सोमवार, 18 जून 2012

दिलफेंक


[ कवितायेँ ]
१- कबीर चदरिया 
मैं महसूस करता हूँ 
एक चादर अपने ऊपर ,
पने शरीर के ऊपर |
नीचे नहीं किनारे नहीं , 
न सिर के पीछे 
न  पाँव के नीचे 
बस केवल ऊपर 
छाया हुआ , लहराता 
मेरे  ऊपर आक्षादित |
मैं हर तरफ से मुक्त हूँ 
बस एक  आभास भर है -
मेरे ऊपर एक चादर है |
वह चादर मेरी नहीं है 
जो मुझे सृष्टि से मिली  होगी 
वह चादर कबीर की है ,
मैं  चादर को नहीं जानता 
लेकिन कबीर को पहचानता हूँ 
मेरे ऊपर कबीर की चदरिया है ||
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२ - अपना राजा 
मैं अपना राजा 
उसे बनाना  चाहता हूँ 
जो मुझसे दूर हो
मेरे  घर - परिवार
सम्बन्ध  का न हो 
जिससे वह पक्षपात न कर पाए 
तभी वह शासन कर पायेगा /
तभी मैं उससे शासित हो पाऊँगा |
मैं दलित को राजा बनाना -
मानना चाहता हूँ 
क्योंकि मैं दलित नहीं हूँ 
मेरा कोई संबंधी दलितों में नहीं है |
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३ - क्षणिका  
आदमी 
अपने से 
पार पाए ,
तब न कुछ 
कर पाए ?
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४ - बिस्तर 
मुझे ख़ुशी है कि मैंने 
अपना बिस्तर  बाँध लिया है 
समान सब पैक कर लिया है ,
कुछ भी इधर - उधर 
बिखरा  नहीं रह गया है 
कमरा भी साफ़ कर दिया है 
और सामानों को इकठ्ठा 
एक जगह रखकर , तैयार होकर 
किनारे कुर्सी पर बैठ गया हूँ 
बस  ऑटो वाले के आने भर की देर है |
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५ - आटा गीला 
गरीब हो , मतलब गरीबी है तो
आटा  थोड़ा ही गून्थो
ज्यादा तो कनस्तर में ही 
पड़ा रहने दो ,
क्योंकि आटा गीला तो 
होना ही है , गरीबी में !
यदि अलग कुछ आटा न हुआ 
तो उसे कैसे सुखाओगे , माडोगे
कैसे रोटी बनाओगे ?
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६ - सत्यवान 
तुम मुझे क्यों 
खींचे लिए जा रहे हो ?
मैं कोई सत्यवान नहीं जो 
कोई सावित्री मुझे तुमसे 
छुड़ा ले जायेगी ,
वस्तुतः मैं तुम्हारे साथ 
जाऊँगा ही नहीं 
मेरे पास इतना काम है  कि 
मुझे मरने की फुर्सत नहीं |
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७ - दिलफेंक 
यदि तुम दिल -
- फेंकना ही चाहते हो 
तो फेंक दो 
वह किसी भी चेहरे पर जाकर 
फिट हो जायगा 
यदि तुम दिलफेंक हो तो !
जैसे एन जी ओज़ के बारे में 
प्रचलित है कि 
किसी तरफ कंकड़ फेंको 
वह किसी एनजीओ पर गिरेगा |
अब यह बात और है कि 
न एनजीओ विश्वसनीय हैं 
न दिल |
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