मंगलवार, 1 जनवरी 2013

त्रुटिपूर्ण चिंतन

* त्रुटिपूर्ण चिंतन हेतु पूर्ण अधिकृत मैं मनुष्य हूँ ।  

* विज्ञानं सचमुच ब्रह्माण्ड को नहीं जानता | वह इसका दावा भी तो नहीं करता | लेकिन श्रीमन ! आप क्या सब कुछ जान गए ? कहते तो आप ऐसा ही हैं | कैसे जान गए आप ? अनुमान से ? तो भाई , अनुमान तो अनुमान है , ज्ञान तो नहीं |

* नई मनुष्यता का पहला नियम | बाहर से कुछ भी न पता चले कि आप किसी ख़ास धर्म या मज़हब के हैं | आपका व्यवहार , सत्य आचरण ही आपकी असली पहचान होगी | दिखावा कुछ भी नहीं , न कुछ होने का कोई अभिमान ही |

'ज्ञान' होता है | 'ज्ञान ' होना चाहिए | ज्ञान सबको सुलभ नहीं होता | लेकिन जिसे भी ज्ञान प्राप्त हो , उसे उस पर अहंकार नहीं करना चाहिए (वैसे ऐसे होता भी नहीं मैं तो बस सावधान कर रहा हूँ) | उसे ज्ञान के भार से झुक जाना चाहिए | विनम्र हो जाना चाहिए | फिर शांत , फिर मौनवत, फिर मौन - - , फिर चिर मौन | वही व्यक्ति चिरायु होता है |

‎* ईश्वर को याद करो | लेकिन किसी एक विधि से नहीं , अनेक विधियों से |
हवा से, अब्र से, गुल से पयाम लेता हूँ ,
मैं हर बहाने तुम्हारा ही नाम लेता हूँ |

‎* ईश्वर को किसी नाम से पुकारना हमें नामंजूर है | इसलिए हम नास्तिक हैं | वरना - -

‎* धर्म ही है धर्म हमारा - ऐसा क्यों न कहें ? इसमें हिन्दू - मुसलमान - सिख - ईसाई जोड़ने की क्या ज़रुरत है ?

* " उस समय ईश्वर कहाँ था ? | कहना अच्छा तो नहीं लगता , लेकिन जब इस पर किसी अवसर पर ध्यान नहीं दिया जाता तो लिखना पड़ता है | अपने प्रिय संपादक में तो मैं ऐसा स्तम्भ ही लिखता था -" उस समय ईश्वर कहाँ था ? " , जब तीर्थों / तीर्थ यात्राओं में कोई दुर्घटना घटती थी | इसी प्रकार दिल्ली दुर्घटना पर क्या यह संदेह व्यक्त करना स्वाभाविक नहीं है कि जब लफंगे दामिनी की आँतें निकाल रहे थे, उस समय ईश्वर कहाँ था ? तथाकथित सर्वशक्तिमान, सर्व व्यापक ? आस्तिक जन बहाना बना लेंगे - उस समय वह बसंत विहार में नहीं था | बल्कि मैं तो आरोप लगाऊँगा - उस समय वह वहीँ था और उसी की देख रेख में सब कृत्य संपन्न हुआ |  नहीं था तो फिर उसके होने का क्या प्रयोजन ? मनुष्य को जब अस्पताल और कानून के सहारे रहना है तब उसकी क्या ज़रुरत ? उसे मनुष्यों की दुनिया से अलग हो जाना चाहिए | शीघ्र अतिशीघ्र | 


* इसी प्रकार, इतनी ठंडक पड़ रही है | फिर भी लोग कहते हैं उसका प्रबंध बिलकुल परफेक्ट है | खाक है | यदि आदमी ने जाड़ागर्मी बरसात से बचने का इंतजाम न करता तो ईश्वर के निजाम में तो वः भूमि गति को ही प्राप्त हो जाता | वह अगर नुक्कड़ से हमारे कल्लू भाई बिजली मिस्त्री या बलि प्रेक्षागृह के संगीत कार्यक्रमों में साउंडसिस्टम पर बैठने वाले लगभग नाबालिग लड़के को ही बुला ले जाता तो वह एक नाब ऊपर करता एक खूंटी नीचे खिसकाता और जाड़ा गर्मी एडजस्ट कर देता | बड़े मियाँ हमारे संसद से ही कुछ सबक ले सकते थे | जाड़ा पाल बिल को स्थगित करके इसे मई जून के लिए स्थगित कर सकते थे | लेकिन प्रश्न तो वही मौलिक है - जब श्रीमान जी स्वयं कुछ होते तब न ? अब कुछ नहीं को तो कुछ भी माना जा सकता है | इसी सुविधा का लाभ आस्तिक जन बड़े मजे से उठाते हैं | मजा लेते / खाते हैं विज्ञानं का और गाते हैं भगवान् का |  
* यह आपकी कल्पना है और ऐसी कल्पना करने के लिए आप स्वतंत्र हैं | इन्ही कल्पनाओं से तो सारे ग्रन्थ भरे पड़े हैं | और हाँ , एक बात और | यदि आप नास्तिक हैं तो आप की टिप्पणी का सहर्ष मज़ाकन स्वागत है | लेकिन यदि आप किसी मज़हब के practitioner हैं तो आप अपनी आस्था का पालन कीजिये और हमारी आस्था का आदर कीजिये | अनावश्यक विवाद मत कीजिये | हम इन बहसों से निपट कर यहाँ आये हैं |

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