गुरुवार, 28 जून 2012

पन्ने मुड़े हैं


[ हाइकु ]

१ - डोंट ' सी मोर '  [ Dont See  More ]
जितना दिखे पढ़ो  [ Read What it shows ]
लाइक करो  |         [ Like it ]    

२ -क्या सिखाओगे
सीखना न चाहें जो
हम कुछ भी !

३ - बस आ जाएँ
प्रिये जो एक बार
ज़िन्दगी पार |

४ - बुद्धि में बातें
आतीं कहाँ कहाँ से
अबूझ प्रश्न |

५ - दोस्ती निभाती
तो दुश्मनी भी खूब
देती ज़िन्दगी |

६ - पन्ने मुड़े हैं
तमाम किताबों के
आदमी सोया |

मंगलवार, 26 जून 2012

चन्द्रदत्त तिवारी : एक स्मृति

चन्द्रदत्त तिवारी-एक व्यक्ति-एक प्रवृत्ति  : एक स्मृति
सन 1980 में जब मैं लखनऊ आया तब मैं त्रिशंकु की स्थिति में था। निम्न मध्यवर्गीय अनुशासन में पला-दबा मैं स्वभाव से ही संकोची था। मन में एक विद्रोह तो था,  कुछ पढ़ाकूपन, कुछ वैचारिक ऊहोपोह, कुछ कवितार्इ गुन और ढेर सारी जिज्ञासा- यही मेरी पूँजी थी। मेरी नौकरी भी कोर्इ इज्जतदार न थी जिसके कारण मैं एक अदृश्य हीन भावना का शिकार जीवन भर रहा, जिससे मैं अभी पांच वर्ष पूर्व स्वैचिछक त्याग पत्र देकर ही मुक्त हो पाया। यहाँ आते ही मजदूर किसान नीति आर्इ आर्इ टी कानपुर के सुनील सहस्त्र बुद्वे के  एक चुनाव अभियान के संदर्भ से भार्इ ज्ञानेन्द्र (अब स्वर्गीय) और प्रमोद जोशी (अब हिंदुस्तान दिल्ली के वरिष्ठ संपादक) मेरे क्वार्टर आये और शाम मीटिंग में मैं अनुपम (अब दस्तावेज प्रकाशन) के घर गया। राजनीति तो मै क्या समझता वहीं एक जादुर्इ युवा व्यक्तित्व से भेंट हुर्इ । वह थे राजीव...........।

लेकिन मैं उनसे कम ही मिलता। पड़ोस के ज्ञानेन्द्र जी से अधिक भेंट होती। ज्ञात हुआ कि राजीव एक प्रशासनिक अधिकारी के पुत्र हैं, जय प्रकाश आंदोलन की उपज हैं राजनीतिक विश्लेषक और लेखक-संघटक हैं। साइकिल से चलते हैं सर्कुलेटिंग लाइब्रेरी चलाते हैं। उनके साथ युवाओं की बैठकें चलती रहीं। इनके बीच मुझे संतोष इसलिए मिलता कि अन्य युवक जहाँ लोफरर्इ करते हैं वहां इनको देखों कि राष्ट्र निर्माण के काम में लगे हैं। ये युवा मेरे आदरणीय हो गये जब कि आयु में मैं बड़ा था, बस आयु में ही। जाहिर है ये लोग विश्वविधालय शिक्षा रत या युक्त थे। इनके मुकाबले मैं कहीं नही ठहरता था। वैसे भी मैं ऐतिहासिक तथ्य नहीं, कथ्य या तत्व ही पकड़ता था। मैं इनकी किताबों के स्तर पर जा नहीं पाता। प्रमोद और आशुतोष जी के हास्टल के कमरे में जाता तो ये बेड पर किताबों पर ही सोते बैठे पढ़ते मिलते मुझे अपनी अशिक्षा पर ग्लानि होती। मैं इधर-उधर  से किताबें लेकर पढ़ने का नाटक करता। पोथी पढि़-पढि़ जग मुआ कहकर अपनी खिसियाहट भले ही छिपा लूँ पर सत्य तो यही था कि मैं अशिक्षित था। फिर यह कबीर का जमाना तो है नहीं कि अपना सम्मान मैं बिना पढ़ा लिखा होकर भी बचा पाता और बिना अपमानित हुए विचार जगत में रह पाता। फिर मेरी सहज प्रियता और नाम व प्रतिष्ठा के प्रति-मेरी तीव्र अरूचि ने मुझे और लतखोर बना दिया साथी भी कोर्इ साधु संत योगी तो थे नहीं जो मुझे जान पाते कि मेरी कहाँ पैठ है। एक âदय के साथ थोड़ी अपनी भी बुद्वि है। मैं अपने निर्णयों पर अपनी ही तरह पहुँच कर निमग्न रहता हूँ। यह मैं किसी से कैसे बताता कि मैं भी कुछ निश्चयात्मा और अग्नि गर्भा हूँ। तो इसी अपनी कल्पना व धारणा शक्ति के साथ मैं एक चावल की खिचड़ी अपने मन में खुद बुद पकाता रहता और मुझे विश्वास होता कि मैं नमक ठीक डाल रहा हूँ। और हल्दी सही रंग ला रही है। लेकिन ज्यादा पढ़े लिखे लोग गलत फहमी में रहे। यह मेरे लिए उचित ही था परन्तु जब यह गलत फहमी जरूरत से ज्यादा बढ़ जाती तो कुछ विवाद हो जाते और मेरा मन दुर्वासा हो जाता। मेरी कुछ बूँदे खून की जलती जिसे मैं तो पूरा कर ले जाता पर नुकसान साथियों का होता जो एक संत वचन और सत्संगत से वंचित हो जाते इस कथन में कोर्इ अतिशयोक्ति नहीं है। इतने क्षेपक के बाद किस्सा यह कि-युवजन समिति ने जब जाति छोड़ों आंदोलन चलाया तो यह मेरे मन की बात हो गर्इ। जातिनाम मैं पहले ही हटा चुका था। इसके लिए हमें गांधी, लोहिया, कृपालानी आदि महात्माओं का सूक्ष्म आशीर्वाद प्राप्त था। अत: मैं इसमें âदय से शामिल हुआ। मौलवीगंज की पूरी टीम प्रभात, अनूप, मुकेश, छविधाम, हमराही, अशोक आदि साथ में प्रमोद, अवधेश, हरजिन्दर, आलोक एवं अन्य इसमें थी। तो राजीव हेमकेशव हुए, प्रमोद श्री हरीश हुए और अन्य लोगों ने या तो जातिनाम पर हटाया या कोर्इ जातिहीन उपनाम लगाया। मैं, उग्रनाथ.... से उग्रनाथ हुआ। बाद मैं नागरिक तखल्लुस ज्यादा पुकारू हुआ। आंदोलन के चरण आगे नहीं बढ़े पर मुझ मोंदे मिट्टी में उत्साह-ऊर्जा का सृजन हुआ। इसी कार्यक्रम में चन्द्र दत्त तिवारी जी को सुना। वह इस नाटक के ज्यादा तरफदार न थे। इसी आयोजन में एक और उपलब्धि हुर्इ। राजीव ने मुझसे मोटर साइकिल से मान्य सुरेन्द्र मोहन जी को अतिथिगृह पहुँचाने को क्या कहा कि समाजवाद मेरे पीठ पर यूँ ही चपक गया बिना समाजवाद की कोर्इ किताब पढ़े। बाद में आचार्य नरेन्द्र देव पर किताबों का बंडल तिवारी जी के कहने पर दिल्ली सुरेन्द्र मोहन जी घर देने भी गया।

    युवा संगत ने गुल खिलाना शुरू किया। मेरी रूचि ज्यादा र्इश्वर धर्म अध्यात्म में थी। प्रश्न तो उठते थे इनके बारे में पर इनसे लड़ने में डर लगता था। हाय कहीं नैतिकता न नष्ट हो जाय। ऐसे मे राजीव ने मुझे ऐसी शख्शियत से मिलाया जो नायाब थी। मैं बड़े संकोच और विनम्र भाव से एस.एन. मुंशी जी से मिला। फिर मेरा कोर्इ साइक्लोस्टाइल परचा लेकर वे मेरे क्वार्टर आ गये तो मैने मानववाद का पाठ सीखा। वे पूरे विज्ञान मूर्ति थे और उतना ही अजूबा था उनका संस्कृति प्रेम। उनके घर का निचला हिस्सा डी.एन. मजूमदार  संग्रहालय हुआ करता था। वहीं भेंट हुर्इ डा यशोधर मठपाल से जो मेरे पुराने दिनमानी पत्र लेखक मित्र थे-अब भीमताल में लोक कला संग्रहालय चलाते हैं। मुंशी जी से क्या कितना कुछ सीखा बताना मुशिकल है पर एक सूत्र दूँ- कि विषयों में अन्तर नहीं किया जा सकता। इतिहास विज्ञान, राजनीति, कला साहित्य संस्कृति सब एक दूसरे से जुड़े हैं।

उनका घर पूरा पुस्तकालय थ। उनकी ही दो किताबें थी एक एम एन राय का नवमानववाद और दूसरी उनकी वैसी ही कहानियों का संग्रह-प्रश्नोत्तर। वैज्ञानिक मानववादी साहित्य बहुत आता था वहाँ। रेडिकल âयूमनिज्म आगे मेरे बड़ा काम आया। उल्लेखनीय यह है कि उनके घर पर विचार गोष्ठियाँ चलती थी और मैं कहीं दुबक बैठ बड़े लोगों की बातें सुनता। विषय बड़े होते कुछ समझ में आती ज्यादा सर से ऊपर गुजर जाती पर मैं पीछे लगा रहता। मैं बिल्कुल नशेड़ी था विचार गोष्ठियों का कहीं भी होती पहुँच जाता और वहां से कुछ खुराक लेकर अपना दिमाग उनमें उलझाए रखता। विचार अभ्यास में इनसे बड़ी मदद मिली। चन्द्र दत्त तिवारी जी के घर नियमित विचार केन्द्र चलता । एक और स्थान था राजा साहब कोटवारा का घर जहां नरसिंह नरायन द्वारा स्थापित इन्डियन हयूमनिस्ट यूनियन था। इन स्थानों पर तमाम वरिष्ठ विचार कर्मियों के दर्शन होते। डा. हर्ष नारायण, के.के. जोशी, भुवनेश मिश्र, डा देवराज, रघुराज गुप्ता, संकठा प्रसाद आदि। और यहीं  मिली डा. रूपरेखा वर्मा। एक स्त्री और इतनी विदुषी! मैं सपने में भी नही सोच सकता था। दकियानूसी ग्रामीण परिवेश में न कभी ऐसा देखा न सुना। सो अभिभूति हुआ उनसे।

मैं निश्चित ही ऋणी हूँ कि मुंशी जी ने मुझे मानसिक ऊहापोह से निकाला उसे फिर तार्किक रूप से मजबूत किया रूपरेखा जी ने। उन्होने मेरे पढ़े लिखे टेढे मेढ़े वक्तव्यों का शोधन करके मुझे अपने विचारों पर आत्मनिर्भर बनने का अवसर दिया।

यह उन्हीं की कृपा थी कि बी.एस.सी प्रथम वर्ष फेल मैं उनकी दार्शनिक सभाओं में जा सका और कालान्तर में तो उन्होने आर्इ सी पी आर (भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद) की लाइब्रेरी का सदस्य भी बनवा दिया जहां से मैं इन्डिविजुअलिज्म (व्यक्तिवाद अपनी कापी पर उतार कर भाग आया)

    अंतत: तो फिर मुंशी जी ने जोरदार ठप्पा लगा दिया। उस समय मैं बाहर डयूटी पर था। लौटकर आया तो पता चला मुंशी जी नहीं रहे। घर गया तो बस-एक सन्नाटा उनकी पत्नी मिलीं उनके अपनी कोर्इ औलाद न थी, और यह उनके वैज्ञानिक मानस के लिए कोर्इ समस्या न थी। लाश का क्या हुआ, वह तो मेडिकल कालेज दे आयी। उनकी आँखें किसको लगार्इ गर्इ मुझे पता हुआ। तो क्या कुछ नहीं मिलता नहीं वहां एक एक नस एक एक तन्तु चीर फाड़कर विधार्थी अध्ययन अनुसंधान करते फिर कुछ नहीं बचता। कोर्इ क्रिया-कर्म का सवाल ही नहीं उठता। मैं आसमान से गिरा धरती पर। क्या ऐसा हो सकता है...

हाँ, र्इश्वर और धर्म के बगैर भी काम चल सकता है मेरे दिमाग में पक्का हुआ। मानववाद मन में बैठ गया। तब तक पेपर मिल कालोनी भी आने जाने लगा था। मेरी हस्तलिखित पत्रिका के पहले वार्षिक ग्राहक पांच रू0 मेरे घर आकर देने वाले चन्द्रदत्त तिवारी जी थे। वे मेरे पड़ोस में जय प्रकाश जी के घर आते थे। उन्हीं से ही इनके बारे में ज्ञात हुआ। बड़े त्यागी है। बड़े घर खानदान के हैं। डी00वी0 कालेज इन्हीं लोगों का है इनके पिता स्वतंत्रता पूर्व विधायक थे, मोटर गाड़ी से चलते थे। ये साइकिल से चलते हैं पूरी इमरजेंसी जेल में रहे। चन्द्र शेखर के दोस्त हैं। जनता पार्टी के एम एल ए का टिकट वापस कर दिया। मुझ गरीब के लिए नैतिकता या बड़प्पन का इतना बोझ बड़ा भारी था। तभी इनकी दृढ़नीति या जिद्दी चरित्र का भी परिचय मिला। जय प्रकाश के पुत्र के जन्म दिन पर वे नहीं आये तो नहीं आये। मैने दूसरे दिन कहा आपने बहुत अच्छा भोजन मिस कर दिया। मैने जीवन में बहुत कुछ मिस किया है  उनका कहना था। वह ऐसे समारोहों को निरर्थक फिजूल खर्ची बताते और इसीलिए अपना जन्म दिन भी सबसे छिपाते। तिवारी जी की खिचड़ी समाज कर्मियों के बीच बहुत लोकप्रिय थी। तमाम सब्जियों से मिश्रित यहां तक कि उसी में वह अंडा भी तोड़कर डाल देते। वह पौष्टिक तो होती पर स्वादिष्ट नहीं जिसके हम पूर्वाचंली अभ्यस्त है। लेकिन कभी-कभी तो खाना ही पड़ता। सम्पूर्ण क्रांति से जुड़े तमाम साथी इसे खा चुके हैं। सो मैने भी खार्इ। लेकिन मैने डाँट भी बड़ी खार्इ।। फोन पर 8 बजे आने को कहते। पहुँचे तो घड़ी दिखाते । यू आर लेट बार्इ एट मिनट्स ऐसे जुमले वह अंग्रेजी में बोलते । आस्कर वाइल्ड उनके प्रिय लेखक जो थे । मैं पार्टी लेस डिमाक्रेसी (जय प्रकाश नरायन का दलविहीन प्रजातंत्र) की बात करता तो डाँट खाता। कहते-जय प्रकाश ने इसकी कोर्इ रूपरेखा नहीं बतार्इ। मंडल आयोग के पक्ष में बोला तो विपिन त्रिपाठी न होते तो मैं मार खाने की कगार पर था। यदि कभी महंगी सब्जी ले आता तो फटकारा जाता । (बाद के दिनों में मैं अपने घर से झगड़ा करके उन्हीं के पास रहने-खाने लगा था। अब उनके जाने के साथ वह आश्रय भी समाप्त हुआ) लेकिन उनका यह सब मुझे बाल सुलभ लगा क्योंकि फिर वह हँसी के मूड में आ जाते। मितव्ययिता के प्रति उनके अति-अनुराग का विरोध करने पर वह मान तो जाते पर हारते नहीं कहते अपनी अपनी एटीट्यूड (प्रवृत्तिआदत) की बात है। दही बड़े के बडे़ शौकीन। बस बताने भर की देर होती तिवारी जी घर आ जाते । हाँ तब भी डाँट खाने की नौबत आती यदि कहीं टोटीं से पानी टपक रहा होता या कोर्इ बत्ती बिला वजह जल रही होती खाना खाते और अलसा जाते तो सो भी जाते। यह एहसान केवल मेरे या जय प्रकाश के ही ऊपर नहीं था। उनके ऐसे असंख्य परिचित घर थे। इसलिए उनका काम शीशे के मर्तबान में रखे चावल की मात्रा से चल जाता। उन्हें चाय का बड़ा शौक थां अंग्रेजी तरीके से बनाते। चाय की प्याली पर हरजिन्दर का थ्री एंड अ हाफ एंड अ लिटिल मोर (चम्मच चीनी) हमारे बीच हमेशा मजेदार रहा। उनकी मृत्यु से कुछ ही दिन पूर्व हमने इसका एक साथ पाठ किया था और खूब हँसे थे। विचार गोष्ठियों में उनकी सहभागिता भी मनोरंजक होती। सब लड़-झगड़-बहस कर रहे होते, तिवारी जी मध्यस्थ सो रहे होते। वैचारिक उत्तेजना उन्हें परेशान नहीं करती थी। इसके लिए मैं उनकी माइनस मार्किग करता। अलबत्ता वे कुछ वाक्य पकड़ते और लेकर उड़ते रहते। उनके घर पहुचँता तो कभी कम्युनिज़्म इज द ओनली वे कभी गांधी का देयर आर एज मेनी रिजीजन्स एज देयर हेडस। फिर रीइवैल्युएशन आफ एक्जिस्टिंग थाट्स। आखिरी दिनों में प्रश्न उठा रहे थे बीसवी सदी का सबसे महान नेता बताओ। गांधी नही। माकर्स नहीं। वह थे अमरीकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट जिन्होने फासीवाद के विरूद्व लड़ार्इ में बिना माँगे ही रूस को मदद दिया। ऐसी ही कमी कुछ विचार कमी कोर्इ शोशा। वह साइकिल से चलते थे। लेकिन मौका मिलने पर स्कूटर पर लिफ्ट का पूरा दुरुपयोग करते। ऐसे ही एक दिन मुझसे कहा चलो प्रमोद श्री हरीश के घर चलो। तब तक शिव वर्मा व भगत सिंह के अनुज कुलतार सिंह व अन्दमान के अन्य जीवित साथियों के साथ पुराना किला दुर्गा भाभी के आवास में शहीद स्मारक व स्वतंत्रता संग्राम शोध केन्द्र की स्थापना हो चुकी थी। दुर्गा भाभी भारत के प्रथम मान्टेसरी पद्वति विधालय- लखनऊ मान्टेसरी इन्टर कालेज का प्रबंधन चद्र दत्त तिवारी को सौपकर गाजियाबाद जा चुकी थी। और शायद प्रमोद कुमार श्रीवास्तव इतिहास में पी.एच.डी कर चुके थे। वह संस्थान के निदेशक पद के लिए संपूर्ण उपयुक्त है। उच्चशिक्षित और अति ऊर्जा वान। नतीजा यह कि आज वही प्रमोद जी इस संस्था केा मित्र प्रभात जी के सहयोग से लगभग अकेले ही सफलता पूर्वक संचालित करने में सक्षम हैं। अभी फरवरी माह में ही शिव वर्मा द्वारा लिखित नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित दो पुस्तकों का विमोचन इसी परिसर में हुआ। यह सब उन्हीं के प्रयासों का फल है। तो हम लोगों का यह सारा सम्पर्क उस विचार केन्द्र का परिणाम था जो उनके घर पर अस्सी के दशक में चलताथा। यहां आने वाली विभूतियों में केएन कक्कड़, चद्रोदय दीक्षित, रमेश दीक्षित, रमेश नागपाल, आशुतोष मिश्रा, नवीन तिवारी, रमेश तिवारी, पारसनाथ मिश्र, डा नरेन्द्र, चन्द्रपाल, अरूण त्रिपाठी, अंबरीष, पुनीत टण्डन, पेन्टल, वीरेन्द्र यादव, अजय सिंह के नाम लिए जा सकते हैं राजीव और रूपरेखा वर्मा तो थी ही। कितने नाम गिनाएं लखनऊ के सामाजिक संपर्क का हर सूत्र तो कहीं न कहीं तिवारी जी से जुड़ता हैं उन्होने विवाह नहीं किया था, रोटी के लिए कोर्इ रोजी करनी नही थी। इसलिए उनके सम्पर्को संबंधों की भरमार थी। यूँ भी उनके घर किसी को भी आने में हिचक नहीं हो सकती थी क्योंकि वे लखनऊ के प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। विश्वविद्यालय से वकालत की पढ़ार्इ की थी। वाइस चांसलर तक से अभिन्नता थी और राजनीतिक नेताओं त्रिलोकी बाबू, सी.बी.गुप्ता, भगवती सिंह आदि से निकट सबंध थे। अलबत्ता इन्होने इसका कोर्इ गलत लाभ नही उठाया न प्रचार पाने के ही अभिलाषी रहे। यह कुछ कम न था। अब ऐसे लोग कहां मिलते हैं।

    अपने घर पर ही एक बार मित्रों से उन्होने कहा कोर्इ संगठन बना लो वरना यह तो (यानी मैं) मारा जायगा। तब मैं बाबरी मस्जिद सबंधी विवाद का अत्यंत विरोधी था। बल्कि मैं सांस्कृतिक विखंडन भी करने लगा था। इसी की सजा में एक वरिष्ठ राजनीतिक कार्यकर्ता ने मेरे हाथ का छुआ पानी भी पीने से मना कर दिया था। बहर हाल तब तक रूपरेखा जी विश्वविधालय में सेक्युलर संगठन की रूपरेखा बना चुकी थी। अब वह कार्यशाला तिवारी निवास पर चलने लगा। सेक्युलर वाद के विभिन्न पक्षों पर बातचीत और नास्तिकता, सशंयवाद, तर्कबुद्विवाद, रहस्यवाद, मानववाद पर सैद्धान्तिक चर्चाएं शुरू हुर्इ। इसमें मेरी पूरी रूचि थी। सो के के जोशी के साथ सेक्युलर सेन्टर की भूमिका लिखी गयी। मै सेक्रेटरी बना। तिवारी जी संयोजक बने। और कोर्इ पद नहीं था क्योंकि इसके पंजीकरण का कोर्इ ख्याल न था। मानववाद में दिली आस्था के चलते मैं इंडियन सेक्युलर सोसाइटी का आजीवन सदस्य बन चुका थां इंडियन हयूमनिस्ट यूनियन की पत्रिका मंगवाने लगा था। अथीस्ट सेंटर, रेशनलिस्ट एशोसिएशन के प्रभाव में था। पटना के डा रमेद्र बुद्विवादी के साथ उन्हीं दिनों चले। गोरा, डा कोवूर, होलिओक, चाल्र्स ब्राडला मेरे गुरू थे। सो इन पर आधारित चर्चा होती और मूल्य निर्धारित होते तब तो मैं किसी काम का था। वरना राजनीतिक सेक्युलर वाद के तो कर्इ संस्करण हैं और उनमें आपस में ही गहन विभेद हैं तो ऐसी धर्मनिरपेक्षता पर कोर्इ एक समझ सहमति सदस्यों में स्थापित होती इसके पहले ही तात्कालिक राजनीतिक आवश्यकता वश एक राष्ट्रीय अधिवेशन का फैसला ले लिया गया। मुझे राजनीति की समझ बिल्कुल न थी। मैं केवल शास्त्रीय सेक्युलर वादी था। लोकायत वादी चार्वाक फिर बुद्व, कबीर तक तो मै खींच ले जाता पर आडवानी संधवानी की धर्म निरपेक्षता मेरी समझ से बाहर थी। और मुझे स्मरण नहीं कि सांप्रदायिक हिंदू मुस्लिम पक्षों पर कोर्इ खुलकर बात हो पार्इ थी ऐसे में अधिवेशन (ग्यारह-बारह अक्तूबर 1986 का लगभग पूरा काम तिवारी जी, रूपरेखा जी, प्रमोद जी, आलोक जोशी, जय प्रकाश प्रभात जी ने हीसंभाला और धर्मनिरपेक्षता  राज्य का घोषणा पत्र पारित हुआ। उसका अपना महत्व रहा होगा लेकिन मेरे ख्याल से अन्तत: सेन्टर की राजनीति परकता ही इसके बिखराव का कारण बनी। एक दिन तिवारी जी ने सेक्युलर सेन्टर का सारा कागज मेरे ऊपर फेंक दिया। मुझे कुछ हासिल हुआ तो बस अपना लिखा एक परचा और जो परचे कुछ आये थे। कुछ और याद करूँ तो असगर अली इंजीनियर का न आना भी  एक उपलबिध थी। ओर एक था किशन पटनायक के पत्र के उत्तर में मुझे तिवारी जी द्वारा बोल-बोलकर लिखाया गया एक जवाब जिस पर एक पूरा विचार केन्द्र अलग से विशेष चलाया जा सकता है। संक्षेपत: र्इश्वर असंख्य जनता के विश्वास के जवाब में तिवारी जी ने लिखाया कि जो नहीं है उसका नहीं होना बताना ज्यादा आसान है या कि उसका होना प्रमाणित करने की जिद करना और अंधविश्वास में रहना। प्रश्न वाकयी गंभीर था पर वह हमसे भी छूट गया। प्रमोद जी लखनऊ एकता चलाने लगे एवं रूपरेखा जी और मैं नागरिक धर्म-समाज । उसकी अलग कहानी है।

    बहर हाल इन सक्रियताओं के बीच में ही तिवारी जी ने हम लोगों को स्कूल व शहीद स्मारक संस्थाओं से भी जोड़ा हुआ था यह उनका हमारे प्रति विश्वास का ही प्रतिफल था वरना हम इसके योग्य न थे। अभी साल भर ही पूर्व मुझे उन्होने चार लाख रूपये से एक ट्रस्ट बनाकर उनकी वसुधैव कुटुम्बकम् के स्वप्न को आगे बढ़ाने का प्रस्ताव किया था। वह तो भला मैं क्या करता पर उनका मेरे प्रति इतना विश्वास प्रदर्शन मेरे लिए पुरस्कार था। लेकिन मानववादियों में श्रद्वासुमन पारंपरिक प्रंशसात्मक भर होकर तो नहीं रह सकता। उन त्रुटियों, खामियों का भी जिक्र होना चाहिए जिससे आने वाली पीढ़ी सबक ले। मुझे कहना चाहिए कि हम लोग उनसे पर्याप्त असहमत थे और उनके रूढ़ ऐटीट्यूड से पीडि़त । किसी भी व्यकित से मिलने पर वे अपने बारे में बताते ना काहू से दोस्ती न काहू से बैर। लेकिन यह पूरा सच नहीं था। उन्होने किसी से दोस्ती नहीं की यह तो ठीक लेकिन उन्होने दुश्मनी तो सबसे ही की। चाहे वह शिववर्मा रहे हो या उनके हम वयस्क अन्य, या फिर दूसरी पीढ़ी के उनके तमाम साथी। वह किसी पर विश्वास नहीं करते थे और अपने विपरीत जाने पर किसी की इज्जत धोने में उन्हे कोर्इ संकोच न था। इसलिए उनका यदि कोर्इ विश्वस्त नहीं हो पाया या वह किसी के विश्वस्त नहीं हो पाये तो इसके पीछे उनकी अपनी प्रवृत्ति की घातकता थी। उनकी आदर प्रशंसा सब करते थे, दिखाते थे पर उसमें दिल की गहराइयाँ न थी इसमें चूक गये तिवारी जी वरना उनके साथ ऐसे ऐसे प्रतिभा सम्पन्न लोग थे कि उन्हें कहीं से कहीं पहुँचा देते। दूसरी बात, हमारा ख्याल है कि यदि वह थोड़ा कम रसोर्इ प्रवृत्त, किचनोन्मुख होते, कड़वा तेल की मँहगार्इ पर इतना ध्यान न दिया होता, चवन्नी बचाने के चक्कर में इतना न रहे होते, भोजन की थाली इस तरह न चाटते  (जिसे देखकर हमे घिन होती) साइकिल के व्यामोह में इतना न डूबते, अपनी कृत्रिम महामानववादी प्रवृत्तियों के गुलाम न होते या कहे गांधी दिखने की कोशिश न करते केवल एक स्कूल से इतना न चिपकते तो वे समाज के लिए शायद कुछ ज्यादा कर जाते जिसके लिए उन्होने इतना पैसा बचा बचाकर बटोरा हुआ था, जैसा वह कहते थे आज वह राजनीति के किसी पायदान पर होते और स्कूल के बाहर की दुनिया भी उन्हें याद करती। कम से कम उनकी र्इमानदारी तो राजनीति में स्थापित हुयी होती। निश्चय ही इसके पीछे था उनमें दृढ़ विचार और आत्मविश्वास और                     धारणाशकित का न होना था जिसका होना र्इश्वर विहीन मानववादी के लिए आवश्यक समझा जाता है। वह अगनासिटक (संशयवादी)  थे। हम उनकी राजनीति धर्म निरपेक्षता पर कुछ न कहेगें पर उन्होने हम लोगों वाली सैद्वान्तिक सेक्युलर वाद को तो अच्छी और पूरी तरह निभाया, जिसके लिए हम अपने आप को अभी असमर्थ पाते है। उन्होने कभी पूजा पाठ नहीं किया, मंदिर नहीं गये तिलक जनेऊ नहीं धारण किया और अन्त में बिना किसी पाखंडी कर्मकांड के अपना शरीर वैज्ञानिक अध्ययन के लिए चिकित्सा छात्रों को सौंप दिया। उन्होने सिद्व किया कि वह जबरदस्त मानववादी थे। ऐसे पूज्य पुण्य-पुरूष को हमारा प्रणाम।

उग्रनाथ नागरिक

शोकसभा

मुझे लगता है कि मेरे शरीर को कुछ होने वाला है | बहुत दिनों से मित्रों से कह रहा हूँ कि मेरी obituary [शोक सन्देश] लिख डालो | बहुत ' प्रिय ' संपादन किया है तो उसका भी प्रूफ देख दूँ , कोई व्याकरणीय चूक सुधार दूँ , कहीं कोई गलती न रह जाय | भाषा-शैली का पूर्व-रसास्वादन कर लूँ |  | और इस बहाने आश्वस्त भी हो लूँ कि हाँ मेरे लिए भी शोकसभा संभावित है , जैसा कि मैं तमाम शोक सभाओं में मैं भी तो जाता रहता हूँ | पर कोई लिखता ही नहीं, जब कि लिखना सब जानते हैं |अच्छे भले बड़े कवि- लेखक -पत्रकार हैं | अब इसके लिए कोई ज़बरदस्ती तो की नहीं जा सकती, वरना ये लिख देंगे कि वह [मैं] बहुत अशिष्ट - निकृष्ट आदमी था | इसलिए मेरा ऐसे ही सूखे-सूखे  चला जाना मेरे लिए श्रेय होगा | तथापि  सोचता हूँ कि स्वयं ही इस सम्बन्ध में कुछ कवितायेँ प्रस्तुत कर दूँ और संतुष्ट हो लूँ !
* एक सही
  वर्तनी हो तुम ,
  प्रूफ की
  तमाम गलतियाँ हूँ मैं |
* अभी कितनी घृणा कर लो मुझसे
  छीन ही लूँगा मैं तुमसे
  दो मिनट का मौन
  अपनी मृत्यु के पश्चात् |
* मैं मरूँगा नहीं
  मैं अपनी माँ के पास जाउँगा
  पीछे से चुपचाप उसका
  आँचल पकड़ लूँगा ,
  वह चौंक कर  देखेगी
  और मुझे अपने गले लगा लेगी |

* नागरिक
  कुछ कह गया
  कुछ कर गया ,
  एक अच्छा आदमी था
  मर गया |
* अब वासांसि जीर्णानि
  तो मैं लिखने से रहा ,
   मेरे जीर्ण वस्त्र होंगे
  मेरे मित्र ,
   शीर्ण होंगे मुझे
  पढ़ने वाले |

आश्चर्यचकित


[ विचारार्थ ]
१ - मैं आश्चर्यचकित हूँ कि ये इमारतें { धर्म और ईश्वर की } , ये पिरामिड आखिर टिके कैसे हुए हैं ? जब कि इनके आधार केवल रेत और बालू है , और कहीं -कहीं तो वः भी नहीं है |

२ - मेरा ख्याल है सचमुच आदमी [ पुरुष ] को घोंघा हो जाना चाहिए | अपने सारे अंग उसे सिकोड़ लेने चाहिए | उधर हम घोंघावसंत होने की वकालत पहले ही कर चुके हैं | औरतों की सारी सफलता का राज़ यही है |

३ - सरकार टैक्स लगती है और वह सारा पैसा उसके कर्मचारी खींच ले जाते हैं |

४ - ह्रदय को तो नज़रअंदाज़ कर भी सकता हूँ , पर मैं अपनी बुद्धि के आदेश को टाल नहीं सकता |

५ - मेरा ख्याल है , उनकी सामाजिक स्थिति को देखते हुए मुसलमानों को भारत में सवर्णों की श्रेणी में रखा जाना चाहिए , और उन्हें सवर्णों के समान सेवाएं और सुविधाएँ दी जानी चाहिए |

६ - कुछ याद किया जाना चाहिए हिन्दू दलितों ने कितनी मनुस्मृतियाँ जलायीं , ब्राह्मणों को - बाबा तुलसीदास, राम चरित मानस , देवी -देवताओं को कितनी गालियाँ दीं ? तब  जाकर  अब कहीं उन्हें थोडा आरक्षण  मिल  पाया | यहाँ तक कि उन्होंने  हिन्दू धर्म त्यागने  की भी धमकी  दी और छोड़ा  भी | दूसरी तरफ  मुस्लिम भाई  कभी  इस्लाम  के विरोध में नहीं गए , कभी  किंचित  भी आलोचना , उसकी शिकायत नहीं की | वे बड़े  गर्व से मुस्लिम बने रहे और कुरआन अथवा मोहम्मद साहेब की प्रतिष्ठा  पर कोई आँच आती दिखी तो उन्होंने सड़कों  पर निकलकर हंगामा भी किया | गरीब भले  हों  पर ब्राह्मणों की भाँति उन्हें भी गुमान है कि वे हज़ार वर्ष हिंदुस्तान के शासक रहे | फिर उन्हें आरक्षण  क्यों ? सवाल यह भी है कि इतने  कथित समतावादी धर्म में होकर और साथी मुसलमानों के पास इतने धन -दौलत एवं ज़कात की व्यवस्था होते हुए वे गरीब कैसे रह गए ? दलित प्रथा  हिन्दुओं की बुराई और समस्या है | सवर्ण समाज अपने पुरखों के पापों  की भरपाई अपने दलित वर्ग को तो आरक्षण देकर कर सकता है , पर उसने मुसलमानों पर तो कोई जुल्म नहीं धाय ! बल्कि वह तो उनके  अधीन रिआया ही रहा ? फिर वह उन्हें आरक्षण को समर्थन क्यों दे ? आज़ादी का नाजायज़ फायदा  तो मत उठाओ  भाई !

७ - मैं पाता हूँ कि ब्राह्मणवाद एक शाश्वत व्यवस्था है | इसे किसी ने नहीं बनाया | यह अपने आप स्वाभाविक और प्राकृतिक रूप से बनती गयी , जिसका टूटना दूर - दूर तक कहीं संभव नहीं दिखता | क्योंकि यह " भेद " पर आधारित है जो कि वैज्ञानिक विधि है और मानव स्वाभाव के सर्न्था अनुकूल | तब दुसरे चातुर्वर्ण थे , अब चतुर्थ श्रेणी तक के कर्म्चाहरी हैं | पहले पंडित जी ब्राह्मण थे , अब ब्राह्मण होंगी | पाला भले बदल जाय पर व्यवस्था नहीं | अभी देखिये , कोई कवी चार पंक्ति का एक मुक्तक लिख लेता है वह अपने आप को कालिदास से कम नहीं समझता | किसी ने एक मुक्त कविता कर ली तो उसे आप मुक्तिबोध से कम समझने की गुस्ताखी नहीं कर सकते ! यही ब्राह्मणवाद है , श्रेष्ठता के दंभ का दर्शन | और यह मानव स्वभाव का स्थायी भाव है | इसलिए ब्राह्मणवाद को गाली देने में समय न गवाँकर इसका कोई सार्थक उपयोग करने की बात सोची जानी चाहिए |    

कोई भी आये


जिसको आना था
जब वही नहीं आया ,
तब कोई भी आये |

विचारणीय


[ विचारणीय ]
 १ - राजनीति तुलनात्मक प्रतियोगिता का खेल है - समय सापेक्ष | इसमें निरपेक्ष और शाश्वत कुछ नहीं |

२ - हालत यह हो गयी है कि अब तो धर्म के बगैर धर्मनिरपेक्ष [ secular ] भी नहीं हुआ जा सकता !

३ - ठीक बात है , जिसको राज्य करना हो वह मांस - मछली खाए , बन्दूक चलाये , हिंसा करे | हम तो चींटी भी नहीं मारते |

४ - जिसकी तरक्की रोकनी हो ,आगे न बढ़ने देना हो , उसे राष्ट्रीयता का वास्ता देकर उकसा दो कि वह मात्र अपनी मातृभाषा में पढ़े और अंग्रेज़ी से नफ़रत करे |

५ - सच तो ज़रूर बोलते हैं हम , बीएस उन कुछ स्थितियों को छोड़कर जहाँ हमें अपनी कमजोरी या मजबूरी स्वीकार करनी होती है |

६ - अल्लाह सिर्फ ईश्वर का नाम नहीं , किसी उच्चतम जीवन लक्ष्य और सम्बल-आश्रय का भी तो नाम है !

७ - एक कर्तव्यनिष्ठ अधिकारी - कर्मचारी का मुकाबला बड़े से बड़ा नेता, साधु संत भी नहीं कर सकता |

८ - अंग्रेज़ी राज्य इससे बेहतर था , यह कहना ठीक नहीं है | बल्कि गुलामी की दशा में यह देश स्वयं ही ठीक रहता है , ऐसा कहना ज्यादा सही है |

सोमवार, 25 जून 2012

गेहूँ के साथ



१ - खूब लगाता
मन नहीं लगता
लेकिन यहाँ |

२ - ख़ैर मनायेगी
कब तक बकरी
बकरे की माँ ?

३ - साथ निभाया
जहाँ तक हो सका
नहीं तो नहीं |

४ - पछ्ताऊँगा
पछताना तो मुझे
होगा ही होगा
हर हाल में
मैं जीतूँ या हारूँ
इस जंग में |

५ - बुरा लगता
औरतों का सजना
भला क्यों मुझे ?

६ - इतना बड़ा
कठोर कालखण्ड
बड़ा सताता |

७ - क्या - क्या होता है
यवनिका के पृष्ठ ( पीछे )
तुम क्या जानो ?

८ - गेहूँ के साथ
घुन भी पिस गया
यही समझो |

शनिवार, 23 जून 2012

कुछ पाना तो है

[ उद्गार - कविता ]
* कुछ पाना तो है 
कुछ पाने की इच्छा तो है ,
लेकिन किसी के मुँह से 
निवाला छीन कर नहीं |

शुक्रवार, 22 जून 2012

दलितों का धन

* मैं ब्राह्मणवाद पर अनायास ही सोचने लगा जब कि मैं ब्राह्मण नहीं संभवतः शूद्र की श्रेणी में आता हूँ | फिर जब जन्मना श्रेष्टता न्यूनता नहीं मानता तो नहीं मानता | यह जिद है हमारी | भले  संस्कारगत या पालन पोषण , शिक्षा दीक्षा में विविधता के कारण अंतर , अथवा यूँ हर व्यक्ति की पृथक इयत्ता और प्राकृतिक विशिष्टता को स्वीकार करता हूँ | लेकिन यह भी मानने में हमें परेशानी है कि मुसलमान - दलित -ब्राह्मण के बारे में सोचने से पहले स्वयं  मुसलमान - दलित -ब्राह्मण हो लिया जाय | यह तो लोकतान्त्रिक विचारशीलता के ही विपरीत हो जायगा | तो अब सोचना है कि  ब्राह्मण को पूज्य मानने का क्या कारण हो सकता है ? एक तो यह समझ में आता है कि उसने अपने जिम्मे केवल पढ़ने- पढ़ाने का काम रखा , और ऐसे लोग स्वभावतः परजीवी होते ही हैं | जैसे आज भी विद्यालयों - विश्व विद्यालयों के अध्यापक , कवि -कलाकार क्या करते हैं ? दूसरे यह कि वह कभी राजा नहीं नहीं बना | परोक्षतः उसने अपने ज्ञान -विज्ञान से राज्य शासन को प्रभावित , किंवा संचालित भले किया , पर राजा तो क्षत्रिय ही रहा | चाणक्य का उदाहरण ज्वलंत है | तीसरे उसने कभी धन नहीं बटोरा | पुरानी किसी भी कहानी में धनी बाभन का उल्लेख नहीं मिलता | धनाढ्य सेठ वणिक-बनिया ही होता है पर " किसी गाँव में एक गरीब ब्राह्मण " ही रहता मिलेगा | प्रहार कटु हो जायगा यदि कोई कह दे कि वह दलित का पैर छूने को तैयार है यदि दलित यह घोषणा कर दे कि " दलितों का धन केवल भिक्षा " | यह मामूली बात नहीं थी कि उसने अपने लिए भिक्षावृत्ति सुनिश्चित की , न उसने एन जी ओ बनाकर या संतई का ट्रस्ट बनाकर करोडो की संपत्ति जमा की | उस ब्राह्मण की आज के ब्राह्मण से तुलना अनावश्यक है | अब ब्राह्मण भी मुख्य धारा में आ गए हैं , और तबसे धनी- मानी बनने लगे हैं जबसे सर्वजन प्रयोग करके उन्हें सत्ता , शासन और राज्य में सीधे बिठाया गया | निस्संदेह सामान्य ब्राह्मण अब भी कुछ सनातन संस्कार के वशीभूत अपने को थोड़ा अनुचित गुमान में रखता है , पर यह एक सामान्य मानुषिक दोष है जिसका परिमार्जन समय के साथ होना ही है | उसे तो मिटना ही है और सामान्य नागरिकता की श्रेणी में आना ही है | लेकिन यदि कोई वर्ग या समुदाय अपनी श्रेष्ठता की सीढ़ी विशेष तौर पर  बुलंद करना चाहता है तो क्या उसके लिए उचित न होगा वह  इसका सूक्ष्म अध्ययन और अनुकरण करे कि आखिर गरीब , दीन- हीन ब्राह्मण किस तरह  , एक- दो , दस -बीस साल नहीं सदियों तक समाज का सिरमौर बना रहा ? उससे कुछ सीखें तो आप भी वैसा बन सकते हैं , आप भी अब वेद पढ़ सकते हैं कोई नया मनुस्मृति गढ़ सकते हैं [ गढ़ा ही है संविधान ] | आप विशिष्ट ब्राह्मण नहीं बनना कहते तो आप भी सामान्य नागरिकता के पायदान पर आइये , सबको समान समझिये | वर्ना ब्राह्मण और आधुनिक लोक -मानव के बीच क्या अंतर रह जायगा ? इस लक्ष्य के लिए अब केवल उसे गाली देने या चिढ़ाने से तो कुछ हासिल होने वाला नहीं | मायावती जी ने उसका साथ लेकर शासन करना सत्य    सिद्ध कर ही दिया , और आश्चर्य क्या कि महान आंबेडकर ने अपने आह्वान में ' शिक्षित बनो ' को सर्वोच्च स्थान दिया ?
अंत में एक महाप्रश्न अपने आप से है - " यदि ब्राह्मण हमको अपने बराबर नहीं समझता था , तो क्या हम ब्राह्मण को अपने बराबर समझते हैं ? "
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एक  साहित्यिक बदमाशी जैसा कुछ सूझ रहा है | मैं ब्राह्मणों की उपमा मुग़ल बादशाह बाबर से देना चाहता हूँ | बाबर भी टोपियाँ सिलकर और कुरान का हस्तलेख करके अपनी आजीविका चलाता था , पर अपने शासन में बहुत कठोर था | उसी प्रकार ब्राह्मण भी अपने लिए धन केवल भिक्षा रखता था , पर सामाजिक नियमों में बहुत कठोर था  | वैसे भी यह इसके बारे में प्रसिद्ध है कि हिन्दू दूसरों के लिए दयावान पर अपने लोगों , मसलन दलितों के प्रति बहुत निर्मम है |  

नॉन -इस्लामिक स्टेट

 * तो क्या हिंदुस्तान में सिर्फ मंडल - कमंडल , अगड़े - पिछड़े , दलित -ब्राह्मण , भाजपा - कांग्रेस की ही राजनीति चलेगी ? इससे देश कहाँ जायगा ? यह तो ' दूसरी -तीसरी गुलामी " की ओर जाने जैसी बात होगी , यदि हम केवल अपने देश में नई - नई समस्याएँ जन्म देकर उसमे उलझते रहे और अपने आगे -पीछे , दायें -बाएँ , ऊपर -नीचे , अडोस - पड़ोस कुछ दीन -दुनिया की ओर नहीं देखेंगे ? आखिर देश भी कोई चीज़ है या नहीं ? देश रहेगा तभी आरक्षण - संरक्षण , आर्टी-पार्टी रहेगी | जिन्ना गलत थे तो भी उनके पीछे खड़े होकर तमाम मुसलमान विभाजन के पक्ष में डायरेक्ट एक्सन तक पर उतारू हो गए और जिन्ना के सिद्धांत को व्यवहृत करके पाकिस्तान बनाया | अब , जब हम उसी जिन्ना को आधार बनाकर भारत में नॉन -इस्लामिक स्टेट चाहते हैं तो हिन्दू बगलें झाँकने लगता है क्योंकि उसे नपुंसक न भी कहें तो नैतिक रूप से नासमझ और कमज़ोर तो कहा ही जायगा | और हम जानते हैं कि अंदरूनी विभाजन उसका कारण है, और वह सच है  | लेकिन आश्चर्य है कि वह और किसी न किसी प्रकार का  विभाजन हर धर्म में है पर उसका रोना वे हर समय नहीं गाया करते | मौक़ा पड़ने पर वे एक हो जाते हैं | और यह ध्यान देने और याद रखने वाली बात है कि भारत हिन्दू है तभी उसमे आरक्षण है | और यह उन वर्गों तक पहुँचने जा रहा  है जो हमेशा शासक वर्ग रहा है | यदि यह हिन्दू नहीं रहा तो यह सब कुछ नहीं रहेगा | क्या पाकिस्तान -अरब -ईरान -ईराक में आरक्षण है , इसका पता लगाना पड़ेगा | अलबत्ता यहाँ  आज दलित  - मुस्लिम एकता की मुहिम और राजनीति भारत राज्य पर फिर से  कब्ज़ा करने के तहत चलायी जा रही रणनीति है | जब कि ज़मीन का थोड़ा सा भी अनुभव रखने वाला जन यह यथार्थ जानता है कि शहर का उच्च वर्ग छोड़ दीजिये , गाँव का गरीब मुसलमान भी हमारे दलितों के प्रति वही  हेयभाव रखता है , जैसा कि ब्राह्मणों के दिलों में होता बताया जाता है , या मान लें कि होता है | फिर भी यह कोई कैसे भूल जाता है  कि भारत के सभी वर्ण किसी भी तरह एक साथ रहते तो आये थे , और उसमे बाह्य जातियाँ - मुस्लिम -ईसाई- पारसी भी शामिल होते रहे | लेकिन मुसलमान आज़ादी की भनक मिलते ही भारत से छटक कर अलग हो गाया  जहाँ उसे इस्लामी संप्रभुता मिलनी थी ? नहीं रह सके वह अपनी हनक , अपनी अलग संस्कृति और सत्ता के बगैर लोकतान्त्रिक भारत में | ठीक है उस समय नेहरु का दबदबा था , पर गुंजाइश तो थी लोकतंत्र में उनके शासन के बारी की या उसमें हिस्सेदारी की , जिसे उन्होंने गवाँ दिया | #

डी एन ए टेस्ट


[ gon -zo ]

हाइकु=
* तन से सब
मन से कुछ नहीं
मानता हूँ मैं |

* न गर्मी ठीक
कोई मौसम नहीं
न जाड़ा ठीक |

* विशालता से
कम कुछ भी  नहीं
चाहिए मुझे |

कविता =

* हाँ यार ,
लिखना तो चाहिए ऐसा
की दुनिया हिल जाए
पूँजीवाद धूल में मिल जाए
सरकारें धराशायी हो जाएँ
जनवाद का बोलबाला ,
साम्राज्य स्थापित हो जाए |
हाँ यार '
लिखता तो हूँ ऐसा
की कोई पुरस्कार मिल जाए |
##

टीप = डी एन ए टेस्ट
* एक उदाहरण याद है अभिनेत्री नीना गुप्ता का | उन्होंने स्वयं अपनी मर्जी से संतान - प्राप्ति की , और पुरुष का नाम नहीं बताया | उनके अनुसार यह पर्याप्त था कि वह उसकी माँ है , उसने अपनी ज़िम्मेदारी पर बच्चा पैदा किया है , इसमें किसी पुरुष - बाप के नाम की ज़रुरत क्या है ? वह ही माँ -बाप हैं | यह अतीव साहस का काम था |
दूसरा उदाहरण पौराणिक है | बिना बाप के नाम के पुत्र सत्यकाम और उसकी माँ का | लोक - उलाहनों से प्रेरित सत्यकाम ने अपनी माँ से पूछा - माँ , मेरे पिता कौन हैं ? साहसी और सत्यवादी  माता ने दृढ़तापूर्वक  कहा - " बेटे मैं कई ऋषियों की सेवा में रही , तू किसका पुत्र है , मैं बता नहीं सकती ?" यही बालक सत्यकाम सत्यवाद का महान नायक बना , और पुराण पुरुष | प्राच्य विज्ञानं का गुण गाने वाले भले कहते रहें कि उस ज़माने में पुष्पक विमान था , यह था -वह था , लेकिन निश्चय ही उस काल - अवधि तक डी एन ए टेस्ट की जानकारी विज्ञानं को नहीं थी | और यह भी कि हर औरत नीना गुप्ता और सत्यकाम की माँ नहीं हो सकती |

गुरुवार, 21 जून 2012

Single/Double Haiku


* ठीक से देखो 
नज़र नीची करो
ज़मीन देखो |

*कुछ चीज़ें तो
बदलनी चाहिए
मसलन क्या ?
हमारी सोच
जन - मानसिकता
बदलेगी क्या ?

11- हाइकु



१ - पर्याप्त होता
औरत का होना ही
किसी घर में |

२ - बच्चे रहते
घर भरा रहता
आनंद पूर्ण |

३ - बिलावजह
नींद हराम किया
उनके पीछे |

४ - होना चाहिए
ईश्वर है नहीं तो
नया बनाओ |

५ - मुझे क्या पता
प्रेम किसे कहते
करना जानूँ |

६ - नाम कमाना
क़ुरबानी माँगता
हलवा नहीं |

७ - कोई न कोई
पावरफुल होगा
वह कोई हो |

८ - कोई आदमी
अपनी बराबरी    
नहीं चाहता |

९ - चिंतन कर्म
बिल्कुल आसान है
शुरू तो करो |

१० - मैं मूरख था
मैं मूरख रहूँगा
मैं मूरख हूँ |

११ - मिलता भी तो
कब तक मिलते
जीवन छोटा |

बुधवार, 20 जून 2012

कथनानुसार


१ - बीस रुपया रोज़ पाने वाले गरीब विधायक -सांसद बनें यह तो संभव नहीं है , लेकिन मेरी आकांछा आकांक्षा है कि सांसद - विधायक बीस रुपया रोज़  वेतन लें |
२ - अजीब बात है कि असली 'व्यक्ति' का उदय तब होता है जब उसका नकली ' व्यक्ति ' तिरोहित हो जाता है |
३ - यदि हिंदुस्तान को तरक्की तो क्या , जिंदा भी रहना होगा तो उसे यह भूलना होगा कि कोई व्यक्ति मात्र पैदा होने से छोटा या बड़ा होता है |
४ - किसी के कहने से नहीं , जब मेरी नानी मरीं , तब मुझे विशवास हो गया हम सबको , सारे मनुष्यों को मरना होगा |
५ - बूढ़ों को भी अपने पैरों पर खड़ा होना चाहिए |
६ - ' आम आदमी ' वह है जिसे अपने आम ज़रुरत के कार्यों के लिए नौकर , मजदूर न लगाना पड़े |
७ - ईश्वर को delete  मत करो तो उसे recycle bin में तो डाल ही दो |
८ - मैं स्वर्ग को न तो जानता हूँ न मानता हूँ , लेकिन यदि कहीं स्वर्ग हुआ और उसमे मुझे जाना ही पड़ा , तो चला जाऊँगा |
९ - ईश्वर को छोड़ अपने ' आदमी ' की शरण में आइये |
१० - बड़ी ज़िम्मेदारियाँ उतनी ही बड़ी नैतिक ऊँचाइयों के साथ निभाई जानी चाहिए |
११ - जो अपने आपको बहुत बुद्धिमान समझते हैं , वे सबसे अधिक मूर्ख होते हैं |
१२ -  The world is made up of ‘differences’ . Once you forget it , you will  be in a candid tension .

हिंदुस्तान - पाकिस्तान एक करो

अभी समय है हिंदुस्तान पाकिस्तान एक करो चाहें जरदारी को भारत का राष्ट्रपति बना दो दोनों देशो की समस्याएँ परेशानियाँ एक हैं अंदरूनी भी बाहरी  भी  कहने दीजिये किसी को जब बिल्कुल ठीक से बँटवारा नहीं हुआ हो ही नहीं सकता था कि सारे हिन्दू हिंदुस्तान  में सारे मुस्लिम पाकिस्तान में तो फिर यह माना जाना चाहिए कि दोनों का रहन सहन संस्कृति एक ही है और जो नहीं है तो भी वे अपनी अपनी मान्यताओं के साथ एक साथ सदियों से रहते आये हैं इन्हें एक साथ रहने का पूरा अनुभव अभ्यास है यह काम जितना जल्दी हो जाय उतना अच्छा भारतीय मानस इस बँटवारे को स्वीकार नहीं कर पाया है न कभी इसे पचा पायेगा यदि ऐसा न हुआ तो पाकिस्तान में हिन्दुओं की दशा अच्छी नहीं होगी है भी नहीं उसी प्रकार भारत में मुसलमान भी ढंग से नहीं रहने पायेंगे चाहें सच्चर कमेटी लागू कर लीजिये चाहें आठ प्रतिशत आरक्षण कैसे भूल जायेगा हिंदुस्तान जिन्ना की बात कि हम अलग हैं और एक साथ नहीं रह सकते और इसे पाकिस्तान ने अपने यहाँ हिन्दुओं के साथ वही व्यवहार करके दिखा भी दिया यदि जिन्ना की बात गलत करनी है ,अल्लामा इकबाल का कौमी तराना यदि सही ठहराना हो तो फिर एक होकर दिखाओ | अब इससे कोई लाभ नहीं कि बँटवारे में जिन्ना - -इकबाल का दोष ज्यादा था या गाँधी नेहरु का | एक होने पर सारा मलाल मिट जायेगा | यह तो तय है कि  जनता का तो कोई दोष नहीं था उसने बहुत सह ली बँटवारे की त्रासदी अब वह एक होना चाहती है ऐसी राजनीतिक इच्छा [Political Will ] जिसके पास हो वह अब अगले चुनाव में उतरे शेष तो लफ्फाजी बहुत हो चुकी |

मंगलवार, 19 जून 2012

लखनऊ के अन्य स्कूल


 लखनऊ के कुछ अन्य स्कूल =
------------------------------- लम्बे समय तक जब तक चन्द्र दत्त तिवारी जी D -10 /5 , पेपर मिल कॉलोनी  में थे , तब तक वह एक स्थायी विचार केंद्र के सामान रहा औपचारिक / अनौपचारिक रूप से | इसके अतिरिक्त उन दिनों जो केंद्र कार्य रहे थे मेरी स्मृति के अनुसार एक तो था माह के दो शनिवार चलने वाला नवचेतना केंद्र , अशोक मार्ग पर गोष्ठी जिसमे तमाम रिटायर्ड आई ए एस , आई पी एस , न्यायाधीश हैं , और जो अब भी नियमित चल रही है , जैसा कि अख़बार से पता चलता है , क्योंकि उसे हम लोगों ने पहले ही त्याग दिया था , जब डॉ एम एम एस सिद्धू से शिकायत  करने के बाद भी बात नहीं बनी | एक हर्ष नरायन जी का था नरही में उनके अपने घर पर , जिसका नाम लखनऊ अकादमी जैसा कुछ था | विश्वविद्यालय में कुछ थे / रहे होंगें क्योंकि वहाँ विचार केंद्र बनते बिगड़ते रहते है अकादमिक सेसन के साथ जैसे कभी ' सोच - विचार ' भी कोई था | अम्बरीश का थिंकर्स फोरम था और ज्यादा याद नहीं | हाँ जब तक राजा साहेब कोटवारा [फिल्म निर्माता मुज़फ्फर अली के पिता] जिंदा थे उनकी ह्युमनिस्ट  यूनियन में भी यदा - कदा गोष्ठी हुआ करती थी | और तो अन्य औपचारिक सभा- सेमिनार प्रेस क्लब , इप्टा ऑफिस , जय शंकर सभागार आदि स्थानों पर हुआ ही करते थे | पार्टियों और संस्थाओं की भी अपनी सभाएँ थीं | एक महान पाठक और पत्र लेखक स्व के.के .जोशी के घर भी हम लोग वक़्त ज़रुरत बैठक कर लिया करते थे | बाद में अनुराग बाल केंद्र , निराला नगर में चला | उधर लखनऊ मोंटेसरी में शिव  वर्मा जी भी सक्रिय थे | फिर जितना मैं जानता हूँ, या मुझे याद आता है , या जिनमे मैं शरीक होता था उन्ही को तो बता पाऊँगा | अन्य तमाम चलते रहे होंगे , जो उन्हें जानते हों वे जानें | #

Lucknow School of Young Thoughts


साइंटिफिक टेम्पर से साइंटिफिक टेम्पर तक : Story of Lucknow  School of Young  Thoughts   =============================
हुआ यूँ की जिस विभाग में मैं नौकरी करता था ,फील्ड कर्मी होने के नाते मुझे अपने अधिकारी के निवास पर जब -तब जाना पड़ता था , और वह महानगर में रहते थे | एक दिन वहां से लौटकर बहुत थका हुआ मैं पास के फातिमा अस्पताल के सामने ढाबे पर चाय पी रहा था | बगल में ही तख्ते पर कुछ और लोग बैठे थे  | मैंने सुना एक व्यक्ति अपने साथी से कह रहे थे कि हिंदुस्तान में साइंटिफिक टेम्पर संभव ही नहीं है | मैं चौंक गया ,आलस्य फटाफट दूर हो गया , क्योंकि यह मेरा प्रिय चिंतन और कर्म का विषय था | मैंने उनकी ओर परिचय का हाथ बढ़ाया और चर्चा में शामिल हुआ | वे थे श्री कृष्ण मुरारी यादव , यादव भवन के सबसे अग्रज और उनके मित्र श्री राय साहेब , कवि | इसी बीच संयोग से पता नहीं कहाँ से रिक्शे से प्रमोद कुमार श्रीवास्तव उधर से गुज़र रहे थे | मैंने उन्हें फ़ौरन रोका और खुशखबरी बताई | शुभ मिलन प्रारंभ हुआ | हम यादव भवन गए |
यादव जी ने बंगाल के शानिवारेर गोष्ठी की परंपरा  का इतिहास बताया और यह भी कि Lucknow  School of Young  Thoughts  उसी तरह से चलाने की उनकी मंशा थी | दोनों इतिहास के आदमी थे , सहमत हो गए = प्रत्येक शनिवार सायं ५ बजे स्थान यादव भवन , महानगर में मिल बैठने का सिलसिला शुरू हो गया | सदस्य बहुत नहीं थे पर बढ़ते गए | कोई बंधन न था पर इसका होना निश्चित होता था | उसके कुछ चेहरे थे हरजिंदर , मुकेश त्यागी , पुनीत टंडन ,विपिन त्रिपाठी  , आलोक, मैं और प्रमोद जी | हम पर तो उन दिनों इसका नशा सवार था | कभी कभी आने वालों में थे अवधेश खरे , भुवनेश मिश्र, राजीव हेमकेशव | अब इसके आगे हरजिंदर भले से बता सकते हैं क्योंकि वे अत्यंत  नियमित थे और विषयों के समझदार भी | लेकिन शुरू में बिना विषय के अनौपचारिक चर्चा ही होती थी पर होती गंभीर और दिमाग की भुजिया बनाने वाली थी | ज्यादातर तो  सूत्रधार होते यादव जी और प्रमोद जी  पर बहस में सभी खुल कर भाग लेते थे, इसलिए हमें बहुत उपयोगी और रोचक लगती थी  |
तभी एक दुर्घटना  हो गयी | मेरी एक वन लाइनर पर क्रुद्ध होकर भुवनेश जी ने कह दिया कि मैं इनके हाथ का छुआ पानी भी नहीं पियूँगा | सभा सन्न हो गयी , यह बात लोकतान्त्रिक  मूल्य के विपरीत थी | मैं तो खून के आँसू पी गया { अछूतों की दशा का मन में अनुमान -अनुभव करते  }, लेकिन युवा -उत्साही प्रमोद जी को चैन कहाँ ? तब  उन्होंने तय किया  विषय को लेकर  चर्चा करने  की और लिखित परचा पढ़ने की , जिससे विषयांतर न होने पाए | नारी मुक्ति , धर्म निरपेक्षता -- आगे याद  नहीं | इस पर प्रमोद जी प्रकाश डालें तो ही ठीक होगा | बहुत दिनों तक ऐसा चलता रहा , पर किसी दिन यादव भवन के पड़ोसी घोसियों से रंजिश में स्कूल में व्यवधान पड़ गया [ इसके समर्थ गवाह अवधेश जी हैं , मैं उस दिन  गाँव गया था ] |
 लेकिन मैं मेंढक तोलने से कहाँ बाज़ आता ? यादव जी से मुलाकातें तो होती ही थीं , तो उनकी दुकान विनायक गैस सर्विस पर ही लोग मिलने लगे , यद्यपि वह ऊर्जा अब न थी | वहीँ पर प्रगतिशील लेखक संघ के भी लोग आये | किसी से भी मिलना , वार्ता करनी होती तो उसके लिए हमारे पास यही जगह थी , जिसे बौद्धिक कह सकते थे | यहीं पर हैदराबाद एकता के सेकुलर सामाजिक - राजनीतिक कार्यकर्त्ता कुद्दूस भाई भी आये | उनसे सबकी लम्बी चर्चा हुयी | प्रमोद जी वह सब अच्छी तरह समझते थे | मुझे राजनीतिक धर्मनिरपेक्षता में कोई रूचि न थी, मैं उसका  आध्यात्मिक  पक्षपाती  था | सो मैंने नादानी में पूछ लिया -- " लेकिन कुद्दूस भाई ,  साइंटिफिक टेम्पर का क्या होगा ?" और उन्होंने मुझे सेट बैक दिया - " इसका अभी समय नहीं आया है " | अतः वह केंद्र भी बंद हो गया | तदन्तर मैंने तिवारी [सी डी] से उनके निवास पर परमिशन चाहा  |  
उन्होंने  पहले तो 'हाँ' कह दिया पर दुसरे  दिन शर्त लगा दी की किसी उद्देश्य के तहत बैठो तो बैठो , नहीं तो नहीं | तब सेकुलर सेंटर की भूमिका बनी और वह बना भी , जिसमे मुख्य  भूमिका निभाई के .के .जोशी ,रूपरेखा वर्मा , प्रमोद कुमार ,आलोक जोशी  और कहना चाहिए जय प्रकाश ने जिन्होंने बड़ी मेहनत की | प्रभात  जी भी शायद तब तक मैदान  में आ गए थे | थोड़ा अपने योगदान से भी इन्कार नहीं करूँगा , क्योंकि मैं  संयोजक चन्द्र दत्त तिवारी जी का एकमात्र सचिव था | उसे विस्तार से आलोक ही बता सकते हैं क्योंकि वह उस समय सबसे युवा -सक्रिय सदस्य थे , और वह और प्रमोद जी राष्ट्रीय सम्मलेन के अवसर पर रात रात भर बिहार से आये और आयीं  प्रतिभागियों से बहस रत रहते थे, और अवसर मिलने पर मुंबई से आई पत्रकार ज्योति पुनवानी के साथ | उसकी अलग कहानी है जो आडवानी की रथ यात्रा के साथ अंत को प्राप्त हुई | आगे चलकर प्रमोद जी यादव जी के साथ 'लखनऊ एकता रपट '  निकालने लगे और हम रूपरेखा जी के साथ ' नागरिक -धर्म समाज ' में सक्रिय हुए |  लेकिन मेरी फितरत समाज कार्य में कम विचार कार्य में ज्यादा थी , जिसके लिए हमारे पास जगह न थी | सो , मैंने  फिर बाँध छेंक कर रूपरेखा जी और राकेश [ इप्टा] को यादव जी के निवास पर ले जा कर गोष्ठी प्रारंभ करनी चाही | चौथे सहभागी के रूप में उपस्थित हुए प्रमोद जी | विषय साइंटिफिक टेम्पर ही था | अन्धविश्वास पर चर्चा छिड़ी तो पता नहीं क्यों बात बिगड़ गयी | यादव पक्ष यह सिद्ध करना चाह रहा था कि पोलियोड्रॉप भी तो अन्धविश्वास है , या ऐसा ही कुछ | फिर तो वहाँ दूसरी बैठक होने की नौबत नहीं आई , मैं खिसिया कर रह गया जो कि चाहता था कि एक जगह मिलने -बैठने की गुंजाइश बने | फिर तो मैं , निराश hibernation  period में आ गया | कभी- कभी यादव जी के घर चला जाता था , जो  तमाम शायरों को कलमकारान - ए - लखनऊ के नाम से हर माह के ग्यारह तारीख को नशिष्त- दरबार  चलाते थे , जो उनकी मृत्यु तक चला | 'नागरिक -धर्म समाज' [जिसमे मेरी जान थी] का कायाकल्प " साझी दुनिया "  में हो गया , जिसे वीसी पद से रिटायर होकर रूपरेखा जी यशपाल जी के घर पर अवस्थित कार्यालय से अविराम चला रही हैं | वहाँ चल रही हर वृहस्पतिवार सायं चार बजे की बैठकों में कभी जाना हो ही जाता है | पर अब कहीं कुछ नहीं बोलता, अनबोलता मशीन हो गया हूँ मैं | मैं समझ गया हूँ कि  मैं अप्रासंगिक हो चूका हूँ , शायद सदा ही रहा था , और वही मेरी असफलता का कारण | अब  मैं कुछ फुटकर- स्वतंत्र मित्रों और कविता - कहानी - पत्र लेखन -ब्लॉग लेखन और फेस बुक में अपना मनोवांछित लिख -पढ़ -कह कर  मस्त रहता हूँ | यादव जी स्वर्ग सिधार गए [ वह उसे मानते न थे] , प्रमोद जी विश्वविद्यालय में हेड हैं ,किताबें लिखने और अपने अकैदमिक्स में मशगूल हैं , आलोक मुंबई गए , हरजिंदर दिल्ली | पुनीत की दर्दनाक मौत हो गयी सपत्नीक | एक दिल  के टुकड़े हज़ार हुए , कोई यहाँ गिरा कोई वहाँ गिरा |
 तो यह थी किस्सा - कोताह Lucknow School of Young Thoughts की कहानी, Scientific Temper से शुरू  , Scientific Temper पर समाप्त | लेकिन  हाँ , यंग का अर्थ विचारकों की जवानी से नहीं विचारों के जवानी से था | यह उसकी विशिष्टता भी थी और , मेरे ख्याल से यही उसकी कमजोरी भी साबित हुयी | यादव जी तो नवीनता की रेंड ही मार देते थे और कुछ अपने ख़ास बने - बनाये विचार इस तरह आगंतुक पर लाद देते थे , कि वह फिर दोबारा आने का नाम न लेता | और हम भी कुछ नया कहने के उत्साह में कुछ ऐसा कह जाते जो लगभग निरर्थक और अग्राह्य होता | तिस पर भी दुःख इस बात का नहीं है कि स्कूल बंद हो गया , शोक यह है कि सचमुच नया, प्रिजुडिस विहीन , निर्वैयक्तिक , स्वार्थ रहित मानुषिक  विचार प्रक्रिया शुरू ही नहीं हुई जैसा कि स्कूल का स्वप्न था [ ऐसा मुझे लगता है ] |
 यह सारी कथा अस्सी और कुछ नब्बे की दशक को छूते हुए है | इतनी पुरानी यादें लिखने में कोई त्रुटि हो गयी हो , कुछ छूट  गया हो और मेरा लेखन व्यक्तिगत होना तो निश्चित है , उसके लिए यह अकिंचन हमेशा क्षमा प्रार्थी रहेगा | #  

सोमवार, 18 जून 2012

दिलफेंक


[ कवितायेँ ]
१- कबीर चदरिया 
मैं महसूस करता हूँ 
एक चादर अपने ऊपर ,
पने शरीर के ऊपर |
नीचे नहीं किनारे नहीं , 
न सिर के पीछे 
न  पाँव के नीचे 
बस केवल ऊपर 
छाया हुआ , लहराता 
मेरे  ऊपर आक्षादित |
मैं हर तरफ से मुक्त हूँ 
बस एक  आभास भर है -
मेरे ऊपर एक चादर है |
वह चादर मेरी नहीं है 
जो मुझे सृष्टि से मिली  होगी 
वह चादर कबीर की है ,
मैं  चादर को नहीं जानता 
लेकिन कबीर को पहचानता हूँ 
मेरे ऊपर कबीर की चदरिया है ||
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२ - अपना राजा 
मैं अपना राजा 
उसे बनाना  चाहता हूँ 
जो मुझसे दूर हो
मेरे  घर - परिवार
सम्बन्ध  का न हो 
जिससे वह पक्षपात न कर पाए 
तभी वह शासन कर पायेगा /
तभी मैं उससे शासित हो पाऊँगा |
मैं दलित को राजा बनाना -
मानना चाहता हूँ 
क्योंकि मैं दलित नहीं हूँ 
मेरा कोई संबंधी दलितों में नहीं है |
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३ - क्षणिका  
आदमी 
अपने से 
पार पाए ,
तब न कुछ 
कर पाए ?
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४ - बिस्तर 
मुझे ख़ुशी है कि मैंने 
अपना बिस्तर  बाँध लिया है 
समान सब पैक कर लिया है ,
कुछ भी इधर - उधर 
बिखरा  नहीं रह गया है 
कमरा भी साफ़ कर दिया है 
और सामानों को इकठ्ठा 
एक जगह रखकर , तैयार होकर 
किनारे कुर्सी पर बैठ गया हूँ 
बस  ऑटो वाले के आने भर की देर है |
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५ - आटा गीला 
गरीब हो , मतलब गरीबी है तो
आटा  थोड़ा ही गून्थो
ज्यादा तो कनस्तर में ही 
पड़ा रहने दो ,
क्योंकि आटा गीला तो 
होना ही है , गरीबी में !
यदि अलग कुछ आटा न हुआ 
तो उसे कैसे सुखाओगे , माडोगे
कैसे रोटी बनाओगे ?
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६ - सत्यवान 
तुम मुझे क्यों 
खींचे लिए जा रहे हो ?
मैं कोई सत्यवान नहीं जो 
कोई सावित्री मुझे तुमसे 
छुड़ा ले जायेगी ,
वस्तुतः मैं तुम्हारे साथ 
जाऊँगा ही नहीं 
मेरे पास इतना काम है  कि 
मुझे मरने की फुर्सत नहीं |
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७ - दिलफेंक 
यदि तुम दिल -
- फेंकना ही चाहते हो 
तो फेंक दो 
वह किसी भी चेहरे पर जाकर 
फिट हो जायगा 
यदि तुम दिलफेंक हो तो !
जैसे एन जी ओज़ के बारे में 
प्रचलित है कि 
किसी तरफ कंकड़ फेंको 
वह किसी एनजीओ पर गिरेगा |
अब यह बात और है कि 
न एनजीओ विश्वसनीय हैं 
न दिल |
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