कोई विचार जब धर्म बन जाये तो उससे दूरी रखना ही श्रेयस्कर । दूरी रखने या अलग रहने से मेरा आशय यह नहीं कि उससे हम कोई उपयोगी रास्ता उनसे न लें । बल्कि यह कि उनकी आलोचना- निंदा के पचड़े में न पड़ें । तारीफ़ तो कर दें लेकिन बुराई करने से दूर रहें वरना आदमियों में दूरियाँ बढ़ेगी। लोगों से सम्पर्क में उनसे अन्य विषयों पर चरचा करें, धर्म खासकर सामने वाले के धर्म पर तो बिल्कुल नहीं ।
क्योंकि आख़िर सामाजिक समरसता भी तो एक उच्चकोटिक विचार है ?
वस्तुतः होता क्या है कि धर्म निगोड़ी ऐसी चीज़ है जो मनुष्य के जन्मते ही व्यक्ति की अपनी/परायी हो जाता है (यदि धर्म को secular/ व्यक्तिगत बना लें तो भी), जिससे पिंड छुड़ाना सबके लिए मुश्किल होता है । आपके लिए आसान है क्या ? फिर कैसे उम्मीद करते हैं कि दूसरा उससे विमुक्त होगा?
यह समझदारी की माँग है ।
इसलिए नास्तिकता की आलोचना कर लीजिए, वामपंथ को गाली दे दीजिए, अंबेडकर और संविधान की शल्य क्रिया कर लीजिए, क्योंकि ये धर्म नहीं बने हैं और इसीलिए इन्हें धर्म कहने का विरोध भी हो रहा है, लेकिन यीशु, मुहम्मद, कृष्ण, बुद्ध को कुछ मत कहिये। इन्हें पौराणिक ही सही, काल्पनिक कहानियों का साहित्यिक सरोकार समझ जीवन का आनंद लें। अन्यथा आपके बंधु मनुष्य मित्रों के मन को ठेस लगेगी/ लगती है । और करें भी क्यों ? करके कुछ हासिल न होगा । इतने दिनों के धर्मविरोधी अभियान तो इनके अप्रभावी होने का अनुभव देते हैं । तो इससे लाभ लिया जाय और कान को थोड़ा मानववादी तरीके से घुमाकर पकड़ा और फिर ऐंठा जाय । ये अपनी मौत मरेंगे, मरें तो मरें, विज्ञान की गति के आलोक में । इन्हें चिढ़ाएँगे तो बंदरिया मरे हुए बच्चे को और कसकर सीने से चिपका लेगी । सड़ांध और फैलेगी । (उग्रनाथ)
उग्रनाथ'नागरिक'(1946, बस्ती) का संपूर्ण सृजनात्मक एवं संरचनात्मक संसार | अध्यात्म,धर्म और राज्य के संबंध में साहित्य,विचार,योजनाएँ एवं कार्यक्रम @
मंगलवार, 24 मार्च 2020
धर्म की निंदा
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें