रविवार, 3 फ़रवरी 2013

Nagrik Blog = 05 / 02 / 2013 to 07 / 02 / 2013








‎[ हमारी मनुष्यता ]
* हमारी मनुष्यता में यदि कोई खोट या कमी हो तो हमें बताएँ | हम सुधार लेंगे , पाश्चाताप कर लेंगे , शर्मिंदा हो लेंगे , माफी माँग लेंगे | आप बताएं तो !

* बड़ी बड़ी कालोनी के बड़े बड़े स्कूलों में पढ़ने वाले छोटे छोटे बच्चों को जब उनके माता पिता / मम्मी पापा या डैड -मोंम बड़ी बड़ी बसों में बैठने जाते हैं तो बस चलने तक और बहुत दूर आगे चले जाने तक वे हाथ उठा कर हिलाते रहते हैं | मेरा ख्याल [ही ] है की ऐसा उन्हें नहीं करना चाहिए , एक दो बार बॉय कहकर वापस लौट आना चाहिए | ज्यादा हथविदा करने से बच्चों के आत्म विश्वास में कमी आने का अंदेशा है | 

* प्रगति की कोई भी कहानी जनसँख्या की चर्चा के बिना पूरी नहीं हो सकती | इसके नियमन के बिना कोई योजना सफल नहीं हो सकती | लेकिन विडम्बना है कि राजनीति, आधुनिक राज्य तंत्र ही इसमें बाधक है | अद्भुत बात है कि लोकतान्त्रिक प्रणाली इस दोष में अभिवृद्धि करती है | क्योंकि यह संख्या पर आधारित है, जनमत की बहुलता पर | " जिसकी जितनी संख्या भारी " इस समस्या को जटिल बनाती है | इसलिए जिस भी समूह को राज्य पर लोकतान्त्रिक ढंग से कब्ज़ा करना होता है, वह अपनी संख्या बढ़ाना अपना प्रथम कार्यक्रम बनाता है | आश्चर्य नहीं कि मुसलमानों पर ज्यादा बच्चे पैदा करने का आरोप इस कारण सही ही हो | और इसी लक्ष्य को ध्यान में रखकर संघी सुदर्शन प्रत्येक हिन्दू को नौ बच्चे धरती पर भार बढ़ाने के लिए उतारने का शुभ परामर्श देते थे | जनतंत्र के हिसाब से इसमें प्रथमदृष्टया तो कोई दोष नहीं दिखता लेकिन यह कार्यक्रम देश और संसार की जनसँख्या तो बढ़ाता ही है, और इस प्रकार अंतरराष्ट्रीय समस्या आसमान चढ़ती है | गज़ब की शोकजनक बात यह कि तमाम सम्मानित और अपमानित किये जाने वाले विचारक इस का कोई ठोस उपाय बताये बिना ही सामाजिक विज्ञानी बने हुए हैं / बन जाते हैं |
लेकिन मैं , समाज का एक अदना सिपाही इसका एक समाधान बताता हूँ | वह यह कि समूहों में परिवार नियोजन को प्रोत्साहित करने के लिए उनके सदस्यों के वोट की कीमत आनुपातिक ढंग से points में बढ़ा दी जाय | जैसे राष्ट्रपति चुनाव में सांसदों - विधायकों के वोटों के points होते हैं | उदाहरणार्थ मान लिया जाय कि भारत की कुल जनसँख्या एक अरब है | इसमें हिन्दू ६० करोड़ , मुस्लिम २० करोड़ ,सिख ईसाई आदि अन्य जातियाँ १९ करोड़ और सेक्युलर /नास्तिक/ ह्युमनिस्ट [ हुमी] बचे एक करोड़ | तो हिदुओं के ६ वोटों की कीमत एक वोट , मुस्लिमों के एक वोट को आधा वोट , अन्य जातियों के १.९ वोट एक point बनायेंगे | जबकि सेक्युलरों के एक वोट का मूल्य १० पॉइंट हो जायगा | [लागू करते समय इसकी गणित ठीक की जा सकती है ] | यानी प्रत्येक समुदाय के हाथ में १० - १० करोड़ के कीमती वोट होंगे , और अपने वोट की ताक़त से अपनी पसंद की सरकार बना सकेंगें | किसी को इस बात की ग्लानि तो न होगी कि हाय हम तो छोटी सी संख्या में हैं , क्या सरकार बनायें और हमारी क्या कीमत ? सरकार हमारी क्यों सुने जब हम कोई वोट बैंक ही नहीं हैं ? इससे गन्दी वोट बैंक की राजनीति पर रोक लगेगी | राजनीति साफ़ और स्वच्छ होगी | अल्पसंख्यक - बहुसंख्यक का रोग समाप्त होगा | और सबसे बड़ी बात इससे अपने एक वोट के पॉइंट्स बढ़ जाने की व्यवस्था से लोग अपने परिवार कम से कम बढ़ाएंगे और देश की आर्थिक प्रगतिवादी योजनायें सफलता की ओर कदम बढ़ा सकेंगीं | सोचिये सभी जन आगे सोचिये | कोई मेरे अकेले के जिम्मे तो नहीं है यह देश ? और मैं एकला सोचूँ भी तो कितना सोचूँ ?

[ गाना ]
* हाँ , गाना तो होगा ही | 

सृष्टि शास्त्र  के शाश्वत धुन पर 
निशदिन - सबदिन , 
हाँ , गाना तो होगा ही |

इस दुनिया के रंग महल से 
एक न एक दिन 
हाँ , जाना तो होगा ही |

[ शेर ]
* एक मुश्किल सवाल है - तू है ?

एक मन का भुलाव है - तू है ,
एक ख्याली पुलाव है - तू है |

[ जीवन दर्शन ]
Baldeo Pandey
‎" हम आसानी से अवांछित या औसत आदमी को भी स्वीकार कर लेते हैं, तर्क होता है कि और कोई विकल्प नहीं है. असलियत में हम या तो अच्छे विकल्प की तलाश करने का जहमत उठाना ही नहीं चाहते, क्योंकि इस बात में हमारी कोई गहरी दिलचस्पी ही नहीं होती या हममें एक वाजिब विकल्प को देखने की इच्छाशक्ति, नज़रिया और काबिलियत ही नहीं होती और न उसे स्वीकार करने का साहस - आमीन ! "
*[ ugra nath] यह कमजोरी मेरी भी है जिसे मैंने अपनी ताक़त का रूप दिया हुआ है | दार्शनिक बहाना बना कर लिखूँ - तो एक तो " विकल्पहीनता एक वरदान है (ओशो) " | दूसरे, इसके द्वारा मैं औसत आदमी को उसका देय समुचित सम्मान दे पाता हूँ | मैंने पूरा जीवन ही " साधारण मनुष्य को प्रतिष्ठित " करने और साधारणता को जीने में लगा दिया |  मेरा आत्म उदघोष ही था = " विशिष्टता के विरुद्ध मेरी विशिष्ट लड़ाई है " | साधारण से साधारण मनुष्य जो हो सकता है - वह मैं था | छोटा सा छोटा आदमी जो कर सकता है / करके दिखा सकता है , वह मैंने किया / किया करता हूँ | वह भी शान से, हीन भावना रहित | 
और अवांछित ? जनतांत्रिक संस्कृति में मैं विरोधियों के बीच रहने का, कम से कम सैद्धांतिक रूप से तो , कायल तो हूँ ही [ आँगन कुटी छवाय ] | मेरी विपरीतांगी पत्नी, मेरे बाल बच्चे -परिवार-नातेदार , पडोसी-अफसर मातहत चाहे जैसे मिले गुज़ारा किया | अलबत्ता, यह आसान नहीं, दुश्वार कार्य था |  
तथापि बलदेव जी की स्थापना बलिष्ठ है, और पूरी गुंजाइश है कि मेरे गढ़े हुए छद्म की तुलना में उनकी बात में सच्चाई ज्यादा हो | इसलिए उसे एक मील का पत्थर के रूप में लिया जाना चाहिए |अरे हाँ ! आ हा , मज़े की बात मस्तिष्क में आई ! कहीं ऐसा तो नहीं कि मनुष्य एक आवरण - एक केंचुल - एक भुलावे में जीने का आनंद लेना चाहता है ? [ ले चल मुझे भुलावा देकर मेरे नाविक धीरे धीरे - (महादेवी) ] |
इस बात पर एक किस्सा याद आया - यहीं फेसबुक पर ही कहीं पढ़ा था | एक व्यक्ति फूलों के विशाल बाग़ में गया | फूल अच्छे थे | पर यह सोच कर वह उन्हें छोड़ आगे बढ़ता गया कि आगे और सुंदर फूल होंगे | फिर उसे लगा कि वही फूल अच्छा था जिसे उसने पीछे देखा था | वह लौट आया, पर वह फूल उसे नहीं मिला | तब तक उसे किसी ने चुन लिया होता है |


* आजकल कोलकाता में हूँ और दिल्ली का वातावरण गर्म है , तो पिछले वर्ष यहाँ घटी एक घटना की याद आई जो प्रतिगामी कही जा सकती है | एक रिक्शा वाला कुछ द्रुत गति में था कि एक माँ बेटी सामने आ गयीं | उन्हें बचाने के लिए उसने हाथ से किनारे ढकेला तो वे उसे पीटने लगीं | आरोप वही छेड़खानी का था , जो कि सच नहीं था | लेकिन पता नहीं कैसे लोग राहगीरों को संवेदन हीन बताते है, जबकि दर्शकों ने भी रिक्शेवाले की पिटाई की | दूसरे दिन जैसी कि खबर थी रिक्शावाला इस आरोप और अपमान को झेल नहीं पाया तथा आत्मग्लानि से पीड़ित हो उसने घर जाकर रस्सी से लटक कर आत्म हत्या कर ली | जैसा उसका दिन बहुरा - - -

[परिभाषाएँ]
१ - लेखक वह जो पैसे लेकर लिखे, पैसे के लिए लिखे |
२ - अर्थशास्त्री वह जिसे सोते जागते हर समय हर जगह गरीबी ही गरीबी नज़र आये |  
३ - मुस्लिम वह जो अल्लाह की इबादत करे , ईसाई वह जो GOD की Prayer करे | हिन्दू वह जो किसी को भी पूज सकता है |


* मेरे विचार करने, व्यवहार करने का एक ही तरीका है | मैं अपने मित्रों से सीखता हूँ और जब वे उसे भूल जाते हैं तब उन्हें बताता हूँ | 

* यह तो माना ही जाना चाहिए की पिछड़े लोग दलित नहीं हैं |

* साम्प्रदायिकता का सही अनुवाद तो Community ism / Communitism या फिर Communism बनता होना चाहिए ? यह Communalism कैसे हो गया ?

* मैं मार्क्सवाद का ककहरा भी नहीं जानता | वह कहते हैं न, कि आदमी बुराई जल्दी सीखता है ? सो मैं एक मामले में पक्का कम्युनिस्ट हूँ | मैं वर्ग चरित्र का पूरा ख्याल रखता हूँ | 
पता नहीं मैं इतना दरिद्र - सर्वहारा कैसे हो गया कि मैं चाहता हूँ सभी मेरे बराबर, मेरी तरह दरिद्र हों - लगभग बीस हजार माहाना आमदनी पर रहने वाला, यद्यपि हक़ीक़तन तो इससे भी कम पर लोग गुज़ारा कर रहे हैं, अर्जुन सेन जी तो बीस रूपये रोज़ पर |     
तो जैसे ही मैं पाता हूँ कि यह व्यक्ति तो धनिक समृद्ध [पूंजीवादी नहीं कहूँगा क्योकि मैं उसका अर्थ ही नहीं समझा पाऊँगा] है तो मैं उससे किनारा कर लेता हूँ | चाहे वह मेरा सगा भाई, सगा साला, अभिन्न पड़ोसी, सहमती विचारक, सहकार्यकर्ता ही क्यों न हो | एक मर्यादा के भीतर थोड़ी दूरी तो बनाता ही हूँ | वर्ग दोष के प्रभाव में मैं यह भी दरकिनार कर देता हूँ कि अरे यह तो अपने कवि नरेश सक्सेना हैं, प्रगतिशील धर्मनिरपेक्ष नास्तिक कम्युनिस्ट फलाँ फलाँ हैं ? यह तो जावेद अख्तर, सलमान रुश्दी हैं ? अरे तसलीमा नसरीन, और प्रिय प्रियंका चोपड़ा है न ? मैं किसी के पास नहीं फटकता | No lift to rich people | मानव जीवन और इसकी सारी कला विशेषताएँ क्या पैसा जोड़ने के लिए हैं ? धत्तेरे की | भाई के पास नई कार आयी नहीं कि बन्दे ने उन्हें ' बेकार ' करार दिया !        
इसी बात पर याद आना अच्छा लगा की एक [संत या आध्यात्मिक कर्मी  - धार्मिक विचारक न भी कहें तो ] अनुभूतिवादी ईसा मसीह ने कहा था कि सुई के छेद से हाथी तो पार हो सकता है, लेकिन धनी व्यक्ति    स्वर्ग नहीं जा सकता | तो उसका कुछ मतलब होता है और वह मतलब समझ में आता है |

प्यार,इश्वर और भविष्य इन तीनों का कोई अस्तित्व नही है लेकिन पुरी दुनिया इनके पीछे पागल है. जहाँ तक विवाह का सवाल है प्राचीन मानव समाज में इसका कोई अस्तित्व ही नही था. हजारों साल तक मानव बीना विवाह के ही रहता था और रूसो के अनुसार आज से ज्यादा सुखी था. मार्क्स भी परिवार को शोषण का औज़ार मानता था. जहाँ तक सेक्स और प्यार का सवाल है सेक्स एक प्राकृतिक कार्य / आवश्यकता है जबकि प्यार कुछ होता ही नही.असली चीज है दिमाग और हार्मोंस जिनके योग से सेक्स का जन्म होता है. इसिलिया केवल किशोर ही प्यार में पागल होते हैं क्योंकि उस उम्र मै ही हार्मोंस सर्वाधिक सक्रिय होते हैं. प्यार केवल कहानियों और उपन्यासों और कविताओं में मिलता है. प्यार एक प्यारी सि कल्पना का नाम है जिसे आज तक सभी तलाश कर रहें हैं पर यह आज तक किसी को नही मिला है. स्वार्थों के लिए एक दुसरे कि जरोरत प्यार नही एक समझौता होता है. येहि कारण है कि विवाह होते ही प्यार खत्म हो जाता है. सेवन येअर इत्च का नाम तो सुना ही होगा. इसका अस्तित्व ना होने के कारण ही सभी इसके तलाश में रहते हैं जैसे ईश्वर और भविष्य के तलाश में सभी मर रहे हैं.

* महिला आन्दोलनों के दबाव में पुरुष लोग शरीफ तो हो जायेंगे लेकिन देखिएगा, तब औरतें उनकी शराफत का नाजायज़ फायदा उठाने लगेंगी | 

* वाजिब होगा कि इस्लाम अपने सदस्यों को संगीत सुनने की भी मनाही करे | श्रोता न होंगे तो गायक गायेंगे क्या ? माँग और पूर्ति का नियम तो यहाँ भी चलेगा | एक तरफ़ा रोक तो उचित नहीं है | घूस के लेन  देन का मामला भी ऐसा ही है |   प्यार मोहब्बत का मामला भी ऐसा ही है | केवल लड़की को रोको और लड़के को कुछ न कहो अथवा लड़के को रोको और लड़की को नहीं | तो यह तो नहीं चलेगा |
" शिक्षक हौं सगरौ जग के " ऐसे मौलवियों को कौन संगीत कै राग सुनावत ?

* Our Value system  -
Himsa : Kabhi nahi | Terror : No, never | Killing : At no cost |

* The life is all the game of conditioning . The education is about it . The language, the culture, the civilization is all about conditioning of human lives .AC   

* निकलना तो चाहें मगर सब अभी भी 
फँसे तो हो तुम भी , फँसे तो हैं हम भी |

[ कविता ?]
* बाहर निकलो तो जेब /
गाँठ ढीली करनी पड़ती है ,
क्या चरित्र भी ?

* ग़ज़ल बेहतरीन ,
जो ताज़ातरीन 
- - 
- - 

* एक तुम थे 
खून में रचे बसे 
जो बह गए ?

* चोर चोर थे 
बोला मैंने उनको -
मौसेरे भाई !

* जंगल में हूँ 
जानवर की भाँति
जीना होगा क्या ?





कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें