सोमवार, 11 मार्च 2013

Nagrik Blog 11 March 2013


" PER CHANCE ", there is a God .

* ईश्वर के शरीर पर लगे फफूँद के सामान है मानव जाति | अनायास उत्पन्न |

* बड़े लोगों के शगल से छोटे लोगों की ज़िन्दगी नहीं चलती | यह सहजीवन - - , स्लट वाक ? ?

* बिना " हिन्दू - मुस्लिम " समीकरण बनाये कोई राजनीति पूरी कहाँ होती है ?

* आस्था - इन्सानियत पर ,
अनास्था - हैवानियत पर ,
अब इस बीच में ईश्वर कहाँ से कूद पड़ा ?

* मेरा राशिफल -
मैं एक अखबार रोज़ पढ़ता हूँ | मैं कोई मामूली आदमी तो हूँ नहीं , इसलिए मामूली अखबार नहीं देश का एक महान अखबार ' दैनिक हिन्दुस्तान ' पढ़ता हूँ | और उसमे मज़े के लिए दैनिक राशिफल भी पढ़ता हूँ | जन्म 9 सितम्बर (1946 ) के अनुसार कन्या राशि का भविष्य | उसमे हर दो एक दिन अतर कर लिखा होता है - " धर्म के प्रति आस्था बढ़ेगी " | मानो टेप की तरह कम्पोज़ किया रखा हुआ है और उसे ही घुमा फिर कर दाल दिया जाता है | मेरे ऊपर यह भविष्यवाणी भी उल्टी लगती है लेकिन मैं उसे अपने लिए सीधी कर लेता हूँ | अब इतने बड़े समाचार पत्र के इतने ज्ञानी ज्योतिषी का कथन असत्य तो हो नहीं सकता | इसलिए मैं स्वीकार कर लेता हूँ की धर्म के प्रति मेरी आस्था बढ़ रही है , और जैसे जैसे बढ़ती जाती है वैसे वैसे मैं नास्तिकता के प्रचार में संलग्न होता जाता हूँ | आमीन |

* " वास्तविक ''
होना चाहिए,हमें
'' नास्तिक ''
होना चाहिए | "

(उग्रनाथ 'श्रीवास्तव' "नागरिक ")

[कविता ]
* मेरी दृष्टि
इतनी विशाल थी
कि नहीं डाल सका
सुई में तागा |
# #

[ कविता ?]
* अब गिरी कि तब गिरी
वह मेरी झोली में गिरी ,
वह देखो, कुछ ही क्षणों में
मेरी गोद में आ गिरेगी "
यही सोचते, ताकते, निहारते
प्रतीक्षा करते जिंदगी बीती
यह, न वह, न कोई, मेरे लिए गिरी |
इससे तो अच्छा था, मैं ही
उनके पास चला गया होता ,
उनके पाँव गिर गया होता !
# #

* सपने पहले , नींद बाद में आई ;
नींद से पहले याद तुम्हारी आई |

* ज़माना यूँ तो बदलेगा, नहीं तो यूँ, नहीं तो यूँ |
ज़माना क्यूँ न बदलेगा, भला यह क्यूँ, भला तो क्यूँ ??

* देख रहा हूँ कि जब से वायरलेस और इन्टरनेट का प्रयोग - प्रचलन बढ़ा है तब से धर्मान्धों के पौ बारह हो गए हैं | उन्हें लगता है वे अदृश्य वैज्ञानिक शक्तियों की तरह ईश्वर के अस्तित्व को भी अब कि तब सिद्ध कर ले गए और नास्तिकों के खिलाफ विजयी हो गए | उनके लेखे उन शक्तियों के बारे में वैज्ञानिकों से पहले उन्हें ज्ञान था जो ईश्वर के रूप में अवतरित हुआ, और यह वैज्ञानिकों की हठधर्मी है जो वह अभी भी ईश्वर के अस्तित्व और उसकी असीम शक्तियों को स्वीकार नहीं कर रहा है, वैज्ञानिकों से ज्यादा वैज्ञानिक तो उनके धर्म है | वैज्ञानिक तो निरा अज्ञानी हैं |

* मैं राजा भैया की शक्ति, उनके मान - सम्मान से इतना प्रभावित हुआ हूँ कि हमने तय किया है कि अपने एक वर्षीय पौत्र चि. दिनमान श्रीवास्तव का घर का पुकारू नाम हूबहू, यथावत राजा भैया तो नहीं लेकिन राजा बाबू रख दूँ | संभव है यह नाम उसके और प्रकारांतर से हमारे परिवार के राजनीतिक भविष्य के लिए फलदायी साबित हो | बात ठीक है न भाई साहेबान ?

* शिव रात्रि की पृष्ठ कथा क्या है ? कोई कहता है इस दिन शिव जी का विवाह हुआ था | कोई कहता है इस दिन उन्होंने विष / गरल पिया था | कोई कहता है- दोनों एक ही बात है |

* सरकारी नौकरी ही जब खैरात हो गयी है , तो फिर सरकारी कर्मचारी काम क्यों करेंगे ? क्या आप समझते हैं परवीन और उनके रिश्तेदार काम करने के लिए नौकरी ले रहे हैं ? जी नहीं , आजीवन मुआवजा लेने के लिए | तिस पर एना - अरविन्द Citizens ' Charter लाने, लागू करने के लिए सर्कार को घेर रहे हैं | इसी लिए मैं इनके आंदोलनों को वाहियात आन्दोलन कहता हूँ | क्योंकि ये आन्दोलन द्वारा अराजकता तो फैलाना जानते हैं पर इन्हें समाज और सरकारी तंत्र की कोई समझ नहीं है, न कोई रचनात्मक - सकारात्मक दृष्टि | वरना इन्होने मेरी तरह सर्कार को यह सलाह देने का प्रयास अवश्य किया होता कि इतना मुआवजा दे दो पर सरकारी नौकरी न दो | उसे योग्य और कर्मनिष्ठ लोगो को सौंपो, तब सही काम होगा |

* कलाकार , जो अपनी कला का पूरा पैसा वसूल करते हैं, जनता का प्यार और सम्मान, जगत में लोकप्रियता भी हासिल करते हैं | फिर ऊपर से पद्म भूषण, विभूषण,श्री , यहाँ तक कि भारत रत्न कि भी माँग क्यों करते हैं ? सरकार दे तो दे पर वे इसके लिए जोर , सोर्स सिफारिश क्यों करवाते हैं ? कभी क्रिकेट वाले , तो कभी फिल्म / संगीत वाले | इस प्रकार वे अपनी अयोग्यता सिद्ध करते हैं | ये मानद पुरस्कार / सम्मान उन्हें दिया जाना चाहिए जिन्होंने कुछ प्राप्त करने के लिए हाथ पैर नहीं मारा, अपने लिए कुछ नहीं किया | केवल कला के होकर एक वंचित ज़िन्दगी बिताई | और ऐसे लोगों कि खोज खुद सरकार को करनी चाहिए | जो कहे मुझे सम्मान दो , उन्हें सम्मान से वंचित कर दिया जाना चाहिए | इन लोगों की, मसलन शबाना / जावेद वगैरह की राज्य सभा की सदस्यता क्या कुछ कम कीमती है जो ये इतना पैसा प् लेने के बाद भी कापीराइट माँग रहे हैं | और मज़ा यह कि ये [संपत्ति विरोधी] कम्युनिस्टों द्वारा ''प्रगतिशील'' का खिताब भी हासिल करते हैं !  

* अगरचे सन्दर्भ मेरी पकड़ में नहीं है , फिर भी = " अतिथियों का आदरपूर्ण स्थान 'अतिथि गृह' है या घर में गेस्ट रूम " | गृह स्वामी के बेडरूम में घुसना उन्हें शोभा नहीं देता , न यह अतिथि सत्कार के लिए आवश्यक ही |

* कुछ मित्र मनुस्मृति की "बुरी " बातों को ढाँपने के लिए उसकी अच्छी बातों का उद्धरण देते हैं | लेकिन मैं तो उसकी बुरी बातों का भी प्रशंसक हूँ | उनकी अप्रिय सच्चाईयाँ बार बार सत्य सिद्ध होते देखकर हैरान होता हूँ | तब समझ में आता है कि वह व्यवस्था थी जब गैर बराबरी थी | वही व्यवस्था है क्योंकि गैर बराबरी है | और तब मैं चाहे मायावती के साथी भी उनकी आलोचना करें, मैं उनके साथ रहता हूँ | क्योंकि वह एक स्वाभाविक और ज़रूरी आचरण करती हैं | ऐसा उन्हें करना ही पड़ेगा, ऐसा करना ही चाहिए यदि राज्य करना है तो [ बस कंधे बदलकर ] | मैं मुंडा के व्यवहार पर,उन कंपनियों पर जो बारह-चौदह घंटे काम लेकर युवकों को अपने फायदे का अति लघु अंश देने पर भी नहीं खीजता | पर अचंभित तो होता हूँ मनु के कथनों की प्रासंगिकता न कहें तो उसकी सत्यता, व्यवहारपरकता पर, और वह भी इस युग में ? आश्चर्य इस पर भी होता है कि किस प्रकार नितांत असफल मार्क्सवाद को सही ठहराने में तो हम एँड़ी चोटी एक कर देते हैं और नितांत सर्वत्र सफलीभूत ब्राह्मणवाद को नकारने का दंभ भरते हैं ? हाँ, ब्रिटेन - अमरीका के व्यवहार को ब्राह्मणवादी के बजाय साम्राज्यवादी- सामंतवादी कहकर ही संतुष्ट हो लेते हैं | दोनों में, या सबमें कितना साम्य है, इसे नज़रअंदाज़ करते हैं | पढ़े लिखे तो खूब हैं हम, पर उस ज्ञान को हम यथार्थतः, वस्तुगत मानस में जीते नहीं | बराबरी-बराबरी एकतरफा चिल्लाये जा रहे हैं, और वह हमारे आस पास, अरीब करीब कहीं है नहीं | क्या कोई उद्भट विद्वान् / आचार्य यह मान लेगा कि उग्रनाथ भी उनके समान ही विद्वान एवं अनन्तर बराबर इंसान हैं ? फिर आयें बाएँ न खेलें तो बराबरी कहाँ है ? और गैर बराबरी जितनी भी मात्रा में है, उसमे हम क्या जी नहीं रहे हैं | तो इसी गैरबराबरी को जीने के दर्शन का नाम ही तो मनुवाद है , जिससे कोई मुक्त नहीं, कहने को कोई कुछ भी कह ले , दावा ठोंक ले | यह मानवीव स्वभाव का दर्पण - दर्शन और प्रत्येक व्यवस्था की नियति -विसंगति है | वरना वे समाज इससे ग्रस्त क्यों हैं जिनके पास मनुस्मृति नहीं, बड़े महान समानता का दर्शन है ? कोई बताये ? मुख से / पैर से पैदा होने की बात तो बस बात को कहने का ढंग भर है | उसी प्रकार जैसे कर्ण का कान से पैदा होना, या कानों के मैल से शुम्भ निशुम्भ दानवों का उत्पन्न होना | उससे क्या होता है ? दरअसल मुददआ तो दूसरा है | असल बात समता - विषमता / भेद विभेद / नाना प्रकार की सृष्टिगत उत्पत्तियों पर बात को टिकाईए | तब न पता चले हम स्वयं कितने पानी में हैं ? हम तो मानते हैं कि गलत है वह सब | लेकिन वह सब इतना सत्य क्यों है ? # #
[ मैं किसी अन्य ग्रुप में अपने पोस्ट इसीलिये नहीं डालता क्योंकि देख रहा हूँ हर जगह अपमानित / निष्कासित होने का भय है | स्वाभाविक है क्योंकि मैं स्वच्छंद लिखता हूँ, मैं अपनी कोई साख बनाने के लिए नहीं लिखता | सो , त्रुटिपूर्ण-उटपटांग भी लिख सकता हूँ | लिख कर सनद करता हूँ ताकि वक्त पर काम आवे | एक पागल आदमी इस तरह का भी था ] |        

* खंडित (आधे ) नेकर से अखण्ड (पूरा ) भारत का सपना कैसे पूरा होगा ?

* सारे अस्त्र - शस्त्र, अणु- परमाणु बम ढीले पड़ जाते हैं, बच्चों की तोतली बोली के आगे |
( बाल सखा समूह )


* मम्मी :-
सोना बहुत ज़रूरी है ,
चाँदी बहुत ज़रूरी है |
बेटा, यह मजबूरी है ||

बेटा :-
सोता हूँ तो सोना हूँ ,
मेरा मन ही चाँदी है |
मम्मी क्या मजबूरी है ?    
[Baal Sakha samuh]

[ Haiku ]
* असली नाम
इनका या उनका
क्या है, क्या पता ?

* दशा ख़राब
हमसे भी ज्यादा है
उन लोगों की |

* चोरी चमारी
औरों का पता नहीं
भारतव्यापी |

* किसी पर भी
न तो ज्यादा भरोसा
न ज्यादा शक |

* मौक़ा मिले तो
पानी पी ही लीजिये
छोड़िये नहीं |


* इधर एक चुटकुला सुना | सुनाने वाले के अनुसार यह काफी पुराना है | : --
किसी ने कहा - आवाज़ दो हम एक है |
दुसरे ने कहा - तो एक ही तो हो | दूसरा कहाँ है ?

* [मिसरा ]
शेरनी को शेर लिखता हूँ |
आजमर अजमेर लिखता हूँ ||
कुबेर / उलटफेर / दिलेर / सवेर / बटेर

* ज़रा याद करो कुर्बानी - - By Ugra Nath (उर्वर दिमाग)
कुर्बानियां याद रखनी बहुत ज़रूरी हैं, मै इससे सहमत हूँ | लेकिन इस बात से मैं सहमत नहीं कि कुबनियाँ शहीद भगत सिंह और गाँधी जी जैसों ने दीं, जिन्हें याद करना हमारा कर्तव्य बनता है | मेरे ख्याल से उनकी कुर्बानियां बहुत छोटी थीं और संकुचित | पृथ्वी के किसी भूभाग की आज़ादी के लिए जान गवाँना, एक रंग के मनुष्यों से राज्य लेकर दूसरे रंग के मनुष्यों को देना , बस ! इससे मनुष्यता का क्या कल्याण हो गया ? मुझे गलत समझा जाना बहुत स्वाभाविक है यदि मैं कहूँ कि चाहे झाँसी कि रानी हों या बेगम हजरत महल, सबने एक स्वार्थ [भले कुछ व्यापक हित निहित] की ही लडाई लड़ी | इसके विपरीत, या इनके सापेक्ष हम क्यों न सुकरात, ब्रूनो, गैलिलियो, आर्कमिडीज़, कोलम्बस जैसे विचारकों, वैज्ञानिकों, साहसी यात्रियों, और फिर पाईथागोरस, रामानुजम, भास्कराचार्य, आर्यभट्ट सरीखे गणितज्ञों, कर्मयोगियों की , जिनकी सूची अनन्त है, और जिन्होंने मानव सेवा में- मानव सभ्यता के विकास में तिल - तिल कर अपनी ज़िंदगियाँ होम कीं, उनकी भी " ज़रा याद करो कुर्बानी " करें ?
एक साहसिक यात्रा की याद ने यह विचार उत्सर्जित किया | एक समुद्री खोज यात्रा के दौरान जब यात्री बीच में फँसे, और उनका सारी भोजन सामग्री समाप्त हो गयी, तब उन्होंने लाटरी द्वारा अपने साथी को मारकर उसका मांस खाया और अन्ततः अभियान को सफल बनाया | मैं करबद्ध नतमस्तक हूँ उस दधीच/ शरीर दानी अज्ञात साहसिक यात्री के सामने, जिसने मनुष्य की ज्ञान - विज्ञान यात्रा में सहर्ष - स्वेच्छा से अपना प्राण देना स्वीकार किया | मैं आज, जाने क्यों, उसकी क़ुरबानी पर फ़िदा, अभिभूत और रोमांचित हूँ | #
- - उग्रनाथ (उर्वर दिमाग)                          

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