चन्द्रदत्त तिवारी-एक व्यक्ति-एक प्रवृत्ति : एक स्मृति
सन 1980 में जब मैं लखनऊ आया तब मैं त्रिशंकु की स्थिति में था। निम्न मध्यवर्गीय अनुशासन में पला-दबा मैं स्वभाव से ही संकोची था। मन में एक विद्रोह तो था, कुछ पढ़ाकूपन, कुछ वैचारिक ऊहोपोह, कुछ कवितार्इ गुन और ढेर सारी जिज्ञासा- यही मेरी पूँजी थी। मेरी नौकरी भी कोर्इ इज्जतदार न थी जिसके कारण मैं एक अदृश्य हीन भावना का शिकार जीवन भर रहा, जिससे मैं अभी पांच वर्ष पूर्व स्वैचिछक त्याग पत्र देकर ही मुक्त हो पाया। यहाँ आते ही मजदूर किसान नीति आर्इ आर्इ टी कानपुर के सुनील सहस्त्र बुद्वे के एक चुनाव अभियान के संदर्भ से भार्इ ज्ञानेन्द्र (अब स्वर्गीय) और प्रमोद जोशी (अब हिंदुस्तान दिल्ली के वरिष्ठ संपादक) मेरे क्वार्टर आये और शाम मीटिंग में मैं अनुपम (अब दस्तावेज प्रकाशन) के घर गया। राजनीति तो मै क्या समझता वहीं एक जादुर्इ युवा व्यक्तित्व से भेंट हुर्इ । वह थे राजीव...........।
लेकिन मैं उनसे कम ही मिलता। पड़ोस के ज्ञानेन्द्र जी से अधिक भेंट होती। ज्ञात हुआ कि राजीव एक प्रशासनिक अधिकारी के पुत्र हैं, जय प्रकाश आंदोलन की उपज हैं राजनीतिक विश्लेषक और लेखक-संघटक हैं। साइकिल से चलते हैं सर्कुलेटिंग लाइब्रेरी चलाते हैं। उनके साथ युवाओं की बैठकें चलती रहीं। इनके बीच मुझे संतोष इसलिए मिलता कि अन्य युवक जहाँ लोफरर्इ करते हैं वहां इनको देखों कि राष्ट्र निर्माण के काम में लगे हैं। ये युवा मेरे आदरणीय हो गये जब कि आयु में मैं बड़ा था, बस आयु में ही। जाहिर है ये लोग विश्वविधालय शिक्षा रत या युक्त थे। इनके मुकाबले मैं कहीं नही ठहरता था। वैसे भी मैं ऐतिहासिक तथ्य नहीं, कथ्य या तत्व ही पकड़ता था। मैं इनकी किताबों के स्तर पर जा नहीं पाता। प्रमोद और आशुतोष जी के हास्टल के कमरे में जाता तो ये बेड पर किताबों पर ही सोते बैठे पढ़ते मिलते मुझे अपनी अशिक्षा पर ग्लानि होती। मैं इधर-उधर से किताबें लेकर पढ़ने का नाटक करता। पोथी पढि़-पढि़ जग मुआ कहकर अपनी खिसियाहट भले ही छिपा लूँ पर सत्य तो यही था कि मैं अशिक्षित था। फिर यह कबीर का जमाना तो है नहीं कि अपना सम्मान मैं बिना पढ़ा लिखा होकर भी बचा पाता और बिना अपमानित हुए विचार जगत में रह पाता। फिर मेरी सहज प्रियता और नाम व प्रतिष्ठा के प्रति-मेरी तीव्र अरूचि ने मुझे और लतखोर बना दिया साथी भी कोर्इ साधु संत योगी तो थे नहीं जो मुझे जान पाते कि मेरी कहाँ पैठ है। एक âदय के साथ थोड़ी अपनी भी बुद्वि है। मैं अपने निर्णयों पर अपनी ही तरह पहुँच कर निमग्न रहता हूँ। यह मैं किसी से कैसे बताता कि मैं भी कुछ निश्चयात्मा और अग्नि गर्भा हूँ। तो इसी अपनी कल्पना व धारणा शक्ति के साथ मैं एक चावल की खिचड़ी अपने मन में खुद बुद पकाता रहता और मुझे विश्वास होता कि मैं नमक ठीक डाल रहा हूँ। और हल्दी सही रंग ला रही है। लेकिन ज्यादा पढ़े लिखे लोग गलत फहमी में रहे। यह मेरे लिए उचित ही था परन्तु जब यह गलत फहमी जरूरत से ज्यादा बढ़ जाती तो कुछ विवाद हो जाते और मेरा मन दुर्वासा हो जाता। मेरी कुछ बूँदे खून की जलती जिसे मैं तो पूरा कर ले जाता पर नुकसान साथियों का होता जो एक संत वचन और सत्संगत से वंचित हो जाते इस कथन में कोर्इ अतिशयोक्ति नहीं है। इतने क्षेपक के बाद किस्सा यह कि-युवजन समिति ने जब जाति छोड़ों आंदोलन चलाया तो यह मेरे मन की बात हो गर्इ। जातिनाम मैं पहले ही हटा चुका था। इसके लिए हमें गांधी, लोहिया, कृपालानी आदि महात्माओं का सूक्ष्म आशीर्वाद प्राप्त था। अत: मैं इसमें âदय से शामिल हुआ। मौलवीगंज की पूरी टीम प्रभात, अनूप, मुकेश, छविधाम, हमराही, अशोक आदि साथ में प्रमोद, अवधेश, हरजिन्दर, आलोक एवं अन्य इसमें थी। तो राजीव हेमकेशव हुए, प्रमोद श्री हरीश हुए और अन्य लोगों ने या तो जातिनाम पर हटाया या कोर्इ जातिहीन उपनाम लगाया। मैं, उग्रनाथ.... से उग्रनाथ हुआ। बाद मैं नागरिक तखल्लुस ज्यादा पुकारू हुआ। आंदोलन के चरण आगे नहीं बढ़े पर मुझ मोंदे मिट्टी में उत्साह-ऊर्जा का सृजन हुआ। इसी कार्यक्रम में चन्द्र दत्त तिवारी जी को सुना। वह इस नाटक के ज्यादा तरफदार न थे। इसी आयोजन में एक और उपलब्धि हुर्इ। राजीव ने मुझसे मोटर साइकिल से मान्य सुरेन्द्र मोहन जी को अतिथिगृह पहुँचाने को क्या कहा कि समाजवाद मेरे पीठ पर यूँ ही चपक गया बिना समाजवाद की कोर्इ किताब पढ़े। बाद में आचार्य नरेन्द्र देव पर किताबों का बंडल तिवारी जी के कहने पर दिल्ली सुरेन्द्र मोहन जी घर देने भी गया।
युवा संगत ने गुल खिलाना शुरू किया। मेरी रूचि ज्यादा र्इश्वर धर्म अध्यात्म में थी। प्रश्न तो उठते थे इनके बारे में पर इनसे लड़ने में डर लगता था। हाय कहीं नैतिकता न नष्ट हो जाय। ऐसे मे राजीव ने मुझे ऐसी शख्शियत से मिलाया जो नायाब थी। मैं बड़े संकोच और विनम्र भाव से एस.एन. मुंशी जी से मिला। फिर मेरा कोर्इ साइक्लोस्टाइल परचा लेकर वे मेरे क्वार्टर आ गये तो मैने मानववाद का पाठ सीखा। वे पूरे विज्ञान मूर्ति थे और उतना ही अजूबा था उनका संस्कृति प्रेम। उनके घर का निचला हिस्सा डी.एन. मजूमदार संग्रहालय हुआ करता था। वहीं भेंट हुर्इ डा यशोधर मठपाल से जो मेरे पुराने दिनमानी पत्र लेखक मित्र थे-अब भीमताल में लोक कला संग्रहालय चलाते हैं। मुंशी जी से क्या कितना कुछ सीखा बताना मुशिकल है पर एक सूत्र दूँ- कि विषयों में अन्तर नहीं किया जा सकता। इतिहास विज्ञान, राजनीति, कला साहित्य संस्कृति सब एक दूसरे से जुड़े हैं।
उनका घर पूरा पुस्तकालय थ। उनकी ही दो किताबें थी एक एम एन राय का नवमानववाद और दूसरी उनकी वैसी ही कहानियों का संग्रह-प्रश्नोत्तर। वैज्ञानिक मानववादी साहित्य बहुत आता था वहाँ। रेडिकल âयूमनिज्म आगे मेरे बड़ा काम आया। उल्लेखनीय यह है कि उनके घर पर विचार गोष्ठियाँ चलती थी और मैं कहीं दुबक बैठ बड़े लोगों की बातें सुनता। विषय बड़े होते कुछ समझ में आती ज्यादा सर से ऊपर गुजर जाती पर मैं पीछे लगा रहता। मैं बिल्कुल नशेड़ी था विचार गोष्ठियों का कहीं भी होती पहुँच जाता और वहां से कुछ खुराक लेकर अपना दिमाग उनमें उलझाए रखता। विचार अभ्यास में इनसे बड़ी मदद मिली। चन्द्र दत्त तिवारी जी के घर नियमित विचार केन्द्र चलता । एक और स्थान था राजा साहब कोटवारा का घर जहां नरसिंह नरायन द्वारा स्थापित इन्डियन हयूमनिस्ट यूनियन था। इन स्थानों पर तमाम वरिष्ठ विचार कर्मियों के दर्शन होते। डा. हर्ष नारायण, के.के. जोशी, भुवनेश मिश्र, डा देवराज, रघुराज गुप्ता, संकठा प्रसाद आदि। और यहीं मिली डा. रूपरेखा वर्मा। एक स्त्री और इतनी विदुषी! मैं सपने में भी नही सोच सकता था। दकियानूसी ग्रामीण परिवेश में न कभी ऐसा देखा न सुना। सो अभिभूति हुआ उनसे।
मैं निश्चित ही ऋणी हूँ कि मुंशी जी ने मुझे मानसिक ऊहापोह से निकाला उसे फिर तार्किक रूप से मजबूत किया रूपरेखा जी ने। उन्होने मेरे पढ़े लिखे टेढे मेढ़े वक्तव्यों का शोधन करके मुझे अपने विचारों पर आत्मनिर्भर बनने का अवसर दिया।
यह उन्हीं की कृपा थी कि बी.एस.सी प्रथम वर्ष फेल मैं उनकी दार्शनिक सभाओं में जा सका और कालान्तर में तो उन्होने आर्इ सी पी आर (भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद) की लाइब्रेरी का सदस्य भी बनवा दिया जहां से मैं इन्डिविजुअलिज्म (व्यक्तिवाद अपनी कापी पर उतार कर भाग आया)
अंतत: तो फिर मुंशी जी ने जोरदार ठप्पा लगा दिया। उस समय मैं बाहर डयूटी पर था। लौटकर आया तो पता चला मुंशी जी नहीं रहे। घर गया तो बस-एक सन्नाटा उनकी पत्नी मिलीं उनके अपनी कोर्इ औलाद न थी, और यह उनके वैज्ञानिक मानस के लिए कोर्इ समस्या न थी। लाश का क्या हुआ, वह तो मेडिकल कालेज दे आयी। उनकी आँखें किसको लगार्इ गर्इ मुझे पता हुआ। तो क्या कुछ नहीं मिलता नहीं वहां एक एक नस एक एक तन्तु चीर फाड़कर विधार्थी अध्ययन अनुसंधान करते फिर कुछ नहीं बचता। कोर्इ क्रिया-कर्म का सवाल ही नहीं उठता। मैं आसमान से गिरा धरती पर। क्या ऐसा हो सकता है...
हाँ, र्इश्वर और धर्म के बगैर भी काम चल सकता है मेरे दिमाग में पक्का हुआ। मानववाद मन में बैठ गया। तब तक पेपर मिल कालोनी भी आने जाने लगा था। मेरी हस्तलिखित पत्रिका के पहले वार्षिक ग्राहक पांच रू0 मेरे घर आकर देने वाले चन्द्रदत्त तिवारी जी थे। वे मेरे पड़ोस में जय प्रकाश जी के घर आते थे। उन्हीं से ही इनके बारे में ज्ञात हुआ। बड़े त्यागी है। बड़े घर खानदान के हैं। डी0ए0वी0 कालेज इन्हीं लोगों का है इनके पिता स्वतंत्रता पूर्व विधायक थे, मोटर गाड़ी से चलते थे। ये साइकिल से चलते हैं पूरी इमरजेंसी जेल में रहे। चन्द्र शेखर के दोस्त हैं। जनता पार्टी के एम एल ए का टिकट वापस कर दिया। मुझ गरीब के लिए नैतिकता या बड़प्पन का इतना बोझ बड़ा भारी था। तभी इनकी दृढ़नीति या जिद्दी चरित्र का भी परिचय मिला। जय प्रकाश के पुत्र के जन्म दिन पर वे नहीं आये तो नहीं आये। मैने दूसरे दिन कहा आपने बहुत अच्छा भोजन मिस कर दिया। मैने जीवन में बहुत कुछ मिस किया है उनका कहना था। वह ऐसे समारोहों को निरर्थक फिजूल खर्ची बताते और इसीलिए अपना जन्म दिन भी सबसे छिपाते। तिवारी जी की खिचड़ी समाज कर्मियों के बीच बहुत लोकप्रिय थी। तमाम सब्जियों से मिश्रित यहां तक कि उसी में वह अंडा भी तोड़कर डाल देते। वह पौष्टिक तो होती पर स्वादिष्ट नहीं जिसके हम पूर्वाचंली अभ्यस्त है। लेकिन कभी-कभी तो खाना ही पड़ता। सम्पूर्ण क्रांति से जुड़े तमाम साथी इसे खा चुके हैं। सो मैने भी खार्इ। लेकिन मैने डाँट भी बड़ी खार्इ।। फोन पर 8 बजे आने को कहते। पहुँचे तो घड़ी दिखाते । यू आर लेट बार्इ एट मिनट्स ऐसे जुमले वह अंग्रेजी में बोलते । आस्कर वाइल्ड उनके प्रिय लेखक जो थे । मैं पार्टी लेस डिमाक्रेसी (जय प्रकाश नरायन का दलविहीन प्रजातंत्र) की बात करता तो डाँट खाता। कहते-जय प्रकाश ने इसकी कोर्इ रूपरेखा नहीं बतार्इ। मंडल आयोग के पक्ष में बोला तो विपिन त्रिपाठी न होते तो मैं मार खाने की कगार पर था। यदि कभी महंगी सब्जी ले आता तो फटकारा जाता । (बाद के दिनों में मैं अपने घर से झगड़ा करके उन्हीं के पास रहने-खाने लगा था। अब उनके जाने के साथ वह आश्रय भी समाप्त हुआ) लेकिन उनका यह सब मुझे बाल सुलभ लगा क्योंकि फिर वह हँसी के मूड में आ जाते। मितव्ययिता के प्रति उनके अति-अनुराग का विरोध करने पर वह मान तो जाते पर हारते नहीं कहते अपनी अपनी एटीट्यूड (प्रवृत्तिआदत) की बात है। दही बड़े के बडे़ शौकीन। बस बताने भर की देर होती तिवारी जी घर आ जाते । हाँ तब भी डाँट खाने की नौबत आती यदि कहीं टोटीं से पानी टपक रहा होता या कोर्इ बत्ती बिला वजह जल रही होती खाना खाते और अलसा जाते तो सो भी जाते। यह एहसान केवल मेरे या जय प्रकाश के ही ऊपर नहीं था। उनके ऐसे असंख्य परिचित घर थे। इसलिए उनका काम शीशे के मर्तबान में रखे चावल की मात्रा से चल जाता। उन्हें चाय का बड़ा शौक थां अंग्रेजी तरीके से बनाते। चाय की प्याली पर हरजिन्दर का थ्री एंड अ हाफ एंड अ लिटिल मोर (चम्मच चीनी) हमारे बीच हमेशा मजेदार रहा। उनकी मृत्यु से कुछ ही दिन पूर्व हमने इसका एक साथ पाठ किया था और खूब हँसे थे। विचार गोष्ठियों में उनकी सहभागिता भी मनोरंजक होती। सब लड़-झगड़-बहस कर रहे होते, तिवारी जी मध्यस्थ सो रहे होते। वैचारिक उत्तेजना उन्हें परेशान नहीं करती थी। इसके लिए मैं उनकी माइनस मार्किग करता। अलबत्ता वे कुछ वाक्य पकड़ते और लेकर उड़ते रहते। उनके घर पहुचँता तो कभी कम्युनिज़्म इज द ओनली वे कभी गांधी का देयर आर एज मेनी रिजीजन्स एज देयर हेडस। फिर रीइवैल्युएशन आफ एक्जिस्टिंग थाट्स। आखिरी दिनों में प्रश्न उठा रहे थे बीसवी सदी का सबसे महान नेता बताओ। गांधी नही। माकर्स नहीं। वह थे अमरीकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट जिन्होने फासीवाद के विरूद्व लड़ार्इ में बिना माँगे ही रूस को मदद दिया। ऐसी ही कमी कुछ विचार कमी कोर्इ शोशा। वह साइकिल से चलते थे। लेकिन मौका मिलने पर स्कूटर पर लिफ्ट का पूरा दुरुपयोग करते। ऐसे ही एक दिन मुझसे कहा चलो प्रमोद श्री हरीश के घर चलो। तब तक शिव वर्मा व भगत सिंह के अनुज कुलतार सिंह व अन्दमान के अन्य जीवित साथियों के साथ पुराना किला दुर्गा भाभी के आवास में शहीद स्मारक व स्वतंत्रता संग्राम शोध केन्द्र की स्थापना हो चुकी थी। दुर्गा भाभी भारत के प्रथम मान्टेसरी पद्वति विधालय- लखनऊ मान्टेसरी इन्टर कालेज का प्रबंधन चद्र दत्त तिवारी को सौपकर गाजियाबाद जा चुकी थी। और शायद प्रमोद कुमार श्रीवास्तव इतिहास में पी.एच.डी कर चुके थे। वह संस्थान के निदेशक पद के लिए संपूर्ण उपयुक्त है। उच्चशिक्षित और अति ऊर्जा वान। नतीजा यह कि आज वही प्रमोद जी इस संस्था केा मित्र प्रभात जी के सहयोग से लगभग अकेले ही सफलता पूर्वक संचालित करने में सक्षम हैं। अभी फरवरी माह में ही शिव वर्मा द्वारा लिखित नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित दो पुस्तकों का विमोचन इसी परिसर में हुआ। यह सब उन्हीं के प्रयासों का फल है। तो हम लोगों का यह सारा सम्पर्क उस विचार केन्द्र का परिणाम था जो उनके घर पर अस्सी के दशक में चलताथा। यहां आने वाली विभूतियों में केएन कक्कड़, चद्रोदय दीक्षित, रमेश दीक्षित, रमेश नागपाल, आशुतोष मिश्रा, नवीन तिवारी, रमेश तिवारी, पारसनाथ मिश्र, डा नरेन्द्र, चन्द्रपाल, अरूण त्रिपाठी, अंबरीष, पुनीत टण्डन, पेन्टल, वीरेन्द्र यादव, अजय सिंह के नाम लिए जा सकते हैं राजीव और रूपरेखा वर्मा तो थी ही। कितने नाम गिनाएं लखनऊ के सामाजिक संपर्क का हर सूत्र तो कहीं न कहीं तिवारी जी से जुड़ता हैं उन्होने विवाह नहीं किया था, रोटी के लिए कोर्इ रोजी करनी नही थी। इसलिए उनके सम्पर्को संबंधों की भरमार थी। यूँ भी उनके घर किसी को भी आने में हिचक नहीं हो सकती थी क्योंकि वे लखनऊ के प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। विश्वविद्यालय से वकालत की पढ़ार्इ की थी। वाइस चांसलर तक से अभिन्नता थी और राजनीतिक नेताओं त्रिलोकी बाबू, सी.बी.गुप्ता, भगवती सिंह आदि से निकट सबंध थे। अलबत्ता इन्होने इसका कोर्इ गलत लाभ नही उठाया न प्रचार पाने के ही अभिलाषी रहे। यह कुछ कम न था। अब ऐसे लोग कहां मिलते हैं।
अपने घर पर ही एक बार मित्रों से उन्होने कहा कोर्इ संगठन बना लो वरना यह तो (यानी मैं) मारा जायगा। तब मैं बाबरी मस्जिद सबंधी विवाद का अत्यंत विरोधी था। बल्कि मैं सांस्कृतिक विखंडन भी करने लगा था। इसी की सजा में एक वरिष्ठ राजनीतिक कार्यकर्ता ने मेरे हाथ का छुआ पानी भी पीने से मना कर दिया था। बहर हाल तब तक रूपरेखा जी विश्वविधालय में सेक्युलर संगठन की रूपरेखा बना चुकी थी। अब वह कार्यशाला तिवारी निवास पर चलने लगा। सेक्युलर वाद के विभिन्न पक्षों पर बातचीत और नास्तिकता, सशंयवाद, तर्कबुद्विवाद, रहस्यवाद, मानववाद पर सैद्धान्तिक चर्चाएं शुरू हुर्इ। इसमें मेरी पूरी रूचि थी। सो के के जोशी के साथ सेक्युलर सेन्टर की भूमिका लिखी गयी। मै सेक्रेटरी बना। तिवारी जी संयोजक बने। और कोर्इ पद नहीं था क्योंकि इसके पंजीकरण का कोर्इ ख्याल न था। मानववाद में दिली आस्था के चलते मैं इंडियन सेक्युलर सोसाइटी का आजीवन सदस्य बन चुका थां इंडियन हयूमनिस्ट यूनियन की पत्रिका मंगवाने लगा था। अथीस्ट सेंटर, रेशनलिस्ट एशोसिएशन के प्रभाव में था। पटना के डा रमेद्र बुद्विवादी के साथ उन्हीं दिनों चले। गोरा, डा कोवूर, होलिओक, चाल्र्स ब्राडला मेरे गुरू थे। सो इन पर आधारित चर्चा होती और मूल्य निर्धारित होते तब तो मैं किसी काम का था। वरना राजनीतिक सेक्युलर वाद के तो कर्इ संस्करण हैं और उनमें आपस में ही गहन विभेद हैं तो ऐसी धर्मनिरपेक्षता पर कोर्इ एक समझ सहमति सदस्यों में स्थापित होती इसके पहले ही तात्कालिक राजनीतिक आवश्यकता वश एक राष्ट्रीय अधिवेशन का फैसला ले लिया गया। मुझे राजनीति की समझ बिल्कुल न थी। मैं केवल शास्त्रीय सेक्युलर वादी था। लोकायत वादी चार्वाक फिर बुद्व, कबीर तक तो मै खींच ले जाता पर आडवानी संधवानी की धर्म निरपेक्षता मेरी समझ से बाहर थी। और मुझे स्मरण नहीं कि सांप्रदायिक हिंदू मुस्लिम पक्षों पर कोर्इ खुलकर बात हो पार्इ थी ऐसे में अधिवेशन (ग्यारह-बारह अक्तूबर 1986 का लगभग पूरा काम तिवारी जी, रूपरेखा जी, प्रमोद जी, आलोक जोशी, जय प्रकाश प्रभात जी ने हीसंभाला और धर्मनिरपेक्षता राज्य का घोषणा पत्र पारित हुआ। उसका अपना महत्व रहा होगा लेकिन मेरे ख्याल से अन्तत: सेन्टर की राजनीति परकता ही इसके बिखराव का कारण बनी। एक दिन तिवारी जी ने सेक्युलर सेन्टर का सारा कागज मेरे ऊपर फेंक दिया। मुझे कुछ हासिल हुआ तो बस अपना लिखा एक परचा और जो परचे कुछ आये थे। कुछ और याद करूँ तो असगर अली इंजीनियर का न आना भी एक उपलबिध थी। ओर एक था किशन पटनायक के पत्र के उत्तर में मुझे तिवारी जी द्वारा बोल-बोलकर लिखाया गया एक जवाब जिस पर एक पूरा विचार केन्द्र अलग से विशेष चलाया जा सकता है। संक्षेपत: र्इश्वर असंख्य जनता के विश्वास के जवाब में तिवारी जी ने लिखाया कि जो नहीं है उसका नहीं होना बताना ज्यादा आसान है या कि उसका होना प्रमाणित करने की जिद करना और अंधविश्वास में रहना। प्रश्न वाकयी गंभीर था पर वह हमसे भी छूट गया। प्रमोद जी लखनऊ एकता चलाने लगे एवं रूपरेखा जी और मैं नागरिक धर्म-समाज । उसकी अलग कहानी है।
बहर हाल इन सक्रियताओं के बीच में ही तिवारी जी ने हम लोगों को स्कूल व शहीद स्मारक संस्थाओं से भी जोड़ा हुआ था यह उनका हमारे प्रति विश्वास का ही प्रतिफल था वरना हम इसके योग्य न थे। अभी साल भर ही पूर्व मुझे उन्होने चार लाख रूपये से एक ट्रस्ट बनाकर उनकी वसुधैव कुटुम्बकम् के स्वप्न को आगे बढ़ाने का प्रस्ताव किया था। वह तो भला मैं क्या करता पर उनका मेरे प्रति इतना विश्वास प्रदर्शन मेरे लिए पुरस्कार था। लेकिन मानववादियों में श्रद्वासुमन पारंपरिक प्रंशसात्मक भर होकर तो नहीं रह सकता। उन त्रुटियों, खामियों का भी जिक्र होना चाहिए जिससे आने वाली पीढ़ी सबक ले। मुझे कहना चाहिए कि हम लोग उनसे पर्याप्त असहमत थे और उनके रूढ़ ऐटीट्यूड से पीडि़त । किसी भी व्यकित से मिलने पर वे अपने बारे में बताते ना काहू से दोस्ती न काहू से बैर। लेकिन यह पूरा सच नहीं था। उन्होने किसी से दोस्ती नहीं की यह तो ठीक लेकिन उन्होने दुश्मनी तो सबसे ही की। चाहे वह शिववर्मा रहे हो या उनके हम वयस्क अन्य, या फिर दूसरी पीढ़ी के उनके तमाम साथी। वह किसी पर विश्वास नहीं करते थे और अपने विपरीत जाने पर किसी की इज्जत धोने में उन्हे कोर्इ संकोच न था। इसलिए उनका यदि कोर्इ विश्वस्त नहीं हो पाया या वह किसी के विश्वस्त नहीं हो पाये तो इसके पीछे उनकी अपनी प्रवृत्ति की घातकता थी। उनकी आदर प्रशंसा सब करते थे, दिखाते थे पर उसमें दिल की गहराइयाँ न थी इसमें चूक गये तिवारी जी वरना उनके साथ ऐसे ऐसे प्रतिभा सम्पन्न लोग थे कि उन्हें कहीं से कहीं पहुँचा देते। दूसरी बात, हमारा ख्याल है कि यदि वह थोड़ा कम रसोर्इ प्रवृत्त, किचनोन्मुख होते, कड़वा तेल की मँहगार्इ पर इतना ध्यान न दिया होता, चवन्नी बचाने के चक्कर में इतना न रहे होते, भोजन की थाली इस तरह न चाटते (जिसे देखकर हमे घिन होती) साइकिल के व्यामोह में इतना न डूबते, अपनी कृत्रिम महामानववादी प्रवृत्तियों के गुलाम न होते या कहे गांधी दिखने की कोशिश न करते केवल एक स्कूल से इतना न चिपकते तो वे समाज के लिए शायद कुछ ज्यादा कर जाते जिसके लिए उन्होने इतना पैसा बचा बचाकर बटोरा हुआ था, जैसा वह कहते थे आज वह राजनीति के किसी पायदान पर होते और स्कूल के बाहर की दुनिया भी उन्हें याद करती। कम से कम उनकी र्इमानदारी तो राजनीति में स्थापित हुयी होती। निश्चय ही इसके पीछे था उनमें दृढ़ विचार और आत्मविश्वास और धारणाशकित का न होना था जिसका होना र्इश्वर विहीन मानववादी के लिए आवश्यक समझा जाता है। वह अगनासिटक (संशयवादी) थे। हम उनकी राजनीति धर्म निरपेक्षता पर कुछ न कहेगें पर उन्होने हम लोगों वाली सैद्वान्तिक सेक्युलर वाद को तो अच्छी और पूरी तरह निभाया, जिसके लिए हम अपने आप को अभी असमर्थ पाते है। उन्होने कभी पूजा पाठ नहीं किया, मंदिर नहीं गये तिलक जनेऊ नहीं धारण किया और अन्त में बिना किसी पाखंडी कर्मकांड के अपना शरीर वैज्ञानिक अध्ययन के लिए चिकित्सा छात्रों को सौंप दिया। उन्होने सिद्व किया कि वह जबरदस्त मानववादी थे। ऐसे पूज्य पुण्य-पुरूष को हमारा प्रणाम।
उग्रनाथ नागरिक