मंगलवार, 8 जनवरी 2013

FB- 07-01-2013


* चिन्तक नहीं
पर चिंतित तो हैं
हम जो लोग |

* मन में आया
अपने समय का
मैं रहनुमा |

* विशिष्टता है
सामान्य बनने में
कठिन काम |


* अध्यात्म है मनुष्य के मन की गहरी ऊँचाईयाँ|

* मानववाद का मतलब है - मनुष्य भी कुछ कर सकता है |

* बलात्कार पर धरना, प्रदर्शन, मोमबत्तियाँ, राजनीति तो खूब हुयी लेकिन मानव मन के इस छोर पर कोई [मनो] वैज्ञानिक शोध भी हो रहा हो या होने की माँग हुई हो, इसकी सूचना नहीं है |      


* एक आप्त कहावत है कि कोई तुम्हे गाली दे और तुम उसे स्वीकार मत करो तो वह गाली देने वाले के पास वापस चली जाती है | यद्यपि अब कुछ कहने लायक नहीं है, क्योंकि दलित आन्दोलन एक अद्भुत हीन भावना और विक्षिप्त बौखलाहट में रूपांतरित हो चुका है | फिर भी कहना तो पड़ता है कि कोई हमारे विषय में क्या सोचता है [ और ऐसा हर समय हर किसी के साथ होता है ] यह कोई महत्त्व नहीं रखता जब तक हम उसे अपने ऊपर न ले लें | कई बार तो ऐसा भी होता है कि कोई कुछ कहता किसी और से या किसी और के बारे में है और हम उसे अपने ऊपर ले लेते हैं | इसी प्रकार ब्राह्मण हमें क्या समझता है, नीच -कमीना- शूद्र - अछूत इससे कोई मतलब नहीं , या है भी तो बहुत कम और उसे हम इसी तरीके से समाप्त भी कर सकते हैं , यदि हम उसे स्वीकार मत करें | सामान्य सामजिक जीवन में भी हम यही अस्त्र काम में लेट हैं - समझा करो तुम हमको कुछ , हम तो जो हैं वह हैं , हम जानते हैं कि हम सम्पूर्ण मनुष्य हैं और ऐसे ही रहेंगे | हम जानते हैं कि हम क्या है , तुम्हारे समझने से क्या होता है ? गलत है कि दलित आन्दोलन ब्राह्मण से स्वयं आक्रान्त है | आर्थिक - सामाजिक आदि स्थिति दरकिनार , वैसी स्थिति बहुतों की है, पर मनुष्य की हैसियत से हम मनुष्य हैं , तुम्हारी मर्जी तुम जानवर कहो या समझो क्या फर्क पड़ता है | ऐसा आत्मविश्वास ही हमारा सहायक होगा |

* भारत की बोलियाँ, जैसे यूँ समझिये क वे दलित भाषाएं हैं | लेकिन उसी भाषा में तो भारत का लोक जीवंत है | सोहर, बियाहू, आल्हा बिरहा चनैनी आदि गायन इन्ही बोलियों में है | लेकिन इधर दलित हैं की बिदके जा रहे हैं | जब ब्राह्मणवाद, कहिये कि, चरम पर था या रहा होगा तब तो दलितों की कला, उनका कौशल, उनकी संस्कृति उत्कर्ष पर थे | ऐसा अनुमान हम कर सकते हैं क्योंकि उनमे क्षरण अभी हमारे देखते देखते आया है | अब जब उनके पास शिक्षा है समृद्धि है तब वे प्रभाहीन हो रहे हैं | और अपनी विशिष्टता खोकर कोई कहाँ किस स्थान पर रहेगा यह सोचना कोई कठिन काम नहीं है | वे दलित हैं नहीं, पर अब दलित [ कला कौशल प्रभा विहीन ] होने कि पूरी तैयारी में हैं | यह नाम तो उन्होंने स्वीकार कर ही लिया है | उल्लेख करना अतिरिक्त हो जायगा कि यह बात ब्राह्मणों पर तो लागू हो सकता है कि वह ज्ञान गुण कला विहीन होकर पूज्य होने का ढोंग कर ले , लेकिन ऐसा कभी किसी कौम के लिए सच होता नहीं | उन्होंने ऐसा कहा पर वे उससे विहीन नहीं हुए | दलित भी बिना योग्यता के सम्माननीय नहीं हो पायेगा | Management  के किसी SCIENCE के किसी chapter में इसकी गुंजाइश नहीं है |          


* मनुस्मृति दीं कोई जवाब नीं | [ Unparrallel is the Manusmriti ]
इस पोस्ट को जो पढ़े, समझो वह मनुवादी है | नहीं है तो हो जायगा |

[ क्योंकि इस पर बहस है जिसका अंत नहीं |, प्रमोद जोशी जी !]


* बड़ों का फ़र्ज़ तो निभाना ही पड़ता है बड़ों का | एक किस्सा है न ! पुत्र ने पिता से पूछा गंगा किस देश में बहती है ? पिता ने कहा - मुझे नहीं पता | थोड़ी देर बाद बच्चे ने फिर पूछा - पिता जी भारत की राजधानी
कहाँ है ? पिता ने कहा - बीटा मुझे नहीं मालूम | फिर तो बेटा बिलकुल चुप हो गया | बहुत देर जब बच्चे ने बाप से कोई प्रश्न नहीं किया तब उससे बाप ने कहा - पूछो पूछो बेटा , पूछोगे नहीं तो जानोगे कैसे ?



ऐसे लोग हैं , शायद यह उतनी नहीं क्योंकि समाज में अच्छे बुरे तमाम तरह के लोग होते हैं , लेकिन ऐसे लोग समाज में महत्ता प्राप्त और आदर के पात्र बने हैं यह ज़रूर चिंता की बात है |

हाँ, बड़े नुक्सान की आशंका है | स्त्री पुरुष के सहज सामान्य संबंधों पर ग्रहण लगने वाला है | हादसे के बहाने कोई परदे की वकालत कर रहा ही, कोई सहशिक्षा समाप्त करना चाहता है इत्यादि | जब की इसका निदान इनके अधिकाधिक घुल मिलन शीलता में है , अंततः |

क्या यह उचित न होगा , और क्या यह संभव है कि आसा / ओवैसी लोगों को नज़रंदाज़ किया जाय ? उनकी बातों को अपनी टिप्पणियों द्वारा आगे न बढ़ाया जाय ?

इसके अतिरिक्त मेरे ख्याल से देश काल संस्कृति के अनुसार राज्य को अपनी भूमिका में परिवर्तन भी लाना चाहिए | कोई ज़रूरी नहीं जिस तरह का राज्य एक देश - समाज के लिए उपयुक्त हो वही दुसरे के लिए भी कारगर हो |


मेरी यह चिंता बड़ी पुरानी है, लगभग तीस वर्ष की , कि ऐसा क्यों हो कि उनकी [ e .g . आसा / ओवैसी / ठाकरे ] की बात तो परवान चढ़े और सामान्य जन [ e .g . उज्जवल जी नीलाक्षी , चंचल , पूजा जी आदि ] कि बातें अनसुनी रह जायँ? और यही मूल कारण था जो मैंने " प्रिय संपादक"  नामक  पाठकों के पत्रों की परिकल्पना की और उसे लंगड़े लंगड़े चलाया [ अब फेसबुक पर ] | सब लिखें - सब कहें | कहाँ तक नहीं सुनी जायगी हमारी बात | कोई परिणाम न हो तो भी यह दर्ज तो हो कि किसी/ किन्ही  ने ये बातें कही थी | हम अपने समय के समक्ष शर्मिंदा और गुनहगार होने की स्थिति से तो बचें  | और फिर कुछ न कुछ तो अवश्य ही होगा | स्वर व्यंजन - चीख पुकार निरर्थक नहीं जायेंगे |


ज़नाब वासिफ फारुकी से सुने उनके ख़ास दो अश आर -
* मैं अपने बच्चों की ख्वाहिशों को क़त्ल होते न देख पाया ,
  मैं जानता था कि ज़िन्दगी में हराम क्या है हलाल क्या है |

* मेरे बदन से कितने रिश्ते लिपटे हैं ,
  सोच रहा हूँ मैं संदल बन जाऊँ क्या ?


[ मुक्तक ]
* जानी पहचानी आवाजें ,
ह्रदय विदारक हैं आवाजें ;
खूब जानता किनकी हैं ये
मेरे दिल कि ही आवाजें |



एक छोटी सी विनम्र सूचना देनी थी | हम थोडा कट्टर किस्म के धुर नास्तिक Cantankerous Atheist लोग हैं | हम अपनी आस्था और विश्वास का ही प्रचार करते हैं और यूँ अमूमन धर्मों या धर्म विशेष का सन्दर्भ नहीं लेते, फिर भी ज़रुरत पड़ने पर मजबूरन उन पर कटु प्रहार भी कर सकते हैं , क्योंकि स्थितियां सहन शीलता की सीमा से प्रायः बाहर चली जाती हैं | इसलिए धार्मिक सांप्रदायिक आस्तिक मित्रों को सावधान करना है कि यदि उन्हें हमारी आस्था रुचिकर न लगे तो भी उसका आदर करें और हमें चिढ़ाएं नहीं, यदि वे अपनी आस्था का आदर बचाना चाहते हैं तो | बराबरी का [पौरुषेय] व्यवहार वैसे ही करें जैसे एक आस्तिक द्वारा दूसरे आस्तिकों से किया जाना अपेक्षित है | [ नास्तिक जन ]


* लोग मृत्यु दंड की बात करते हैं और यहाँ मैं थानों में थर्ड डिग्री मेथड अपनाने के ही खिलाफ हूँ | नतीजा जो भी हो |
* मैं यह सोच रहा था कि पुलिस थाने अपराध दर्ज करने से क्यों कतराते हैं ? अक्सर सुनने में आता है कि ऍफ़ आइ आर नहीं लिखा जाता | शायद सर्कार द्वारा थानो के मूल्यांकन में यह आंकड़ा काम आता है कि देखो हमारे यहाँ अपराध कम है | यदि सरकार थानों में दर्ज अपराधों को थाने के कार्य प्रणाली से न आंकने की नीति बना ले तो थानेदार उन्हें लिखने से न कतराएँ और सही वस्तु स्थिति , वह जैसी भी हो ठीक हमारे सामने आये |

* प्रमोद जी की बात से , इसीलिये बात आती है कि राज्य कमज़ोर आदमियों के लिए होनी चाहिए | कमज़ोर आदमी ही इकठ्ठा होकर राज्य बनाते हैं , राज्य का निर्माण करते हैं | मजबूत और दमदार लोगों का क्या ? वे तो अपने व्यवसाय - व्यापार का भी प्रबंध कर सकते हैं , अपने बच्चों के लिए शिक्षा का इंतजाम भी और आवास आदि , और अपनी सुरक्षा भी वे भली भाँति कर सकते हैं | इसीलिये हमने [ एकदा फितरतन ] " कमज़ोर पार्टी " बनाने कि सोची, जो हंसी में उड़ गयी मेरे हर ख्याली पुलाव कि तरह |  लेकिन सच यह है तो और ऐसा कहा जा सकता है कि - " राज्य वही जो कमजोरों के काम आये " |




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