सोमवार, 22 नवंबर 2010

Me in Meetings +dalit -women-secular

कथा क्रम -११/२०१०
* गालियाँ तो लिखना चाहते हैं पर गालियाँ जिस भाषा के अंतर्गत दी जाती हैं , उस लोकभाषा में कोई संवाद नहीं करना चाहता |
सब खड़ी बोली में बात करते हैं | शिवमूर्ति थोड़ा रंग देते हैं  | या फिर वह हमारे और अवधेश मिश्र बाबू के बीच होती है |
और घर में तो हम देहाती अनिवार्य रूप से बोलते हैं जो कि अब देहाती पृष्टभूमि के परिवारों के यहाँ भी दुर्लभ है |
* राही मासूम रजा ने गालियाँ लिखीं | अब गालियाँ लिखकर लोग राही मासूम रजा बनना चाहते हैं |
* यदि बेडिनें जेवर  " किसी ख़ास अंग में छिपा लेती हैं , तो उस अंग का कोई नाम पता डाकखाना जिला तो होगा !
जब उसे [ सुश्री शरद सिंह ] अश्लील नहीं मानतीं तो फिर उसका नाम लेने में क्या हर्ज़ है ? लेकिन नहीं , यही वह बिंदु है
जहाँ से लिखने और बोलने की भाषा में अंतर आ जाता है | तथापि यदि खुलकर लिखना ही है तो अभी तमाम मंजिलें
आगे शेष हैं | लिखने वाले विचार करें , मेरे लिए कहना ,वह भी लिखकर देना संभव नहीं है |
*लेखक भाई कितनी चिट्ठियां ?
लोग उपन्यास पर उपन्यास लिखे जा रहे हैं | इससे उन्हें प्रेमचंद और चेखव के लाइन में बैठने की उम्मीद बनती है |
जब कि सरोकार तो  प्रकट होता है तुरत टिप्पणियों , फ़ौरन दखलंदाजी से | मैं इनसे पूछता हूँ उन्होंने अब तक कितनी
संपादक के नाम   चिट्ठियां लिखीं , जिन्होंने अपनी पैंतीस साल की उम्र में पांच -पांच उपन्यास लिख डाले हैं ? फिर भी
बातें करते हैं साहित्यकार के सरोकार की  | नहीं , वह भी नहीं , " साहित्य के सरोकार " की !
seminar = state religion and the marginalised - 20-21/11/2010
rajiv bhargav/alok rai /aditya nigam / jyoti punwani / sajid rasheed / badri narain / rajaram bhadu/ razia patel/ d m diwakar etc. and above all the organiser prof roop rekha verma .
* यदि दलितों को दलित नेताओं से छुटकारा मिल जाए तो  तो उनका ज्यादा कल्याण हो जाए | लेकिन ऐसा होगा नहीं |
यदि दलित अपनी स्थिति कुछ बदलना भी चाहेंगे तो नेता उन्हें बदलने नहीं देंगे ,और उन्हें दलित का दलित ही रहने
देंगे | वरना उनकी नेतागिरी कैसे चलेगी | मुझे आश्चर्य है कि दलित शब्द के अर्थ पर कोई गौर नहीं करता ,या फिर जानते हुए भी दलित कहलाना चाहते हैं | कहाँ गया सम्मान का सपना ? इससे ज्यादा सम्मानजनक तो चमार का नाम था जो कम से किसी काम से तो जुड़ा था , कोई कर्तव्य बोध का आदर भाव तो था ! और अब तो कोई काम छोटा -बड़ा नहीं रह गया |
समृद्ध -संपन्न होने के बाद भी लोग दलित कहलाना चाहते हैं तो इसका क्या मतलब है ? और यदि अल्प लाभ के लिए
ये दलित नाम से चिपके रहेंगे तो चिरकाल  तक दलित बने ही रहेंगे | और जाति-उन्मूलन के किसी प्रस्ताव  पर जिस तरह
इनकी असहमति होती है ,उसे देखते हुए यह लगता है कि ब्राह्मणवाद ही चलेगा अपने अंतर्वस्तु में | वर्ना कोई कारण नहीं कि
जिस तरह मनुस्मृति को गाली देकर दलितवाद परवान चढ़ा ,उसी के चपेट में स्वयं आ गया और उसकी  हुयी निम्न स्तरीयता
को वह मजबूती के साथ स्वीकार कर लेता नाम के लिए और व्यवहार में वह स्वयं ब्राह्मण हो गया |
* यदि हर वर्ग को उसके समुदाय में रखकर ही सोचना है तो फिर खाप पंचायतों से किसी बाहर के आदमी को कोई
परेशानी नहीं होनी चाहिए |
* मेरे अनुभव में नहीं है कि हिन्दू दरवाजों से मुस्लिम  फकीरों को वापस  कर दिया जाता   हो |
* भारत का किसान , यदि  उसे उकसाया न जाए तो , यह सोच ही नहीं सकता कि वह अनाज क्यों उगाये  ?
*  राजनीतिक चेतना का परिणाम भी हो सकती है साम्प्रदायिकता | तो क्या साम्प्रदायिकता विरोध के नाम पर राजनीतिक चेतना को दबाना उचित होगा ?
* अल्प संख्यक , बहुसंख्यक  साम्प्रदायिकता के बारे में गौर से विचार करना होगा और कई तरीकों से भी | एक तो
हिन्दू समाज का बहुत काम प्रतिशत साम्प्रदायिक है | मुस्लिम साम्प्रदायिकता रुई कि तरह फैली नहीं है पर वह लो भी है ,ठोस , भरी और वजनी है | इसलिए उसे अल्पसंख्यक या छोटी साम्प्रदायिकता कहकर उसे नज़रअंदाज़ करना ठीक नहीं |
* रज़िया पटेल ने अच्छा ध्यान खींचा कि संविधान में freedom of conscience है  ,न कि freedom of  religion . उनका आशय था कि अंतरात्मा निजी होती है , जब कि धर्म संस्थाबद्ध | सही बात है |
* सेमिनार का तरीका    गोष्ठी  में वक्ताओं के अतिरिक्त बहुत सारे लोग कहने से रह जाते हैं | हो यह कि मुख्य वक्ता तो एक घंटा बोले पर उसके बाद भी कुछ वक्ता केवल सवाल पूछने तक सीमित न रहे बल्कि वे भी दस पन्द्रह मिनट बोलेन |
इस तरीके में वे भी अपनी बात कह सकेंगे जो ज्यादा डिग्री संपन्न नहीं हैं , जो पी. एच डी नहीं हैं , किसी विश्वविद्यालय
के प्रोफ़ेसर नहीं है , जिनकी किताबें नहीं छपीं ,फिर भी वे विषय पर कुछ राय ,समझदारी और गंभीर रूचि रखते हैं |

* Rationalism should take the place of nationalism , and this nationalism should be the basis of  state .
*Not Indian , but humanist culture sould rule over the world .
* Dedication to the cause of nation is nationalism .
* 0ur civilisation should be told as not only 5000 years old .It is as old as the birth of first human being
over the earth .
* If the Indian  secular state can not do away with islamic power cult ,hindu citizenry may force the state
to be a hindu state and delete the word secular from the constitution .
* क्या किसी देश में इज्ज़त के साथ रहने के लिए अल्पसंख्यक - बहु संख्यक होना ज़रूरी है ?
*स्त्री आन्दोलन ने स्त्री- पुरुष संबंधों को समस्या जनक बना कर रख दिया है | इतना छुवो इतना न छुओं , इतना करो  इतना न करो  ,  इतना बोलो   इतना न बोलो |
* जब कुछ अनुभव प्राप्त हो जाता है , कुछ करने , लिखकर देने का वक्त आता है , तब तक बुढ़ापा आ जाता है | तब न आँख काम करते हैं , न हाथ -पाँव |
हाइकु   कवितायेँ
१ -  हिन्दुस्तान में
कुछ भी होना नहीं
है असंभव |
२ -  दिन में याद
रात में सपनों में
आते हो तुम  |
३ -  क्या कर लेगा
छोटी सी भूमिका में
कोई आदमी  |
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