बुधवार, 1 दिसंबर 2010

हम तो कहते हैं [18 contd. ]

१८ -
१७ - सगुण - निर्गुण के बाद अब अवगुण या दुर्गुण भक्ति का आगमन और प्रचार - प्रसार होना चाहिए जिसका
अनुसरण हम नास्तिक लोग करते हैं या करते हुए बताये जाते हैं | यह बात ठीक है या नहीं ?
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1= हिन्दू धर्म पर आरोपित किये जाने वाली इतनी बुराइयों और इस पर प्रक्षिप्त अनेकानेक लांछनों एवं अपशब्दों के कारण मुझे अपने अनिच्छापूर्वक अनायास ही इस धर्म में जन्म लेने पर   अब कुछ गर्व होने को आ रहा है.
अन्धविश्वासी, मूर्तिपूजक, अविश्वसनीय, दलित पीड़क, स्त्रीद्रोही, पाखंडी, दकियानूसी, योनि-शिश्न आराधक, काफ़िर, सांप को दूध पिलाने वाले, घोर जातिवादी, विषमतावादी , समाज विभाजक और क्या क्या नहीं!
अब इस संप्रदाय में मैं आराम से बुरा बन कर या मनुष्य की समस्त दूषणों से युक्त हो कर रह सकता हूँ.
परेशानी तो उन्हें हो जो प्रेम से लबरेज़, दयासेवा कर्मी, अत्यंत समाजवादी, शिष्ट आचार व्यवहार एवं उच्च आदर्शों को अपने सर पर उठाये उसे पालन करने हेतु विवश हैं. वे अपने झूठे दर्प पर ऐठे रहें, मैं अपनी सच्ची नीचता पर प्रसन्न हूँ.
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2 =  खाता कम हूँ मैं, गाता ज्यादा हूँ.
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3 =  जो सबसे ज्यादा जाहिल हैं वे सबसे ज्यादा दूसरों को जाहिल बतातें हैं.
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4 =  नौकरानी  का  जितना  कचूमर  मालकिन  निकालती  है  उतना  मालिक कभी  नहीं निकल सकता |.
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5 = शाइनी आहूजा पर नौकरानी का आरोप गलत था, जैसा मेड ने स्वयं स्वीकार किया.
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6 =  खाते समय काँटा  बाएं हाथ में, चम्मच या चाकू दायें हाथ में, सब आदत की बात  है. संस्कार का खेल.| या  इसमें भी कोई वैज्ञानिकता या अवैज्ञानिकता की बात है. ? मैं तो जब तक दाहिने हाथ से दाल भात सान कर कौर उठाकर  नहीं खाता, तब तक मेरा पेट ही नहीं भरता.| आश्चर्य होता है की कैसे चीनी जापानी लोग दो स्टिक की मदद से भात खा लेते हैं!
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7 =  मैं साहित्यकार हूँ, पर साहित्य की कोई कक्षा नहीं पढ़ा सकता . मैं विचारक हूँ पर दर्शन पर भाषण नहीं दे सकता. सामाजिक  कार्यकर्ता हूँ पर समाज को सम्बोधित नहीं  कर सकता. राजनैतिक चिन्तक हूँ पर मैं कोई दल नहीं बना सकता. अब भला मेरा यह सब होना भी भला कोई होना है?
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8 =  प्रश्न यह है की यदि मुझे सब कुछ मिल गया होता तो क्या मैं खुश हो गया होता?
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9 =  बिल्ली की आवाज़ में आप कुत्ते से बात नहीं कर सकते.
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10 =  (व्यक्तिगत) मैं कभी कभी स्वयं से प्रश्न  करता हूँ की मेरा मूल्यांकन कौन करेगा? फिर स्वयं उत्तर निकालता हूँ की जो स्वयं स्वाभिमानी, आत्मवान, निष्पक्ष, निष्कलुष बुद्धि वाला होगा, जो  अपने दायित्व बोध से  युक्त होगा, नैतिक कर्तव्य भावना से प्रेरित होगा और जिसे मनुष्य के ज्ञान-विवेक के सौन्दर्य शस्त्र की सटीक पहचान होगी, वह स्वयं ही बिना किसी के  कहे मेरी किताबों में डूब  जायेगा. मैं जानता हूँ की मैं ठीक लिख रहा हूँ, मुद्दों पर मेरी पकड़ सही है और व्याख्या तर्कपूर्ण. लेकिन मुझे ये भी पता चल रहा है की मेरा कोई स्कोप, कोई भविष्य नहीं है.  साहित्य  तर्क बुद्धि, भाव प्रवणता  और पत्रकारिता द्वारा कोई सामाजिक कर्म या परिवर्तन स्वीकार करने में यह समय अक्षम है. ऐसा नहीं है की बातों में दम या कविताओं में कोई तत्व शक्ति नहीं है, दरअसल अब ये औजार क्षीण और  निष्प्रभावी हो चुके हैं. ऐसा भी नहीं कि इनकी  धार  मुरदार है. वस्तुतः साहित्य और पत्रकारिता जिन हाथों में हैं वे हमारे जैसी  तलवारों को म्यान से बाहर निकलने ही नहीं देंगे.
यही कारण है की हमारी कोई प्रासंगिकता सम्प्रति समय के लिए नहीं है.
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11 =  चीज़ें, जितनी एक से साथ साल की उम्र तक नहीं बदलीं, उससे ज्यादा साठ से सत्तर साल की उम्र में बदलेंगी और सत्तर से अस्सी के बीच तो और भी.
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12 =   - नग्नता ,अश्लीलता ज्यादा प्राकृतिक है | लेकिन हमें तो सांस्कृतिका चाहिए , वैज्ञानिकता से ज्यादा |
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13 = -  [ संस्कृति = A fake , pseudo way of life ., जीवन का झूठा , बनावटी आधार  ]
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14 =  -  सब अपराधियों को मार देंगे , तो कितने लोग बचेंगे जो शरीफ होंगे  !
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15 =   -  'हम हम' कहते हम 'हम' नहीं हो पाते | 'वह' कहने से हो जाते हैं | 
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१६ - विचार को उछालो तो व्यक्तित्व भी उछल ही जाता है   |  [ now see  17 above point 1. ]
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~!@#$%^&*()_+ THE END

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