मैं बहुत दिनों से यह महसूस कर रहा हूँ
कि जैसा मेरा नामशः स्वभाव है ,मुझे अपने क्रोध का अनावरण करना चाहिए , सभ्यता - शिष्टाचार कि आँड़ में उसे रोकना ठीक न होगा | क्योंकि बहुत सी गलत बातें हो रही हैं और मैं उन्हें
जाने देता हूँ | ये विसंगतियां समाज में भी
हैं , राज्य सम्बन्धी विमर्श में और मनुष्य
के मन में भी | इस हेतु मुझे असभ्य समाज
, दुर्वासा दल ,क्रोधी संत मिशन, अप्रिय वार्ता, अपशब्द ,आग बबूला जैसा
कुछ होना पड़ सकता है , पर पहले प्रिय सम्पादक से
तो छुट्टी मिले [बड़े प्रिय बनने चले थे] !लेकिन दिक्कत यह है कि मैं अपने दिल से भी
तो मजबूर हूँ जो सौम्य,प्रेमी ,स्नेही
और शांत है| वैसे बहुत हो चुकीं चिकनी
चुपड़ी बातें ,सभ्य -शालीन भाषा में ! तंग
तो हूँ , तनाव उसमे भी है ,तनाव इसमें भी है | तो क्या ओशो की लाइन पड़ेगी , एकांत में गालियाँ बकना ? शुरू तो कर ही दिया है किसी से न मिलने - जुलने का कार्यक्रम
!
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