सोमवार, 25 मार्च 2013

Nagrik Blog 24 March 2013


* लोग धन संपत्ति हथियाने के पीछे पड़े हैं हाथ धोकर | क्या वे यह नहीं जानते कि सारी गैर बराबरी  तो धन संपत्ति के कारण ही है ?

* बड़ी मुश्किल बात है | मानववादी होने पर भी मुझे आलोचनाएँ झेलनी पड़ रही हैं | लोग कहते हैं - क्या जानवरों का कोई मूल्य नहीं ? भाई , जब मैं मनुष्यवादी हुआ तो क्या पशुवादी नहीं हुआ | क्या मनुष्य कुछ कम जानवर है ? दो चार के बराबर तो अकेले मैं ही हूँ |

* साहित्य , यदि वह है , तो उत्कृष्ट ही होगा | वरना वह साहित्य ही नहीं होगा | साहित्य कभी दलित - पतित - नीच नहीं होता | उसका विषयवस्तु कुछ भी हो सकता है | इसलिए मेरे दलितीय सवर्ण मित्र जानते हैं - मैं " स्वघोषित दलित साहित्य " नहीं पढ़ता |
उग्राः = Ulti Ganga Rationalist Association & Humanists .

उग्राः = Ulti Ganga Rationalist Association & Humanists .
और जो बहुत ठोंक बजा कर बियाह करते हैं वाही कौन से खुशी के तीर मार लेते हैं ? बाद में झंखते हैं, कहें न कहें | स्त्री एडजस्ट करती है तो पुरुष भी एडजस्ट ही करते हैं | यह दुनिया किसी को उसकी मनचाही पूरी नहीं देती | दुःख ही है यह जीवन | सुख केवल संतोष में ही है | भाई ने निजी बात की , तो मैं भी बताऊँ कि मैं पूरी तरह असफल विवाहित हूँ [ 15 साल की उम्र से ] | मेरी कभी नहीं पटी पत्नी से, और इसे सभी जानते हैं | दो बच्चों को फिर भी पाल कर नाती पोते वाला बना, और वे ही खुशियों के कारण बने हैं | इतना झेलने के बाद मेरी मानवीयता यह कहती है - कितना  
अमानवीय होता है सौ में से 99 लड़कियों को रिजेक्ट करना ! स्त्री के साथ यह त्रासदी क्यों नज़र नहीं आती ? घबराईये मत कभी बच्चे अपने जैविक माँ बाप को भी तलाक़ देकर अपने मनपसंद माँ बाप चुनेंगे | उनकी सारी रिश्तेदारी उनकी मित्र मंडली में सिमट ही गयी है, वे अपने मौसा मौसी , चाचा ताई सब बाहर सेलेक्ट करेंगे |

* John Milton - They also serve who only stand and wait .
जाफर भाई, यह प्रश्न आपने बड़ी निश्छलता से उठा तो दिया लेकिन इसके बड़े चिंतनीय निहितार्थ है [ दार्शनिक :-)  ?  यह एक बीमारी रही है सभ्यता की कि वह आदमी को बड़ा भला, कर्मशील, किसी के लिए जीने, कुछ कर गुजरने की प्रेरणा देने के चक्कर में सदैव रहा | इसने और कुछ किया या नहीं पर मनुष्य का चैन सुकून अवश्य छीना | ध्यान दें - इसी चक्कर में सरे धर्म पैदा हुए और कुछ अंतरराष्ट्रीय ism और वाद | अब आगे मैं लोगों को अप्रसन्न करने के लिए क्यों कहूँ कि इन्होने आदमी का जीवन अत्यंत जटिल और नर्क बना दिया | क्या आदमी को वह जैसा है अच्छाई बुराई, कर्मण्यता - अकर्मण्यता के साथ स्वीकार नहीं कर सकते ? क्यों ऐसा दर्शन नहीं उठ खड़ा होता जिसमे आदमी का हर हाल में सम्मान हो | जैसे ही हम मनुष्यता का कोई उच्च स्केल बनाते हैं, आदमी अदना और नीच हो जाता है | एक मनुष्य दूसरों को " कीड़े मकोड़े " समझने लगता है और फिर वही, जैसा पहले कहा - " महान ?" धर्मों / कथित संस्कृतियों / ब्राह्मण वादियों का उदय और [ मैं तो कहूँगा ] उनके कुकृत्य - - - इसलिए सबको मनुष्य मानें , और विश्वास करें --              
" They also serve who only stand and wait " |

* मैंने सब कुछ ईश्वर पर छोड़ दिया , और निश्चिन्त हो गया | ईश्वर को भी छोड़ दिया | ये sublimation और अत्यंत उच्च अनुभव और समर्पण की बातें हैं | मुझे दुःख है कि बचपनी आस्तिकता अतिशीघ्र प्रतिकूल टिप्पणियाँ जड़ देती है , जब कि यह उत्तरोत्तर आध्यात्मिक अभ्यास का विषय है | नास्तिकता इतनी निम्न स्थिति नहीं है जितना लोग इसे आसानी से करार देते हैं | to anshuman pathak
कहीं पढ़ा होगा आपने , नहीं तो कहीं पढ़ेंगे कि " जहाँ सारे संशय , प्रश्न - प्रतिप्रश्न समाप्त हो जाते हैं - - - - -  | " आप में जिज्ञासा शेष है यह ठीक है , जब वह मिट जायगा तब आप आस्तिक हो जायेंगे या नास्तिक | मेरे लेखे दोनों में भेद नहीं है | मेरे पास मेरा ईश्वर है, वह सृष्टि का सम्पूर्ण वांग्मय है, और मेरी अनुभूति - मेरा ज्ञान विवेक | अविश्वास उस पर करता हूँ जिस रूप में सामान्यतः उस पर अन्धविश्वास किया जाता है और दीन दुनिया उसकी आंड में अमानवीय बनाया जाता है | विरोध स्वरुप मैं ईश्वरवादी के बजाय मनुष्यवादी हूँ | व्यापक Humanist Movement में हूँ | बहुत से लोग हो चुके हैं, हैं, और होंगे | अभी, पहले काई तो साफ़ हो | जिसे बुद्ध, कबीर , सुकरात , कृष्णमूर्ति आदि ने - - - |


* लोकमान्यता में यद्यपि इसकी उलट समझ व्याप्त है फिर भी सभ्य भाषा में कहना चाहिए = " यादव जन सों तैने कहिये , सबको जो बेवकूफ कहे " | यादव महाशय , मनुष्य का मनोविज्ञान इतना सरल नहीं है कि आप कह दें और वह गाली मुक्त हो जाय | सभ्यता आज इस पड़ाव पर वैसे नहीं पहुंची है | अभी देखिये आप को "बेवकूफ" जैसी गाली का सहारा लेना पड़ा या नहीं ? ज़रा और ठीक से दिए होते तो आपका " मन और हल्का " हो जाता ! होली में अवेश बुरा भी नहीं माँ सकते थे  | यही लाजिक है गलियों का |


[ अपरिचय ]
मैं सोच रहा था कि परिचय क्या होता है ? क्या किसी का परिचय नाम पता पढ़ाई नौकरी से ज्ञात होता है ? बिलकुल नहीं | जब तक यह न पता चले कि व्यक्ति की conditioning , बनावट कैसी हुई है | उसका सामान्य व्यवहार, Attitude क्या होता है ? किस बात पर वह किस तरह प्रतिक्रिया करेगा , तब तक उसका परिचय [ यद्यपि यह भी आंशिक ?] प्राप्त नहीं होता | और इसमें उसके वंश जाति धर्म राष्ट्र की प्रभावी भूमिका होती है | संभवतः इसीलिये विभाजनकारी संस्थाएँ समाज में गहराई से विद्यमान हैं क्योंकि ये व्यक्ति के किंचित स्वभाव को परिलक्षित करती हैं | इसमें बुरा मानने की कोई बात नहीं है | इनके दायरों से व्यक्ति बाहर निकल सकता है और उसकी परीक्षा इस बात से होगी कि यदि मैं ईश्वर की आलोचना करूँ तो आप का चेहरा कैसा बदलता है , क्या रंग लेता है ?

* अगर भगवान को मानते हो तो एक शर्त है --
" सब बराबर हैं " , यह भी मानो |
[इसीलिये भगवान का होना असंभव है | वही तो मुझे कहना था | शर्त लगाना तो बहाना था | ]

* न मानते हुए भी मानना ( मानने का नाटक करना )    = आस्तिकता  $
मानते हुए भी न मानना ( न मानने का नाटक करना ) = नास्तिकता ?

* लोग हवा में तीर चलाते हैं
और समय के वीर कहाते हैं ,
जो चिड़िये की आँख देखते हैं
मौलिक वे रणधीर कहाते हैं |

[कविता ]
* फूल की मालाएँ
उनकी गर्दन के
आर-पार हुयीं |
# #
[ यह एक अच्छी, सूक्ष्म कविता है | ज़रा ध्यान से पढ़कर फिर बोलियेगा ]

* विज्ञानं को चाहिए की वह अध्यात्म के विषयों को भी अपना कार्यभार बना ले | खबरें आ रहीं हैं, हो भी रहा है यह काम | सपनों  पर शोध हो रहें रहे हैं, शायद भूतों पर भी | नतीजे सार्वजनिक होने चाहियें | ग्रह दशा राशिफल वगैरह ! हिंदुस्तान में तो नेक बहुत बड़ा काम है यह नकारना कि जातिगत अनुवांशिकी से व्यक्ति / मनुष्य नीच ऊँच होता है | यह कह तो दिया हमने लेकिन इसमें अनेक पेंच पैदा हो जायेंगे | उस शोध संस्थान में कितने ब्राह्मण कितने दलित वैज्ञानिक हो , इत्यादि | यहाँ तो यही समस्या है कि डाक्टर , वैज्ञानिक , शिक्षक , इञ्जिनिअर सभी पहले अपनी जाति के होते हैं | फिर शोध क्या खाक करेंगे | ऐसे मसलों कि आउटसोर्सिंग कर डी जनि चाहिए | बहरहाल उद्देश्य यह कि विज्ञानं को हमारे जीवन में व्यवहृत होकर उतरना चाहिए | ज्ञान हमारा धर्म बनना चाहिए | ऐसा तभी होगा जब विज्ञानं सभी प्रश्नों के उत्तर दे | अभी तो हम लंठई से काम चला रहे हैं कि तंत्र मन्त्र - टोना टटका , भूत प्रेत नहीं मानेंगे | अब इतनी तो आसानी है कि hypothesis कोई अवैज्ञानिक तो नहीं है, न ही परिकल्पना, न विज्ञान फिक्शन | फिर जगत को विज्ञानवादी होने में देर क्यों ?  

* एक बात और मस्तिष्क में आती है | राज्य अपने निवासियों की हिन्दू - मुस्लिम , या जाति के आधार पर गणना कर , उन्हें विभाजित रूप में मान्यता प्रदान कर स्वयं उनका जीवन खतरे में डालती है | और फिर खतरा पड़ जाने पर उनकी मदद में सामने आने का नाटक करती है | चूँकि सरकार अपनी जनता को इन विविध रूपों में पहचानना चाहती है तो जनता भी उन पहचानों से अपने को जोड़े रहती है और तब अन्य समूहों की आँख में किरकिरी बनती है | तब आता है अल्पसंख्यक - बहुसंख्यक का प्रश्न और फिर गन्दी राजनीति का सिलसिला | अभी म्यांमार में पहले एक बौद्ध मारा गया, फिर बौद्धों ने अनेक मुस्लिम घर जलाये चाहे वे दोषी थे या नहीं | यह जातीय पहचान का संकट है | यद्यपि समस्या इतनी सरल नहीं है , फिर भी राज्य को अपने नागरिकों को व्यक्तिशः पहचानना चाहिए और व्यक्तिगत स्वतंत्रता आदि अधिकारों की रक्षा करनी चाहिए | क्योंकि यह व्यक्ति ही है जो राज्य के अधीन अपने कर्तव्यों का पालन करता है, न की कोई जाति, समूह, या धार्मिक सम्प्रदाय |

* हिन्दू धर्म के खिलाफ मैं भी हूँ | लेकिन इसकी मुखालिफत मैं क्या करून ? यहाँ तो हर हिन्दू ही हिन्दू के खिलाफ युद्ध रत है | परसुराम [ब्राह्मण ] क्षत्रिय वंश का नाश करने पर तुले हैं | धोबी सीता रानी को राजमहल से निकाले दे रहा है | वशिष्ठ विश्वामित्र आपस में जोर आज़माइश कर रहे हैं | कौरव पांडव अलग महा भारत छेड़े हुए हैं | रावण के पूजने वाले रामभक्तों से ताने हैं | और अब देखो - दलित  पिछड़े और ब्राह्मण आपस में गुत्थमगुत्था हैं | ऐसे में मेरे लिए बचता क्या है जो मैं हिन्दू धर्म का विरोध करूँ ?

* ऊर्जा [Energy]
* इस शब्द की याद एक संस्था - संगठन - कार्यक्रम के रूप में आई | जब अन्नान्दोलन पर चर्चा हो रही थी तो एक विचार यह भी था कि नौजवानों की ऊर्जा का इस्तेमाल सकारात्मक कार्यों में लगाया जाये तो ऐसे आदोलनों की भीड़ बनने से वे बाज़ आयें | फिर इसी के साथ अपना निजी प्रसंग भी जुड़ा जब अस्सी के दशक में जब हम अपने तीसवीं उम्र में थे और ऊर्जा से युक्त | तब हम कुछ सक्रिय युवा टोलियों से जुड़े | हमारी ऊर्जा का भी तब गलत इस्तेमाल हुआ या सही यह समीक्षा का विषय नहीं है | लेकिन युवाओं की ऊर्जा को सामाजिक नवनिर्माण के खेत में जोतना तो एक समस्या तो है ही | अन्यथा उसका गलत दिशा में स्थानांतरण स्वाभाविक है |

* कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं यह जो LIVE IN relationship की वकालत कर रहा हूँ , वह मेरी अपनी स्वार्थ प्रेरणा की उपज हो ? वह यह कि तब न बहू आयेगी, न हम सास ससुर बनेंगे, न हमारी हैसियत अपने ही घर में गिरेगी, न हम ठेल कर बरामदे में किये जायेंगे | न हमारी औलाद हमारे हाथ से निकलेगी | क्योंकि अभी तो बहुरिया के आते ही लड़के उसके वश में हो जाते हैं , और उसी के कहने पर चलने लगते हैं | जिसके कारण सास ससुर देवर ननद कि हालत पतली हो जाती है | इसलिए भैया यही ठीक है कि लड़के लोग बिना विवाह ही किसी को ले आयें और उसके साथ रहें | चाहें तो पूरा जीवन रहें पर वह हमारे घर पर राज तो नहीं करने पायेगी ?  

* शुद्र होने का सारा श्रेय केवल जन्मना शूद्रों के पास ही नहीं है | जन्मना सवर्ण भी आपस में शुद्र - सवर्ण खेला करते हैं | जैसे दामाद जी ब्राह्मण तो साला शूद्र | उसे जीजा का आदर सत्कार करना, पैर छूना लाजिमी है | लड़के वाले बाह्मण तो लड़की वाले शाश्वत शूद्र | उसे समधी के पैरों पर पगड़ी रखनी ही है | औरतों में सास , जिठानी ब्राह्मण, तो छुटकी देवरानी शूद्र | उसे उनके सेवा करनी ही है | इस प्रकार हम देखते हैं कि शूद्र और ब्राह्मण की प्रथा हर एक समूह में है | इस पर हमारे जन्मना शूद्रों को इतराने का कोई कारण नहीं है |  

* निश्चय ही दलित अपनी पहचान बनाते जा रहे हैं - अलग , नयी , ब्राह्मणों से पृथक | जिससे कोई ब्राह्मण अपमानित होने के भय से उनके निकट नहीं बैठने पाए | वैसे ये इसके लिए ब्राह्मणों को मना तो नहीं करते ? ब्राह्मणों की खुद की हिम्मत न पड़े तो इसमें इनका क्या दोष ? ब्राह्मणों ने तो इनको छूने से मना किया था न ! इसलिए वे दोषी थे, महँ अपराधी थे | लेकिन हमारे सामने परिणाम तो दोनों समान हैं | दोनों एक दूसरे के बराबर न तब बैठते थे , न अब बैठते हैं |

* पुराने ज़माने की तरह अब युद्ध में विषकन्याओं की ज़रुरत नहीं है | अब तो राजनीतिक द्वंद्व में 'विष- बोल ' कन्यायें चाहियें | कन्यायें जो प्रेस के समक्ष बोल भर दें कि अमुक राजनेता ने हमारे साथ ऐसा वैसा किया था |

[ जैसे को तैसा - Tit for Tat ]
* जैसे आप लोग ईश्वर को मानते हो | और आप लोगों में भी यह भाई साहब कुछ मानते हैं और वह बहन जी उसे किसी और तरह से मानती हैं |
उसी प्रकार हम , और हम लोगों में भी , ये इस तरह और वे उस तरह से , यानी सब अपनी ही तरह से ,  ईश्वर को नहीं मानते हैं | न आपके पास ईश्वर को मानने का कोई वैज्ञानिक कारण है , तो उसी प्रकार आप हमसे भी ईश्वर को न मानने का कारण न पूछिए | जब आपके पास कोई लाजिक नहीं तो हमसे भी आप किसी लाजिक की अपेक्षा न करें |

* Special majority we are . We, the humanists, Godless atheists, nonreligious rationalists .


Girijesh Tiwari via Himanshu Kumar
Himanshu Kumar -
महान विचार बदल जाते हैं
सस्ते चित्रों में

भगत सिंह बदल
जाता है
कार के पिछले शीशे पर चिपकाने
के एक स्टीकर में

उसकी सारी हिम्मत
और प्रेम
बदल दिया जाता है
एक पिस्तौलधारी
लड़के के कलेंडर में

गांधी
बदल जाता है
एक खादी के कुर्ते में
या चरखे में
पद में
या सम्मान दिलाने वाले एक साधन में

जीसस बदल जाता है
एक शानदार चर्च में लगे सोने के
क्रोस में

मुहम्मद
बदल जाता है
बकरे की गर्दन काटने की रस्म में

सदियों का सारा परम्परागत ज्ञान बदल
जाता है
कुछ कर्म कांडों में

मनुष्य के मनुष्य होने के लिये बनाये गये सारे नियम बदल जाते हैं
एक साम्प्रदायिक नाम में
और उसका रोज़मर्रा के जीवन में कोई भी दखल
इस चालाकी से समाप्त कर दिया जाता है
कि इंसान उनसे बच कर फिर से
लालच और जानवराना व्यवहार के साथ जीता रहता है
सारे पर्यावरण और समाज के साथ दुश्मनों की तरह

आपका सारा ज्ञान बदल जाता है
आपको ज्यादा ढोंगी
बनाने में
जिससे आप
अपने
स्वार्थी
और मतलबी व्यवहार को
अपने सभ्य होने के बहाने में
छिपा लेते हैं

आपके चारों तरफ
मेहनत करने वाले जब
भूखे घुमते हैं
और आप
आराम से बैठे बैठे
अमीर बने होते हैं
तब आप बातें करने लगते हैं
मार्क्स की
जिससे
आज और अभी कुछ भी ना करना पड़े"
# #

* झूठ के बल पर इश्क हकीकी ?
बेहतर सच्चा इश्क हबीबी |

[ गीत -- देखूँ तो ]
* खबर थी वह अतिशय सुंदर है , मन में आया - देखूँ तो !
उन पर मर मिटने से पहले , सोचा - उनको देखूँ तो !

[कव्वाली ]
* एक घर था बनाना मुझे , मैं डिज़ाइन बनाता रहा ,
आपको था रिझाना मुझे , बीन ही मैं बजाता रहा |

* चिट्ठी तो मिल गई थी , मुझको भी यह पता है ;
फुर्सत न मिली होगी , पढ़ने की - क्या खता है ?

* सफ़र तो क्या भला मुझसे ज़रा भी खाक हुआ ,
इसकी तैयारियों में ही समय का नाश हुआ |

* सच है बहुत दिनों से वह नाराज़ हैं मुझसे ,
मुझे खुशी है वह अब भी मुझे पहचानते हैं |

* ज़रा मुस्कराकर छिड़क दो नमक तुम ,
कि मुँह घाव का बेमज़ा हो रहा है |
[अज्ञात ]

* मजदूरों को रोज़गार क्यों मिले जब उन्हें काम से ज्यादा हड़ताल करना है ?

* सफ़ेद अंगोछा लेता हूँ तो बड़ी जल्दी गन्दा हो जाता है | रंगीन लूं तो उसका रंग उतरता ही जाता है, उतरता ही जाता है !

* कपडे बदलते समय कुछ न कुछ अंग कहीं खुल ही जाते हैं |
[uvach]

* Let us doubt over our caste .
Over our religion ,
Over our God .

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