* ज़नाबे आली ! अब दिन चार पत्नियों के नहीं चार पतियों के हैं | वे दिन और थे , वे चार औरतें और थीं जिन्हें एक पति पाल लेता था | अब तो चार मिलकर भी एक पत्नी का भरण पोषण , साज़ सिंगार का खर्च संभाल लें तो गनीमत समझो |
* बड़े सन्देश आये मेरे नव वर्ष के 'मंगल' मय होने के | मैंभी उनके लिए कामना करता हूँ कि - - " आप और आप के परिवार के लिए नव वर्ष में कोई रविवार न आये | "
* बहुत मुश्किल है कुछ ऐसा होना -
कि तू रहे और अम्न कायम हो !
[ भोजपुरी ]
* कबहु कान्हा कन्हाई तूं बनि जाला ,
कबहु लछिमन कै भाई तूं बनि जाला |
* कौन आदमी
जातिवादी नहीं है
मुझे मिलाओ |
[ अच्छी कविता ]
* बोलना नहीं जानता ,
हाँ ,
सच बोलना जानता हूँ |
* औरत घर में हो भी तो भी ,
काम न लेना उनसे कुछ भी |
* आखिरश जो भी वह सजा देगा ,
उसे सहने की भी ताक़त देगा |
[ अनबनी कवितायेँ ]
* जिस अखबार में मेरे मरने की खबर थी ,
उसी अखबार में तिरे आने की खबर थी |
* आरक्षण तो लीजिये जितना कुटी समाय ,
बच्चे भूखे न रहें , पत्नी घर रह जाय |
* तुम जो गए तो चलते बनेंगे प्याले सब मयखानों के ,
फिर तो बस दरवाज़े खुलेंगे मेरे बुरे दिन आने के |
* मुझको तू जो भी सजा आखिर दे ,
उसको सहने की मुझमे ताक़त दे |
[कविता ]
* अब इस उम्र में
प्यार एक और मोड़ लेता है ,
मैं उसके घुटने के दर्द
का हाल पूछता हूँ ,
वह मेरे दमा की दवा
तलाश करती है |
#
और जिनने वे रचनाएँ न पढ़ीं हों उन्हें पढ़ाया जाय / अथवा हुसैन के चित्रों के माध्यम से पुनः स्मरण कराया जाय / revise -revive कराया जाय |
[ उवाच ]
* हम किसी को मूर्ख नहीं कह सकते इसलिए नहीं कहते | लेकिन कहने का मन तो होता है |
मुखातिब मुझसे नहीं , लेकिन मैं ठहरा दाल भात में मूसल चंद | एक कुतर्क करने का बिंदु समझ में आ गया जिस पर मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है | -" बोलने की आज़ादी नहीं है " - | तो क्या चंचल जी ऐतिहासिक दृष्टि से यह सिद्ध कर पायेंगे कि इस आज़ादी के बगैर कोई महिला किसी कि फैन हो सकती है ? अभी तक तो यही जग विख्यात है कि वे बहुत ' बोलती-बतियाती ' हैं | यूँ भी संघी और कम्युनिस्ट से कोई बातों में पार पा जाय , ऐसा मैंने नहीं देखा | वही तो उनकी निधि है | अब यह कथन सत्य हो सकता है चंचल जी का कि वे [ औरतें और कम्युनिस्ट ] उनकी तरह " सत्य " न बोलते हो इसलिए मार्क्स की गोद उन्हें प्यारी लगती है , तो वह और बात है |
यही वक्त है की सारा देश "भैया" या "बापू" चीखता हुआ इन महापुरुषों के पैर पकड़कर एक स्वर में गुहार करे - हे महापुरुषों , कृपया भारत को बख्श दीजिये | [राजेन्द्र धोड़पकर]
* सही है कि भारत के मुसलमान भारत के दुश्मन नहीं हैं लेकिन पाकिस्तान तो भारत से दुश्मनी निभा ही रहा है ?
* धूप में बैठें
या फेसबुक पर ?
बड़ी ठण्ड है |
* यही शरीर
सोना था , अब मिट्टी
यही शरीर |
* किस्से लडूँ
लड़ झगड़कर
शांत हो पाऊँ ?
* [ निजी ]
मुझ पर कोई दुःख पड़ता है तो मैं चुप हो जाता हूँ | बिल्कुल चुप | अपने अन्दर कुंडली मारकर बैठ जाता हूँ और उसमे अपनी पीड़ाएँ लपेट लेता हूँ | आराम मिल जाता है | आज मेरे पैरों में चिलकन है, ठण्ड लग रही है और कोल्ड डायरिया | अभी कुछ ही दिन पूर्व एक कष्ट से उबरा हूँ | उसके भी थोड़े अवशेष हैं | तो अब यह कष्ट ! छत्तीसगढ़ के गृह मंत्री कि मानें तो ' मेरी ग्रह दशा ' ठीक नहीं है |
[कविता ?]
* पेट काटकर
तुमने पढ़ाया बापू
तो पेट काटकर
मैंने भी पढ़ा है बापू !
तुम्हारे भेजे पैसे से
नहीं पड़ता था पूरा
पूरे माह का खाना,
दो दो जून
नाग कर जाता था बापू
तब पढ़ पाया मैं बापू !
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* फीस भरा, लाजिंग का बंदोबस्त किया और क्या करता ,
मैं नालायक पढ़ न सका तो बाप बिचारा क्या करता ?
[कविता ?]
* होता है , होता है
ऐसा हो जाता है
कि बुलाओ किसी को
कोई और सुन लेता है ,
अक्सर ही होता है
पुकारो पंडित को
ब्राह्मण सुन लेता है ,
होता है |
ऐसा भी होगा ही
बुलाओगे ब्राह्मण को
दलित कोई सुन लेगा ,
ऐसा तो होगा ही |
होता है |
# #
आज एक कविता पोस्ट कर रहा हूँ | संभवतः कल इस पर कुछ बातचीत , मित्रों से कोई निवेदन करूँ |
[ कविता ]
"समय याचक "
* समय अपने हाथ में
प्रार्थना पत्र लिए
हमारे द्वार पर खड़ा है ,
इसकी पीड़ा, उसकी समस्या पर
विषद विवेचन, दूरगामी नीति और
ठोस कार्यवाही की ज़रुरत है |
लेकिन हमें भी तो काम हैं ,
हम व्यस्त हैं,बड़ी जल्दी में हैं |
लोकतंत्र हमें स्थाई
होने नहीं देता -
दीर्घकालीन अवसर |
इसलिए मेंरे पास
इनके लिए फुर्सत नहीं है |
पार्टी मीटिंग, अनुशासन समिति,
कुछ विकास की फाइलें ,
गबन के मुआमले तमाम
देखने, निपटाने हैं मुझे |
मैं एक सरसरी निगाह समय पर
और उसके प्रार्थना पत्र पर डालता हूँ
मुस्करा कर उसके कंधे पर
हाथ रखकर आश्वासन
देता हूँ, और
उसके हाथ से प्रार्थना पत्र लेकर
पीछे खड़े सचिव को पकड़ाकर
आगे बढ़ जाता हूँ |
# # #
* मुझसे रूठे हुए हैं जाने क्यों ?
मैं मनाता हूँ पर वह मानें तो !
* क्या जाने कब क्या हो जाए ,
चलो आज मंदिर हो आयें |
मेरे वश का काम नहीं है ,
ये ग़ज़लें पूरी कर पायें |
* मुझे साहित्यकार से ज्यादा वैज्ञानिक और दार्शनिक महत्त्व पूर्ण लगते हैं | उन्हें विग्यार्शनिक कहा जाय क्या ? और उनके काम को विग्यार्शन ?
* जनमत निर्माण योजना [ politics ] , a facebook group
* ज़िन्दगी उतनी ही तुम्हारी है जितनी तुमने दूसरे के लिए जी |
* अभिव्यक्ति का प्रश्न बहुत गहन है | मैंने बड़े बड़े अभिव्यक्ति की आजादी वालों और लोकतंत्र पर बहसबाजों को देखा कि किसी के बोलते ही उसके मुँह से बात छीन लेते हैं और स्वयं चालू हो जाते हैं | अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मतलब यह भी तो है कि कैसे कोई दूसरा भी खूब बोले | अटूट निष्ठां, मजबूत अनुशासन और सघन संस्कार माँगती है अभिव्यक्ति की आजादी |
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