सोमवार, 10 जनवरी 2011

आदमी में कमियां हैं [ कविताएँ ]

१ - रोना ,
रोज़ - रोज़ का
फेनामेना |

२ - नक्सलवादी
वहां हैं ,
क्योंकि हम
वहां नहीं हैं |

३ - गालियाँ वही हैं
अब भी वही हैं
हूबहू वही ,
सिर्फ भाषा बदली है
गँवारु से हटकर
सम्भ्रांत दिखती
अंग्रेजी में हो गयीं हैं
अंगों के अंग्रेजी नाम
अब सभ्य हो गए है
बस और कुछ नहीं
गालियाँ अब भी हैं
और बिल्कुल वही हैं |

४ - आदमी में कमियां हैं
वही जो आदमी
इन कमियों से
ऊपर उठ जाता है ,
सम्मान्य हो जाता है ,
अब मेरा कहना यह है कि
जो आदमी
इनसे बाहर न निकल पाए ,
अपनी कमियों को
छोड़ न पाए  
उसे असम्मानित
न किया जाए |

             ५ - वह पैदा क्यों हुयी
मेरी समझ में नहीं आता
की आखिर वह
पैदा ही क्यों हुयी ,
और पैदा  भी हुयी
तो गरीब के घर क्यों जन्मी ?
और फिर उसने
छोटी जात , गाँव -देहात
क्यों चुना ?
-चलो वह भी सही
पर वह पैदा होते ही
मर क्यों नहीं गयी ?
नहीं मरी तो नहीं मरी
पर वह दस वर्ष की क्यों हुयी ?
वह जवान क्यों हुयी ?
वह लडकी ,जो घरों में
बर्तन मांजते पिटी
और कुछ दिन पूर्व
एक चकलाघर को
बेंच दी गयी ?

वह जिंदा क्यों है
हर क्षण मरने वाली
सुन्दर , गुडिया सी
मेरे मन में बसी
लडकी ?
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             ६ - [ शेर ]
* ऊब जाता हूँ काम कर - कर के ,
काम से फिर भी जी नहीं भरता |
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