शुक्रवार, 22 जून 2012

नॉन -इस्लामिक स्टेट

 * तो क्या हिंदुस्तान में सिर्फ मंडल - कमंडल , अगड़े - पिछड़े , दलित -ब्राह्मण , भाजपा - कांग्रेस की ही राजनीति चलेगी ? इससे देश कहाँ जायगा ? यह तो ' दूसरी -तीसरी गुलामी " की ओर जाने जैसी बात होगी , यदि हम केवल अपने देश में नई - नई समस्याएँ जन्म देकर उसमे उलझते रहे और अपने आगे -पीछे , दायें -बाएँ , ऊपर -नीचे , अडोस - पड़ोस कुछ दीन -दुनिया की ओर नहीं देखेंगे ? आखिर देश भी कोई चीज़ है या नहीं ? देश रहेगा तभी आरक्षण - संरक्षण , आर्टी-पार्टी रहेगी | जिन्ना गलत थे तो भी उनके पीछे खड़े होकर तमाम मुसलमान विभाजन के पक्ष में डायरेक्ट एक्सन तक पर उतारू हो गए और जिन्ना के सिद्धांत को व्यवहृत करके पाकिस्तान बनाया | अब , जब हम उसी जिन्ना को आधार बनाकर भारत में नॉन -इस्लामिक स्टेट चाहते हैं तो हिन्दू बगलें झाँकने लगता है क्योंकि उसे नपुंसक न भी कहें तो नैतिक रूप से नासमझ और कमज़ोर तो कहा ही जायगा | और हम जानते हैं कि अंदरूनी विभाजन उसका कारण है, और वह सच है  | लेकिन आश्चर्य है कि वह और किसी न किसी प्रकार का  विभाजन हर धर्म में है पर उसका रोना वे हर समय नहीं गाया करते | मौक़ा पड़ने पर वे एक हो जाते हैं | और यह ध्यान देने और याद रखने वाली बात है कि भारत हिन्दू है तभी उसमे आरक्षण है | और यह उन वर्गों तक पहुँचने जा रहा  है जो हमेशा शासक वर्ग रहा है | यदि यह हिन्दू नहीं रहा तो यह सब कुछ नहीं रहेगा | क्या पाकिस्तान -अरब -ईरान -ईराक में आरक्षण है , इसका पता लगाना पड़ेगा | अलबत्ता यहाँ  आज दलित  - मुस्लिम एकता की मुहिम और राजनीति भारत राज्य पर फिर से  कब्ज़ा करने के तहत चलायी जा रही रणनीति है | जब कि ज़मीन का थोड़ा सा भी अनुभव रखने वाला जन यह यथार्थ जानता है कि शहर का उच्च वर्ग छोड़ दीजिये , गाँव का गरीब मुसलमान भी हमारे दलितों के प्रति वही  हेयभाव रखता है , जैसा कि ब्राह्मणों के दिलों में होता बताया जाता है , या मान लें कि होता है | फिर भी यह कोई कैसे भूल जाता है  कि भारत के सभी वर्ण किसी भी तरह एक साथ रहते तो आये थे , और उसमे बाह्य जातियाँ - मुस्लिम -ईसाई- पारसी भी शामिल होते रहे | लेकिन मुसलमान आज़ादी की भनक मिलते ही भारत से छटक कर अलग हो गाया  जहाँ उसे इस्लामी संप्रभुता मिलनी थी ? नहीं रह सके वह अपनी हनक , अपनी अलग संस्कृति और सत्ता के बगैर लोकतान्त्रिक भारत में | ठीक है उस समय नेहरु का दबदबा था , पर गुंजाइश तो थी लोकतंत्र में उनके शासन के बारी की या उसमें हिस्सेदारी की , जिसे उन्होंने गवाँ दिया | #

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