शुक्रवार, 22 मार्च 2013

Nagrik Blog 22 March 2013


आज का कार्यक्रम ;-
" स्वतंत्रता , freedom "
उग्रनाथ नागरिक (श्रीवास्तव)
" व्यंग्यकार "
L - V - L / 185 , अलीगंज ,
लखनऊ - 226024 [उ.प्र.]

* वैसे भी
भगवान् का कहाँ
बचा है अस्तित्व ?
किसी को देखा आपने
ईश्वर से डरते ?
भगवान् का भय खाते ?
कोई नहीं डरता उससे ,
फिर मतलब क्या है
उसके होने का ?
# #


[ कविता ]
* रख तो छोड़ा है
हमने एक ईश्वर
बोलने बतियाने को,
दुआ सलाम बनाने,
कायम रखने के लिए !
इसमें मानने , न मानने
की क्या बात है ?
वह है या नहीं है
इससे क्या मतलब ?
मानते नहीं, तो उसे रखते ही क्यों ?
और उसके जिंदा रहने,
अजर - अमर होने का
सबब ही यही है - " क्योंकि वह नहीं है "
वह है तो इसीलिये क्योंकि
वह वैसा हो जाता है
हम जैसा चाहते हैं,
जैसा मनुष्य कि कुदरत,
उसकी फितरत चाहती है |
बिल्कुल फिट और उपयुक्त
अपने सर्वाइवल के लिए |
ठीक है - बनावटी है -
इमिटेशन अथवा पायरेटेड |
तो उससे क्या ?
कौन सा असल का ज़माना ही है यह !
फिर उसे हमेशा एक सा
थोड़े ही रहना है ?
उसका तो माडल आखिर
बदलता रहना है !
तो वह हमारे वक़्त ज़रुरत काम आये
इसलिए रख छोड़ा है हमने
एक ईश्वर जिंदा - जीता जागता
अपने लिए |
# # #

Posted by Zaara Khan
नास्तिक -----
( संदीप खरे जी कि मराठी कविता का हिंदी अनुवाद )

एक सचमुच का नास्तिक
जब मंदिर के बाहर ही रुकता हैं
तब असल में मंदिर की पवित्रता में ही इजाफा हो रहा होता हैं
की कोई तो हैं जो अपने तक सीमीत ही क्यूँ ना सही,
पर अपने सत्य से इमानदारी से चिपका हुआ तो हैं |

एक सचमुच का नास्तिक
जब मंदिर के बाहर ही रुकता हैं
तब पहल होती हैं
आलस्य झटक कर, भगवान के मंदिर से बाहर आने की |

एक सचमुच का नास्तिक
जब मंदिर के बाहर ही रुकता हैं
तब वो खाली नज़रों से देख रहा होता हैं
आसपास की भागदौड़, भक्तों की भीड़
तब, कोई तो हैं जो अपना बोझ खुद संभाल सकता हैं,
इसका संतोष मिलता हैं भगवान को ही |

इसीलिए एक सचमुच का नास्तिक
जब मंदिर के बाहर ही रुकता हैं
तब भगवान को एक भक्त कम मिलता हो शायद
पर मिलती हैं भरपूर ख़ुशी एक सहयोगी के मिलने की |

मंदिर बंद होने के बाद, एक मस्त अंगड़ाई लेकर
बाहर खड़े हुए नास्तिक से गपशप करते हुए
भगवान कहता हैं, "दर्शन देते रहना कभी कभार...
तुम्हारा नहीं होगा हम पर विश्वास,
पर हमारा तो हैं ना...|"

मंदिर के बाहर रुका हुआ एक सचमुच का नास्तिक
थके हुए भगवान को बड़ी मिन्नतों से भेजता हैं मंदिर में
तब जाकर कही अनंत वर्षों तक हम कर सकते हैं दर्शन
आस्तिकता के मखमली लिबास में दम घुटे हुए भगवान का....!!!
# #

[कविता ]
* यात्रा में
कहाँ समय लगा ,
समय तो लगा
यात्रा के
सामान जुटाने में !
# #

* सोचा दिल का
दिमाग का मालिश
कर लें थोड़ा |

* जाते हो जाओ
आखिर पछताओ
लौट ही आओ |

* छद्म ख़ुशी है
लेकिन सचमुच
यही ख़ुशी है |

* दहेज़ नहीं
हम हिस्सा तो देंगे
लड़कियों को !

* मेरे विचार में
एक दिमाग आया है
अभी कहूँ या
बाद में बताऊँ ?
बात यह है कि
मेरे दिमाग में
एक विचार आया है |
##

* तुम संभल कर चढ़ो आधुनिक सीढ़ियाँ ,
मेरी प्यारी दुलारी नई पीढ़ियाँ !

* यदि आपकी पत्नी अपनी उँगलियाँ चाटने लगे , तब समझो - तुम खाना अच्छा बना लेते हो |

* क्या कहते हैं आप ! क्या आप पृथ्वी को [ नर नारी के मध्य ] गुरुत्वाकर्षण [ की बुराई से ] मुक्त कर देंगे ?

* कई यथास्थितियाँ नकार देने से समाप्त नहीं हो जातीं | उन्हें सच की तरह स्वीकार करना पड़ता है |

* जब झूठ ही बोलना है , तो क्यों न प्यार बोलें ?


* रेंद्र जी कि बात सच है | ऐसा चौतरफा हो रहा है | पता नहीं क्या हासिल होता है इससे, पर कुछ लोग इसमें रत दिन संलग्न हैं | इसे मुतवातिर अपना लाइफ मिशन बनाये हुए हैं | कारण, हो सकता है  - इनके पास कोई रचनात्मक सकारात्मक कार्यक्रम , विचार या दर्शन नहीं है, जीवन का उद्देश्य | नया सोच - बना नहीं सकते, किसी की बात मान नहीं सकते | ठीक है आलोचना का अधिकार है | किया भी जाना चाहिए | पर उससे सबक लेकर कोई सार्थक रास्ता भी तो निकलना चाहिए ! देवदासी प्रथा अब नहीं है तो नहीं है , जब थी तब भी सीमित थी | गए दिनों की बात है | पर आज इतनी अकूत स्वर्ण - दासियाँ मंदिरों में क्यों पहुँच रही हैं ? या फिर, वेश्यावृत्ति ही इतनी सर्व व्यापक , सार्वजनिक और इसका बाज़ार इतना बढ़ और गर्म क्यों हो रहा है , इस पर सोचना और कोई उपाय निकालना इनके अजेंडे में क्यों नहीं है ? अभी इसे मनुवाद / जातिवाद कह दिया जायगा [जिसे ये स्वयं सवर्णों की अपेक्षा ज्यादा उछाल रहे / प्रश्रय दे रहे हैं ] , पर यह सब देखते हुए इनके हाथों में देश का शासन सौंपना तो मुझे खतरे से खाली नहीं लग रहा है, जो कि मेरे / हमारे/ कुछ सवर्णों का जीवन का स्वप्न है / हमने बनाया है ऐसा अपना लक्ष्य | ये तो बिल्कुल गैर जिम्मेदाराना बात - व्यवहार और हरकतें कर रहे हैं | केवल घृणा के औजार से ये भला कैसे देश की मशीनरी सही करेंगे / कर पाएँगे ?

* दलित होने का प्रिविलेज धारण करना चाहते हैं लोग | [ मानो यह उनका धर्म हो गया हो , धारयेति इति धर्मः ?] | सामान्य विषयों पर सामान्य जन बनकर ये आते ही नहीं | उसके लिए बहुत बड़े दिल - दिमाग के बूते की दरकार है | ऐसा करके वे प्रकारांतर से मनु की बात ही सत्य साबित कर रहे हैं |

* [ पुरुष की कीमत ]
नारी / महिला आन्दोलनों के ऊलजलूल चलते पुरुषों के सम्मान को बड़ा झटका लगा है | मैं उसकी पुनर्स्थापना के लिए बताना चाहता हूँ कि इससे महिलाओं का ही कितना नुकसान है | पुरुष कि कीमत समझकर ही उसके साथ अपना व्यवहार तय करें महिलाएं तभी ठीक होगा | क्योंकि वहीहै जो इनकी जिंदगी बिगाड़ बना सकता है | जानिये कि वेश्याएँ आखिर हैं क्या | ये पुरुषवादी समाज द्वारा बहिष्कृत जनानाएँ है, जिन्हें उनके पति बाप ससुर आदि से घर बघार कर दिया है | कोई पुरुष उन्हें सहारा देने वाला नहीं है इसलिए उन्हें पेशा करना पड़ा | सोचिये, यदि वे पुरुष के अधीन होतीं तो गरीब भले होतीं इज्ज़त से तो होतीं | और मज़े की बात - वही पुरुष फिर इनके कोठे पर आकर पैसे दे जाता है, जिससे उनका भरण पोषण होता है |
आज हालत यह है कि स्त्री के पास पद पैसा होते ही पुरुषों की दुर्गति करने लगती हैं | जब कि समृद्ध पुरुष अपनी पत्नियों से ऐसा व्यवहार नहीं करते | जान लें कि आधी आबादी की आधी औरतें अब भी पुरुषों की कमाई पर ऐश कर रही हैं, रानी बनी फिरती हैं | ऊपर से उन्ही के खिलाफ झंडा बुलंद करती हैं | यह गलत है | स्त्रियों को चाहिए की वे पुरुषों की कीमत समझें और उनका सम्मान करें | पुरुषों को भी संगठित होकर अपने मान सम्मान को वापस स्थापित करने का प्रयास करना चाहिए | इसके लिए उन्हें औरतों को अपनी तरफ से हर प्रकार की सुरक्षा और सम्मान देना चाहिए, जिससे पुरुषों की कीमत बढ़े, भाव में इजाफा हो |

* सेक्सुअल फ्रीडम की बात में दम तो है | लेकिन सेक्स भी तो इलास्टिक की भाँति है | जितना बढ़ाओ उतना बढ़ता है | इसका पेट भरने का नाम ही नहीं लेता | यद्यपि इसकी भी सीमा तो है, कितना कोई सेक्स करेगा | फिर भी इसकी भूख दूर तक है | दूसरी और उदाहरण हैं आजीवन ब्रह्मचर्य निर्वाह के | भीष्म पितामह का नाम न लें तो आज भी तमाम स्त्री पुरुष कुवाँरे/ अविवाहित जीवन व्यतीत करते है | पुरुषों को, मान लें कि बाह्य साधन उपलब्ध हो जाते होंगे | लेकिन तमाम स्त्रियाँ तो अक्षत योनि रह ही जाती हैं ? अर्थात सेक्स विहीन जीवन भी जिया तो जा सकता है [ ऐसा मैं अनुमान के आधार पर ही कह रहा हूँ, दृढ़ नहीं हो सकता ] |

* अकेले राम ही तो भगवान नहीं है ? वैसे जब भगवानों का ही अस्तित्व काल्पनिक है तो उसी में श्री राम भी आ गए | 'पुरुषोत्तम' राम क्या कुछ कम हैसियत है ? क्यों परेशान हैं ? सबको अपना अपना सहारा लेने दीजिये | या राम का कापीराइट अपने पास रखने का इरादा तो नहीं है ?

* तुम जीवन में ऐसे आये ,
जैसे सुबह की पहली चाये |

* ठीक है कि मुसलमानों पर थोड़ी सख्ती हुई | लेकिन अमरीका के मानवाधिकारी चिल्लाये नहीं | परिणामतः वहाँ 9 / 11 के बाद दूसरी घटना नहीं होने पाई | लेकिन भारत में तो हर घटना के होने के पहले ही ऐ वादी मुसलामानों को क्लीन चिट दे देते हैं |

* गाँव में हम
रहना जानते हैं
रहते नहीं

* चाट खाने में
हमारी लडकियाँ
बड़ी उस्ताद !

* मैं अपनी ही नज़रों का दोष मान तो रहा हूँ | तभी तो कहता हूँ मेरी नज़रों से थोडा परदा कर लिया करो |

* My next book of Poetry collection can be -
Approximate Poetry " निकट कवितायेँ "

* अब बताइए ! कहने में शरम आ रही है | अब मेरे पाँव 'भारी ' हो रहे हैं | सवेरे उठकर दो क़दम चलना तकलीफदेह हो रहा है |

* [ अनिश्चय ]
* आधी आधी रतिया बाबा मान्गाताने पानी ,
हम तो कही बाबा बाबा, बाबा कहें जानी | "
ऐसे लोकगीत रखने वाला समाज क्या 'असभ्य ' रहा होगा ? या सभ्यता के 'अति ' पर ? मेरे लिए तय कर पाना बहुत कठिन, लगभग असंभव है | मैं अपना अनुमान किसी पर थोप नहीं रहा हूँ लेकिन इससे तत्कालीन सामाजिक जीवन की झलक तो मिलती ही है , इसे चाहे जो मानें | क्या हम 'सभ्य ?' जन इस कटु यथार्थ को पचाने में समर्थ हैं ?

गौरैया दिवस को समर्पित - एक कविता : --
* तुम कि जैसे
एक गौरैया
मेरी फुनगी पर
आकर बैठ गयी ,
और मैं
कृतकृत्य होकर
झुक गया |
# #
20/3/13

* हम अजीब पशोपेश में हैं आजकल | हम चाहते तो हैं कि हिन्दू धर्म को आलोचनाओं के तीर से भर दें , उसे  शुद्ध और फिर से पवित्र कर दें | लेकिन मौजूदा स्थिति हमें रोक देती है और कहती इसका साथ अभी इसके अपभ्रंश रूप में ही देना है | वाकयी धर्म भी राजनीति ही तो है | बल्कि, मुख्यतः राजनीति ही है | पूरा दलित आन्दोलन क्या धर्म की राजनीति नहीं है ? धार्मिक सम्प्रदायों में राजनीतिक हिस्से का बँटवारा एक तरह से धर्म भी है, दूसरे तरीके से राजनीति भी है | हम कुछ भी करें अपनी रूचि के मुताबिक, दूसरा काम अपने आप हमसे संपन्न हो जाता है, हम उसे करें, न करें | हम अजीब पशोपेश में हैं आजकल |  

* यदि यह मान लिया जाय की " विद्या ददाति विनयम " तभी मैं विद्यावान होने का आरोप अपने ऊपर स्वीकार कर सकता हूँ | क्योंकि, निश्चय ही , मैं विनयी तो हूँ | भले मेरे पास किताबी ज्ञान का अभाव है |

* मेरा लघु विचारक सदैव इस मत का रहा है कि हमें अपने , अपने विचारों के विरुद्ध भी सोचने का माद्दा / साहस और योग्यता विकसित करना चाहिए | इसका अभ्यास मैं करता भी हूँ | और आज एक अच्छा मौका हाथ लगा जब मैं सभ्यता - असभ्यता , शिष्टता - अशिष्टता पर सोचने लगा | सच बात यह है कि मुझे असभ्य आचरण से अत्यंत चिढ़ है | लेकिन सोचता हूँ - कोई ऐसा व्यवहार क्यों करता है ? आखिर मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि जिस व्यक्ति को , [ और धीरे धीरे वही उसके समाज, जाति - सम्प्रदाय का व्यवहार बन जाता है ], जीवन के सरवाईवल के लिए बहुत ज्यादा मशक्कत, जद्दोज़हद और संघर्ष करना पड़ता है वह सभ्यता का पालन करके जी ही नहीं सकता | उसे कुछ कटु - कठोर - निर्मम किंवा असभ्यता का सहारा लेना ही पड़ता है | मतलब वह सभ्यता के विकसित काल में अशिष्टता का द्योतक हो जाता है | अतः , मेरे ख्याल से इस असभ्यता को सभ्य समाज द्वारा आदरपूर्वक स्वीकार किया जाना चाहिए , क्योंकि यह नितांत सहज और मानवीय ही होता है | क्या मैं ठीक कह रहा हूँ ?  

* हिंदुस्तान में होना 'हिंदुत्व ' है |
(uvach)
यही गर्व और गर्भ वाली बातें ही किसी को हिन्दू होने नहीं देती | हिन्दू होने की कोई शर्त हिंदुत्व विरोधी है |


[ First poem,  by ---  Ambi ]
* दुनियां सुंदर हैं,
पर ज़िन्दगी क्रुर हैं|
हम महान के आगे सर झुकाते हैं,
और गरीब हमारे आगे|
[Ambi is my grand daughter]

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