शुक्रवार, 15 फ़रवरी 2013

Nagrik FB 9/10/11/12/13 February 2013

* लगता नहीं है मन मेरा उजड़े दयार में |

* भाइयो थोडा हिंदुत्व को भी वैज्ञानिक होने का दावा पेश करने दिया जाय | युवाओं को मंदिर के कंगूरे पकड़ाने के बजाय उन्हें विज्ञानं अध्ययन की सुविधा दी जाय | क्या करेंगे ? कितने मंदिर चाहिए ? वह भी अयोध्या में , जो मंदिरों से अटा पटा पड़ा है ? अभी तो कुछ लोग जुगुप्सावश जा भी रहे हैं, भव्य मंदिर बनने पर वहां सिर्फ सैलानी जायेंगे | भक्त जनों के लिए तो हनुमान गढ़ी, दशरथ दरबार, सीता रसोई बहुत है |     
तो इसलिए ,सारे ही परिसर को " अयोध्या विज्ञान केंद्र " बनाया जाय | हम दानिश्वर ज़िम्मेदार हिन्दू ऐसी सलाह सरकार को और भाजपा सहित सभी पार्टियों को क्यों न दें , और इसे अमल में लाने का दबाव क्यों न डालें ? क्या सब कुछ साम्प्रदायिकों के ही कहने से चलेगा ? हम रेशनलिस्ट हिन्दुओं की कुछ भी नहीं चलेगी ? तो क्या हिन्दुस्तान भी पाकिस्तान की तरह आतंकियों की गिरफ्त में न आ जायगा ? इतिहास को हम क्या उत्तर देंगे यह भी तो सोचिये ? कि हम मौजूद थे फिर भी गड़बड़ हो गया | इस प्रस्ताव में तो किसी की धार्मिक भावना को चोट भी नहीं है | पत्थर तराशे रखे भी हुए हैं | मुसलमान भी अपना हक छोड़े | सारी ज़मीन समतल कर दी जाय | हाँ , एक विकल्प दिया जा सकता है - विज्ञानं केंद्र का नाम ' श्री सीता राम चन्द्र ' के नाम स्मृति स्वरुप समर्पित किया जा सकता है |

* कुतर्क ज्यादा चल रहा है | कभी कभी ऊब, वितृष्णा होने लगती है | अरे हिन्दू नाम है तो है , गलत सलत ही सही !जैसे भूपट , दिगंबर , श्रीनिवास | क्या वे वास्तव में ऐसे हैं ? फिर हिन्दू के लिए ही हिन्दू होने कि जिद क्यों ? हम तो नास्तिक हैं , तो भी हिन्दू हैं | क्या क्या बदलें ? गलियों, सड़कों, पार्कों, दादा नानी, माँ बाप के नाम , प्रदेश देश नदी समुद्र सबके नाम कहाँ तक अनुकूल करें ? मुसलमान से पूछिए वह मुसलमान क्यों है ? क्या कोई और कौम या व्यक्ति अपने नाम पर इतनी मगजमारी करती है ? यह सारी कायनात, सृष्टि, आग, पानी, दिशाएँ और हवाएँ सब हवा हवाई है | कहीं तो पैर टिकाने की जगह बनाएँ !

* नागरिक संहिता कानून की बात है | एक किस्म के अपराध के लिए एक जैसी सजा सबके लिए | और इसकी मांग तो बहुत दिनों से उठ रही है | अब आप या राव साहेब पटा नहीं किस नागरिक संहिता की बात कर रहे हैं | वह कभी न भी रही हो तो क्या अब नहीं होनी चाहिये ?

* मेरा ख्याल [ ही है, दुराग्रह नहीं ] कि औरतों को बलात्कार से बचने के लिए स्वयं कोई तरीका, कोई रणनीति सोचनी चाहिए | पुरुष तो पुरुष ही हैं | मुझे नहीं लगता इसमें वे ज्यादा सहयोगी होंगे | ज्यादा से ज्यादा वे [ कुछ लोग ] यह कर सकते हैं कि वे बलात्कार नहीं करेंगे, छेड़खानी नहीं करेंगे, कुदृष्टि नहीं रखेंगे | लेकिन वे सबकी ज़िम्मेदारी तो नहीं ले सकते ? अब उस रणनीति में यह भी शामिल हो सकता है कि कभी वे लड़ें, कभी नज़र अंदाज़ करें, कभी सह जाएँ | लेकिन यह मानकर चलें कि यह एक पुरुष का सुझाव है |  

*    कुछ भी हो , आप महिलाओं के चक्कर में इतना क्यों रहते हैं, और वाद विवाद करने - बढ़ाने में  ? यह उनका क्षेत्र है , उन्हें तय करने दीजिये | ज्यादा ज़िम्मेदारियाँ न उठाइए |

* भाइयो थोडा हिंदुत्व को भी वैज्ञानिक होने का दावा पेश करने दिया जाय | युवाओं को मंदिर के कंगूरे पकड़ाने के बजाय उन्हें विज्ञानं अध्ययन की सुविधा दी जाय | क्या करेंगे ? कितने मंदिर चाहिए ? वह भी अयोध्या में , जो मंदिरों से अटा पटा पड़ा है ? अभी तो कुछ लोग जुगुप्सावश जा भी रहे हैं, भव्य मंदिर बनने पर वहां सिर्फ सैलानी जायेंगे | भक्त जनों के लिए तो हनुमान गढ़ी, दशरथ दरबार, सीता रसोई बहुत है |     
तो इसलिए ,सारे ही परिसर को " अयोध्या विज्ञान केंद्र " बनाया जाय | हम दानिश्वर ज़िम्मेदार हिन्दू ऐसी सलाह सरकार को और भाजपा सहित सभी पार्टियों को क्यों न दें , और इसे अमल में लाने का दबाव क्यों न डालें ? क्या सब कुछ साम्प्रदायिकों के ही कहने से चलेगा ? हम रेशनलिस्ट हिन्दुओं की कुछ भी नहीं चलेगी ? तो क्या हिन्दुस्तान भी पाकिस्तान की तरह आतंकियों की गिरफ्त में न आ जायगा ? इतिहास को हम क्या उत्तर देंगे यह भी तो सोचिये ? कि हम मौजूद थे फिर भी गड़बड़ हो गया | इस प्रस्ताव में तो किसी की धार्मिक भावना को चोट भी नहीं है | पत्थर तराशे रखे भी हुए हैं | मुसलमान भी अपना हक छोड़े | सारी ज़मीन समतल कर दी जाय | हाँ , एक विकल्प दिया जा सकता है - विज्ञानं केंद्र का नाम ' श्री सीता राम चन्द्र ' के नाम स्मृति स्वरुप समर्पित किया जा सकता है |

[साथ साथ ]
* रहते रहते ही 
प्यार पनपता है ,
रहते रहते ही 
घृणा उपजती है | 

[ कविता ]
* देखो देखो युधिष्ठिर ,
तुम्हारे पीछे 
एक कुत्ता चल रहा है |
धर्म है -
नाम उसका |
# #

" HYPOTHETICS" can be a good new subject / sreem for philosophy . 
I say that we can and we should theatrically  believe in a hypothetical God > After all our ancestors thought and brought forward the hypothesis of God having create the universe and lives on earth including humans . Now , why should we kill our imagination ? Just don't believe it true , but why not to use its concept in a positive manner for a cultural behavior of human beings ??
Yes , a hypothetical God can enhance religious science , and side by side it would not damage the human minds as a true God does today . I think so |

" A noted science fiction writer Robert J. Sawyer finds it amazing that 500 years after Copernicus, newspapers still publish astrology columns. Reality is what science fiction is all about . According to Sawyer, Science does hold all the answers - we just don't have all the science yet ."
Now , I take a clue from his experience . For us astrology columns would be interesting science fiction and the lack of ' science' would be supplemented by a hypothetical God , who has an ample presence here and does not agree to die or fade out . So let us evolve a theory of an imaginary and " HYPOTHETICAL" God . Right ? ?

So, we are all students of HYPOTHETICS ,. We are all hypotheticians ? We are not atheists ? We believe in a hypothetical God, never to come as true ?? 

* To Sandeep = ठीक है, देखता हूँ मित्र ! कहाँ रखा है , शायद ब्लॉग पर हो | पर यह तो तय है कि मैं सोचते विचरते इस निष्कर्ष पर दृढ़मत हूँ,[ जबकि मैं इसके लिए बड़ी निंदा और लताड़ खाता हूँ कि मैं बहुत जिद्दी हूँ ] कि भारत में दलित राज्य ही भारत का उत्थान कर सकता है , बल्कि अब तो इसका बचना, अस्तित्व में रहना ही इसी प्रकार संभव है | ढूँढता हूँ वह मूल प्रस्ताव | नहीं तो दुबारा लिखूंगा , बार बार लिखूँगा | इसीलिये मैंने आपसे एक बार पूछा था कि f b पर डाली गयी सामग्री का life span क्या है ?    

Pramod Kumar Srivastava
प्यार,इश्वर और भविष्य इन तीनों का कोई अस्तित्व नही है लेकिन पुरी दुनिया इनके पीछे पागल है. जहाँ तक विवाह का सवाल है प्राचीन मानव समाज में इसका कोई अस्तित्व ही नही था. हजारों साल तक मानव बीना विवाह के ही रहता था और रूसो के अनुसार आज से ज्यादा सुखी था. मार्क्स भी परिवार को शोषण का औज़ार मानता था. जहाँ तक सेक्स और प्यार का सवाल है सेक्स एक प्राकृतिक कार्य / आवश्यकता है जबकि प्यार कुछ होता ही नही.असली चीज है दिमाग और हार्मोंस जिनके योग से सेक्स का जन्म होता है. इसिलिया केवल किशोर ही प्यार में पागल होते हैं क्योंकि उस उम्र मै ही हार्मोंस सर्वाधिक सक्रिय होते हैं. प्यार केवल कहानियों और उपन्यासों और कविताओं में मिलता है. प्यार एक प्यारी सि कल्पना का नाम है जिसे आज तक सभी तलाश कर रहें हैं पर यह आज तक किसी को नही मिला है. स्वार्थों के लिए एक दुसरे कि जरोरत प्यार नही एक समझौता होता है. येहि कारण है कि विवाह होते ही प्यार खत्म हो जाता है. सेवन येअर इत्च [ Seven Year Itch ?] का नाम तो सुना ही होगा. इसका अस्तित्व ना होने के कारण ही सभी इसके तलाश में रहते हैं जैसे ईश्वर और भविष्य के तलाश में सभी मर रहे हैं.


  • Ugra Nath इस विचार को बहुत प्रमुखता से प्रसारित करने और आगे बढ़ाने की ज़रुरत है | क्योंकि इससे मानव जीवन की कई निराधार समस्याओं का निदान संभव है | और यदि यह बात हर शिक्षित के पास पहुँच जाय तो उसका तमाम समय प्रेम , ईश्वर और भविष्य के चक्कर में नष्ट होने से बच जाय | इसलिए यह विचारकों और वर्तमान समय के शिक्षकों की महती ज़िम्मेदारी भी बनती है | लेकिन हम लोगों की नकारात्मक सोच यह होती है कि हम विवाद बहुत करते हैं और सार्थक काम बहुत कम | ऐसा नहीं होना चाहिए | हमें अपने दडबों से बाहर विचारों की उपयोगिता और प्रासंगिकता भी देखनी चाहिए अपने वैयक्तिक अहंकार को दर किनार कर | जैसे मान लीजिये मैं अभी ' भविष्य ' के बारे में निश्चित नहीं हूँ | या मान लें कि प्यार कुछ होता भी है भले हार्मोन्स के चलते | तो भी हम क्या यह नहीं देख रहे हैं कि इनके लिए कितनी मारा मारी हो रही है ? तो चिन्तक को , मैं तो मानता हूँ कि शांति को कायम रखने और मानवता को बचाने के लिए कुछ झूठ भी बोलना स्वीकार करना चाहिए | इसी में मानव सभ्यता की भलाई है | संसार संपूर्णतः शुद्ध/ सब्जेक्टिव सत्य पर नहीं चलता | ज्यादा सच तो कभी कभी घातक भी हो जाता है | संभवतः इसीलिये अनुभावियों ने कहा - सत्यम ब्रूयात प्रियं ब्रूयात | मैं फिर दुहराता हूँ | सत्य के प्रति अत्यधिक आग्रह [ सत्याग्रह ] उचित नहीं है | इसलिए सत्य का अधिक प्रचार अनुचित है | वह झूठ उचित है जो मनुष्य की ज़िन्दगी बचाए | सत्य वहीँ तक संभव है जहाँ तक वह मनुष्य के लिए कल्याणकारी हो | हम इसीलिये इतना समय गवां कर नास्तिक हुए क्योंकि हमारे पास इसका माहौल नहीं था | हमें सब कुछ स्वयं करना पड़ा - आग हमें जलाता है जानने के लिए आग को छूना पड़ा , आग में कूदना पड़ा | पर आगे की पीढ़ियाँ तो बचें , हमारे अनुभव से लाभ उठाएँ ? अब यदि कोई कहे कि सत्य ही ईश्वर है , तो सत्यवादी क्षमा करें और हमें गालिया अता फरमाएँ | हम सत्य पर भी विश्वास नहीं करेंगे | तो , प्रमोद जी की तिगड़ी में क्या चौथा खम्भा और जोड़ना पड़ेगा कि सत्य का भी कोई अस्तित्व नहीं है ? हा हा हा !

    Pramod Kumar Srivastava
    सत्य और ईश्वर दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं . इसीलिए कोई कहता है की सत्य ही ईश्वर है तो कोई कहता है की ईश्वर ही सत्य है। इसलिए अगर हम मान लें की ईश्वर नहीं है तो फिर सत्य का अस्तित्व भी खत्म हो जाता है। फिर सत्य के अस्तित्व की बात अलग से कहने की जरूरत नहीं है। सुप्रसिद्ध दार्शनिक देकार्त मानता है की "सत्य स्पष्ट और भिन्न होता है" लेकिन दार्शनिक विको का मानना है की "सत्य वोही है जिसे आपका दिमाग मानता है . सत्य का कोई अलग से अस्तित्व नहीं है। हर दिमाग का सत्य एक दुसरे से अलग होता है। आपके लिए जो घोर असत्य है वोही दूसरे के लिए घोर सत्य हो सकता है।" एक आदमी बेटा पाने के लिए एक बच्चे की बलि चढ़ा देता है क्योंकि उसके लिए वोही सत्य है जबकि आपके लिए वोह घोर अपराध है। इसीलिए रूसो सामान्य इच्छा की बात करता है। कानून बनाने के लिए जो बहुमत कहे वोही सत्य है लेकिन अल्पमत को भी अपनी बात कहने का प्राकृतिक अधिकार है क्योंकि वोह भी सत्य हो सकता है। येही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मूल विचार है जो किसी भी कानून को संसोधित करने का मार्ग प्रशस्त करता है।


    Limit the " RICHES" and welcome the " EQUALITY " .


    * यदि औरतें सर से पाँव तक कपडे से ढकी रहती हैं तो इसमें अमानवीय जैसा क्या है ? और यदि लड़कियाँ ज्यादा खुले बदन रहती हैं तो इसमें अश्लील क्या है ? क्या तुम मानव शरीर को नहीं जानते ?


    यही तो वितंडावाद है जिसमे आप अग्रणी हैं | इसीलिए मुझे याद नहीं कि कभी मैंने आपके पोस्ट पर टिप्पणी की हो | यह तो मेरे लिखे पर आपने कमेन्ट किया तो लिख रहा हूँ | आपकी सहमति नहीं है तो मत कीजिये समर्थन | यही दिक्कत आप के साथ है कि आप विद्वान तो निश्चित हैं और प्रशंसा योग्य, लेकिन - - - cut -  | अब यही देखिये | इतनी बड़ी समस्या है और आपको  हा हा हा  
    हँसी सूझ रही है | इसी बल बूते पर आप देश चलाएँगे | मैंने तो केवल गुंजाइश छोडी है समस्या को हल की परिणति तक पहुँचाने के लिए, पसंद मुझे भी नहीं है | और ऐसा क्यों नहीं हो सकता ? क्या राम वगैरह पुष्पक विमान से अयोध्या वापस नहीं लौटे थे ? बचकाना प्रत्युत्तर अभी आ जायगा - सब झूठ है | मैं भी सच नहीं मानता | लेकिन मनुष्य की कल्पना शक्ति को मानता हूँ | क्या Science Fiction नहीं होते ? ऐसी कथाएँ और फ़िल्में नहीं देखते आप ? आप भली भाँति पढ़े / जानते हैं कि तमाम वैज्ञानिक आविष्कारों के पहले उनके गल्प आ चुके थे |  [ to Ashok Dusadh]
    साध्य का दुस्साध्य से क्या लेना देना ?
    थोडा पानी ठहरे तो चेहरे दिखाई दें |

    * यह नास्तिक ग्रुप के साथ ' वास्तविक ' यथार्थपरक समूह / मंच भी है |

    * मै कहता तो रहा हूँ कि यदि हिन्दू की जायज़ / सही बातों को भी अनुचित ठहराया जायगा , तो सही हिन्दू भी सांप्रदायिक हो जायगा |

    * कुछ नामवर सिंह जनों पर मुक़दमा चल जायगा , कुछ आशीष नंदी जेल चले जायेंगे कानून के बल पर | लेकिन अन्य कितनो कि जुबान पर ताला लगाओगे ? वे " कुछ तो लोग कहेंगे " ?  क्या कर लोगे ? और नंदी भी विचार जगत के सेनानी और शहीद न बना दिए जायं तो ताज्जुब नहीं !

    * तुम कहाँ छुपे भगवन हो ? 
    तुम छिपे क्षीर सागर में , या गोपिन की गागर में,
    कहाँ ढूँढूँ रमा रमन हो ?

    * पुनः प्रशंसनीय | इसी विनम्रता के सदगुण का अब नितांत अभाव होता जा रहा है, और sophism , hostility , या polemic 'ता' का कारण बनता | मुझमे तो ज्ञान कुछ भी नहीं है | बस बच्चों की तरह सर्जन के साथ खेलता रहता हूँ - आनंदविभोर |

    *  ठगा जाना तो 
    हमारी नियति है 
    नई क्या बात ?

    * जिस व्यवस्था में निजी वकील भाड़े पर रखना पड़े , उसमे सरकार किसी पीड़ित / नागरिक को संवैधानिक न्याय दिला सके यह कहं संभव है ?

    * कविताएँ लिखी जा रही हैं , बहुत लिखी जा रही है , अच्छी लिखी जा रही हैं | कविताएँ , लेकिन जी नहीं जा रही हैं | मेरा ख्याल है - कविता को कुछ जी लिया जाना चाहिए | भले लिखी कम जाएँ , या न लिखी जाएँ  |


    बिल्कुल सही कह रही हैं आप रति जी | हिंदी पट्टी में टाँग खिंचाई ज्यादा है | मैं सिर्फ यह इंगित करना चाहता था  , वैसे यह अनुमान मेरा निजी है , कि यहाँ मैं उस गुरुता का अभाव भी परिलक्षित कर रहा हूँ जो शीर्ष साहित्यकार से अपेक्षित है | अन्यथा न लिया जाय तो दृष्टव्य है लिखना  आने से पहले उनमें दंभ और अभिमान अधिकाधिक आ जाता है , जिससे इनकी सम्मान्यता में कमी आ जाती है | और यदि राजनेता सम्मान देने पहुँचते हैं तो उसके कारण भी राजनीतिक होते हैं | 
    क्या कहा जाय ? 

    Meghna Mathur
    मुझे समझ नहीं आता कि दिलीप मंडल, समर अनार्य टाइप के लोग हिंदू धर्म के पीछे क्यों पड़े रहतेे हैं। उन्हें हिंदू धर्म या द्विज निंदा का अधिकार किसने दे दिया। जब वे खुद को हिंदू नहीं मानते तो उनकी यह हरकत उन्हें किसी अन्य धर्मावलंबी का मन दुखाती है। यह संविधान की मूल भावना के विपरीत है। और अगर इतने ही वे साहसी हैं तो इस्लाम, ईसाई और अन्य धर्मों के बारे में कुछ कहने की हिम्मत करें।

    * मैं तो सिर्फ यह कहता हूँ कि खूब आलोचना करो हिन्दू धर्म की, इसी से यह सुधरेगी | लेकिन हर चीज का  समय होता है | कुछ राजनीति भी तो समझो | धर्म केवल अध्यात्म नहीं , वे पूरी राजनीति हो गए हैं | इसलिए हिन्दू / दलित / राज्य लाओ , फिर तुर्की के कमाल पाशा की तरह हिन्दू को आधुनिक और रेशनल बनाओ | अभी तो अन्य मजहबों के राजनीतिक साजिशें और निहितार्थ को भी समझो |

    * यदि आप मात्र कुम्भ मेला और शाही स्नान को ही हिन्दू धर्म समझते हैं , तो मुझे आपसे कुछ नहीं कहना |
    * यदि आप कुम्भ मेला और शाही स्नान को धर्म से जोड़कर देखते हैं , तो मुझे आपसे कुछ नहीं कहना |

    Virendra Nath Bhatt आप कुछ ना कहें ठीक है लेकिन धर्म की परिभाषा तो बता दें।
    ज्यादा तो आप लोग ज्यादा जानते हैं लेकिन मेरे लेखे वह कश्मीर के पेश ए ईमाम और दारुल उलूम का फतवा नहीं है | वह हिन्दू मुसलमान भी नहीं है ऐसा आप विद्वतजनों से ही जाना | लगता है बहुत गहरे में है वह, और मज़ा यह कि उसमे उतरना बहुत आसान भी है | सहज मन , सरल बुद्धि -  जैसी होती जाए | और हाँ , वह बहस-विवाद का मुद्दा तो बिल्कुल नहीं है |

    बहू नहाने जा रही है | तब तक एक वर्षीय पोते को संभालना मेरा धर्म है | निजी मामला ?

    * इस बात का तो मैं ही गवाह हूँ कि अशोक , दुसाध में अहंकार नहीं है , और जो कुछ - टंकार , झंकार आदि कितना भी हो | अहंकार तो मुझमे भी नहीं है , और हो भी तो किस बात का ? फिर भी बड़ी मेहनत से मिटाया है मैंने इसे | लेकिन मुझमे गुस्सा बहुत है | सोचता हूँ इस पर भी विजय पाता , लेकिन पाता हूँ कि यह तो मेरी अमानत, मेरी पूँजी, उपलब्धि या कहना होगा विशिष्टता बनती जा रही है | इसलिए बजाय इस पर काबू पाने के असफल प्रयास करने के मैं ऐसे मौकों पर चुप कर जाता हूँ | 

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