शनिवार, 12 जनवरी 2013

IHU-3 : एक झूठ सौ बार नकार


ह्युमिनिस्ट  आउटलुक खण्ड  13  संख्या 6 शरत 2012 में प्रकाशित लेख:-

एक झूठ सौ बार नकार

हम यह अच्छी तरह समझते है कि हम यह जो काम कर रहे हैं कागज, कलम, शक्ति- सामर्थ्य  लगा रहे हैं, ईश्वर के ऊपर अपना दिमाग खपा-खराब कर रहे हैं, वह मूलतः तो एक नकारात्मक निरर्थक काम ही है। ईश्वर, जो नहीं है उसे नहीं है बताना, भला कौन कहेगा कि सार्थक काम है? लेकिन है तो यह जरूर ही सार्थक प्रयास। वह इसलिए कि जब एक नितान्त असत्य, झूठी अवधारणा ईश्वर के होने की, वो भी उसके नितांत त्रुटिपूर्ण, अप्राकृतिक, अवैज्ञानिक स्वरूपों में, मानव समाज में विधिवत संगठित तरीके से फैलाई जा रही हो। तो इस नकारात्मक विचार को नकारकर एक सार्थक काम हो जाता है। उसी प्रकार जैसे ऋण (-) को ऋण (-) से गुणा करो तो वह धन (प्लस) हो जाता है। एक असत्य के सत्य होने का इतना प्रचार किया गया है कि अब उस सत्य के विरोध में विचार-प्रसार एक युगधर्म बन गया है मानवता का, मानववादियों के लिये।

इसलिए हम इसे करते हैं, अलबत्ता यह बीमारी इतनी बढ़ गई है कि इसके विपक्ष में बड़ा से बड़ा सुनियोजित प्रयास भी ऊँट के मुँह में जीरा ही होना है। फिर भी, मनुष्य होने के नाते, हमें अपनी जिम्मेदारी निभानी ही है।
जब हम लोगों ने लखनऊ में 80 के दशक में सेक्युलर सेन्टर की ओर से एक राष्ट्रीय सम्मेलन आहूत करने का निर्णय लिया तो जो मेहमान नहीं आ रहे थे उन्होंने अपने विचार और पर्चे भेजे। एक लम्बा पत्र श्री किशन पटनायक (स्व.) प्रख्यात समाजवादी विचारक का भी आया। वह तो जो था सो वह था लेकिन उसके एक बिन्दु पर जो उत्तर उन्हें सविनय लिखा गया वह इस प्रकार था-”कृपया यह बताइये कि जो वस्तु नहीं है उसका होना सिद्ध करना कठिन है या उसका न होना,“ जैसे इस कमरे में हाथी नहीं है और आप हमसे मानने की जिद करें कि वह है। जाहिर है हमारा आशय था कि ईश्वर नहीं है तो उसका न होना सिद्ध होना ज्यादा आसान होना चाहिये। और उसका होना सिद्ध करना निश्चय ही मुश्किल होना चाहिये।

लेकिन अब तो उल्टा हो रहा है। जो नहीं है उसे नहीं है कहकर आप अपमान तिरस्कार पायेंगे और अज्ञानी, मूर्ख आदि होने का सम्बोधन भी। और यदि झूठी बात की हाँ में हाँ मिला दीजिये तो वाह! यह है सच्चा धार्मिक आदमी। कहावत है कि किसी झूठ को सौ बार सच कहो तो वह सच हो जाता है। इसी प्रकार का सच हो गया है ईश्वर। बल्कि आँखों पर इतना मोटा पर्दा पड़ गया है कि यह भी नहीं दिखाई पड़ रहा फिर वह सच इतना अलग-अलग क्यो है? हिन्दू, मुसलमान, ईसाई आदि सबका अलग अलग ईश्वर? और सारे धर्म एक-दूसरे के इतने विपरीत और इतने विरोधी क्यो हैं? सारे धर्म एक है यह भी एक झूठा प्रचार है। 

तो ऐसी दशा में रणनीति, कार्यविधि यह बनती है कि उस ईश्वर नामक सत्य को हजारो बार झूठा कहा जाये। तभी कुछ काम बनेगा। तभी शायद कुछ फर्क पड़े।

पर यही रूक जाने से भी लक्ष्य हासिल नहीं होगा। इस झूठ का इतना बड़ा मायाजाल, वितंडा खड़ा कर दिया गया है कि उन दार्शनिक मसलों में भी उलझना पड़ेगा। लेकिन मेरा अनुभव है इस विवाद को उतना ही खींचा जाये जितना वह हमारे हित में हो। उसके आगे राजनयिक (डिप्लोमेटिक) तरीके से बचकर उन्हें नजरअंदाज कर दिया जाये। वरना जानते हैं, उनकी तो रणनीति ही यही है कि किस प्रकार आप उनसे शास्त्रार्थ (वाग्जाल) में फंसे और वे आपको लपेट ले। इसलिए यह पहला काम कि हम शास्त्रों को ही न माने।

वे किताबें हैं तत्कालीन बुद्धिमान-विद्वानों की रचनायें, विचार और कवितायें। हम उनके व्यक्ति, उनकी रचनाधर्मिता को प्रणाम करते है। उनका पूरा आदर करते है, श्रद्धांजलि देते हैं। लेकिन उन्हें पूरा का पूरा ज्यो को त्यो मानेंगे नहीं। और उनकी पूजा तो कतई नहीं करेंगे।
उनकी दुनिया में ईश्वर दृश्य भी है, अदृश्य भी है। दृश्य का तो फिर भी नकार आसान होता है। भला क्या इस प्रकार हो सकता है ईश्वर? लेकिन अदृश्य ईश्वर एक शक्तिपुंज के रूप में ऊर्जा के अर्थों में प्रकृति के करीब पहुंच जाता है। उसका न होना प्रमाणित करना कठिन होता है। लेकिन पकडि़ए न चोर की दाढ़ी में तिनका। तो क्या वह यह वह भाषायें भी जानता है? वह बोल भी सकता है और किताबें भी लिख या लिखा सकता है?
जीत आपकी निश्चित है। और आगे --- इतनी अच्छी-अच्छी बातें करते हो, इतना गुण गाते हो तो क्या वह इतना अशक्त और भेद-भाव वाला है जो उसके रहते दुनिया में इतनी विसंगति, इतनी विषमता, युद्ध, भुखमरी, बीमारी, बेकारी, मृत्यु होने पा रही है।

अब यह तर्क फीका पड़ गया कि आदमी को ईश्वर ने बनाया, फिर ईश्वर को किसने बनाया? या उसे तो आदमी ने बनाया। अब तो यह कहना पड़ेगा कि आपको बनाया होगा ईश्वर ने, मुझे मेरे इस अँगूठे, मेरी बुद्धि विवेक, मेरी क्षमता, मेरे अन्तर्निहित गुणों, मेरी कल्पनाशक्ति ने बनाया जिसे द्रोणाचार्य ने काटने का प्रयास किया था यह देखो मेरी हथेलियों पर उग आयें। तो आदमी के अँगूठे ने ईश्वर को बनाया। आदमी का अँगूठा ही अब उसका ईश्वर है।

और फिर उसने हमको पैदा ही क्यों किया, यदि वह कहता है कि उसने ही पैदा किया? क्या हमने उसे कोई प्रार्थना पत्र दिया था कि हे ईश्वर! मुझे उस पृथ्वी लोक नामक नर्क कुण्ड में भेजो? उनके पास इसका भी जवाब होगा। क्योंकि वे लाजवाब लोग हैं। दरअसल इन जिद्दी प्रश्नों का उनके पास कोई जवाब नहीं है।
तब आयेगा आस्था का प्रश्न। और यहीं हमें उनपर तमाचा जड़ देना है। तुम रखो अपनी आस्था अपने पास और अपने तक सीमित रखो, समाज में सार्वजनिक रूप से अपनी अंधी अवैज्ञानिक आस्था का प्रचार न करों। आस्था से दुनिया की जिन्दगी नहीं चलती।

और तुम सुन लो जिस प्रकार तुम्हारी आस्था है ईश्वर है, उसी प्रकार हमारी आस्था है कि ईश्वर नहीं है। इसमें विवाद की गुंजाइश कहा। जैसे तुम्हारे लिये ईश्वर और मजहब के विरुद्ध सुनना पाप है वैसे ही हमें भी ईश्वर का होना मानना दृढ़तापूर्वक अस्वीकार है। हम तुम्हारी भावना को यदि ठेस न लगाये तो तुम भी हमारी भावना कुचलने का दुस्साहस न करो।

है न हमारे पास भी कम से कम संशयवाद (एग्नोस्टिसिज्म) का दर्शन जिसे हम उनपर थोप सकते है। ईश्वर कहीं होगा तो हो किसी अन्य लोक परलोक में। वह इस कमरे (हमारी दुनिया) में तो निश्चित ही नहीं है। कम से कम इस लकीर में तो हमारे बहुत से मानववादी साथी है। इसे ही आगे खींचा जाये। और यह तो है ही कि धर्म को नकारने से ज्यादा आसान है ईश्वर को नकारना। धर्म तो ईश्वर के बगैर भी चलते है। उसपर आगे कभी चर्चा होगी।

उग्रनाथ नागरिक

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