शुक्रवार, 22 जून 2012

दलितों का धन

* मैं ब्राह्मणवाद पर अनायास ही सोचने लगा जब कि मैं ब्राह्मण नहीं संभवतः शूद्र की श्रेणी में आता हूँ | फिर जब जन्मना श्रेष्टता न्यूनता नहीं मानता तो नहीं मानता | यह जिद है हमारी | भले  संस्कारगत या पालन पोषण , शिक्षा दीक्षा में विविधता के कारण अंतर , अथवा यूँ हर व्यक्ति की पृथक इयत्ता और प्राकृतिक विशिष्टता को स्वीकार करता हूँ | लेकिन यह भी मानने में हमें परेशानी है कि मुसलमान - दलित -ब्राह्मण के बारे में सोचने से पहले स्वयं  मुसलमान - दलित -ब्राह्मण हो लिया जाय | यह तो लोकतान्त्रिक विचारशीलता के ही विपरीत हो जायगा | तो अब सोचना है कि  ब्राह्मण को पूज्य मानने का क्या कारण हो सकता है ? एक तो यह समझ में आता है कि उसने अपने जिम्मे केवल पढ़ने- पढ़ाने का काम रखा , और ऐसे लोग स्वभावतः परजीवी होते ही हैं | जैसे आज भी विद्यालयों - विश्व विद्यालयों के अध्यापक , कवि -कलाकार क्या करते हैं ? दूसरे यह कि वह कभी राजा नहीं नहीं बना | परोक्षतः उसने अपने ज्ञान -विज्ञान से राज्य शासन को प्रभावित , किंवा संचालित भले किया , पर राजा तो क्षत्रिय ही रहा | चाणक्य का उदाहरण ज्वलंत है | तीसरे उसने कभी धन नहीं बटोरा | पुरानी किसी भी कहानी में धनी बाभन का उल्लेख नहीं मिलता | धनाढ्य सेठ वणिक-बनिया ही होता है पर " किसी गाँव में एक गरीब ब्राह्मण " ही रहता मिलेगा | प्रहार कटु हो जायगा यदि कोई कह दे कि वह दलित का पैर छूने को तैयार है यदि दलित यह घोषणा कर दे कि " दलितों का धन केवल भिक्षा " | यह मामूली बात नहीं थी कि उसने अपने लिए भिक्षावृत्ति सुनिश्चित की , न उसने एन जी ओ बनाकर या संतई का ट्रस्ट बनाकर करोडो की संपत्ति जमा की | उस ब्राह्मण की आज के ब्राह्मण से तुलना अनावश्यक है | अब ब्राह्मण भी मुख्य धारा में आ गए हैं , और तबसे धनी- मानी बनने लगे हैं जबसे सर्वजन प्रयोग करके उन्हें सत्ता , शासन और राज्य में सीधे बिठाया गया | निस्संदेह सामान्य ब्राह्मण अब भी कुछ सनातन संस्कार के वशीभूत अपने को थोड़ा अनुचित गुमान में रखता है , पर यह एक सामान्य मानुषिक दोष है जिसका परिमार्जन समय के साथ होना ही है | उसे तो मिटना ही है और सामान्य नागरिकता की श्रेणी में आना ही है | लेकिन यदि कोई वर्ग या समुदाय अपनी श्रेष्ठता की सीढ़ी विशेष तौर पर  बुलंद करना चाहता है तो क्या उसके लिए उचित न होगा वह  इसका सूक्ष्म अध्ययन और अनुकरण करे कि आखिर गरीब , दीन- हीन ब्राह्मण किस तरह  , एक- दो , दस -बीस साल नहीं सदियों तक समाज का सिरमौर बना रहा ? उससे कुछ सीखें तो आप भी वैसा बन सकते हैं , आप भी अब वेद पढ़ सकते हैं कोई नया मनुस्मृति गढ़ सकते हैं [ गढ़ा ही है संविधान ] | आप विशिष्ट ब्राह्मण नहीं बनना कहते तो आप भी सामान्य नागरिकता के पायदान पर आइये , सबको समान समझिये | वर्ना ब्राह्मण और आधुनिक लोक -मानव के बीच क्या अंतर रह जायगा ? इस लक्ष्य के लिए अब केवल उसे गाली देने या चिढ़ाने से तो कुछ हासिल होने वाला नहीं | मायावती जी ने उसका साथ लेकर शासन करना सत्य    सिद्ध कर ही दिया , और आश्चर्य क्या कि महान आंबेडकर ने अपने आह्वान में ' शिक्षित बनो ' को सर्वोच्च स्थान दिया ?
अंत में एक महाप्रश्न अपने आप से है - " यदि ब्राह्मण हमको अपने बराबर नहीं समझता था , तो क्या हम ब्राह्मण को अपने बराबर समझते हैं ? "
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एक  साहित्यिक बदमाशी जैसा कुछ सूझ रहा है | मैं ब्राह्मणों की उपमा मुग़ल बादशाह बाबर से देना चाहता हूँ | बाबर भी टोपियाँ सिलकर और कुरान का हस्तलेख करके अपनी आजीविका चलाता था , पर अपने शासन में बहुत कठोर था | उसी प्रकार ब्राह्मण भी अपने लिए धन केवल भिक्षा रखता था , पर सामाजिक नियमों में बहुत कठोर था  | वैसे भी यह इसके बारे में प्रसिद्ध है कि हिन्दू दूसरों के लिए दयावान पर अपने लोगों , मसलन दलितों के प्रति बहुत निर्मम है |  

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