* शेष कुशल है
भारत पाक सीमा पर कुछ पटाखे दागने और कुछ शीश कटने पर लोग परेशान हैं | वे यह भी तो देखें कि दोनों देशों के बाशिंदों में अत्यंत प्रेम व्यवहार व्याप्त है, सांस्कृतिक एकता पूर्णतः कायम है | उसमें कोई कमी नहीं आई है और वह बनी रहेगी जब तक सूरज चाँद रहेगा | बार्डर पर वह तो कुछ सैनिकों का कुकृत्य है जो कि उनका नित्य का नियमित काम है | उससे हिन्द - पाक एकता का क्या सम्बन्ध ?
* यदि जातिप्रथा और हिन्दू धर्म इस कदर अटूट रूप से अन्योन्याश्रित और एक दूसरे से जुड़े हैं, जैसा कि विद्वान जन बताते हैं, तो फिर इस प्रथा के खिलाफ काम करना निरर्थक ही है | इसके पीछे कोई क्यों अपनी शक्ति और समय गवाँए ?
जिजीविषा - 13 - 0! - 2013
* मैं आज इस सिद्धांत को गढ़ - बना , जी रहा हूँ कि यदि किसी स्थिति - परिस्थिति से हमारा मन विषाद पूर्ण हो रहा हो तो दो बातें हो सकती हैं | एक तो यह कि स्थिति सही सलामत हो , हमारा उसके प्रति दृष्टिकोण ही गलत हो | और दूसरे यह कि हमारा विश्लेषण तो बिल्कुल दुरुस्त हो स्थितियाँ ही सचमुच चिंताजनक हों | अब दोनों को मिलाकर हम पाते हैं कि स्थितियाँ तो हमारे हाथ से बाहर हैं और हमें अपनी मनोदशा भी ठीक करनी है | तो मैं कर क्या कर रहा हूँ कि अपनी सोच को ही गलत स्थितियों के अनुकूल ढाल - बदल लूँ | शायद यही ठीक होगा |
और मैं " जिजीविषा " मन्त्र को दुहराता हूँ | हर हाल में आदमी को जिंदा रहना चाहिए, जिंदा रहने की कोशिश करनी चाहिए, उसके सूत्र तलाशने चाहिए या नए दर्शन गढ़ने चाहिए | फिर आगे का काम आता है कि उसे खुश रहना चाहिए | बल्कि दर्शन के जिम्मे मैं यह काम सौंपता भी हूँ कि वह आदमी के सुखमय जीवन के रास्ते सुझाये , तदवीरें निकाले | इसलिए देश के लिए , धर्म के लिए जान देना जैसी बातें मुझे सुहा नहीं रही हैं | मुझे लगता है कि जिजीविषा ही प्राकृतिक ईश्वरीय तत्त्व है मनुष्य के भीतर | बल्कि जिजीविषा ही मनुष्य का ईश्वर है | और ऐसा कोई विचार जो मनुष्य में जीने की इच्छा को मारे, जीवन के प्रति उत्साह को क्षीण करे - दर्शन के क्षेत्र में , मेरे मतानुसार त्याज्य होना चाहिए |
अतः, और इसलिए, जिजीविषा - आज दिन भर इसे इतना जिया कि, सोचता हूँ मेरे कोई प्रपौत्री हो तो उसका नाम मैं यही रखूँ |
अब मूल मुद्दा बता दूँ जो इस विचार का स्रोत हुआ | आज मैंने सेक्युलरवाद के प्रति अपने addiction को इसे इस्लामवाद की तरफ मोड़ा तब जाकर निजात मिली | क्यों, ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि सेक्युलरवाद की हमारी ही समझ त्रुटिपूर्ण अथवा अधूरी हो ? या यह भी तो हो सकता है कि इस्लाम के प्रति ही हम किसी पूर्वाग्रही अवधारणा से ग्रस्त हों ?
[ करुण उदगार ]
* कैसा समय है ?
थोडा सुकून है कि
मेरी कोई बेटी
जवान नहीं है |
# #
बस इतने में
मुझे याद है
उस दिन क्या हुआ था
हम तुम सड़क पर चल रहे थे
कहीं जा रहे थे
मैंने बहुत हिम्मत बटोर कर
तुमसे कहा- कह पाया था
मैं तुम से प्यार करता हूँ
तुम मुझे .... बहुत
अच्छी लगती हो
और झूट नहीं कहूँगा
तुमने भी हिम्मत की थी
मुंह खोल था
सामने सड़क को देखते हुए
बोल था - "मैं भी तुम से ---"
बस इतने में
एक बिल्ली रास्ता काट गई.
* गरीबी देख
ज़हर हो जाता है
मुँह का कौर |
* लोकप्रियता ?
जितना गिर जाओ
उतना पाओ |
* अपने हाथ
बोलना ही तो शेष
और क्या करें !
* कहना शेष
अब तो कुछ नहीं
सुनना शेष |
* के के जोशी जी
पढ़ते बहुत थे
लिखते कम |
* ज्ञान दो भी तो
तुम्हारे पढ़ने से
हमें क्या लाभ ?
* संदीप जी , युद्ध होंगे तो हथियार खरीदे जायेंगे , हथियारों के दलाल आयेंगे , "बोफोर्स" घोटाला होगा , एक प्रधानमंत्री जायेंगे ," वी पी सिंह " प्रधानमंत्री बनेंगे , फिर वह मंडल लायेंगे | इस प्रकार युद्ध से और जो भी हो पर सामाजिक समरसता और पिछड़ों का भला तो होता ही है |:-)
* बहुत बड़ा प्रशिक्षण माँगती है ज़िन्दगी | पल - पल सीखना , पल - पल बड़ा होना !
* ज्ञान पर विश्वास होने की हद तक ज्ञान हो तभी वह ज्ञान है | जो ज्ञान व्यक्ति को अविश्वास के अंधेरों में घुमा रहा हो , उसे उसका ज्ञान और ऐसे व्यक्ति को ज्ञानी कैसे कहा जा सकता है ?
* अपने हाथ पीठ तक नहीं पहुँचते | अर्थात प्रकृति नहीं चाहती कि हम खुद अपनी पीठ थपथपायें, स्वयं को शाबाशी दें | अपनी उपलब्धियों के गुण गायें , गुमान करें |
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