मुझे अच्छा नहीं लगता स्वतंत्रता के छद्म मानकों और स्मारकों में मेरा मन नहीं लगता सचमुच मैं अभिभूत हो जाता हूँ यह सोचकर कि यदि आप 10 , डाउनिंग स्ट्रीट के पते पर एक पोस्टकार्ड भेज दें तो वह श्रीमती मार्गरेट थैचर के पास नहीं ब्रिटेन के प्रधान मंत्री के पास पँहुचेगा | # #
उग्रनाथ नागरिक  - (अनीश्वर भारतीय) २४/७/१२

गुरुवार, 19 जुलाई 2012

लिखते तो हैं


* मानें न मानें
मैं अच्छा लिखता हूँ
गौर तो करें !

* अच्छा आदमी
मुझे नहीं लगता
किंचित मैं हूँ |

* जा रहे लोग
दुनिया बदलने
मैं कहाँ जाऊँ ?

* किसी के पास
अपने विचार हों
दिखता नहीं |

* बाप गरीब
तो उसका साथ दो
माँ बीमार |

* अब इसमें
मेरी क्या गलती 
जो कुछ हुआ ?

* वैसा नहीं है
कविता बताती है
जैसा आदमी |

* किसे फिक्र है
निज सुख के आगे
पीर पराई?

* मिलती जाए
लेती जाओ आज़ादी
धैर्य न खोओ |

* सुख में सुखी 
अतिशय न होना
दुःख में दुखी |

* बहस नहीं
बस हाँ हूँ कहना
वहाँ जाकर |

* करो कुछ भी
आगा - पीछा तो सोच
ज़रूर लेना |

* लिखते तो हैं 
पर नागरिक जी 
पढ़ते नहीं |

बुधवार, 18 जुलाई 2012

मामला क्या है


* लिख चुका हूँ
जो तुम कहते हो
यह पढ़ लो |

* हिंदुस्तान जो
आध्यात्मिक देश है
अब नहीं है |

* पैसा लगाओ
तथापि अनुचित
लाभ न लेना |

* गुनहगार हैं
धुआँ उड़ाने वाले
पापी नहीं हैं |

* आयु में छोटे
मुझे प्रणाम करें
अग्रज , वन्दे !

* पत्रकारिता
कौन कर रहा है
नेतागिरी है |

* मामला क्या है
यह तो पता चले
तब न सोचें !

* मुफ्त चिकित्सा
किसकी तो होनी थी
किसकी होती !

* रोटी बनाना
जानना तो पड़ेगा
नहीं तो जाओ |

* खुश नहीं हूँ
खुशियाँ छीनता हूँ
आसपास से |

* नहीं चाहिए
चक्कर में पड़ना
ज्यादा किसी के |

मंगलवार, 10 जुलाई 2012

" मान्यतावाद "

और वैशेषिक ही क्यों , सांख्य , योग , मीमांसा , न्याय {शायद कुछ अन्य भी , प्रमुख नौ दर्शनों में लगभग  छः दर्शन | बौद्ध -जैन भी एक तरह से नास्तिक दर्शन ही हैं } तब भी नास्तिक दर्शन थे , जिनकी हम दुहाई दिया करते थे , लेकिन कितनों ने नास्तिकता स्वीकार की ? इस्लाम पर इस अद्भुत खोज का क्या कोई प्रभाव प्रत्याशित है ? जिसका जो मन होता है मानता था , मानता है , मानता रहेगा | इसलिए हम बहुत दिनों से विज्ञानंवाद का नाम न लेकर " मान्यतावाद " का सहारा लेने लगे हैं | " ईश्वर है या नहीं है ईश्वर को मत मानो " जैसे आह्वान और अविरल प्रचार का | समझाने से नहीं मानता मनुष्य , उसे आदेश चाहिए , अन्धविश्वास चाहिए | हमारे [कम से कम मेरे] लिए तो ईश्वर का न होना एक अन्धविश्वास के सामान है | और मैं दृढ़तापूर्वक सुकून से हूँ |

सोमवार, 9 जुलाई 2012

हम सब दलित आन्दोलन


अब दिमाग ठंडा हो गया | इसलिए नहीं कि दोस्तों पर गुस्सा उतार लिया ,  बल्कि इसलिए कि एक नया कार्यक्रम दिमाग में आ गया | =

हम सब दलित आन्दोलन
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अब यह तो निश्चित हो चुका है कि जातियाँ इतनी आसानी से जाने वाली नहीं है | नाम - उपनाम छोड़ने की नौटंकी से भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा | तो फिर यह कैसे समाप्त हो ? इस दिशा में महती काम यह है कि हम अपने ब्राह्मण , अपनी सवर्णता के छद्म और दंभ को तोड़ें | यह काम दलितों का नहीं हो सकता | उनके पास है क्या जिसे वे मिटायें ? पर हमारे पास तो बहुत कुछ है मिटाने को जिसके न मिटने के कारण ही दलित हमसे असंतुष्ट और नाराज़ हैं | तो जातियां रहेंगीं तो दलित तो रहेगा | अब अपनी सवर्णता मिटाने  के लिए हम यह करें कि हम भी दलित हो जाएँ | तब जाति तो रहेगी पर उसका नाम केवल दलित होगा और ब्राह्मणवाद का विनाश होगा | इस प्रकार हम यह करें कि ज्यादा कुछ न करें , न अनावश्यक उछल- कूद करें, न तोड़- फांद मचाएँ | एक कार्यक्रम बना लें ,पहले मनःस्थिति की, कि हम दलितों के साथ उठने बैठने  - खाने पीने - दोस्ती गाँठने इत्यादि में कोई परहेज़ ,कोई संकोच, कोई भेदभाव न बरतें , बल्कि सायास उनके साथ हों / रहें , उनके आंदोलनों के सक्रिय किन्तु मौन सहयात्री बनें | ज्यादा बढ़ चढ़कर बोलेंगे तो आप का आदर्श नहीं आपका संस्कार मुँह से निकल कर सारा कार्यक्रम चौपट कर देगा | शादी विवाह का मामला अभी रहने दें , अपने हाथ में न लें | यह पुत्र पुत्रियों पर छोड़ें | कोई ज़बरदस्ती तो है नहीं ! पर यदि उनमे प्रेम हो तो विवाह में बाधक नहीं भरसक प्रोत्साहक बनें | यह तो शायद हम लोग काफी हद तक व्यवहृत करने के लिए सहमत ही हैं |
अब आगे की बात ज्यादा महत्वपूर्ण है | शैक्षिक  प्रमाणपत्र , जिनमें जाति अंकित हो ,संदूक में बंद कर दें , या जहाँ ज़रुरत हो वहाँ दिखाएँ | समाज में हर वक्त तो कोई आपका सर्टिफिकेट माँगता/ देखता नहीं , और यह सामाजिक फिजां - वातावरण बनाने का कार्यक्रम है न कि आरक्षण प्राप्त करने की साजिश |
सामान्यतः होता यह है कि समाज में कोई अपरिचित व्यक्ति या यात्री आपकी जाति जानने के लिए -
 - ' भाई साहब/ बहन जी ,आपका शुभ नाम ? '  
- जी मेरा नाम दीपक श्रीवास्तव / धनञ्जय शुक्ल / पूनम सिंह / ज्योति पाण्डे/ इत्यादि है | [असली नाम बताएँ जो भी आपका है | लेकिन अपने वसूल पर कायम रहते हुए आप उससे उसकी जाति कदापि न पूछें ]
ज़ाहिर है अब वह चुप हो जायगा और आपसे सावर्णिक व्यवहार करने लगेगा | तब आप उसे कुरेदिए -  लेकिन भाई साहब, आपने मेरी जाति तो पूछी ही नहीं ?
- वह तो आप के नाम से ज़ाहिर है |
- नहीं भाई साहब , उससे ज़रा धीरे से कहिये , - दरअसल मैं दलित जाति का हूँ |
- फिर आपने यह  शर्मा / वर्मा / सिंह / श्रीवास्तव क्यों लगा रखा है ?
- इज्ज़त के लिए भाई साहब ! इज्ज़त बड़ी चीज़ है | यह तो मैंने आपसे बता दिया मैं कौन हूँ , सबसे थोड़े बताता हूँ ! बड़ा भेदभाव झेलना पड़ता है |
- तो आपको तो आरक्षण का फायदा मिलता होगा ?
- आप सही कहते हैं , मिल सकता था | लेकिन मैं घर से संपन्न हूँ न ! चार बीघा तो पुदीना बोया जाता है दूसरे गाँव में भी खेत है, शहर में तिमंजिला पक्का माकन है , और यह , और वह - (हाँक दीजिये , कौन खसरा खतौनी लिए बैठा है) | और भाई साहब , हमारे लोगों में मुझसे ज्यादा गिरी हुई अवस्था में बहुत सारे लोग हैं | इसलिए मैंने आरक्षण फोरगो कर दिया , यह उन्हें मिले जिन्हें इसकी सचमुच और ज्यादा ज़रुरत है | हमारा काम तो चल ही रहा है | कौम की सेवा मेरे निजी लाभ से ज्यादा ज़रूरी है | है न बही साहब ?
नोट : - जब सवर्ण दलित में घुल जायेंगे तो कैसा फर्क ? जातिवाद रहकर भी क्या बिगाड़ पायेगा | और बताइए क्या किया जा सकता है ? जेहि विधि होय नाथ हित मनुष्य का , और अमानवीय स्थिति का सत्यानाश हो ,आप ही बताएँ | हमसे तो जो बन पड़ता है सोचते हैं और करते भी हैं , तमाम विवशताओं के मध्य | पर यह कार्यक्रम ऐसा है जिसके लिए दलितों से कुछ पूंछना नहीं है | यह सवर्णों का कार्यक्रम है | और सवर्ण तो हम हैं ही | यहाँ जन्मना की बात हो रही है | और हाँ , मज़े की बात आ गयी = कर्मणा तो हम नीच ही हैं |    

अंतर्विरोध



---------- Forwarded message ----------
From: Ugra Nath Srivastava <priyasampadak@gmail.com>
Date: 2012/7/7
Subject: अंतर्विरोध - A Personal Confession
To: pramod joshi <pjoshi23@gmail.com>


To Sri Pramod Joshi 
अंतर्विरोध 
अब इसे लिखना बहुत ज़रूरी हो गया है , confession करना | काफ़ी हॉउस में बहुत पहले आपने एक प्रश्न उठाया था - क्या हम अपने अंतर्द्वंद्व पहचानते हैं ? यद्यपि वह माओ से सम्बंधित था जिसका सन्दर्भ मुझे  नहीं पता , लेकिन मुझे लगा कि आपने तो मेरे चोर की दाढ़ी में तिनका पकड़ लिया | मैंने प्रश्न को व्यक्तिगत स्तर पर ले लिया और अंतर्वीक्षण में जुट गया | मैंने पाया कि मैं तो अंतर्विरोधों का ढेर हूँ | जैसे मैं किसी का नाक में उँगली करना पसंद नहीं करता पर स्वयं करता हूँ , सी डी तिवारी जी से  भीख न देने के मुद्दे पर सहमत था पर भीख देता हूँ , राजनीति से घृणा करते हुए भी उसमे पूर्णतः लिप्त हूँ , पत्नी -परिवार से कोई लगाव नहीं है पर घर की ज़िम्मेदारियाँ पूरी निभाता हूँ , साहित्य में छंद का महत्व स्वीकारता हूँ पर छंदबद्ध कवितायेँ मुझे दो कौड़ी की लगती हैं , भीतर क्रोध का पारावार है पर लोगों से प्रेमपूर्वक  मिलता हूँ , मनुष्य में जन्म से आये व्यवहार की निम्नता को पूर्णतः लक्षित करता हूँ पर उन्हें सत्ता सौंपना चाहता हूँ , स्त्रियों का पूरा आदर -सम्मान करता हूँ पर औरतों के बारे में मेरी कोई अच्छी राय नहीं है , मैं बिलकुल गफलत में नहीं रहता सत्य को ठीक पहचानता हूँ पर अज्ञानी होने  की मासूमियत प्रदर्शित करता हूँ , " नहि मानुषात श्रेष्ठतरं हि किञ्चित " मेरे जीवन का साध्य-मन्त्र है लेकिन मनुष्यों से बेहिसाब घृणा करता हूँ , हर क्षण मैं ईश्वर की आराधना में लीन रहता हूँ पर ईश्वर का विरोध करता हूँ , सांगोपांग धार्मिक हूँ पर धर्मों के नाश की रणनीतियाँ बनाता हूँ | इसकी सूची असीम होगी पर ऐसा मैं हूँ | इसका अपराध मैं स्वीकार करता हूँ | अच्छा हुआ आप मिल गए जिससे मैं यह कह सका , वरना मैं आत्मग्लानि से पीड़ित रहता | अब इसकी सफाई मैं अपनी खुशी के लिए यह देता , अपने मन को समझाता हूँ कि मेरा अंतर तो ठीक ही है पर उसके अनुकूल बाह्य जगत में कुछ नहीं मिलता तो वह विरोधाभास का कारण बनता है | बल्कि मैं तो तो कहता हूँ ये विरोधाभास ही मेरी उपलब्धियाँ हैं | इसलिए मैं शांत - संयत और स्थितप्रज्ञ रहता हूँ | सत्यतः , मुझे कोई भी शोक विचलित नहीं करता , कोई भी उत्सव मुझे आह्लाद नहीं देता | और फिर अंतर्विरोध- कि इसका विलोम भी फलित होता है | आपको धन्यवाद यदि आपने इसको पूरा पढ़ा | देखता हूँ , और अच्छा ही करते हैं कि आप फेसबुक पर अनावश्यक हम लोगों की तरह सक्रिय होकर समय नहीं गवाँते , इसलिए इस पोस्ट पर भी आपके कमेन्ट की चाह मुझे नहीं करनी चाहिए | मैं तो इसे आपके पास send करके ही पापमुक्त हो गया |   

अब ब्राह्मण की सुनिए


यह तो हुई दलित की बात , अब ब्राह्मण की सुनिए |
अपशब्द दि . ९/७/१२ (भाग दो) | जिस ब्राह्मण की सामान्यतः बात की जाती है, वह न तो कोई व्यक्ति है न वाद | वह हर मनुष्य की स्वाभाविक - सांस्कारिक कमी -बेशी , अच्छाई- बुराई , दुष्टता- नीचता पर आधारित जीवन मार्ग है | और वह सबमे व्याप्त है | मुझमे तो है , आप में भी होगा ही | न मानें  तो मुझे बस एक दिन -रात अपने साथ रहने का अवसर दे दें , और बनावटी नही, सहज -स्वाभाविक दिनचर्या मेरे साथ बिताएँ तो मैं सबूत एक पन्ने पर लिखकर आपको दे दूँ | और कहीं यदि पूरा महीना अपने बरामदे में मुझे पड़ा रहने दें , तब तो मैं एक थीसिस लिख मारूँ | दूर क्यों जाएँ , यह " इनको इस ग्रुप से निकालो , इनको डालो " क्या है ब्राह्मणवाद नहीं तो { मैंने तो प्रिय सम्पादक को हमेशा खुला रखा } यही तो किया ब्राह्मण ने - तुम यह काम करो - तुम ऐसा करो ? | ' व्यवस्था है ' आप कहेंगे तो मेरे तर्कजाल में बुरी तरह फँस जायँगे | वह भी एक ऐसी ही व्यवस्था थी |
इसलिए इसे छोड़िये और अब ज़रा आँख (खोल ) उठा कर देखिये एक दूसरा  ब्राह्मण आपके द्वार खड़ा है | वह सुदामा नहीं है , न सनातनी भिक्षुक ब्राह्मण लकुटिया टेक | उसके पैर तो आपके घर के बहुत दूर ,बाहर हैं  लेकिन नाखूनी पंजे ठीक आपके सर पर | तवलीन का लेख पढ़ा आपने ? वह २६/११ का आतंकवादी नहीं , आपके देश पर "आक्रमण " है  | उसके पास सनातनी ब्राह्मण वाला जर्जर- फटा -वेदपुराण नहीं जिसकी आलोचना में आपकी साँसें नहीं थमतीं | उसके कंठ में आकंठ अकाट्य आसमानी शास्त्र है और ज़मीनी मार करने वाला अभेद्य शस्त्र भी | कह सकते हो -इससे हमें क्या , यह  हिन्दू जाने - ब्राह्मण जाने | अच्छा है वह मरे, जिसने हमें इस दशा में पहुँचाया | लेकिन जानना मित्र , यह हिन्दू ही है जिसके तहत तुम दलित हो | हिन्दू -हिंदुस्तान न होगा तो तुम सिर्फ दलित नहीं गुलाम भी होगे और तुम्हारी स्थिति उससे भी बदतर होगी | कहोगे , मैं अतिशयोक्ति कर रहा हूँ | अभी कल ही की तो खबर में है भारत के मुसलमानों को अपने विवाहों के पंजीकरण जैसी छोटी सी कागजी सरकारी कार्यवाही भी अस्वीकार है , उनका मज़हब इजाज़त नहीं देता , यह उनके अधिकारों में हस्तक्षेप है, जिसे वे बर्दाश्त नहीं कर सकते | बेगुनाह मुस्लिम {ऐसा वे उन्हें पहले से ही निश्चित मानते हैं - भला मुसलमान कहीं आतंकवादी हो सकता है ? कदापि नहीं , कभी नहीं रहे , सदियों का इतिहास गवाह है , इतनी दूर से अल्लाह के बन्दे शांतिपूर्वक, बिना लड़े - भिड़े भारत आये और प्रेमपूर्वक राज करने लगे क्योंकि इस्लाम तो मोहब्बत का मज़हब है, पैगाम है , जिसे वेबड़ी शिद्दत-मशक्कत  के साथ फैला रहे हैं } युवकों को फँसाया जा रहा है , इसके लिए लिए जगह जगह सभा सेमिनार हो रहे हैं | मा.सं.मंत्रालय का मदरसों में पढ़ाई सम्बन्धी कोई कानून गँवारा नहीं | हिन्दू राज्य [राष्ट्र] की टिटपुंजिया सरकार की यह जुर्रत ? मुलायम का मंत्रिमंडल बुखारी की पसंदगी के विपरीत बन जाये ? सलमान रुश्दी -तसलीमा नसरीन हिंदुस्तान आ जाएँ , हो नहीं सकता | कितना गिनियेगा ? वन्दे मातरम वे नहीं गायेंगे , तो आपको भी उसमे ब्राह्मणवाद की बू ही आ रही होगी ? तो यह है २० -२५ फीसद  की ताकत और आप भ्रम में हैं कि आप बहुसंख्यक हैं मूल निवासी हैं | रहिये, आप अवश्य रहिये बहुसंख्यक ( वरना उन्हें नौकर- चाकरों की फौज कहाँ से मिलेगी ), बस उन्हें मुल्क का शासन दे दीजिये | आने वाले कल वे कहने वाले हैं कि  हमारा काजी सारे विवाहों का रजिस्ट्रेशन करेगा , और वही जो न्याय , जो फैसला करेगा वही भारत सरकार को मान्य हो , शेष अमान्य | हैं न दारुलउलूम भारत को दारुल इस्लाम बनाने के लिए ! देख सकते हों तो देखिये अब तक और अभी भी वे अपनी शर्तों पर भारत में रह रहे हैं  { ध्यान दे दीजिये -कहना चाहिए यह भी हिंदुत्व का एक हिस्सा है }, और अपनी ही शर्तों पर रख रहे हैं हिन्दुओं को पाकिस्तान में | घटना  प्राचीन या मनगढ़ंत तो नहीं है कि वहाँ लड़कियों को ज़बरन मुसलमान बना कर दूल्हनें या ? बनायीं जा रही हैं ?    
इधर यहाँ हम हैं कि पैदल सेना , घुड़सवार , गजवाहिनी , जल / वायु सेना सब आपस में लड़ रही है , और एक दूसरे को क्षतिग्रस्त कर रहे हैं | खुशी मनाइए कि आप शीघ्र ही अपने चिरद्रोही-चिरशत्रु ब्राह्मण से छुटकारा पाने जा रहे हैं | ब्राह्मणवाद नया चोला , नया रूप रंग धारण करके आपकी सेवा में आपका उद्धार  करने हेतु पधार रहा है | स्वागत कीजिये | यह बिलकुल मत देखिये न चिंता कीजिये ,कि जो कहता है मेरा मज़हब सर्वश्रेष्ठ , मेरा अल्लाह सर्वशक्तिमान , और हम उसके बन्दे मुसलमान , वह निश्चयतः ब्राह्मण ही है और ब्राह्मण के आलावा कुछ नहीं है | ब्राह्मणवाद यही तो कहता है ? [नहीं अब इसे "था" कहना अधिक उत्तम होगा] | कि तुम नीच हो और हम उत्तम ? यह भी न गौर कीजिये कि मुसलमान भी जन्म से ही मुसलमान होता है | गाड पार्टिकल उनका कुछ नहीं बिगाड़ पायेगा | बहरहाल
रात ज्यादा हो गयी - अब शब्बखैर , यानी - -  

यह तो हुई दलित की बात


अपशब्द , दिनांक  - ९/७/१२ | नीलाक्षी जी संदीप एवं अन्य सभी मित्रो,जो इससे अपने को सम्बंधित समझते हों ! मैं आज सुबह से बहुत गुस्से में हूँ | कल इतना उद्विग्न था कि नींद की गोली खाकर ही सो पाया |  मेरे प्रातिभज्ञान [intuition] में यह पहले से ही था और उसे व्यक्त भी करता रहता था ,पर मुझे कहीं से सप्रमाण समर्थन प्राप्त नहीं था , और प्रबुद्ध साथियों  के निरंतर विरोध कारण एकाकीपन महसूस कर रहा था | लेकिन कल जब तवलीन सिंह को एक्सप्रेस में पढ़ा तो विश्वास हो गया कि मैं गलत नहीं,सही था | इस पर बस मैंने इतना किया कि उसे काटकर fb पर पोस्ट करना चाहा | टेक्निकली नहीं कर सका तो लिख दिया कि कृपया उस लेख को epaper  में पढ़ लें | काफी हाउस ग्रुप में मैं पोस्ट्स पर प्रतिक्रिया भले दे दूं पर मैं अपना कोई पोस्ट उस पर नहीं डालता , इस धारणा के भयवश कि इसमें बहुत बड़े बुद्धिपूर्ण लोग हैं , कौवे की तरह चालाक और होशियार जो सवेरे सवेरे गू खोदता है | कहें भले कि केवल राजनेता झूठ बोलते हैं पर बुद्धिजीवी भी केरियर या प्रतिष्ठा के लिए political correctness के तहत तमाम झूठ बोलते हैं और तमाम सत्य छिपाते हैं , सब मेरी तरह मूर्खता नहीं करते |
तिस पर भी आज सुबह जब ग्रुप खोला तो मुझे मेरी भी लाइनें गायब मिलीं तो मेरा पारा आसमान पर चढ़ गया | [यद्यपि बाद में वह दिखा जब बिपेंद्र जी ने पेपर कटिंग लगा दी | अब तो यह ग्रुप ओपन भी कर दिया गया पर मैं किसी घर में क्यों घुसूँ भले उसका दरवाज़ा खुला हो ?] लेकिन क्रोध / अवसाद का क्या , जो चढ़ गया तो चढ़ गया | वह बना रहा क्योंकि किसी ने उसे पढ़ा नहीं | इतनी फुर्सत किसे है ? वैसे ही वे इतना पढ़ लिए हैं कि ज्ञान साला छलका पड़ रहा है | और यह तो तय है कि देश किसी के अजेंडे पर नहीं है | जीवन और कर्म का कोई मकसद हो तब न वह सार्थक हो ? तो नीलाक्षी जी , भले आप की बात में सच्चाई ( सच्चाईयां भी एबसोलुट नहीं रिलेटिव होती हैं मैडम !) हो , पर मैं आप के हाथों "मूर्ख " का खिताब पाने की लालच में उसे सिरे से नकारने की धृष्टता करना चाहता हूँ | तो भी मैं "विप्र सकल गुन हीना " पूज्य हूँगा क्योंकि - - - -
जब देखो तब वही दलित , वही ब्राह्मण , वही जातिवाद , आरक्षण -अगड़ा पिछड़ा ! क्या और कोई विषय / समस्या नहीं दिखती ? हरदम सर पर ढोते फिरते हैं मानो कभी सामान्य आदमी नहीं होते | जातिवाद ख़त्म नहीं हुआ , तो यह कहाँ नहीं है ? वहाँ भी है जहाँ नहीं होनी चाहिए, जिनकी किताबें बड़ी पाक साफ़ हैं  | मुस्लिमों में कितनी जातियां हैं और उनमे कितना फर्क ,भेदभाव है क्या आप जानते है ? वहाँ भी सबकी अलग अलग टोपियाँ है और अलग मस्जिदें | नहीं जानेंगे क्योंकि दूर से फर्जी समर्थक हैं | सुबूत स्पष्ट है कि इसी कारण वहाँ से भी आरक्षण कि माँग है | मैं unka विरोध नहीं कर रहा हूँ | सबकी अपनी मजबूरियाँ है | उनकी वकालत भी नहीं कर रहा हूँ पर खूबी तो है कि वे विभेदों के साथ जीने - रहने के आगे एकजुट भी रहना जानते है, वरना वहाँ भी अल्लाह , मोहम्मद और कुरान पर सह मति के साथ तमाम असहमतियां हैं | अन्य धर्मों की भी यही हालत है | तो क्या केवल हमीं हैं जो हर वक्त सिर्फ विभेदों का रोना रोयेंगे और उनके  साथ जीवन को  जियेंगे नहीं ? क्या किसी भी दशा में सबके साथ निर्वाह संभव नहीं है | अभी तक तो हो रहा था , अब ऐसा क्या हो गया ?अख़बारों में ही देखिये "चमार " , 'कूर्मी ' आदि श्रेणियों के भी वैवाहिक विज्ञापन छपते हैं | वैसे भी चमार भंगी पासी कोहाँर कुर्मी अहीर कोई भी जाति बाहर विवाह नहीं करता /करना चाहता | सब अपने मानस -संस्कार के गुलाम हैं ,तो ब्राह्मण भी है | वह भी दरिद्र है ,आप की दया का पात्र है | कोई ब्राह्मण लड़की आपके घर क्यों आयेगी जब सुहागरात में पहले तो उसके बाप की जाति को १८ गालियाँ सुनाएँगे, उसका मूड उखड जायगा | फिर उसका पैर भी  नहीं सहलायेंगे कि "साली , तुम कोई ब्राह्मण नहीं हो " ? तो क्या वह आजीवन कुँवारी रहने और तिरस्कार सहने के लिए तुम्हारे घर आयेगी ? इस प्रकार के द्वेषभाव से तो कोई समाज नहीं बनता ,न बना है , तरक्की तो दूर | युद्ध / गृहयुद्ध की स्थिति भले आ जाय | तो जिसमे आपका भला हो वही कीजिये हुज़ूर क्योंकि  अपने अलावा किसी की ,और आगे कुछ देखने की चाहत तो दिखाई नहीं पड़ती | आरक्षण बहुत कमजोर साथी है और दलित होने के असम्मानजनक पहचान और ख़िताब को खुद उसकी लालच में छोड़ नहीं पा रहे हैं , दलित नामक मैले के टोकरे को कुछ टुकड़ों के चलते फेंक नहीं पा रहे हैं मानो वह हमेशा के लिए व्यवस्था हो ! आंबेडकर के अनुसार तो वह समय सीमा समाप्त है पर नालायक कार्यपालिका के कारण बढ़ाना पड़ा , तो वोट की राजनीति के चलते पिछड़े भी रेवड़ी लेने पहुँच गए | अपनी ईज्ज़त का कुछ ख्याल नहीं, तिस पर कहते  हैं हमारी कोई इज्ज़त नहीं करता {सामाजिक सम्मान के लिए है आरक्षण !} | बताइए जब जन्म से लेकर जीवन भर 'पिछड़ा ' ही होना/ बने रहना है तो "प्रगतिशील" कैसे हो सकते हो ?और तुर्रा यह कि कम्युनिस्ट बनेंगे | अब यह तो आसान है सारी स्थितियों के लिए दो हड्डी  के सींकिया पहलवान ब्राह्मण को दोष देकर छुट्टी पा लीजिये | खुद कुछ करना न पड़े , कोई ज़िम्मेदारी स्वयं न उठानी पड़े यह ब्राह्मणी नीति हो न हो , हिंदुस्तान का तो राष्ट्रीय चरित्र है | इसमें आपका कोई दोष नहीं है | दोष मेरा भी नहीं है जो मैं मूर्ख हूँ |
यह तो हुई दलित की बात , अब ब्राह्मण की सुनिए | लेकिन लगता है पन्ना कुछ बड़ा हो गया | उसे आगे पोस्ट पर लिखता हूँ , यदि नेट ने साथ दिया तो = =

शनिवार, 7 जुलाई 2012

स्त्रीवादी समाज

स्त्रीवादी समाज तब स्थापित होगा जब सेक्स में स्त्रियाँ पहल करेंगी और पुरुष उनकी बाट जोहेंगे | तब ' इज्ज़त ' पुरुष की जायगी | तब पुरुष दुष्चरित्र होगा |

लहना सिंह

* ज़िन्दगी भर
नाचना ही नाचना
नाचता तो हूँ !

* याद आ गया
उसने ही तो कहा था -
लहना सिंह -- !

* कहीं भी अब 
मिलने की जगह
असुरक्षित |

* प्यास बुझाता
पनघट तो प्यासा
किसको चिंता !

* माने ही नहीं
मेरे निवेदन को
वे चले गए ,
अब क्या करूँ
जब नहीं रुके तो
क्या जान दे दूँ ?

चकनाचूर

* चकनाचूर
हो तो गया घमंड
मेरी जाति का !

एक रास्ता है

[हाइकु व्याकरण -५/७/५- में कुछ कवितायेँ ]
* एक रास्ता है
छूट निकलने का
बंधो ही मत |
* दृष्टि हमारी
चकाचौंध हो जाती
तुम्हे देखता |
* बिजली गिरी
चलो अच्छा ही हुआ
दर्प तो जला !
* नहीं बनना
बड़ा नहीं बनना
मुझे तुमसे |
--------------------
[कवितानुमा ] =
* मैंने कहा -
प्यार - -
उन्होंने
अच्छी है कविता
कहकर टाल दिया |
* तुमने कहा -
तुम चमार
मैंने कहा -
मैं नहीं चमार ,
तुम हो तो हो |

मैं देखता हूँ


* ज़िन्दगी को ही
कविता कहता हूँ
कवि हूँ न मैं !

* मैं देखता हूँ
आदमी देखता हूँ
संस्थान नहीं |

[ अपशब्द ] =
*  अगर दलित ब्राह्मणवाद द्वारा प्रदत्त अपनी जातीय निम्नता और दयनीयता से इनकार कर दे , तो कोई माई का लाल नहीं जो उसे दलित कहकर अपमानित कर सके , ब्राह्मणी जाती प्रथा उसे परेशान कर सके |
* दलितों पर सख्ती = मायावती कर सकती थीं , या जब भी दलित शासन में आयें तो उन्हें करना चाहिए | वैसे इसे कोई भी दलित हितकारी राज्य कर सकता है , कि वह दलितों पर उसकी भलाई के लिए थोडा सख्ती से पेश आये | क्योंकि दलित इतने समय तक दबे कुचले रहे हैं कि उन्हें अपना भला नहीं सूझता | इसलिए यह ज़िम्मेदारी लोकतंत्र के संचालकों की है , विशेषकर दलित नेताओं की | जैसे कमाल पाशा ने मुस्लिम तुर्की को आधुनिक और प्रगतिशील बना डाला कि वह आज तक दकियानूसी इस्लामी नहीं बन्ने पाया | इसी की नक़ल पर हम भी भारत को दलित हिन्दू [गैर इस्लामी] राज्य घोषित न भी हो तो भी बनाना चाहते हैं जिससे इनपर सख्ती करके बहुजन - बहुसंख्यक भारतीयों को अन्धविश्वासमुक्त - वैज्ञानिक - आधुनिक प्रगतिशील और मानववादी बना सकें | सम्प्रति दलितों पर सख्ती यह की जानी चाहिए कि वे अपने बच्चों , लड़के और लड़कियों को स्कूल अवश्य भेजें | इसकी बाध्यता और अनुशासन उन पर होना चाहिए | सवर्ण भेजें न भेजें , लेकिन वे तो इसमें सतर्क हैं | जबकि   दलित इसके प्रति अधिक इच्छुक नहीं हैं तमाम सरकारी सुविधाओं के बावजूद , यह सत्य है | थोड़ी ज़बरदस्ती होगी तभी वे लाइन पर आयेंगे | यह बुरा भी नहीं है | इन्हें अभी शिशु के सामान पालन करना चाहिए भारत माँ को |  

साला मैं तो साहब


मेरे ख्याल से हम एक छोटी लेकिन  महत्वपूर्ण भूल कर रहे हैं | जिस व्यवस्था - अव्यवस्था के बारे में हम अपना दिमाग बाहर उलझाते हैं , वह तो आधिकांशतः मनुष्य के अन्दर है | क्या समझते हैं यदि बाहर की , यानी राजनीतिक -सामाजिक , व्यवस्था सब ठीक बना दी जाय , तो मनुष्य उसे ध्वस्त करके  नहीं रख देगा ? या एक व्यवस्थाविहीन समाज में व्यक्ति नितांत अनुशासित और व्यवस्थित व्यवहार नहीं कर सकता ? बहुत से लोग इसी जर्जर व्यवस्था में अपने कार्यों को सेवा में तब्दील कर रहे हैं , और तमाम लोग हैं जो अच्छी -भली व्यवस्थाओं की जड़ों में मट्ठा डाल रहे हैं | समस्या यही है कि हम आदमी नहीं बन रहे हैं , हम व्यवस्था के अंग बन रहे हैं | और विडम्बना यह कि खुशी से फूले नहीं समां रहे हैं कि अरे मैं तो व्यवस्था चला रहा हूँ - ' साला मैं तो साहब बन गया '

शुक्रवार, 6 जुलाई 2012

थोड़ा अपशब्द


[मैंने थोड़ा - थोड़ा अपशब्द लिखना शुरू कर दिया है - केवल प्रिय सम्पादक पर]
अपशब्द :=
* लड़के मनबढ़ हो रहे हैं , तो लड़कियों के भी दिमाग ख़राब हो रहे हैं | इसमें कोई आन्दोलन जोड़ने की ज़रुरत नहीं, समाज को देखने की बात है | और यह केवल बड़े घरों की बात नहीं है , उच्च - मध्य -निम्न घरों में भी लडकियाँ खूब मनमानी कर रही हैं , और अपने अलावा अन्य किसी के भी उपयुक्त नहीं बन रही हैं |  

* जब तक आर्थिक स्थिति का तकाज़ा था तब तक आरक्षण ठीक था , अब उसमें सामाजिक स्थिति का भी हवाला आ गया तो मानो गुड़ में गोबर मिल गया | भाई ,एक ही लक्ष्य रखते तो वह प्राप्त भी हो जाता , और वह भी दो विरोधाभासी चीज़ें ---? खैर छोड़िए , लेकिन इससे और नुकसान दलितों का इस प्रकार हुआ कि देखा देखी छोटे बड़े भूमिधर ओ बी सी ने भी सामाजिक उत्थान के नाम पर आरक्षण की दावेदारी ठोंक दी | जबकि दरहकीकत न वे आर्थिक रूप से इतने कमज़ोर थे न उनकी सामाजिक दशा ही दलितों जैसी अछूत की थी | लेकिन मिल रहा है तो क्यों न लें , देने वाला ठाकुर राजा तो था ही ? देने वाला दबंग , लेने वाला दबंग | इससे यह तो शायद नहीं हुआ कि दलित का हिस्सा उन्होंने छीना , लेकिन यह ज़रूर हुआ कि वे ओबीसी को आरक्षण के खिलाफ उभरे असंतोष और सवर्ण गुस्से के स्वाभाविक रूप से परोक्षतः शिकार हो गए | उसे लगा कि यह तो एक सिलसिला शुरू हो गया है जो उसके गले तक आ जायगा | अब इसी प्रकार मुसलमानों को आरक्षण देने के खिलाफ फिज़ा भी अंततः दलितों को देय आरक्षण पर ही भारी पड़ेगा , यद्यपि प्रकटतः उनका कुछ काटा नहीं जा रहा है | यह सब आरक्षण का प्रतिशत बढ़ाकर किया जायगा | लेकिन साधारण जनाकांक्षा यह हो सकती है कि अब सारे ही आरक्षण ख़त्म करो , जब उसे पचास फीसद से ऊपर जाना   ही है | वाकयी , यदि इसका क्षेत्र सीमित और सुनिश्चित सुपात्रों तक होता तो वह स्वीकार्य भी होता और प्रभावकारी भी | इसका क्षेत्र फैलने और फैलते जाने से इसकी  उपयोगिता अपना रंग खोती दिख रही है
* कोई यह  कहने को तैयार ही नहीं है कि नहीं , मैं अलित -दलित -आभन -बाभन कुछ नहीं ,केवल सामान्य आदमी हूँ | मुझे न आरक्षण चाहिए न अपमान , मुझे साधारण नागरिकता चाहिए | अब आप बताइए , यदि कोई अपना दलित होना नहीं त्याग सकता , जबकि दलित होना कोई 'होना' नहीं है , तो भला ब्राह्मण अपना ब्राह्मण होना छोड़ देगा इसकी उम्मीद कैसी , जिसमें कि वह सुख से है ? जिनके पास खोने को कुछ नहीं है जब वही अपनी जाति को मरे बन्दर की तरह सीने से चिपकाये है तो फिर वह अपनी जाति  क्यों छोड़ेगा जिसमे वह मज़े से है ? बल्कि वह तो और खुश ही होगा कि आप उसका दिया हुआ 'दलित' नाम मैले की टोकरी की भाँति उठाये हुए हैं | ज़ाहिर है इस मूल परिवर्तनकारी कार्यक्रम पर इनके नेतृत्व ने काम ही नहीं किया | कटु वचन हो जायगा , क्योंकि यदि दलित नहीं होंगें तो उनकी नेतागिरी कैसे चलेगी ? इसलिए ज्यादा से ज्यादा आरक्षण और कुछ मुट्ठी भर नौकरियों के लिए इन्हें धरना -आन्दोलन की राजनीति में फँसाये रहो , बिना इस और ध्यान दिए कि इससे इनकी कितनी जगहँसाई हो रही है |

ख्यालों में गुम


* ख्यालों में गुम
देख ही नहीं पाए
हम आपको !

* व्यंग्य को छोड़
लेखक के अधीन
बचा ही क्या है ?

* न कोई दर्द
न कहीं कोई पीड़ा
फिर भी कुछ !

* मतलब है
पढ़ने -लिखने का
बुद्धि खुलना |

गुरुवार, 5 जुलाई 2012

पैसा आएगा

* पैसा आएगा /
तो बुराई आएगी /
विषमता भी |

अब बरसात हुई

अभी गर्मी थी
किसान परेशान थे,
अब बरसात हुई
देखिएगा अब गावों पर
बिजली गिरेगी ,
महामारी फैलेगी | 

कोई सम्बन्ध



* कोई सम्बन्ध
तोडा नहीं जा सका
अपुन से रे !

चौबीस घंटे


* चौबीस घंटे
कम पड़ जाते हैं
लिखने [के] लिए |

* लिख जाता है
मेरे हाथ से कुछ
[मुझसे कुछ कुछ]
लिखता नहीं |

बुधवार, 4 जुलाई 2012

sexual orientation

ब्राह्मणवाद कितने सूक्ष्म तरीके से मनुष्य के भीतर काम करता है कि उसे कुछ पता ही नहीं चलता | उसको पकड़ पाना बहुत मुश्किल होता है | इसीलिये तो ब्राह्मणवाद के नाम में 'ब्रह्म' मिश्रित है ! इसे केवल तीब्र धार सतर्क मानववाद से ही काटा जा सकता है | देखें , यह भी ब्राह्मणवाद है, ये नैतिकता के कथित मूल्य उन्ही के दिए हुए हैं कि यदि किसी ने किसी से मित्रता कर ली तो वह व्यभिचारी हो गया[यी] , , किसी ने किसी को चूमकर अभिवादन कर लिया तो वह अपवित्र हो गया[यी] ,किसी ने चार विवाह कर लिया तो वह म्लेक्ष हो गया या  कोई किसी के साथ सो गया तो वह अगांधी हो गया, गाँधी नहीं रह गया | चिंतनीय विषय है कि किसी के sexual orientation [यौनिक अभिरुचि?] से उसके चरित्र का क्या वास्ता , यदि ब्राह्मणवादी व्यवस्था को सही न मान लिया जाय तो ? कोई स्त्री /पुरुष कितनी बार किस तरीके से सम्भोग द्वारा तुष्टि पाते हैं, इससे हमें क्या मतलब ?क्या लेना देना , यदि हम ब्राह्मण नहीं हैं तो ? और देखिएगा , ब्राह्मणवाद का पुख्ता सुबूत ,कि मेरी इस बात पर अभी मेरी आलोचनाओं की भरमार लग जायगी |      

तुम तसल्ली न दो


तुम तसल्ली न दो सिर्फ बैठे रहो ,
वक्त मरने का कुछ और टल जायगा |
देसी अंग्रेजी अनुवाद =
Don’t console me , only sit by me ;
The time of  my death will be shifted away |

barish mubaraq-5/7/12


अरे !
बारिश हो रही है ,
छज्जे पर मैनें
तुम्हारे लिए
आँखें बिछा रखी थीं ,
देखो , कहीं
भीग तो नहीं गयीं !
{savan ki pahli barish mubaraq-5/7/12}

शरीर पर अधिकार

* स्त्री की स्वतंत्रता का असली मतलब है , उसका उसके शरीर पर अधिकार | इसलिए मैं अनामिका [ कवियत्री ] की इस प्रस्थापना को , कम से कम अपने लिए , फाइनल मानता हूँ कि प्रणय प्रस्ताव का अधिकार केवल स्त्री को होना चाहिए | सचमुच जबसे मैं इसका  पालन कर रहा हूँ , अपने अन्दर एक नयी मानुषिक सभ्यता का अहसास करने लगा हूँ | प्रणय कर्म में पुरुष का पहल बलात्कार ही होगा , यह तय है , और इसे आसानी से समझा जा सकता है |

* उमा भारती जी पूरे सेसन सदन में उपस्थित नहीं हुयीं , क्योंकि उनके ऊपर ऐसा कोई बंधन / प्रतिबन्ध नहीं है | इसीलिये मैं कहता हूँ कि चुनाव आयोग को इनका मानिटर होना चाहिए | कितने दिन इन्होने सभा अटेंड की ? नहीं की तो वेतन कटना चाहिए | इनके वेतन भत्ते  तय करने अधिकार इन्हें स्वयं नहीं आयोग को होना चाहिए | इमके कारगुजारियों की वार्षिक रिपोर्ट , संपत्ति विवरण सहित आयोग को प्रकाशित करना चाहिए | चुनाव जीत लेने के बाद ये स्वच्छंद  न  रहने  पायें , इसकी व्यवस्था तो करनी पड़ेगी , वरना आज़ादी का सारा मतलब ये अपने ही हित में भुना लेंगे |       

दलित - स्मृति



शेर - फेर कर मुँह बैठते तो हो ,
         तुम्हारे सामने शीशा लगा है |

or - पीठ मेरी और करके बैठते तो हो ,
       ख्याल है कुछ,सामने शीशा लगा है |
or - पीठ करके मेरी जानिब बैठिये तो बैठिये ,
       जानिए भी एक शीशा आपके है सामने |,
-----
* सोच रहे हैं
ज़िन्दगी के बारे में
जियेंगे कब ?
* जितनी खुशी
मिली है जीवन में
बहुत तो है !
---------
* मनुस्मृति की आलोचना तो होती है | गलत या सही मैं नहीं जानता , मैंने उसे पढ़ा ही नहीं | लेकिन यह तय है कि भारत में यदि दलित शासन स्थापित करना है और उसे कायम रखना हो तो उसे भी एक दलित - स्मृति बनानी पड़ेगी ,या ऐसा ही कुछ | और यदि उन्होंने उसे सारे "मनुष्यों" पर लागू करने योग्य समझा तो उसे साधारण मनुष्य मनुस्मृति की ही संज्ञा देंगे | जैसे  मनुस्मृति भी किसी एक की रचना नहीं बल्कि समय के साथ बनते रहने वाली नियमों की किताब रही है | तो दलित - स्मृति से  हिंदुस्तान को कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए |
* मैं सोच रहा हूँ कि इन विषयों पर नहीं बोलूं . तो एक अंतिम बात - | ऐसा नहीं कि लोग इसे समझते हैं होंगे लेकिन विचारों - आन्दोलनों की भीड़ में लोग भूल ज़रूर जाते हैं | वह यह कि हिंदुस्तान में सभ्यता की निजात हिन्दू में ही है , चाहे आप उसका कितना ही विरोध करें , चाहे बिलकुल उलट कर रख दें | चाहे आप धर्म विरोधी नास्तिक हों, या धर्मच्युत दलित ! नास्तिक और दलित आप तभी तक हैं जब तक आप हिन्दू हैं , हिन्दू में ही इसकी सम्भावना है | यदि आप हिन्दू नहीं हैं तो आप दलित नहीं हैं , हो ही नहीं सकते | किसी अन्य धर्म में दलित नहीं होते , नास्तिक तो कुछ दबे -छिपे मिल भी जायंगे | फिर आरक्षण कहाँ से पाएंगे , किस्से माँगेंगे ? और हाँ , किसको गलियाँ देकर अपना मन हल्का करेंगे ?

* मेरा ख्याल है , जो "फल" हमारे पूर्वज आदम और हव्वा ने खाया था , यदि वह सेव या गेहूँ था ,तो वह भी प्रतीकात्मक रूप से यौन अंगों - पेल्विस [ कटि प्रभाग ] तथा स्त्री जननांग का ही द्योतक रहा होगा | और , नहीं तो "फल/फ्रूट" का अर्थ रहा होगा - योनिक संसर्ग के 'फल'-स्वरुप प्राप्त "आनंद का "फल" |      


मंगलवार, 3 जुलाई 2012

एन एप्पल अ डे


* [ कहानी ] - बाप का क़र्ज़
लड़का -लड़की दोनों एक दूसरे को पसंद करते थे | लड़का अच्छी नौकरी में था तो लडकी भी कुछ कम नहीं कमाती थी | लेकिन दहेज़ तो देना ही था | सो वांछित दहेज़ दिया गया और विवाह हो गया | अब लड़के के घर वालों ने गृह संचालन में लडकी की आमदनी से कुछ मदद की अपेक्षा की | लडकी ने कहा -क्षमा कीजियेगा मैंने अपनी शादी में दहेज़ के लिए अपने पिता से जो क़र्ज़ लिया था उसे मुझे दस वर्ष किश्तों में अदा करना है | उससे जो थोडा बहुत बचता है वह मेरे आने जाने और जेबखर्च भर को ही हो पाता है |

* कहानी = सफ़ेद चादर
लडकी वाले लड़के के घर शादी की बातचीत तय करने गए | सब बात तय भी हो गयी , बस शादी की तारीख तय होनी थी | तब तक लडकी के बाप की नज़र दीवान पर बिछे सफ़ेद चादर के लटकते कोने पर गयी | बेलौस उसने पूछा यह चादर आपके घर कैसे आई ? इस पर तो रेलवे का मुहर छपा है , और यह ए.सी. के मुसाफिरों को प्रयोग हेतु दिया जाता है , जिसे कुछ नीच और कमीने लोग अपने बैग में लेकर निकल भी आते हैं | मैं ऐसे घर में अपनी बेटी नहीं ब्याह सकता |
##
* [कविता ]
१ - ईश्वर एक कविता =
ईश्वर एक कविता तो है
लेकिन इतनी कठिन
कि मनुष्य इसे न समझ पाया ,
इतनी गहनायी की कविता
तुम क्यों बने प्रभु
कि उसमे मनुष्य उलझ गया
और तुम उसके मन में
उतर भी नहीं सके ?

२ - सेव का फल =
बड़े कमाल का फल है यह सेव भी
दुनिया , कहते हैं , इसी आकार की है ,
इसी को देखकर न्यूटन ने पृथ्वी के
खिंचाव को पहचाना था ,
और समझ लीजिये
ऐसा ही फल खाकर
आदम और हव्वा इस संसार में फेके गए थे
जिनसे हम मनुष्य बने , पैदा हुए
और आश्चर्य नहीं , जो डाक्टर
अब भी मनुष्यों से फरमाते हैं -
एन एप्पल अ डे - - - - |

३ - पड़ोस में जगरानी का मर्द
कल सीवर में घुस कर
सफाई करते समय
दम घुटने के कारण मर गया ,
आज जगरानी ने सातवें
मरियल बच्चे को जन्म दिया |
अब इस पर मुझसे
कोई कविता नहीं हो सकती |
##
* आप कहेंगे , और मैं भी सोचता हूँ कि यह क्या फितूर मेरे दिमाग में चला करता है , पर क्या करूँ ? आप बताइए कि हिन्दू धर्म के आलोचक तो सभी हैं | दलित भाई , कम्युनिस्ट लोग , ज्यादा पढ़े लिखे प्रगतिशील बुद्धिजीवी , मानवाधिकार कार्यकर्त्ता और सेकुलर राजनेता सभी | लेकिन क्या कभी आपने किसी छोटे - बड़े , पढ़े - अपढ़े , गवंई-शहरी , दरिद्र -दौलतमंद किसी भी मुसलमान को आप इस्लाम की आलोचना करते आप सुनते हैं ? मैं तो निष्पक्ष दर्शक की भाँति जो देख रहा हूँ , लिख रहा हूँ | अब यह तो नहीं हो सकता कि वहाँ कोई ज़रा भी विचलन न हो , यदि न भी होता तो आलोचना करने वाले उसे पाताल से खोज कर निकाल लाते | वही तो हिन्दू धर्मावलम्बी हिन्दू धर्म के साथ कर रहे हैं ? इनकी भी हर आलोचना वाजिब ही हो , ज़रूरी नहीं | जैसे उनका हर बात में इस्लाम का पिष्टपेषण तर्कसंगत नहीं |

घरजमाई


* [व्यक्तिगत] :- मुझे इस बात का कोई दुःख नहीं है कि मैं कुछ प्रबंधित ढंग से नहीं लिख पाया | मुझे इस बात का कोई दर्प भी नहीं है कि मैंने इतना सारा छिटपुट लिख डाला |

* बताना चाहते हैं कि हम स्पष्तः प्रयोगात्मक रूप के किस तो ब्राह्मणवाद से बचना , उसका विरोध और आलोचना करना चाहते हैं ? उसके अंदर जो भरा है वह तो अपनी जगह पर है , लेकिन जब वह कहता है अंडा मांस मछली न खाओ खासकर मंगल बृहस्पति को , बिना नहाये पानी न पियो , सोम शनीचर पुरुब न चालू , उत्तर सिरहाना करके मत सोओ, इन इन दिनों दाढ़ी न बनाओ, देखो जेठ से छू न जाये, जूता उतार कर कमरे में आओ इत्यादि | तब बड़ी कोफ़्त होती है | ज़िन्दगी नर्क बना देते हैं ये |  

* अच्छे भले चार पढ़े लिखे लोग बातें कर रहे हों और बीच में आरक्षण का विषय आ जाय तो खटास आने लगती है | किसी को महसूस होने लगता है कि सामने वाला आरक्षित वर्ग का है और वह साला बिलावजह बाभन बन जाता है | ऐसे में यदि वह संपन्न है तो उसमे दया भाव का उदय होगा, लेकिन यदि गरीब हुआ तो द्वेष से घिर जायगा | कहना न होगा ये दोनों ही प्रवृत्तियाँ घातक हैं | कह सकते हैं ,यदि वे समझदार समतावादी हैं तो उन्हें आरक्षण का समर्थन करना ही चाहिए | ठीक है , यदि वे ऐसा करते भी हैं तो वे विश्वसनीय कहाँ होते हैं ? दलित सोचता है - देखो हरामजादा सहानुभूति में मुंहदेखी झूठ बोल रहा है | ऐसे में एक मीठा कार्यक्रम यह बनता है कि गोष्ठी में यदि लगे भी कि कोई ब्राह्मणवादी मानसिकता का है तो उसे वैसा घोषित करके गाली न दें , और यदि किसी को लगे कि कोई दलित भाषा बोल रहा है तो भी उसे दलित कहकर अपमानित न करें | कोशिश करें कि विषय ही बदल जाए , क्योंकि यह सीमित मात्र में नौकरियों के लिए दलितों और सरकारों के बीच का रिश्ता है | उसमे सवर्ण दखल न दें |बहस से कुछ होने- बदलने वाला नहीं है सिवा रिश्तों में खटास आने के | न भलमनसाहत दिखाने की ज़रुरत है न विरोध करने की | सांस्कारिक अभिव्यक्ति से ज़रूर बचने की ज़रुरत है |

* एक बहुत बड़ा छद्म बड़ी सफाई से फैलाया जा रहा है जो प्रियं ब्रूयात के हिसाब से तो ठीक है पर उसका पोल समझना ज़रूरी भी तो है | कहा जाता है कि अँगरेज़ तो हिंदुस्तान से धन दौलत लूट कर इंग्लैण्ड ले गए जबकि मुसलमान इसी मुल्क के होकर रह गए | कथन में सफाई और चालाकी कुछ भाँप रहे हैं आप ? एक चोर कुछ उठाकर ले जाने लायक सामान एकबार लेकर भाग जाता है उससे घर को ज्यादा नुकसान हुआ या उस मेहमान से जो घरजमाई बनकर बैठ गया ? फिर संपत्ति को उसे ले जाने की क्या ज़रुरत ? वह तो घर का समूचा मालिक ही हो गया |

* आशा व्यर्थ है
बड़े लोग सच तो
नहीं बोलेंगे |

         सत्यवचन
         बड़े लोग कभी भी
         नहीं बोलते
         लीपापोती करके    
         नाक बचाते |

सच बयानी
बड़े लोग करेंगे
सोचना मत |

सोमवार, 2 जुलाई 2012

दलितों के हाथ में सत्ता


* दलितों के हाथ में सत्ता देने के मकसद के पीछे कोई दया भाव नहीं बल्कि हमारा और राष्ट्र का बड़ा स्वार्थ छिपा हुआ है |
एक तो यह कि यह सचमुच उनकी हकदारी की बात है ,और यदि किसी को उसका वाजिब हक दिलाने में हम किंचित भी सहायक होते हैं तो इससे बड़ा स्वान्तःसुखाय काम और क्या हो सकता है ?दूसरे यह की हमारे नास्तिकता  के आन्दोलन को यही वर्ग आगे ले जायगा | तीसरे  फिर उसके  प्रभाव में  व्यक्ति का प्रादुर्भाव और उत्थान होगा , जो कि हमारा अभीष्ट है | यदि व्यक्ति हमेशा जाति-पांति -संप्रदाय - धर्म- ईश्वर के चंगुल में फँसा रहा तो उसका वैयक्तिक स्वातंत्र्य कैसे फलेगा और मानुषिक  अस्मिता कैसे विकसित होगी ? इसीलिये हम दलितपन को भी एक धार्मिक संगठन बनने से बरजते हैं | छोडो भाई आदमी को ,  ब्राह्मण तो उसे नहीं छोड़ेगा तो दलित को तो छोड़ दो | उसे लेकर हम नयी दुनिया बनायेंगे |

* समाज में स्वाभाविक रूप से यह होता है कि सब अपना अपना काम करते हैं | उसमें वे कुशल होते हैं , और उसे अंजाम देने में सफल होते हैं | लेकिन एक काम ऐसा है लोकतंत्र में राज्य बनाने का कि इसमें सबको शासन बनाने का काम करना होता है | अपना वोट देकर सब इसके पाप -पुण्य का भागीदार bante hain | ज़ाहिर है वे इस काम में पटु तो होते नहीं , सो उसे बिगाड़ कर अधिकतर पाप के ही भागी होते हैं और उन्ही के वोट के बल पर चतुर चालक लोग अपने लिए इसी दुनिया में स्वर्ग का निर्माण कर लेते हैं |
* यदि सिंचाई और सार्वजानिक निर्माण विभाग ईमानदार ही होते तो हर वरिष्ठ मंत्री इन विभागों को क्यों हथियाना चाहते ?

* अरविन्द केजरीवाल चहक कर कहते हैं देखो मैंने कहा न था कि वह मंत्री भ्रष्ट है ? इसी प्रकार और भी १५ मंत्री भ्रष्ट हैं | लेकिन क्या हमने यह नहीं देखा कि वह मंत्री पुराने कायदे कानूनों के मार्फ़त ही सजायाफ्ता हुआ , लोकपाल बिल से नहीं ?

* एक दर्शन उग्र राष्ट्रवाद के विरोध के नाम पर राष्ट्र को ही नकार रहा है , टब के पानी के साथ बच्चे को भी फेंके  दे रहा है , दूसरी तरफ एक नीति बड़ी सहजता से देश को  दारुल इस्लाम तक पहुँचाने की समझदारी और बुद्धिमत्ता से लैस है | कौन विजेता होगा , समझना कहाँ मुश्किल है ?

* जंगलों में कुछ विद्वान दार्शनिक अपने वसूलों का प्रैक्टिकल  ज़मीन पर उतारने के नाम पर भोले भाले आदिवासियों को बकरा बनाकर बलि पर चढ़ा रहे हैं , तब दलित आन्दोलन उनका कोई विरोध नहीं कर  रहा है | अच्छी गफलत में हैं वे |
जब कुछ महान सिद्धांत परस्त लोग अपने क्षेत्र के समस्त आदिवासियों को मरवा देंगे , तब वे किनके सहारे बचेंगे ?
सरकार को क्या है ? उसी के पास जवानों की कहाँ कमी है ? पुलिस में  और भर्तियाँ  कर लेगी | फिर पुलिस आदिवासियों को मारे , आदिवासी पुलिस को मारें उसके ऊपर क्या फर्क पड़ता है ? लेकिन सामाजिक आंदोलनों को तो इसका दुष्परिणाम सोचना था ? यह नहीं सोचते माओवादी , सरकार की तरह वह भी संवेदनहीन संस्था है | और यह तो भविष्य के गर्भ में है कि जब इनका शासन आएगा तब ये कौन सा स्वर्ग उतार लायेंगे ?
अभी तो सीमा आज़ाद भी बच जायेंगी और तमाम सिद्धात सहयोगी , जिनकी कोई कमी नहीं है | फिर उनके लिए अक्षम कोर्ट के दरवाजे खुले हैं | ये कोई माओवादी अदालतें तो हैं नहीं कि सुनवाई का कुछ नाटक हुआ और फिर  ठांय - ठांय | इतना परेशान होने कि ज़रुरत क्या है ? क्या इतनी बड़ी क्रान्ति की कोई कीमत नहीं अदा करेंगे ?
कोई दुःख इतना बड़ा नहीं होता कि सरकार से इस तरह का युद्ध छेड़ देते आदिवासी , यदि उन्हें बरगलाया - उकसाया न गया होता | क्या ये परेशानियाँ मुग़लों-अंग्रेजों के ज़माने में न थीं ? या सब लोकतान्त्रिक सरकारों को डावांडोल करने का इरादा है ? आदिवासी , आदिवासी तो थे अशिक्षित , वे इतना बड़ा दर्शन सीखकर माओवादी कैसे हो गए ? फिर जब तुम इस व्यवस्था को ही नहीं मानते ,तो इससे मानवाधिकार की आशा ही क्यों करते हो ? अपने वकील संगठनों से इसकी गुहार क्यों लगवाते हो ?
बड़े भोलेपन से कहा जाता है कि उनके झोले में तो बस कुछ किताबें थीं | क्या किताबें कुछ नहीं कहतीं ? किताबों को इतना नज़रअंदाज़ वाम संगठनों ने तो कभी नहीं किया , बल्कि कई तो किताबों के प्रकाशन और विपणन को ही अपना एकमात्र कार्य ही बनाये हुए हैं , इस प्रत्याशा में कि ये ही एक दिन क्रांति लायेंगीं | मेरा कोई ऐतराज़ नहीं है , पर इतना झूठ क्यों बोलते हैं लोग जो बर्दाश्त से बाहर हो जाय , आँखों में धुल झोंकने के समान ? ठीक है ताल ठोंक कर कहो कि हमारा संघर्ष है व्यवस्था के साथ | तो फिर व्यवस्था का अत्याचार भी झेलने का साहस रखो , रोते क्यों हो ? सुकरात ने क्या सच बोलकर सत्ता का विष पिया नहीं था ? 2/7/12

विचार गुप्तचर


* अगर मानव नहीं बदला :-
* बलरामपुर के अग्र दार्शनिक कवि बाबू जगन्नाथ जी [स्व.] के कुछ अशआर जिन्होंने मेरी ज़िन्दगी में खड़मंडल डाल दिया , हंस की भाषा में कहें तो ' बिगाड़ा ' :-
       अगर मानव नहीं बदला , नयी दुनिया पुरानी है ;
       कहीं शैली बदलने से नयी होती कहानी है ?
प्रगति के हेतु कोई एक पागलपन ज़रूरी है ;
तुम्हारे मार्ग में बाधक तुम्हारी सावधानी है |
       जहाँ स्वाधीनता के दो पुजारी युद्ध करते हों ;
       वहां समझो अभी बाकी गुलामी की निशानी है |
[यह शेर सुभाष - गांधी विवाद को इंगित करता है ]

* आज़म खान पूरी तरह से बदतमीज़ , बददिमाग , और बदनीयत इंसान है |
* किसी भी समाज में काम में कार्य कुशलता और कौशल का महत्त्व तो सर्वदा रहा है और सदा रहेगा | तात्कालिक भावना वश इससे हमेशा इनकार नहीं किया जा सकता , भले अभी इसे थोडा किनारे डालना औचित्यपूर्ण हो | कल्पना करें यदि पूरे देश या विश्व में दलित ही हो जाँय तब भी कोई दलित भी कुशल इंजिनियर - कारीगर , डाक्टर -सर्जन कि ही सेवाएँ प्राप्त करने की प्राथमिकता देगा |
* अब एक प्रश्न है दलित हितों में सवर्णों की भागीदारी का | निश्चय ही देना चाहिए और बहुत से समझदार -संवेदनशील बुद्धिजीवी ऐसा कर भी रहे हैं | लेकिन यदि सामान्य ठेठ बुद्धि से सोचा जाय तो सवर्णों से इसकी आशा क्यों की जाय ? अव्वल तो अविश्वास के कारण वः दलितों को स्वीकार ही नहीं है क्योंकि उनका दर्द स्वानुभूत नहीं , तो फिर सवर्ण इस आग में अपनी हथेली क्यों जलाये ? स्वाभाविक है ,जिसका हिस्सा कुछ जा रहा है , वह उसे स्वेच्छा  से तो स्वीकार नहीं करेगा , कानून के दबाव में भले कर रहा है | क्या दलित इसे ख़ुशी - ख़ुशी स्वीकार कर लेते यदि उन्हें कुछ त्यागना पड़ता ? सबूत है , अपने दलित भाइयों के लिए ही क्या वे मलाई छोड़ने को तैयार हुए ? तब सामाजिक न्याय का वितंडा उठा दिया गया | एक और बात है , जब आप उनके महापुरुषों , बाप दादाओं को अविरल गालियाँ देते फिर रहे हैं , उन्हें अपमानित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं , तो उनसे यह आशा करें ही क्यों कि वः आपको सचमुच आदर सम्मान दे दे ?
* आंबेडकर जी संविधान के निर्माता थे , यह उसी प्रकार का सच है जैसे - दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल, साबरमती के संत तुने कर दिया कमाल " है | लेकिन विडम्बना है कि अब इनमे से किसी के खिलाफ कुछ नहीं कहा जा सकता | आजादी का पोल तो फिर भी खोल दिया जाता है , पर यह कोई नहीं बताता कि इस संविधान को आंबेडकर स्वयं अपना नहीं मानते ,न उसका श्रेयलेते हैं | उन्होंने जो ड्राफ्ट किया वह यह नहीं है | सभा में तमाम बहसों के बाद यह पास हुआ | खैर श्रेय देने में कोई हर्ज़ नहीं है लेकिन यह भी मन्ना चाहिए कि यह आंबेडकर की प्रतिभा के आगे अत्यंत  सूक्ष्म काम था | उनकी महत्ता को एक किताब की ड्राफ्टिंग तक में सीमित कर देना मेरे ख्याल से उनका समुचित सम्मान नहीं है | लेकिन क्या किया जा सकता है ? जो हो रहा है वही  ठीक है | कल को कहा ही जायगा -" अन्ना द्वारा लिखित लोकपाल विधेयक -----" |   -विचार गुप्तचर [जासूस]


अदृश्य शक्तियाँ


डायरी -नोटबुक २/७/१२
* [व्यक्तिगत] :- आखिर मैं अपने मन का दर्द किससे कहूँ ?-------------------लेकिन सोचता हूँ किसी से न कहूँ |
* मुझे लगता है मैं अपने ऊपर आने वाले सपनों के कारण कहीं एक दिन इन  पर विश्वास न करने लग जाऊं ?
* यदि किसी ने मूर्ख बने रहने की बिलकुल ठान ही न रखी हो , तो ,वह कोई भी हो , बड़ी आसानी से बुद्धिमान  बन सकता है |
* अद्भुत बात है , संस्कृतियाँ अलग होते हुए भी फर्क नहीं होतीं | आज २ जुलाई है , कोई कहे अषाढ़ का अमुक तिथि है , कोई अपने कलेंडर से कुछ बताये तो क्या फर्क पड़ता है | है तो वह आज ही | कोई आइ लव यू कहे या प्रेम इश्क करे , क्या फर्क ?
* ज़िन्दगी आदर्श सिद्धांतों पर चलने में असफल है , और यह ऐसी ही सदैव रहेगी | बहुत जटिल है जीवन और कुटिल है समाज | इसलिए इसमें सुरक्षित जीने के लिए ऐसे व्यवहार करने पड़ते हैं कि उन्हें लिखकर देना भी अनुचित  होगा |
* कविता -
एक सुबह सोकर उठता हूँ
और देखता हूँ कि
मेरी शादी हो गयी है ,
बाल बच्चेदार हो गया हूँ
मेरी नौकरी लग गयी है |
मुझे कुछ महसूस करने की
ज़रुरत नहीं हुई
कि औरत कैसी है , बच्चे
कितने लड़के कितनी लडकियाँ हैं
मुझे भोजन मिल गया और
मैं अपने काम पर निकल गया |
 
* उसकी कोई मूर्ति
नहीं हो सकती ,
तो उसका कोई
मस्जिद भी
नहीं हो सकता |

* मुझे छूकर
ईश्वर को प्रणाम करो
मैं ही हूँ
जो ब्रह्मा के पैर से पैदा
ब्रह्मा का पैर हूँ |

* लोग सलाह देते हैं - राजनीति में आओ | राजनीति में सभी तो सक्रिय हैं , क्या शिक्षक , क्या मिसाइल वैज्ञानिक , क्या लोकायुक्त , क्या सैन्य जनरल ! कहाँ कमी है राजनीतिकर्मियों की ? फिर उनमे हमारी क्या विसात ? तब भी हम राजनीति में तो हैं ही ! तभी तो कहता हूँ - अच्छा हुआ जनरल  का कार्यकाल समाप्त हो गया , अच्छा हुआ कलाम को दुबारा राष्ट्रपति के लिए उम्मीदवार नहीं बनाया गया , अच्छा हुआ लोकायुक्त को उनके द्वारा माँगी गयी अकूत शक्तियाँ नहीं दी गयीं |
 अब स्थिति यह हो गयी है कि किसी को बुरा भी कहने का मन नहीं होता [ यह संभवतः मेरे भीतर का ब्राह्मण था जो किसी को बुरा -भला बनाता था ] | अब मैं न अच्छाई ढूँढता हूँ न बुराई | बस आदमी को आदमी की तरह ही देखता हूँ - अच्छाई बुराई का पुंज या फिर इनसे हीन - मैं उनमें शून्य देखता हूँ , शून्य भाव से | सोचता हूँ , यही रास्ता है समता का और इंसानियत का !

* नागरिक जी
तकलीफ में तो हैं
पर क्या करें ?
*  हम चमार
आपको श्रीमान जी
क्या ऐतराज़ ?
* बड़े - बड़े हों
अवगुण जिनमे
वह ब्राह्मण |
* अच्छी -बुरी क्या ?
इसी का तो नाम है
यह दुनिया !
* मैं कहता हूँ -
मैं दलित नहीं हूँ
मैं ब्राह्मण हूँ
मैं असली ब्राह्मण
तुम क्या कर लोगे ?
मैं कहता हूँ
तुम ब्राह्मण नहीं
तुम दलित |
* हर धनिक
पापी ही नहीं होता
सही भी होता |
* हाँ , यह तो है
बदलनी चाहिए
जग की रीति |
* आज युवा का
आदर्श कोई नहीं
वह खुद हो |
* कह तो दिया
कितना कह जाऊँ
जो तुम जागो ?
                     [ अभी इतना पोस्ट करता हूँ फिर रात में लिखूँगा ]
आज मेरा नाम है - अदृश्य शक्तियाँ | यह लिखना मेरा नहीं है |

तिवारी जी और इमरजेंसी

यादें बहुत हैं , लिखनी हैं | पर अभी तिवारी  जी और इमरजेंसी पर लिखता हूँ जिसका विवाद शायद ' काफी हॉउस ' पर उठा था | विश्वास किया जाय कि मैं हूबहू वही लिख रहा हूँ जैसा उनसे सुना और उनको देखा , और इसमें अपना कोई विचार नहीं जोड़ रहा हूँ | वह इसकी प्रशंसा करते थे कि सरकारी  कार्यालय चुस्त हो गए थे और कर्मचारी समय से आने लगे थे | अनुचित वह संजय  गांधी के कारनामों को मानते थे | तिवारी जी संभवतः पूरी इमर्जेसी जेल में थे [ठीक स्मरण नहीं क्योंकि मैं  उस काल का  चश्मदीद नहीं था, हम बाद में उनके संपर्क में आये ] जहाँ वह चन्द्रशेखर जी के साथ थे | उनमें घनिष्ट्ता का प्रमाण हमें तब मिला जब लखनऊ के एक सम्मलेन में शेखर जी ने उन्हें देखते ही गले लगा लिया | तिस पर भी वह जय प्रकाश आन्दोलन का ख़ास कारण यह बताते थे कि इंदिरा गांधी ने जे पी को मिलने  के लिए घंटों बिठाये रखकर इंतज़ार कराया , और क्या ? और मेरी दल विहीन राजनीति के प्रति आसक्ति पर उनकी टिप्पणी नकारात्मक थी | उनका कहना था कि उन्होंने इसका कोई खाका नहीं दिया | अंततः , फिर पिछले किसी [ माया या मुलायम के ] शासन ने जब दूसरी आजादी के सेनानियों को कुछ पुरस्कार या पेंसन देना चाहा तो जैसा हम उम्मीद करते थे और उन्होंने ऐसा पहले     कहा भी कि वह नहीं लेंगे | लेकिन बाद में पता चला कि अत्यंत अस्वस्थता के बावजूद वे उसके लिए लाइन में लगे थे | एक घटना और यहाँ रोचक एवं उल्लेखनीय है कि जब शेखर जी पी एम बने तो उन्होंने मेरे सामने ही चार आने के पोस्ट कार्ड पर बधाई लिखी | बल्कि मैंने कहा भी कि यह उचित नहीं है , लिफाफे में रखकर कायदे से पत्र भेइए | लेकिन उनका जवाब था कि ' क्या करना है , थोडा ही तो लिखना है ' |   

रविवार, 1 जुलाई 2012

डायरी नोटबुक - १/७/२०१२



डायरी नोटबुक अख़बार , दिनांक - १/७/२०१२
* दिल मेरा है /
खेत , उनका हल -
चल रहा है |

* अब आज़ादी और लोकतंत्र का मतलब है - सारांशतः -" दलितों का शासन , जिन्होंने कभी राज्य का मुंह नहीं देखा | "

* संविधान का निर्माण ही सही , चलिए आंबेडकर जी ने किया न ! आपने क्या किया ? क्या कर रहे हैं ? उनकी मार्किंग आपको तो मिलेगी नहीं !

* अंग्रेजों  ने राज किया , तो मुसलमानों ने भी किया ही है | अंग्रेजों ने तो कुछ रेलवे वगैरह भी दिया , मुसलमानों ने क्या दिया - कब्रें और इमारतें , बुर्ज़ और गुम्बदें ! इनसे पहले ब्राह्मणों ने भी बहुत राज कर लिया | अब दलितों की पारी है |

* हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई " जैसा एक नारा हिंदुस्तान के लिए और ज़रूरी है -" अवर्ण सवर्ण सिख अनुयायी , आपस में सब भाई भाई " | भले जैसे हिन्दू मुस्लिम एक नहीं हो सकते , अवर्ण सवर्ण भी एक नहीं होंगे | पर नारे तो दोनों चलेंगें , एक चल ही रहा है ,दूसरा भी चलना चाहिए | इस नारे का रूप यूँ भी हो सकता है कि - " अवर्ण  सवर्ण - भेद नगण्य " |

* यह लोकतंत्र / अब उनका है / जिन्हें नहीं मालूम कि / लोकतंत्र का / मतलब क्या है ? - [कविता ?]

* शासन का दकियानूसी  विचार कुछ इस प्रकार होगा -- ये अहीर गंडरिया चमार सियार लाला लूली , बनिया बक्काल भला शासन करना क्या जानें ? शासन वे करें जिन्हें शासन की कुछ तमीज हो !" लेकिन अब तो लोकतंत्र है और यह विचार किसी भी हिसाब से चलने वाला नहीं है | तो फिर चलने वाला क्या है ? क्या लोकतंत्र के नाम पर फिर उन्ही का शासन स्थापित हो जाय जिन्हें राज्य करने का कथित शऊर होना बताया जाता है - यानी क्षत्रिय राजा -रानियों और उनके गुरु ब्राह्मणों , कारिंदों -कारकुनों  कायस्थों का ? इस प्रकार तो वही दकियानूसी शासन घूम फिर कर फिर उतर आएगा [ ऐसा हो भी रहा है जिसे हम देख सकते हैं , अपने अकूत छल-बल -धन के बदौलत वही लोग फिर शासन में आ रहे हैं ] | फिर तो लोकतंत्र का कोई मतलब नहीं रह जायगा यदि वही बाबू भैया - नवाब सुलतान, हिन्दू मुसलमान लोग ही सत्ता में आ गए ! इसलिए समझदारी का लोकतंत्र यह होगा कि राज्य की हकदारी अब दलितों को प्राप्त हो जाये | अब यह जैसे भी हो , चुनाव -बेचुनाव द्वारा या समझदारी से न्याय के लिए समर्पण द्वारा | दलितों की कोई कमी है क्या ? उन्ही में से अपना विधायक -सांसद छांटिए | कोई सवर्ण, कोई अँगरेज़ , कोई मुसलमान किसी चुनाव में खड़ा न हो ऐसा प्रतिबन्ध- प्रावधान संविधान द्वारा कीजिये |  

* क्या औरत -मर्द में फर्क नहीं है ? क्या हम उस अंतर को पहले मिटाकर , उनको मर्द बनाकर या अपने को औरत बनाकर  फिर  उनके साथ जीने का कार्यक्रम बनाते हैं ?तब उनके साथ तो हम उस फर्क के  साथ  जीते मरते हैं, बल्कि उस फर्क के लिए ही जान देते हैं  | उसी प्रकार हम यह नहीं जानते कि जातियों में क्या अंतर है ? उसे किसने बनाया या यह कैसे बनी ? हमने उसे मिटाना चाहा पर वह नहीं मिटी, तो हो सकता है कोई फर्क होता ही हो औरतों मर्दों ज़नखों की तरह इनमे भी ! अंतरों का क्या कहा जाय , वह नित नए रूपों में दुनिया में आ रही हैं | तो यदि  दलित पैर से पैदा हुए तो क्या हम मोज़े धोते नहीं ? जूते चमकाते नहीं ? वे भी तो हमारे अंग - आभूषण हैं ? हम उनके साथ उनके अपने फ़र्कों के साथ भी रह सकते हैं और रहेंगे | मुझे लगता है यह झगड़ा हमारे किन्ही दुश्मनों का लगाया हुआ है , जिसे न सवर्ण समझ पा रहे हैं न दलित | समझ रहे हैं तो वे जो इस विभाजन का लाभ उठाकर  अवर्ण - सवर्ण सब पर शासन करने के स्वप्न पाले हुए हैं | वे सफल भी होंगे यदि हम नहीं समझे |

* वर्ण भेद का विनाश चेक एंड बैलेंस द्वारा भी तो किया  जा सकता है ! चलिए आप मानते हैं , या मैं खुद इस अहंकार में हूँ कि मैं आप से जन्म में श्रेष्ठ हूँ , तो आप विज्ञानं में मुझसे श्रेष्ठ हैं [ ज्ञान नहीं कहूँगा क्योंकि वह तो निरर्थक पंडिताऊ विषय है ] | मेरे विचार से दलितों का गणित और विज्ञानं के क्षेत्र की उच्चतम पढ़ाई , समुद्र की गहराई -अंतरिक्ष में उड़ान में महारत होने की कला उन्हें उच्च और श्रेष्ठ स्थान समाज में दिला सकती है , यदि वे प्रयास करें | यह सूत्र मैंने वहां से लिया है जहाँ आंबेडकर कहते हैं की गाँव छोड़कर भागो | पर दलित हैं की उसी गाँव के कीचड़ में पड़े हाय दलित हाय ब्राह्मण चिल्ला रहे हैं | इसे मैंने अमरीका के अश्वेतों से भी सीखा जो रंगभेद  के शिकार थे , पर उन्होंने हर क्षेत्र में अपनी योग्यता का झंडा गाड़ा | खेलों में , फिल्मों में यहाँ तक की सेक्स वीडियो में भी उन्होंने अपनी क्षमता के बल पर ख्याति और अनुशंसा हासिल की | यहाँ क्यों नहीं हो सकता यदि मुट्ठी भर नौकरियों  का लालच छोड़कर अपनी प्रतिभा प्रदर्शित करने का हौसला कर लिया जाय ?

* अब यह बात मैं सार्वजानिक रूप से नहीं कह सकता | इसलिए केवल नीलाक्षी जी से कहता हूँ | उन पर मुझे भरोसा है , भले वह मुझसे नाराज़ हो जायँ | पहला तो यह की मैंने उनके कुछ नाम विचारे हैं - "मीना मीनाक्षी " , " मीनाक्षी मीन " , और एक " अच्छी मीनाक्षी " भी तो खूब लयपूर्ण है , 'साक्षी' भी एक काफिया है ! दूसरे यह कि तनिक एकांत में वैचारिक गहनता से यह निष्पक्षता से [दलित -ब्राह्मण खाँचे से ऊपर उठकर {पता नहीं वे क्या हैं}] साक्षी भाव से सोचें कि इतने दिनों के आरक्षण से दलितों को सामाजिक सम्मान मिलने में बढ़ोत्तरी हुई है कि अवमानना और तिरस्कार का ? समाज की मानसिकता यदि अनुकूल नहीं हुई तो सरकारों  के कहने से तो वह सम्मान देने से रहा | वैसे यह मेरा ख्याल ही है जो गलत हो सकता है  , इस मुद्दे पर मैं आपकी समझ या सर्वेक्षण -अनुमान को ही ऊपर रखूँगा | फिर , यदि तनिक कुछ मिला भी हो तो क्या वह एक मानुषिक इयत्ता के लिए पर्याप्त है ? आधुनिक लौकिक सम्मान तो वाकई मिलता है सत्ता और सम्पदा से | राज्याश्रित होकर कोई सम्मान , सच्चा मान कैसे पा सकता है , यह मेरी समझ से बाहर है , वह भी तब, जब कि शेष समाज उसका विरोधी हो ? [May Skip it , and  forgive  me] 

* [व्यक्तिगत] :- आखिर मैं अपने मन का दर्द किससे कहूँ ?-------------------