बुधवार, 27 मार्च 2013

Nagrik Blog 27 March 2013

* न मानते हुए भी मानना ( मानने का नाटक करना ) = आस्तिकता $
मानते हुए भी न मानना ( न मानने का नाटक करना ) = नास्तिकता ?

Sayed Jafar Raza Zaidi  देखते हैँ सर !
आप के विचार कितने प्रभावित कर पाते हैँ

तमन्ना है प्रभावित न कर पायें तो ही अच्छा | ज़रूरी है मैं हारता ही रहूँ, क्योंकि मैं हर हाल में विनीत व्यक्तिगत मानुषिक सम्बन्ध कायम रखना चाहता हूँ | जब कि उलटे ये विषय माहौल ख़राब करते हैं | फिर भी चलिए यहाँ से शुरू ही कर दीजिये - | यह जो आप ढोल मजीरा, घंटा घड़ियाल, अखंड पाठ, भगवती जागरण, कुम्भ स्नान etc देखते हैं, उन्हें आप आस्तिकता कहेंगे या आस्तिकता का नाटक ? तथापि मैं हारना चाहूँगा | मैं चाहूँगा कि शालीनता और सांप्रदायिक सौहार्द्र का पालन करते हुए इसका उत्तर आप लिखकर न दें | अपने मन में रखें, और मेरी बात विचारें | मैं आगे ज्यादा न कह पाऊँगा | वह मेरी ज़िम्मेदारी भी नहीं है | उसे मेरा निजी विचार समझ कर त्याग दें |

Sayed Jafar Raza Zaidi सर  !
एक एक शब्द प्रभाव ड़ालने वाले |

* * मैं व्यक्तिवादी हूँ , अकेला आदमी | जुड़वाँ तिड़वां भी नहीं पैदा हुआ | मैंने तो यह देश दुनिया , धर्म सम्प्रदाय, वर्ण लिंग जाति सम्प्रदाय वगैरह नहीं बनाये | फिर ये फेसबुक वाले और कुछ संगठन - आन्दोलन मुझे इनका ज़िम्मेदार क्यों बना रहे हैं ? मैं अकेला आदमी ! अकेला ही मरूँगा   |

* मैं मानता हूँ कि मुझे ईश्वर की मूर्ति नहीं बनानी चाहिए | तो क्या ईश्वर को मेरी मूर्ति बनानी चाहिए थी ? उसने हमें तो मना कर दिया | तो क्या हमने उन्हें लिखित प्रार्थनापत्र या परमिसन दिया था जो उन्होंने हांड - मांस जोड़कर हमें खड़ा कर दिया ? हमारा कुफ्र कुफ्र और उनका कुफ्र कुछ भी नहीं ? :-)

यह आध्यात्मिक सत्संग है भक्त ! इसका आनद लो |



* जहाँ ज़फ़ा लिखते हो वहाँ वफ़ा लिख दो ,
 वरना अब किससे करोगे वफ़ा की उम्मीदें ?  OR

जहाँ जहाँ भी ज़फ़ा लिखते हो वफ़ा लिख दो ,
वरना उम्मीद-ए-वफ़ा अब तो कहीं शेष नहीं |

* बहुत प्यार
पाया, बहुत प्यार
दे नहीं पाया |

* है तो भ्रम ही
भ्रम ही जीवन है
प्रतीति यह !

* गधे को बाप
कहना नहीं पाप
आपातकाल में |
                       
* महायोगी हूँ
मैं, मनोयोगी हूँ मैं
क्या झूठा हूँ मैं ?

* ज्ञान पर कभी ब्राह्मणों का एकाधिकार रहा हो यह तो संदिग्ध हो सकता है | लेकिन यह तो अब तय कहा जा सकता है कि अज्ञान पर भी उनका एकाधिकार नहीं रहा |

[ लव इन सोसायटी ]
* मैं आश्चर्यचकित हूँ प्राच्य भारत की प्रगति शीलता का अनुमान करके ! भाई ने याद दिलाया - " फागुन में जेठ देवर लागे " , जिस यौन स्वातंत्र्य के लिए आज लोग संघर्षरत हैं वह तो भारत का  सहज जीवन था, ऐसा कहा जा सकता है | जिस "लिव इन" सम्बन्ध की मान्यता के लिए कशमकश हो रही है, वह तो फिर भी कुछ कुछ विवाह जैसा है | यहाँ तो बिना विवाह के ही विवाहित रहते रहे लोग ! उसे क्या कहें ? Love in Relationship ? और ऐसे सम्बन्ध में भला जात क्या पाँत क्या ? अब उसी को सभ्य लोग मरोड़ कर ' दलित स्त्रियों का शोषण ' के रूप में उछाल रहे हैं | क्या कहा जाय कि अब उलटे उस स्वाभाविक यौन स्वतंत्रता के मुहिम पर पानी फेरा जा रहा हैं, उसे आगे बढ़ाने के बजाय ? Holi (होली ) = Holy (पवित्र ) संस्कृति, सांस्कृतिक सेनाओं द्वारा समाप्त की जा रही है और फिर बलात्कारी मानसिकता को मृत्यु दंड के माध्यम से समाप्त करने का बचकाना प्रयास किया जा रहा है | क्या विडम्बना है ? तथापि आज अप्रिय प्रसंग कोई नहीं | आज सबको हैप्पी होली !      

Pramod Kumar Srivastava comments at Lucknow School group = Until there is value of 'sanctity of virginity', is ruling the social minds of Indian masses there is no hope against prevailing atmosphere of criminal assault against women, howsoever, stringent laws against rape is promulgated. Festival of Holi is a natural festival of Man and Women symbolising natural instict of Adam and Eve; and a message and directive for a healthy society. Lets celebrate it with similar spirit and say good bye to historically imposed unnatural social measures with an hope for creating once again a healthy society.

* आज तो मैं कह ही सकता हूँ कि पैर छूना भी सेक्सिज्म का हिस्सा है | और पैर छूना भारत की परंपरा में शामिल है |

* देखिये , देख रहे हैं न ? किस प्रकार ग्रुप्स के सदस्यों के बीच कडुवाहट भरे पोस्ट्स & कमेंट्स आज शुभ होली में तब्दील हो गए  ? - अशोक दुसाध , संदीप वर्मा , कामेश्वर जी , बटोही भाई , शंकर राव एवं अन्य तमाम साथी ? यही तो है यह त्यौहार  ? - होली है ना !

* उनका मन हुआ, उनकी इच्छा हुई और उन्होंने [केलि- केलि ] खेल में अपनी खुशी , अपने आनंद के लिए यह सृष्टि, कायनात अपने मनोरंजन के लिए रच डाला | अब लीजिये ! तो हमने भी सोचा क्यों न अपनी खुशी के लिए ही हम यह ज़िन्दगी जी डालें ? इसलिए हमने भी सब फूँक ताप कर [ बहाना यह की बुराई की राक्षसी जला रहे हैं ] होली मनाना शुरू कर दिया | अब कहाँ जाओगे ? तुम डाल डाल तो हम तुम्हारी उत्पत्ति पात पात | तुम खुश तो हम भी खुश | तुम हमारे लिए खुश हुए , तो हम तुम्हारी खुशी के लिए खुश |
[ Serous Moral - Every  Human Philosophy should be Human joy and happiness oriented , in my view ]

[उपसंहार होली तो हो - - ली  - -]
सारी शुभ होली समाप्त होते होते मन पर कुछ न कुछ आ ही गया ! कोई रंग प्रहार ! गाँव के अनुभव याद आये | यह झगडे का भी त्यौहार है | सलामत गुज़र जाय तो गनीमत समझो | कहीं कहीं तो लाठियाँ निकल जाती हैं | लेकिन फेसबुक पर तो प्रेम भी आभासी तो अदावत भी आभासी ही होना चाहिए | क्या हुआ जो नासमझ, मूरख मन को थोड़ी चोट लगी ? कुछ सीख भी तो मिली ! होली तो हो - - ली  - - | 27/3/2013


*  By - बी.कामेश्वर राव
होली स्त्री० [सं० होलिका] १. हिदुओं का एक प्रसिद्ध त्योहार, जो फाल्गुन की पूर्णिमा को होता है और जिसमें चौराहों आदि पर आग जलाते एक दूसरे पर रंग-अबीर डालते और परस्पर हास-परिहास करते हैं। पद—होली का भड़ुआ=वह बे-ढंगा और भद्दा पुतला, जो होली के दिनों में हास-परिहास के लिए कहीं खड़ा किया जाता अथवा जुलूसों के साथ निकाला जाता है। मुहा०—होली खेलना=आपस में एक-दूसरे पर अबीर, रंग डालना और हास-परिहास करके होली का त्योहार मनाना। २. लकडियों आदि का वह ढेर जो उक्त दिन प्रायः रात को एक निश्चित समय पर जलाया जाता है। ३. एक विशेष प्रकार का गीत, जो माघ-फागुन में अनेक धुनों और राग-रागनियों में गाया जाता है। ४. प्रायः अनावश्यक रूप से अथवा व्यर्थ के कामों में बिना सोचे-समझे किया जानेवाला व्यय। जैसे—बात की बात में हजार रुपयों की होली हो गई। ५. किसी उत्सव या सामारोह के समय आनंद मनाने के लिए खुली जगह में और सब लोगों के सामने जलाई जानेवाली आग। ६. अनिष्टकारक का त्याज्य वस्तुओं का अंतिम रूप से विनाश करने के लिए सार्वजनिक रूप से उनकी राशियों में जलाई जानेवाली आग। (बानफा़यर) जैसे—विलायती कपड़ों की होली। क्रि० प्र०—जलना। स्त्री० [देश०] एक प्रकार की कँटीली झाड़ का पौधा।


संस्कृत शब्द 'होलक्का' से होली शब्द का जन्म हुआ है। वैदिक युग में 'होलक्का' को ऐसा अन्न माना जाता था, जो देवों का मुख्य रूप से खाद्य-पदार्थ था।
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[ जय अनुमान ज्ञान गुण सागर ]
* मेरे नए बने मित्र और कुछ पुराने भी , जो मेरी फितरत से परिचित नहीं हैं , मुझसे रिसियाने रहते हैं कि मैं बहुत और उटपटांग- उलजलूल [ khurafat] लिखता हूँ | पर आखिर मैं क्या करूँ ? अब यही देखिये कल सुबह कहीं से धुन आई - " जय हनुमान ज्ञान गुण सागर " , और मैं पहुँच गया उसके उत्स पर | ज्ञानी जन फिर मुझे लताड़ेंगे जब मैं कहूँगा कि इसका मूल version है - " जय 'अनुमान ' ज्ञान गुण सागर " | अर्थात मूलतः हनुमान नहीं "अनुमान" था यह | कालांतर में बिगड़कर कहें या धार्मिक सद्भाववश kahen 'बनकर' , यह हनुमान हो गया  और फिर जो हुआ वह साक्षात है - हनुमान चालीसा, उनके मंदिर और यह सब - -वगैरह  - | पर अत्यंत गहराई से देखें तो 'अनुमान ' की विधा ही वस्तुतः वह ज्ञान का सागर है जहाँ से जीवन की अनमोल मोतियाँ मिलती हैं | तो अगर केवल पूजा पाठ करके ज्ञान अभीप्सा को किल करना हो और बात है , वरना तो हमारी प्रार्थना बनती है = " जय अनुमान ज्ञान गुण सागर " | ज्ञान की होली आपको शुभ हो !    


* पढ़ाई लिखाई का मतलब - कम से कम B .A . तो पास होना चाहिए था मुझे ?

समता और स्वतंत्रता ]
राजनीतिक नेतृत्व तो अपने तुच्छ स्वार्थों के लिए जो कुछ कर रहा है उस पर तो सबकी दृष्टि है, और सब उससे अवगत हैं, उसके विरोध में सक्रिय अथवा आंदोलनरत भी हैं | लेकिन वैचारिक - दार्शनिक समाज भी, मुझे अनुमान हो रहा है कि जनता से छल ही कर रहा है, जो उसे तो कम से कम नहीं करना चाहिए | वह स्पष्ट और साफ़ चीज़ें नहीं बता रहा है | जैसे, मैं यह कहने का दुस्साहस करना चाहता हूँ कि अति महिमामंडित समता और स्वतंत्रता के विचारों में कहीं अतिगंभीर खोट है , और इसे ज्ञानी जन जानबूझकर छिपा रहे हैं | शायद इस कारण कि कहीं उनकी नैतिकवादिता, आदर्शवत्ता धूमिल न पड़ जाय, लोकप्रियता पर ग्रहण न लग जाय | उनके बीच ये दोनों शब्द फैशनेबुल तकियाकलाम जैसे हो गए हैं | मेरे साथ ऐसी कोई समस्या नहीं है | मैं कह सकता हूँ कि ये दोनों चीजें असम्भाव्य हैं, और संभाव्य हैं तो बस एक छोटी सी सीमा तक | बच्चे बच्चियाँ आज़ाद होना चाहते हैं | लेकिन यदि माता ने उन्हें गर्भ से निकाल कर नाल से असम्बद्ध होते ही आज़ाद कर दिया होता तो उन्हें कुत्ते बिल्ली खा गए होते | हर किसी का अस्तित्व प्रकृति की अदृष्ट नाल से किसी न किसी प्रकार जुड़कर ही जीवन पाटा है | सारी सृष्टि ग्रेविटेशन एवं पारस्परिक बंधन - अनुबंधन से ही चलती हैं | इसे गुलामी न कहें तो आज़ादी भी कहकर नई सभ्यता को दिग्भ्रमित करना उचित नहीं होगा | इसी प्रकार समता भी एक नैतिक और आध्यात्मिक स्तर पर ही संभव है | इसे भौतिक आकांक्षा बनाकर मनुष्यों को मनुष्यों के खिलाफ रणभूमि में उतारना, युद्ध के लिए उकसाना एक निरर्थक कवायद है जो मानव जीवन को अस्थिर, अशांत, हिंसक बनाकर अमानुषिक ही बनाएगा और हासिल कुछ नहीं होगा | वैविध्य, वैषम्य आदि नैसर्गिक नियम है | मनुष्य को इनके अंतर्गत जीना सीखना होगा, और एतदर्थ ही लोक का मानस बनाने का काम समझदारों को करना चाहिए , न कि उन्हें उलझाकर, उल्टे- सीधे दिवास्वप्न दिखाकर उनका जीवन नर्क बनाने का अज्ञानता भरा प्रयास |      [ शायद सत्य आन्दोलन ]


आजकल कोलकाता में पोते के पास हूँ | उसके खिलाने के लिए घंट मंट खूब गाना पड़ रहा है | जितना याद पड़ता है, सुनाता हूँ :-
* घंट मंट दुई कौड़ी पायेन
उइ कौड़ी हम गंग बहायन        
गंगा माता बालू दिहिन
बालू हम भुजैनियक दिहेन
भुजैनिया हम्मे भूजा दिहिस
भुजवा हम घसियरवक दिहेन
घसियरवा हम्मे घास दिहिस
घसिया हम गैयक दिहेन
गैया हम्मे दूध दिहिस
दुधवा हम राजक दिहेन
रजा हम्मे घोड़ दिहिन
घोड़ चढ़ा जाईत हन
पान फूल खाइत हन    
तबला बजायित हन
नवा भीत उठायित हन
पुरान भीत गिरायित हन


Input - by sushil yadav]

लल्ला हमरे जात हैं
हांडी कूंडी सम्भाले रहिया
वोऊ पुल्लू लूलू
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Input by - Diwakar Prasad pandey

बुढ़िया आपन कोहंड़ी भाँड़ी सैन्हारो ....
भैया कूदै जात हैं ...
पू लू लू लू - -- |
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पू लू लू लू - -- |
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बछ्पन में हमारे नाना ने हमें बहुत किआ है ......... लास्ट लाइन ... भैया की बरात में बाजा बाजे तुरू धुत्तू......[v.s.yadav]
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* प्रेम के जो मर्ज़ में डूबे रहे ,
वे हमेशा क़र्ज़ में डूबे रहे ;
और जो इससे कहीं बचकर रहे
वे हमेशा फ़र्ज़ में डूबे रहे |


* [ स्वागत है असत्य परिचय का ]
मैं गौर कर रहा हूँ कि जो कथित झूठे हैं वे ज्यादा सही और सार्थक काम कर रहे हैं | अभी ईश्वर का अनालाग ले लूँगा तो हमारे गुरुसम राव साहेब रिसियाय लागत हैं | लेकिन ज़रूरी हो जाता है तुलना करना | जैसे कि जब तक ईश्वर झूठा , काल्पनिक, बनावटी रहता है वह मनुष्य के बड़े काम आता है | जैसे ही वह सच्चा , वास्तविक हो जाता है मनुष्य का अन्धविश्वास बन जाता है और गड़बड़ भूमिका अपना लेता है | फेस बुक पर एक नीलाक्षी जी पूरी बहादुरी के साथ अपना मुहिम चला रही हैं  मैं उनके पक्ष में नहीं पर उनकी निष्ठां का प्रशंसक हूँ | लेकिन उन पर एक हॉउस में आरोप लगा कि वह फर्जी हैं, और वह आउट | मुझे यह सब बेमतलब लगता है | झूठा क्या है ? प्रोफाइल चित्र और नाम ही तो ? लेकिन बातें तो जो हैं वे शब्दों में ढली साकार और सत्य हैं, और हमारा संबंध तो उसी से है ? इसी प्रकार मैं दावे के साथ कह सकता हूँ , अपनी आकलन बुद्धि के  अनुसार , कि पृथक बटोही जी अत्यंत उम्दा विचार - विश्लेषण- टिप्पणी दे रहे हैं | पूर्ण वैचारिक - तार्किक संतुलित, न इधर न उधर अपनी पूर्ण बुद्धिमत्ता - ज्ञान - विवेक - के साथ | बहरहाल कोई असहमत हो पर मुझे इनका मसलों पर अप्प्रोच बहुत भाता है | लेकिन लीजिये , कोई उन्हें झूठी आइ डी वाला बता रहा था | अब नीलाक्षी ने या बटोही ने मुझे अपने घर तो बुलाया नहीं है, न मुझे उनके ठिकाने जाने का कोई शौक है | विचारों , तार्किक विवरणों का प्रेमी हूँ | सो वह खुद लेकर नेट पर चले आते हैं | तो और मुझे क्या चाहिए ? क्यों आपत्ति है लोगों को ? फिर कहूँगा - सबसे झूठा आई डी वाला तो ईश्वर है , पर उसकी बात लोग " ईश्वरीय आदेश " के रूप में मान लेते हैं | और भी याद आते हैं तमाम देसी विदेशी कवि लेखक साहित्यकार जिन्होंने समूचा लेखन ही छद्म नामों से करके मानव का कल्याण किया | मेरी पसंद के तो अन्य भी लेखक है -खासकर श्री निवास रायशंकर , श्रद्धान्शु शेखर , संदीप वर्मा , कामेश्वर राव एवं अन्य | लेकिन उनके पहचानपत्र शायद फेसबुक सरकार द्वारा सत्यापित हैं | इसलिए उनपर कुछ नहीं कहना |


* Sainny Ashesh shared Deva Niseema's photo.
SAMBANDH : ASAM-BADH !

As long as I have the idea
in my head “I have a relationship”
or “I am in a relationship,”
no matter with whom, I suffer.

With the concept of “relationship” come expectations,
memories of past relationships,
and further personally and culturally conditioned
mental concepts of what a “relationship” should be like.

Then I would try to make reality conform to these concepts.
And it never does. And again I suffer.
The fact of the matter is: there are no relationships.
There is only the present moment,
and in the moment there is only relating.

How we relate, or rather how well we love,
depends on how empty we are
of ideas, concepts, expectations.

~~Kim Eng
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