* [ तेरे कपड़ों पर दाग ]
इस विचार का फलक इतना बड़ा और व्यापक है कि समझ नहीं आता कहा से शुरू करूँ | थकान के कारण लिखना स्थगित कर सकता था लेकिन यह विषय ज़रूरी भी है | तो, थोडा मनोरंजक प्रारंभ देते हैं | आप भुक्त भोगी न हों तो अखबारों में पढ़ा होगा - बैंक से पैसा निकाल कर झोला साईकिल में तांगा या M / Cycle की डिक्की में रखा | एक लड़का आपसे कहता है - अंकल जी आपके पेंट पर गोबर लगा है | आप देखने के लिए नीचे झुके - लड़का झोला लेकर चम्पत हो गया | कार में ब्रीफकेस रखा - लड़का बताएगा - इंजन से मोबिल आयल गिर रहा है | ज़रूर आप मुवय्ना करेंगे - लड़का आपका सामान लेकर जा चुका होगा | ऐसा ही कुछ कुछ मुझे देश के सामाजिक सांकृतिक जीवन में घटित होना प्रतीत हो रहा है | मित्र गण विरोधी कमेन्ट करेंगें, और वैसे भी कुछ कविता के क्षेत्र में हूँ तो अतिशयोक्ति हो सकती है | लेकिन इसमें सच्चाई ज़रूर है | यदि वह "सावन के अंधे" वाला मुहावरा सही है तो यह मुहावरा भी सही होना चाहिए कि - अमावस को अंधे को सारा अन्धकार ही दिखाई देता है | भारत के [ कुछ ज्यादा] शिक्षित वर्ग को भारत के हर रीति रिवाज़ परंपरा इतिहास संस्कृति में दोष ही दोष नज़र आता है - जैसा तमाम लेखों से विदित होता है | तुमने होलिका जला ली, राम ने सीता को निकाल दिया , शम्बूक वध कर दिया , द्रोपदी को नंगा कर दिया, नचनियां कृष्ण तो भ्रष्ट था, द्रोण ने एकलव्य का अंगूठा काट लिया ? कितना नीच है रामायण महाभारत गुरु और तुम्हारे भगवान् | तुम लोग तो गाय भी खाते थे कमीनो ! अब चले हो हिन्दू संस्कृति की बात करने ? छी छी ! दलितों के साथ यह व्यवहार ? कान में पिघला सीसा और जिह्वा की कटिंग ? तुम सारे हिन्दू तो ढंग से पैदा ही नहीं हुए | कोई मुंह से बहार आया तो कोई पैर से पैदा हुआ - हा हा हा हा ! नालायक तू गुलाम बनने के हिलायक हो |
तो लीजिये अब तो हिन्दुस्तान कहीं का नहीं रहा | यहाँ एक मनोविज्ञान की बात उठा रहा हूँ, भले मेरा विषय नहीं | जो जानते हों वे इसे करेक्ट कर लें | यदि किसी बच्चे को लगातार कहा कीजिये - तुम नालायक हो आलसी , दुष्ट बदमाश और कमीने | तो वह कुछ दिन में वैसा ही हो जायगा | इसी तर्क पर मैंने हमेश विरोध किया की मुसलामानों पर शक ण करो उन्हें देशद्रोही वगैरह मत कहो, इससे उनका दूषण होगा | उलट यदि कहें - शाबाश मेरे बेटे, बहुत अच्छा बच्चा है, आगे और अच्छे नम्बर लाएगा - शाबाश ! तो यकीन मानिये वह लायक ही बनेगा, कुछ कमी भी होगी तो वह सुधार लेगा आपके प्रोत्साहन से |
हिन्दुतान में गड़बड़ी नहीं है यह कौन कहेगा ? लेकिन यह भी दुश्मनों की चाल होती है कि आप के हर अंग में वह नुक्स निकालता फिरे | जैसे वही उपरोक्त उदहारण - अंकल जी, आप के पैर तो गोबर से सने हैं | किसी को कमजोर करने का यह भी, और बहुत बड़ा कारगर तरीका होता है | अरे तुम लोग माता पिता के पैर छूते हो ? धिक्कार है ! तभी तो तुम लोग वैज्ञानिक तरक्की नहीं कर पाए | देखो हम लोग सीधे मुँह चूमते हैं, तब दुनिया पर राज करते हैं !
इनके यहाँ कितनी भी हाईआर्की हो , क्लर्क से लेकर कलक्टर तक, सब अनुशासन बद्ध | वह इनकी प्रशासनिक व्यवस्था का कौशल है | लेकिन भारत की ऐसी कोई पुरानी अभी भी हमें गरियाने के लिए और नीचा दिखाने के लिया पर्याप्त है |
हम अपने दोष पर पर्दा नहीं डाल रहे, बल्कि व्यक्तिगत मैं स्वयं प्रखर आलोचक हूँ | लेकिन आलोचना के उत्साह में यह भी नहीं नज़रअंदाज़ कर सकते, यह Rational नहीं लगता सोच के दायरे से बाहर करना, कि इससे हमारा कितना भला हो रहा है कितना नुक्सान ? किसका हित सध रहा है ?यह भी तो देखें ! इससे किसी की साजिश सफल तो नहीं हो रही है ? वह हमारे ऊपर धौंस दिखा कर हमें कमज़ोर तो नहीं कर रहा है , केवल हमारी कमियाँ दिखा कर ? खूब चटक रंग से भद्दे ढंग से पेंट कर उसे दुनिया को दिखाने में भला उसका कोई स्वार्थ सिद्ध तो नहीं हो रहा है ? # #
[ अब और नहीं, अब थक गया ]
* सिर्फ बड़े घरों, खुले माहौल की लडकियाँ ही प्रेम विवाह नहीं करतीं | छोटे घरों की लडकियाँ भी अपने लिए " प्रेम का प्रबंध " कर लेती हैं | देखती हैं बाप की आमदनी कम है, नशेडी है, कई भाई बहन हैं | तो विवाह कैसे होगा ? सो वह भी कुछ प्रेम का जुगाड़ बैठा लेती हैं और भाग जाती हैं | माँ रो लेती है, बाप इज्ज़त बचाने के लिए उसे मार डालने की चीख मचाता है, कुछ दिन बहिष्कार रहता है | फिर सब ठीक हो जाता है | जा लडकियाँ इस शुभ कार्य में पिछड़ जाती हैं उन्हें अपने भाग्य पर रोना पड़ता है | बाप किसी बूढ़े / दुहेजू से ब्याह देता है, जीवन भर कलपने को हो जाता है | फिर भी लोग कहते हैं समाज में बड़ी बुराई आ गयी है | जब की बुराई तो है दस लाख रूपये खर्च करके धूम धड़ाके से ब्याह करने में | वे लडकियाँ भी मायके लौट आती हैं | सब ठीक ठाक ही नहीं होता |
*फिर तो इस पर काम शुरू कर दिया जाना चाहिए | उन्हें प्रिय संपादक में धीरे धीरे डाला कीजिये | अभी ज्यादा नहीं तो इतना अपना भी पुराना ख्याल बता सकता हूँ कि जिन्हें राजनीतिक सेवा में रूचि हो उनके प्रशिक्षण की व्यवस्था भी होनी चाहिए क्योंकि राजनय और राजनीति गंभीर और ज़िम्मेदारी का काम हैं | वोट बटोरने जैसा हंसी खेल नहीं होता वास्तविक शासन कला | उन्हें राज्य प्रमुख की गुरुता में संस्कारित होना चाहिए | उन्हें तमाम किस्म के राजनीतिक सिद्धांत, उनकी समीक्षा, विश्व राजनीति का इतिहास, वर्तमान परिप्रेक्ष्य, भारतीय सामाजिक परिदशा का अध्ययन करना चाहिए | कह सकते हैं यह सब Pol Sc में पढ़ाया जाता है | पर इसे advanced and Practical oriented होना चाहिए | एक संस्था सोची थी - TIDE [ Training in democratic ethics ]. तब यह हर किसी नागरिक के लिए था | और हाँ , एक मजेदार बात \ योजना बता दूँ - मैं अपने गाँव में एतदर्थ मैं एक हास्टल का स्वप्नदर्शी हूँ जहाँ प्रशिक्षु गांधी जी की सलाह के अनुसार ग्राम्य जीवन को करीब से जान समझ सकें | कवि- लेखक - कलाकार - चित्रकार - शोधकर्ता - छात्र भी इस में भाग ले सकते | बहरहाल आप अपनी लिखिए | [ niranjan sharma ]
* चिन्तक वह जो अपने खिलाफ भी सोचने का माद्दा रखे |
वही बड़ा विचारक होगा, जो सबकी ही नहीं अपनी भी बातों की काट छाँट, शल्य क्रिया कर सकेगा |
Shraddhanshu Shekhar
Sartre ne apne hi astitvawadi darshan ko khandit kar communist darshan ko apnaya, ..
Witgenstine ne apni Jagat vichardhara ko baad me khud aswikar kr diya..
Moor ne b apne common sense theory ko baad me khndit kar diya ..
* थोड़ी सी दूरी तो - - " Least distance of Distinct vision "
कहते हैं किसी वस्तु को देखने के लिए उसे आँख से निश्चित दूरी पर रखना ही होता है | तभी उसे स्पष्ट देखा जा सकता है | विज्ञानं में उस दूरी को " Least distance of Distinct vision " कहा जाता है | उससे ज्यादा यदि वस्तु (Object ) को आँखों के करीब लायेंगे तो वह साफ़ नहीं बल्कि धुँधला दिखाई देगा | क्या इस सिद्धांत / उसूल को दलित प्रश्न पर लागू नहीं किया जा सकता ? इस समस्या को जानने के लिए इससे थोडा दूर खड़ा होना ज़रूरी है | यही कारण है कि जो इसके वस्तुतः भुक्तभोगी हैं उन्हें इससे कोई ख़ास परेशानी नहीं है | यही कारण है कि जो दलित जन इससे उबर कर दूर खड़े हैं, अफसर लेखक, अर्थात समृद्ध वर्ग में आ गए हैं उन्हें इसकी पीड़ा अधिक दिखाई देती है | वे इस पर ज्यादा लिखते पढ़ते आंदोलित होते, राजनीति करते हैं |
अतः यहाँ, स्वानुभूत वाला मुद्दा भी स्खलित हो जाता है | वे संवेदनशील कवि - लेखक दलित पीड़ा को बखूबी, बल्कि अधिक शिद्दत से महसूस कर सकते हैं, जो स्वयं इसके भुक्तभोगी नहीं , बल्कि थोड़ी दूरी पर खड़े स्पष्ट दृष्टि से अनुभव कर रहे हैं |
* जब कोई काम न आये
तब मैं आता हूँ
तुम्हारे पास ,
कोई दवा नहीं
कोई इलाज नहीं
तुम्हारे दुःख का मेरे पास
बस मैं आता हूँ
हमदर्द बनकर
चुपचाप खड़ा हो जाता हूँ
सहानुभूति होकर |
जब कोई काम नहीं आता तुम्हारे |
# #
[ गीतांश ]
अब घृणा का पात्र बनना चाहता हूँ |
बहुत झेलीं प्रेम की कसमें तुम्हारी
सह चुके सब प्यार के वादे वृहत्तर ,
- - - - - -
और अब मैं छंद पूरा क्यों करूँ ?
अब नहीं मै सार्त्र बनना चाहता हूँ |
मैं घृणा का पात्र बनना चाहता हूँ |
* [ चुनौती ]
प्यार करो तो
कुछ निकट आओ
दूर न रहो !
* [ टाँका - हाइकु ]
चुनौती यह
प्यार करते हो तो
पास भी आओ
तब तो हम जानें
वरना खाली मूली ?
* सब इंसान
इंसान की औलाद
फिर भी फर्क |
* तुम भी हमें जानो
हम भी तुम्हें जानें
मगर तुम न हमको
मगर हम न तुमको
न देखें, दिखाएँ
न जानें पहचानें |
* कभी वर्तनी बिगड़ गयी ,
तो उच्चारण में दोष कभी |
कहाँ कह सका मन की बातें
तुमसे अपनी सही सही ?
* [ कविता ]
एक चिड़िया है
जिसे पकड़ा न जा सका कभी
पकड़ा न जा सकेगा कभी
नाम है - " आदर्श " उसका |
# #
* [ मेरा संगठन ]
" पाखंडी जीवन " = " पाजी "
= Low , mean , wicked person
* देश की जो दशा है, उसे देखते मैं तो कहूँगा अच्छा किया कम्युनिस्टों, आर एस एस, और आंबेडकर ने जो आजादी की लडाई से अलग रहे | सचमुच, यह तो कोई आज़ादी नहीं, और किसी काम की नहीं |
-----------------
1 - शहीद हुआ
मैं, तो मिली आज़ादी
मज़े नेता के ?
2 - शब्दों के साथ
खेलना अच्छा लगा
हाइकु बना |
3 - मेरी जुबान
सभी बोलने लगे
यह क्या हुआ ?
4 - हँसूगा नहीं
तो जियूँगा मैं कैसे
कोई बताये ?
5 - हाइकुकार
मुझे न कहियेगा
वे खफा होंगे
जो हाइकुकार हैं
और हैं प्रतिष्ठित |
* मुझे नचाओ
नाचना जानता हूँ
मैं सर्वदा ( सदियों ) से |
* मैं क्या, कौन हूँ
कब क्या हूँगा भला
सोचता नहीं |
* हम भी जानें
करीब तो न आओ ,
प्यार भी करो !
* हम भी जानें
प्यार तो करो और
दूर भी रहो !
Least distance of distinct vision
थोड़ी सी दूरी तो - -
* चलो हटो जी
तुम भी बड़े वो हो
क्या करते हो !
* खंडन नहीं
अब किसी बात का
मंडन नहीं |
* मैंने अपनी
जीवन यात्रा लिखी
हाइकु नहीं |
* मन में आता
अब मिली कि तब
वह महिला
मनोविकार आता
स्वीकार करता हूँ |
* कैसे करता
कविता न होती तो,
इतनी बातें
अपने ह्रदय की ,
ढकी छिपी खोलता !
इस विचार का फलक इतना बड़ा और व्यापक है कि समझ नहीं आता कहा से शुरू करूँ | थकान के कारण लिखना स्थगित कर सकता था लेकिन यह विषय ज़रूरी भी है | तो, थोडा मनोरंजक प्रारंभ देते हैं | आप भुक्त भोगी न हों तो अखबारों में पढ़ा होगा - बैंक से पैसा निकाल कर झोला साईकिल में तांगा या M / Cycle की डिक्की में रखा | एक लड़का आपसे कहता है - अंकल जी आपके पेंट पर गोबर लगा है | आप देखने के लिए नीचे झुके - लड़का झोला लेकर चम्पत हो गया | कार में ब्रीफकेस रखा - लड़का बताएगा - इंजन से मोबिल आयल गिर रहा है | ज़रूर आप मुवय्ना करेंगे - लड़का आपका सामान लेकर जा चुका होगा | ऐसा ही कुछ कुछ मुझे देश के सामाजिक सांकृतिक जीवन में घटित होना प्रतीत हो रहा है | मित्र गण विरोधी कमेन्ट करेंगें, और वैसे भी कुछ कविता के क्षेत्र में हूँ तो अतिशयोक्ति हो सकती है | लेकिन इसमें सच्चाई ज़रूर है | यदि वह "सावन के अंधे" वाला मुहावरा सही है तो यह मुहावरा भी सही होना चाहिए कि - अमावस को अंधे को सारा अन्धकार ही दिखाई देता है | भारत के [ कुछ ज्यादा] शिक्षित वर्ग को भारत के हर रीति रिवाज़ परंपरा इतिहास संस्कृति में दोष ही दोष नज़र आता है - जैसा तमाम लेखों से विदित होता है | तुमने होलिका जला ली, राम ने सीता को निकाल दिया , शम्बूक वध कर दिया , द्रोपदी को नंगा कर दिया, नचनियां कृष्ण तो भ्रष्ट था, द्रोण ने एकलव्य का अंगूठा काट लिया ? कितना नीच है रामायण महाभारत गुरु और तुम्हारे भगवान् | तुम लोग तो गाय भी खाते थे कमीनो ! अब चले हो हिन्दू संस्कृति की बात करने ? छी छी ! दलितों के साथ यह व्यवहार ? कान में पिघला सीसा और जिह्वा की कटिंग ? तुम सारे हिन्दू तो ढंग से पैदा ही नहीं हुए | कोई मुंह से बहार आया तो कोई पैर से पैदा हुआ - हा हा हा हा ! नालायक तू गुलाम बनने के हिलायक हो |
तो लीजिये अब तो हिन्दुस्तान कहीं का नहीं रहा | यहाँ एक मनोविज्ञान की बात उठा रहा हूँ, भले मेरा विषय नहीं | जो जानते हों वे इसे करेक्ट कर लें | यदि किसी बच्चे को लगातार कहा कीजिये - तुम नालायक हो आलसी , दुष्ट बदमाश और कमीने | तो वह कुछ दिन में वैसा ही हो जायगा | इसी तर्क पर मैंने हमेश विरोध किया की मुसलामानों पर शक ण करो उन्हें देशद्रोही वगैरह मत कहो, इससे उनका दूषण होगा | उलट यदि कहें - शाबाश मेरे बेटे, बहुत अच्छा बच्चा है, आगे और अच्छे नम्बर लाएगा - शाबाश ! तो यकीन मानिये वह लायक ही बनेगा, कुछ कमी भी होगी तो वह सुधार लेगा आपके प्रोत्साहन से |
हिन्दुतान में गड़बड़ी नहीं है यह कौन कहेगा ? लेकिन यह भी दुश्मनों की चाल होती है कि आप के हर अंग में वह नुक्स निकालता फिरे | जैसे वही उपरोक्त उदहारण - अंकल जी, आप के पैर तो गोबर से सने हैं | किसी को कमजोर करने का यह भी, और बहुत बड़ा कारगर तरीका होता है | अरे तुम लोग माता पिता के पैर छूते हो ? धिक्कार है ! तभी तो तुम लोग वैज्ञानिक तरक्की नहीं कर पाए | देखो हम लोग सीधे मुँह चूमते हैं, तब दुनिया पर राज करते हैं !
इनके यहाँ कितनी भी हाईआर्की हो , क्लर्क से लेकर कलक्टर तक, सब अनुशासन बद्ध | वह इनकी प्रशासनिक व्यवस्था का कौशल है | लेकिन भारत की ऐसी कोई पुरानी अभी भी हमें गरियाने के लिए और नीचा दिखाने के लिया पर्याप्त है |
हम अपने दोष पर पर्दा नहीं डाल रहे, बल्कि व्यक्तिगत मैं स्वयं प्रखर आलोचक हूँ | लेकिन आलोचना के उत्साह में यह भी नहीं नज़रअंदाज़ कर सकते, यह Rational नहीं लगता सोच के दायरे से बाहर करना, कि इससे हमारा कितना भला हो रहा है कितना नुक्सान ? किसका हित सध रहा है ?यह भी तो देखें ! इससे किसी की साजिश सफल तो नहीं हो रही है ? वह हमारे ऊपर धौंस दिखा कर हमें कमज़ोर तो नहीं कर रहा है , केवल हमारी कमियाँ दिखा कर ? खूब चटक रंग से भद्दे ढंग से पेंट कर उसे दुनिया को दिखाने में भला उसका कोई स्वार्थ सिद्ध तो नहीं हो रहा है ? # #
[ अब और नहीं, अब थक गया ]
* सिर्फ बड़े घरों, खुले माहौल की लडकियाँ ही प्रेम विवाह नहीं करतीं | छोटे घरों की लडकियाँ भी अपने लिए " प्रेम का प्रबंध " कर लेती हैं | देखती हैं बाप की आमदनी कम है, नशेडी है, कई भाई बहन हैं | तो विवाह कैसे होगा ? सो वह भी कुछ प्रेम का जुगाड़ बैठा लेती हैं और भाग जाती हैं | माँ रो लेती है, बाप इज्ज़त बचाने के लिए उसे मार डालने की चीख मचाता है, कुछ दिन बहिष्कार रहता है | फिर सब ठीक हो जाता है | जा लडकियाँ इस शुभ कार्य में पिछड़ जाती हैं उन्हें अपने भाग्य पर रोना पड़ता है | बाप किसी बूढ़े / दुहेजू से ब्याह देता है, जीवन भर कलपने को हो जाता है | फिर भी लोग कहते हैं समाज में बड़ी बुराई आ गयी है | जब की बुराई तो है दस लाख रूपये खर्च करके धूम धड़ाके से ब्याह करने में | वे लडकियाँ भी मायके लौट आती हैं | सब ठीक ठाक ही नहीं होता |
*फिर तो इस पर काम शुरू कर दिया जाना चाहिए | उन्हें प्रिय संपादक में धीरे धीरे डाला कीजिये | अभी ज्यादा नहीं तो इतना अपना भी पुराना ख्याल बता सकता हूँ कि जिन्हें राजनीतिक सेवा में रूचि हो उनके प्रशिक्षण की व्यवस्था भी होनी चाहिए क्योंकि राजनय और राजनीति गंभीर और ज़िम्मेदारी का काम हैं | वोट बटोरने जैसा हंसी खेल नहीं होता वास्तविक शासन कला | उन्हें राज्य प्रमुख की गुरुता में संस्कारित होना चाहिए | उन्हें तमाम किस्म के राजनीतिक सिद्धांत, उनकी समीक्षा, विश्व राजनीति का इतिहास, वर्तमान परिप्रेक्ष्य, भारतीय सामाजिक परिदशा का अध्ययन करना चाहिए | कह सकते हैं यह सब Pol Sc में पढ़ाया जाता है | पर इसे advanced and Practical oriented होना चाहिए | एक संस्था सोची थी - TIDE [ Training in democratic ethics ]. तब यह हर किसी नागरिक के लिए था | और हाँ , एक मजेदार बात \ योजना बता दूँ - मैं अपने गाँव में एतदर्थ मैं एक हास्टल का स्वप्नदर्शी हूँ जहाँ प्रशिक्षु गांधी जी की सलाह के अनुसार ग्राम्य जीवन को करीब से जान समझ सकें | कवि- लेखक - कलाकार - चित्रकार - शोधकर्ता - छात्र भी इस में भाग ले सकते | बहरहाल आप अपनी लिखिए | [ niranjan sharma ]
* चिन्तक वह जो अपने खिलाफ भी सोचने का माद्दा रखे |
वही बड़ा विचारक होगा, जो सबकी ही नहीं अपनी भी बातों की काट छाँट, शल्य क्रिया कर सकेगा |
Shraddhanshu Shekhar
Sartre ne apne hi astitvawadi darshan ko khandit kar communist darshan ko apnaya, ..
Witgenstine ne apni Jagat vichardhara ko baad me khud aswikar kr diya..
Moor ne b apne common sense theory ko baad me khndit kar diya ..
* थोड़ी सी दूरी तो - - " Least distance of Distinct vision "
कहते हैं किसी वस्तु को देखने के लिए उसे आँख से निश्चित दूरी पर रखना ही होता है | तभी उसे स्पष्ट देखा जा सकता है | विज्ञानं में उस दूरी को " Least distance of Distinct vision " कहा जाता है | उससे ज्यादा यदि वस्तु (Object ) को आँखों के करीब लायेंगे तो वह साफ़ नहीं बल्कि धुँधला दिखाई देगा | क्या इस सिद्धांत / उसूल को दलित प्रश्न पर लागू नहीं किया जा सकता ? इस समस्या को जानने के लिए इससे थोडा दूर खड़ा होना ज़रूरी है | यही कारण है कि जो इसके वस्तुतः भुक्तभोगी हैं उन्हें इससे कोई ख़ास परेशानी नहीं है | यही कारण है कि जो दलित जन इससे उबर कर दूर खड़े हैं, अफसर लेखक, अर्थात समृद्ध वर्ग में आ गए हैं उन्हें इसकी पीड़ा अधिक दिखाई देती है | वे इस पर ज्यादा लिखते पढ़ते आंदोलित होते, राजनीति करते हैं |
अतः यहाँ, स्वानुभूत वाला मुद्दा भी स्खलित हो जाता है | वे संवेदनशील कवि - लेखक दलित पीड़ा को बखूबी, बल्कि अधिक शिद्दत से महसूस कर सकते हैं, जो स्वयं इसके भुक्तभोगी नहीं , बल्कि थोड़ी दूरी पर खड़े स्पष्ट दृष्टि से अनुभव कर रहे हैं |
* जब कोई काम न आये
तब मैं आता हूँ
तुम्हारे पास ,
कोई दवा नहीं
कोई इलाज नहीं
तुम्हारे दुःख का मेरे पास
बस मैं आता हूँ
हमदर्द बनकर
चुपचाप खड़ा हो जाता हूँ
सहानुभूति होकर |
जब कोई काम नहीं आता तुम्हारे |
# #
[ गीतांश ]
अब घृणा का पात्र बनना चाहता हूँ |
बहुत झेलीं प्रेम की कसमें तुम्हारी
सह चुके सब प्यार के वादे वृहत्तर ,
- - - - - -
और अब मैं छंद पूरा क्यों करूँ ?
अब नहीं मै सार्त्र बनना चाहता हूँ |
मैं घृणा का पात्र बनना चाहता हूँ |
* [ चुनौती ]
प्यार करो तो
कुछ निकट आओ
दूर न रहो !
* [ टाँका - हाइकु ]
चुनौती यह
प्यार करते हो तो
पास भी आओ
तब तो हम जानें
वरना खाली मूली ?
* सब इंसान
इंसान की औलाद
फिर भी फर्क |
* तुम भी हमें जानो
हम भी तुम्हें जानें
मगर तुम न हमको
मगर हम न तुमको
न देखें, दिखाएँ
न जानें पहचानें |
* कभी वर्तनी बिगड़ गयी ,
तो उच्चारण में दोष कभी |
कहाँ कह सका मन की बातें
तुमसे अपनी सही सही ?
* [ कविता ]
एक चिड़िया है
जिसे पकड़ा न जा सका कभी
पकड़ा न जा सकेगा कभी
नाम है - " आदर्श " उसका |
# #
* [ मेरा संगठन ]
" पाखंडी जीवन " = " पाजी "
= Low , mean , wicked person
* देश की जो दशा है, उसे देखते मैं तो कहूँगा अच्छा किया कम्युनिस्टों, आर एस एस, और आंबेडकर ने जो आजादी की लडाई से अलग रहे | सचमुच, यह तो कोई आज़ादी नहीं, और किसी काम की नहीं |
-----------------
1 - शहीद हुआ
मैं, तो मिली आज़ादी
मज़े नेता के ?
2 - शब्दों के साथ
खेलना अच्छा लगा
हाइकु बना |
3 - मेरी जुबान
सभी बोलने लगे
यह क्या हुआ ?
4 - हँसूगा नहीं
तो जियूँगा मैं कैसे
कोई बताये ?
5 - हाइकुकार
मुझे न कहियेगा
वे खफा होंगे
जो हाइकुकार हैं
और हैं प्रतिष्ठित |
* मुझे नचाओ
नाचना जानता हूँ
मैं सर्वदा ( सदियों ) से |
* मैं क्या, कौन हूँ
कब क्या हूँगा भला
सोचता नहीं |
* हम भी जानें
करीब तो न आओ ,
प्यार भी करो !
* हम भी जानें
प्यार तो करो और
दूर भी रहो !
Least distance of distinct vision
थोड़ी सी दूरी तो - -
* चलो हटो जी
तुम भी बड़े वो हो
क्या करते हो !
* खंडन नहीं
अब किसी बात का
मंडन नहीं |
* मैंने अपनी
जीवन यात्रा लिखी
हाइकु नहीं |
* मन में आता
अब मिली कि तब
वह महिला
मनोविकार आता
स्वीकार करता हूँ |
* कैसे करता
कविता न होती तो,
इतनी बातें
अपने ह्रदय की ,
ढकी छिपी खोलता !
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