मंगलवार, 19 मार्च 2013

Nagrik blog 19 March 2013


गुड मोर्निंग एवरीबडी ! अरे नहीं , सुप्रभात यारो !
" नागरिक "
उग्रनाथ श्रीवास्तव
( व्यंग्यकार )

* पुराणमित्वापि च साधु किञ्चित |
[ पुराना भी कुछ अच्छा भी है ]

* वे तो बाभन हैं - दुष्ट, कमीने, और क्या क्या, जो कुछ भी ! लेकिन आप तो आदमी हो ! तो, आदमी बने रहो !

* मैं दलितों से बिल्कुल बराबरी के स्तर पर लड़ना चाहता हूँ | उसी तरह तू तू मैं मैं, हाथा पायी, छिनरी बुजरी  !

* वह जींस [ कपड़ा ] ही क्या जिसकी दशा जीर्ण - शीर्ण न हो ?

* कुछ मानोगे नहीं तो कोई तुम्हे कुछ बताएगा क्यों ? मेरा मानना है की कुछ किसी का कहा मानना पड़ता है, और मानना चाहिए | यह मेरी एक स्मृति के सन्दर्भ में है | मेरी एक बहुत प्रारंभिक कविता है - " कफ़न " | लगभग 1976 की, बलरामपुर जिला गोंडा में था मैं उस समय | वह कविता बहुत सराही गयी, बल्कि वह मेरी पहचान बन गयी | इसके कई वर्ष बाद जब एक वरिष्ठ कवि श्री लक्ष्मी चंद 'दद्दा ' से गोंडा में मिला तो उन्हें भी उसे वैसे ही सुनाया जैसा हर जगह सुनाया करता था | एक बार तो उन्होंने सुना, फिर दोबारा पढ़ने को कहा और तब बताया कि " शव को देता हूँ कब्र तक साथ " नहीं - " शव का देता हूँ कब्र तक साथ " करो | को और का में इतनी बड़ी चूक थी कि दुःख हुआ अभी तक क्यों नहीं किसी ने इंगित किया ? पहले यह था | वरिष्ठ जन त्रुटियाँ बताते थे क्योंकि कनिष्ठ उन्हें मानते - स्वीकार करते थे | अब किसी गुरु की ऐसी हिम्मत नहीं है, क्योंकि किसी का कहना न मानना प्रगतिशीलता में शुमार हो गया है | और इसी के बरक्स मेरे लेखे किसी को कुछ न बताना भी दुनियादारी के लिहाज़ से उचित व्यवहार हो गया है | मैं तो दो एक बार किन्ही को कुछ बता कर अपमानित भी हो चूका हूँ | बहरहाल , दुनिया की छोड़ें, मुझे तो ख़ुशी है मेरी कविता दुरुस्त हो गयी | वह पूरी कविता आगे लिख रहा हूँ |

[कविता ]
* मैं एक क़फ़न हूँ
जिंदा ही जला दिया जाता हूँ
एक मुर्दा लाश के साथ
गोया मैं एक जिंदा लाश हूँ ,
फिर भी मुझे गर्व है कि
शव का [को नहीं ] देता हूँ
कब्र तक साथ
और उसके राख होने तक
उसकी लाज ढके रहता हूँ ,
तथा राख बनकर भी
तन से लगा रहता हूँ |
लेकिन मुझे खेद है
कोई मुझे जीवन में
प्यार नहीं करता
आख़िरी साँस तक
स्वीकार नहीं करता
बस, चंद शहीदों के सिवा |
वही तो मुझे
अपनाते हैं जीते जी
और मैं भी उन्हें ,
कभी मरने नहीं देता |
# #

* जो कहें उनके साथ बलात्कार हुआ है तो ऐसे केस को अपराध के रूप में दर्ज किया जाय चाहे पीड़िता की आयु कुछ भी हो, लेकिन एक समय सीमा के भीतर, न कि साल दो साल बाद | और जो सहमति से सेक्स करें और सीमावधि के अन्दर शिकायत न करें, उसे अपराध न माना जाय, चाहे दोनों की उम्र १६ हो या १८ |    

* मेरा काम है - छिद्रान्वेषण / spotting  the  loophole .

* मुश्किल नहीं है कुछ होना | जिसे हिन्दू होना हो हो जाय, मुस्लिम ,ईसाई, बौद्ध किसी भी दर्शन से प्रभावित  हो तदनुसार व्यक्तिगत जीवन जी सकता है | इसीलिये धर्म को व्यक्तिगत मामला कहा भी जाता है | लेकिन दिक्कत आती है जब कोई वैसा कुछ कहलाने, पहचान बनाने का आग्रह करने लगता है | यह राजनीति की देन है | मुझे आतंरिक खेद है कि नीलाक्षी जी इसमें माहिर हैं | उनके पास कोई सकारात्मक कार्य नहीं है, वे मामले को उलझाती, जातिकरण/ राजनीतिकरण करतीं और परिणामतः केवल कटुता पैदा करती हैं | नतीजा कुछ नहीं निकलता, निकल ही नहीं सकता | एक छोटी सी टीप देता हूँ - यदि हिन्दू धर्म इतना नीच, घृणित है तो फिर इसमें कोई लौट कर वापस आना ही क्यों चाहे ? ऐसी कृपा हिन्दू धर्म पर क्यों ? क्या आरक्षण लेने के लिए ? फिर मतलब क्या है इस अप्रिय तथ्य को उठाने का ? इसके आगे मैं अपना आन्दोलन जोड़ सकता हूँ कि धर्मों की ज़रुरत क्या है ? इन्हें छोड़ने, त्यागने की ज़रुरत है, न कि ग्रहण करने या अदल बदल करने की | अब बालेन्दु जी तो शायद धर्म रक्षार्थ कहें भी , कि धर्म तो " धारणीय " वगैरह है | लेकिन अभी भी मेरा इतना विश्वास उन पर शेष है और कायम है , कि नीलाक्षी जी ऐसा नहीं कहेंगी |        

* कुछ बूढ़े और बूढ़ियाँ बिलावजह इस गलतफहमी में हैं कि यदि वे पूत - पतोहू के साथ न हों, तो बच्चे स्कूल आने जाने से वंचित रह जायँ, सौदा सुलुफ, सब्जी वगैरह घर में न आये, बच्चे खेलने - बहलने न पायें, या / और / किचन में सारे बर्तन जूठे पड़े रह जायें, महीनों कमरों में पोंछा न लग पाए |

* थोडा कुछ शारीरिक बनावट में अंतर के कारण स्त्री पुरुष में इतना सामाजिक भेदभाव तो नहीं बरता जाना चाहिए था !

* वैज्ञानिक विचार नहीं हैं ईश्वर और धर्म | ' मनोवैज्ञानिक ' जबरदस्त हैं |

* पूरा भारत एक है, और वह हमारा है | अब मोटर गाड़ी या मोटर सायकिल एक राज्य से दूसरे राज्य में ट्रांसफर करवाने में जो मुश्किलें पेश आतीं हैं, वह इस एकता के आगे कुछ ख़ास तो नहीं ?

* दरअसल जब हम किसी से विवाद कर लेते हैं तो फिर उससे संवाद के सारे रस्ते बंद हो जाते हैं | यह स्थिति फायदेमंद नहीं होती | इसका तरीका है जिससे विवाद हो उससे मौन संवाद प्रारंभ कर लें | कभी मुखर होने की संभावना शेष रहे |

* मुझे लगता है मनुवाद तत्समय और समय समय के अनुभवों पर आधारित वाद है | इस प्रकार इसे अनुभववाद कहा जा सकता है | और आश्चर्य यह है कि इसने अपनी प्रासंगिकता सदैव कायम रखी, अपनी सत्यवत्ता यह आज भी अक्षुण बनाये हुए है |

* कुछ मित्र थे
कुछ तो नहीं रहे
कुछ मित्र हैं |

* जब आएगी
वह मौत की रानी
तब देखेंगे |

* या तो असभ्य
आचरण समान
या अतिसभ्य |


Shriniwas Rai Shankar
मूर्खेषू विवादों न कर्तव्यह-----आचार्य चाणक्य

* प्रतीतितः, मनुवादः शाश्वतं अस्ति |


* गरीबी बाँटकर खाओ " |
[खाने वालो खाना है तो गरीबी बांटकर खाओ - उग्रनाथ]
पूजा शुक्ला जी द्वारा बहुत अच्छा संपादन | मैं मूलतः इसे इतना स्पष्ट लिखने में असमर्थ रहा था , जिससे उसका सही मंतव्य अधिकाँश मित्रों तक नहीं पहुँच पाया | आभार !

* आकांक्षाएँ पालो ही मत ,
दुःख का प्याला ढालो ही मत |

 [ मिसरा ]
* गालियाँ भी प्यारी लगें यदि मूड ठीक हो ,
प्यार भी काँटा लगे यदि ठीक मन न हो |


* एक बात बताइए सर जी [ पैर छाँडि ] लोगो | यदि मैं DMK का पूरा उच्चारण " दाल में काला " कह दूँ तो क्या मेरे ऊपर कोई अभियोग लग जायगा ?

* ऐसे ही लोगों को , मैंने अभी कुछ ही दिन पहले कहा था , ढूँढ कर अमुक अमुक श्री , भारत रत्न और आर्थिक पुरस्कार मिलना चाहिए , न कि फ़िल्मी सितारों - खिलाडियों और अन्यथा " खिलाडियों को |" [ For Hon'ble shri Vashishtha Narain Singh , mathematician

* [ उवाच एवं विश्लेषन ]
* अब किसी कि आँखें फटने नहीं पाएँगी | कोई किसी को घूर जो नहीं सकेगा | "
यह बात उस निर्माणाधीन कानून के सन्दर्भ में है जिसके तहत किसी महिला को घूरना गैर जमानती अपराध हो जायगा | इसके सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पक्षों पर मैंने दिमाग खगाला क्योंकि यह मेरा, क्या किसी भी परुष का प्रिय "विषय " होता है | एक अच्छाई तो मैंने यही ढूँढी कि अब इस कानून के पालन करने से हमारी आँखें फटने से बच जायेंगी, जो कि घूरने की कामक्रिया से हो जाया करती थीं | लेकिन इसमें मैं भारतीय सौन्दर्य जगत में एक क्षरण भी सूंघ रहा हूँ | इतिहास, यदि उसे अभयदान मिले तो , गवाही देगा कि भारत कि स्त्रियाँ  इतनी सुंदर रही हैं कि उन्हें देखकर पुरुषों की आँखें " फटी की फटी " रह जाती थीं, और उनको " नीहारते " किसी का जी नहीं भरता था | अब क्या होगा ? इस कानून ने तो सब बेडा गर्क कर दिया | स्त्रियाँ तो अब भी सुंदर ही होंगी पर हाय ! पुरुष उन्हें [ ठीक से ] देख नहीं पायेंगे | सत्यानाश हो ऐसे कानून का |
अब इसका एक शुभ  पक्ष यह है कि जब औरतों  को कोई देखेगा नहीं, तो वे श्रृंगार नहीं करेंगी | किसके लिए और क्योंकर करेंगी भला ? फिर तो सौन्दर्य प्रसाधनों पर राष्ट्रीय धन का अपव्यय रुक जायगा | पतियों के सर का बोझ कम हो जायगा | और गृहिणियाँ उन पैसों का उपयोग अन्य कार्यों , जैसे बच्चों के लिए खिलौने - किताबें और अपने एवं अपने पति के लिए कुछ साहित्यिक  पत्रिकाएँ खरीद सकेंगी |        
[ हाय, लेकिन यह क्या होने जा रहा है ? यदि ऐसा कानून लागू हुआ तब तो औरतें हमें " फूटी आँख " भी नहीं सुहायेंगी ? ]
* आपको, या किसी को भी, कम से कम मुझसे तो, डरने की ज़रुरत नहीं है | क्योंकि हम कोई संथागत - संगठित काम नहीं करते | हम केवल लिखते या बोलते बतियाते हैं | उससे क्या होता है ? तो, तुम निश्चिन्त होकर समाज को बनाने - बिगाड़ने - बरगलाने का जो भी काम करते हो, कर रहे हो, निर्द्वन्द्व करते रहो |

* [ और भी भ्रम हैं ]
मुसलमानों के बारे में अनेक भ्रम शेष हिन्दू समाज में व्याप्त है | जैसे वे गंदे होते हैं, गोमांस  खाते हैं, खाते हैं यहाँ की गाते हैं वहाँ की, या यही किवे आतंकवादी होते हैं इत्यादि | ये भ्रम जिनको हों उनको हों सही या गलत | लेकिन उनके बारे में हमारे भ्रम और भी हैं | जैसे पहले पहाड़ी नौकरों के बारे में हुआ करता था | कि वे बड़े ईमानदार होते हैं ईमान के पक्के | दोस्ती निभाना जानते हैं और फिल्मों के अनुसार दोस्ती में जान भी दे सकते हैं | जुबान के पक्के होते हैं और वायदे से मुकरते नहीं, किसी को धोखा नहीं देते | अमानत में खयानत नहीं करते और पूर्ण विश्वसनीय होते हैं | यह भी भ्रम ही है |  

* जो मैं कहता हूँ, वह सही - गलत हो सकता है | लेकिन इतना तो निश्चित है कि उनसे आप जनमत की नब्ज़ का अंदाजा लगा सकते हैं |            

* मेरे हाथों में फूल या गुलदस्ता नहीं, मेरे हाथों में अपना हाथ दो | वह अनुपम उपहार होगा |

* एतद्द्वारा प्रमाणित करता हूँ कि मैं BPL श्रेणी में आता हूँ - बे पेंदी का लोटा |

* [ मौलिक प्रश्न ]
सिर्फ फिल्मों और उपन्यासों को छोड़कर किसी धनी लड़के का 'प्रथम दृष्टि' का प्यार किसी कूड़ा बीनने वाली लड़की से क्यों नहीं होता ?

* मुझसे यह त्रुटि बराबर होती है , और मैं हर बार अपनी अज्ञानता पर अपने आप शर्मिंदा होता हूँ | जब भी मैं किसी घर - बँगले " प्रोo अमुक " अंकित देखता हूँ , मुझे तमाम ढाबों और मिस्त्रियों के दुकानों की याद आती है जिनपर लिखा होता - प्रोo मुन्ना लाल / प्रोo बन्ने खाँ - -

* एक निवेदन | मैं अपने पोस्ट दो जगह डालता हूँ - एक News Feed पर , दुसरे ' प्रिय संपादक ' पर | और कुछ Absolute Nonsense पर | मित्रो से अनुरोध है की अपनी प्रतिक्रिया केवल एक ही स्थान पर व्यक्त करें |

* आपके पोस्ट का अर्थ मैंने यह निकाला कि एक बच्चा पत्नी अन्य पुरुष से पैदा करे , एक बच्चा पति अपनी पत्नी से पैदा करे | यह होता तो ठीक था |

* महिलाएँ थ्रेडिंग करने ब्यूटी पार्लर जाती हैं | कहीं " डोरे डालने " को ही तो थ्रेडिंग नहीं कहते ?
[आप नाराज़ न हों प्रज्ञा जी ! मैं अंतर्संत्रस्त व्यक्ति हूँ , इसलिए खुश होने का कोई अवसर हो, मैं पकड़ना चाहता हूँ | 'थ्रेडिंग' और "डोरे डालना" में थोडा साम्य मिला तो उन्हें जोड़ दिया < बस ! ]

* जिनकी छवि आँख बंद करने मात्र से ही सामने आ सकती है , उन्हें देखने के लिए उनकी मूर्तियाँ बना कर मंदिरों में रखने की ज़रुरत मैं नहीं समझता |

* भ्रष्टाचार का
इतना चर्चा हुआ
ख्यात हो गया |

[ कथानक : क्या आप की उम्र सोलह साल हो गयी है ?]
* मैं मोटर गाडी में था | सड़क पर मुझसे एक लडकी ने लिफ्ट माँगा | लेकिन बदले कानून के तहत और वैसे भी सुरक्षा वश मैंने उससे दरयाफ्त करना उचित समझा - क्या तुम्हारी उम्र सोलह साल हो गयी है ? उसने कहा - हाँ | इतने में बगल में खड़ी एक बूढ़ी औरत ने कहा - मेरी भी उम्र सोलह साल हो गयी है , मुझे भी लेते चलिए | अब मैंने इनकार कर दिया | तुम लिफ्ट लेने के लिए अपनी उम्र सोलह साल बता रही हो , जब कि तुम हो नहीं | बाल सफ़ेद रंग में रंग लेने से कोई बूढ़ा नहीं हो जाता | अब यह भी एक फैशन हो गया है / हो जायगा |

* [ मुख्य मंत्री कहाँ कहाँ जाएँ ?]
यह एक प्रश्न चौथे खम्बे की और से उठा था , जब हर पीड़ित / पीडिता मुख्य मंत्री को उसके घर आने की मांग कर रहे थे | उनकी वे जानें | लेकिन मैं यह जानता हूँ की यदि मैं उनकी जगह दुर्भाग्य वश होऊँ तो मेरे अनुमान से मेरी यह जिद होती कि कोई राजनीतिक नेता घडियाली आंसू बहाने मेरे घर न आये, उनसे सहानुभूति लेने मैं घर से बहर नहीं निकलता , और कोई धनराशि लेते हुए मेरी शर्त होती कि कोई तस्वीर न खींची जाय जिसका दुरूपयोग वे अपनी राजनीति के लिए करें [

* [ अन्यथा सुयोग्य पुलिस ?]
जब कोई पत्रकार , सामाजिक कार्यकर्त्ता या लेखक विद्वान् भारतीय पुलिस की आलोचना - निंदा करते हैं तो मुझे उनपर अत्यंत क्रोध आता है | मन होता है की उन पर अभी वज्र पात कर दें | क्योंकि उनका यह कथन मानवीय गरिमा के विरुद्ध होता है | तआज्जुब होता है जब आलोचकों में मानवाधिकार कार्य करता भी होते हैं |
जब आप एक बार जान गए पुलिस की क्षमता , बार बार आपने आजमा भी लिया तो फिर उस एक्यों चिढ़ाते हैं ? उसे दोष देकर , उसकी कमियों कमजोरियों के लिए उसे अपमानित करना किस लोक तांत्रिक व्यवहार में आता है ? उदहारण के लिए अब तो शारीरिक रूप से अक्षम - अपंग, लूले लंगड़ों अंधों को भी विकलांग तक कहना अमानवीय / असभ्य करार दे दिया गया है | अब उन्हें Differently Able  कहने का प्रचलन है | इसी प्रकार हमारी पुलिस भी अन्यथा सुयोग्य तो है ही | उसने अपनी अन्य प्रकार की कुशलता बार बार सड़कों पर प्रकट भी की है | तो कृपया उसे अपमानित न करके उसके साथ आदर से पेश आयें |

* कोई चाहे वोट दे या न दे |
यह बात कहीं से आई है | किसी ने कहा की इन लोगों ने एक वोट नहीं दिया और अपेक्षाएं तमाम कर रहे हैं | जी हाँ जिसने सत्तारूढ़ दल को मत दिया है या नहीं, या वोट डालने गए ही म हों वे भी हक़दार हैं सरकार से उम्मीदें रखने के और आलोचना करने के | और उम्मीदें तो जागते हैं राजनीतिक दल संभव - असंभव वायदे करके | फिर उनसे पूछा क्यों नहीं जायगा ?

* मेरा कहना मात्र यह है कि हर प्यार या प्रेम सेक्स जनित ही होता है | इसलिए यदि सेक्स को घृणित मानते हो तो प्यार से भी उतनी दूरी बना कर रहो | लेकिन यदि प्रेम को पवित्र मानते हो तो सेक्स को भी उसका देय उचित सम्मान दो | मैं कोई बात थोप नहीं रहा हूँ | आप जो भी मानें तो उसे ईमानदारी से मानो | और इस विचार को मैं प्रत्येक प्रकार से , सिद्धांत में और उदाहरणों द्वारा सिद्ध करने का आजीवन प्रयास करता रहूँगा | जिसे फिल्मों और झूठे प्रेम आख्यानों ने रगड़ रगड़ कर मनुष्य को भ्रमित कर मन्त्र मुग्ध किया हुआ है | और पीढ़ी अनावश्यक इसके पीछे अपनी जान दे रही है | जैसे ईश्वर नहीं , वैसे प्रेम नहीं | सब जींस और मानव मन का खेल है |


* [ पार्क में प्यार ]
* पार्क में युवक - युवती कुछ कर रहे होते हैं | पूछा जाय तो कोई भी यही कहेगा "परस्पर प्यार " कर रहे हैं , जबकि वह काम क्रीडा का ही एक अंश , प्रारंभिक या प्राथमिक, होता है | तो यही है प्रेम और सेक्स में भेद ? अर्थात इनमे है पूर्ण अभेद |


* इसके लिए कोई मोटा तगड़ा धर्म बनाना पड़ेगा , इस्लाम से भी ज्यादा कट्टर और कठोर | इसे लागू करने के लिए भी बलशाली पुलिस की आवश्यकता होगी | वर्तमान में इस हेतु समाजवादी पार्टी से अधिक योग्य तो कोई दिखता नहीं |

* जब तक मानव मात्र रहेगा ,
तब तक यह मनुवाद रहेगा |

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