रविवार, 3 फ़रवरी 2013

धर्म विहीन होने से

* धर्म विहीन होने से , चलिए मान लेते हैं , हम अनैतिक हो जायेंगे | लेकिन यह भी तो देखें कि आज ही नैतिकता कितने पानी में है ? फिर इतने सारे भगवानों और धर्मो का अतिरिक्त बोझ क्यों  ढोयें ? सीधे सीधे नैतिक या अनैतिक ही न हो लें ?
* भला यह भगवान् क्या होता है ?

* मैं  हमेशा सच ही नहीं बोलता | कभी कभी, नही ज़्यादातर तो मैं झूठ ही बोलता हूँ | जैसे कहता हूँ - मैं प्यार करता हूँ , हे प्रियतम ! प्रिय मित्र के संबोधन से पत्र प्रारंभ करता हूँ | और यह भी तो कहता हूँ - हे ईश्वर ! प्रभु जी तेरा सहारा ! भगवान् आपका भला करे | जब कि यह सब झूठ है - न प्रेम जैसी कोई वास्तु है, न ईश्वर का कोई अस्तित्व | मैं सत्य कहाँ बोलता हूँ ?

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें