* भ्रष्टाचार के खिलाफ लिखना अपने देशवासियों के खिलाफ बोलना है | क्या नहीं ?
*कलंक वाद | मैं दर्शनों के दर्शन के बारे में सोच रहा था तो यह शब्द ईजाद हुआ | मुझे लगा कि सारे ही 'वाद' दर्शन के नाम पर कलंक हैं | यही कलंकवाद है | दर्शन के नाम पर जो असली चित्र उभरता है वह होता है - सांख्य ,योग , मीमांसा आदि का | इनमे कहीं 'वाद ' का उपसर्ग नहीं लगा है | इसलिए इन्हें शुद्ध दर्शन कहने में कोई विवाद नहीं है | फिर है द्वैत - अद्वैत -विशिष्टाद्वैत जैसे | अब मेरा ख्याल है [मैं इनका विधिवत , आधिकारिक ज्ञानी नहीं हूँ ] कि जैसे ही ये दर्शन द्वैतवाद -अद्वैतवाद में बदले , इन पर कलंक का काजल चढ़ता गया | अब आगे देखिये - मनुवाद , सामंतवाद ,साम्राज्यवाद , पूंजीवाद | कौन कह सकता ही कि ये कलंक नहीं हैं ? और आगे आते हैं -साम्यवाद -समाजवाद -व्यक्तिवाद -मानव वाद इत्यादि | क्या हश्र किया इन्होने , क्या हश्र हुआ इनका ,किसे पता नहीं है ? जब तक आज़ादी के लिए , लोकतंत्र के लिए कोशिशें और लड़ाईयां थीं ,तब तक ठीक था | भविष्य में स्वतंत्रता- स्वच्छंदतावाद , और एक शब्द -लोकवाद अपने को कलंकवाद के रूप में प्रस्तुत करने के लिए सन्नद्ध -कटिबद्ध -प्रतिबद्ध हैं | और हम बिना न -नुकर इनका भी स्वागत करने के लिए अभिशप्त हैं | कलंकित दर्शनों को प्रतिस्थापित करते हुए नए दर्शनों के कलंक आते जाएँ , इसी में मानव सभ्यता की गतिशीलता है | लेकिन हमें स्वीकार तो करना पड़ेगा कि हम कीचड़ और कलंक ही धो रहे हैं | युग को सृष्टि का यह शाश्वत अभिशाप है |###
*ख्याल बदल लीजिये |अब यह समझिये की जो जातियों में बँटे नहीं हैं , वे ज्यादा खतरनाक हैं क्योंकि वे सशक्त और ताक़तवर होंगे | जो जातियों में बँटे हैं ,उनसे क्या डरना ? वे तो कमज़ोर हैं | उन्हें कभी भी पटखनी दिया जा सकता है |
* जब आप लेखन द्वारा क्रांति में या किसी बदलाव में संलग्न हों , तो पत्रकारिता के सामान्य नियमों से आपका काम नहीं चल सकता |
* ऐसे समाज का सपना | मेरे स्वप्न में ऐसा समाज है जिसमे आदमी दुष्ट न हों | समाज सरकार का मुखापेक्षी न हो और सरकार का समाज में कम से कम दखल हो |
सरकार के स्वायत्त चारो अंगों की भांति देश की समाज नामक संस्था भी स्वतंत्र और स्वावलंबी हो |[संक्षेप]
* मैं माँगुर मछली भून कर खा सकता हूँ , लेकिन झींगुर का सूप नहीं पी सकता | [Ambiguous thought ]
* अहंकार -शमन भी कभी ऊंची चीज़ नहीं भी हो सकती है , यह मैंने जाना | स्वार्थ के दबाव में भी आप का अहंकार नष्ट हो सकता है | लेकिन स्वार्थ तो अहंकार से भी गया -गुजरा है ! अतः अहम् को दबाते समय यह देखना होगा कि कहीं स्वार्थ तो हावी नहीं हो रहा है ?
जैसे मालिक ,अधिकारी, या राजा की डांट पर हम चुप रह जाते हैं , अपमान सह जाते हैं | तो यह तो निर -अहंकार होना नहीं है | ऐसा तो हमने इसलिए किया क्योंकि यदि हम विद्रोह करते तो अपना स्वार्थ -हित -चिंतन न गँवाते ? ##
* अहम् , यानि 'मैं' और 'मेरा ' को अध्यात्म की दृष्टि से बड़ा बुरा समझा जाता है | लेकिन अब स्थितियां बदल गयी हैं | कह लीजिये कलयुग आ गया है | एक तरफ जैसा ऊपर लिखा कि अहंकार हर समय के लिए बुरी चीज़ नहीं रह गयी , वहीँ दूसरी तरफ अहंकार से भी बड़ी एक बुराई पैदा हो गयी है |वह है हमारी 'नेतागिरी ' | उदाहरण के लिए एक अहंकारी , अहंवादी या आत्मवादी,व्यक्तिवादी व्यक्ति तो यह भर कह कर चुप हो जायेगा कि 'मैं' समाजवादियों की सभा में नहीं जाऊँगा , या 'मुझे' गाँधीवादी के अनशन में भाग नहीं लेना है ,या 'मेरी '
अमुक कार्य में रूचि नहीं है / 'मैं' इसे उचित नहीं समझता |
लेकिन समाजवादी -साम्यवादी नेता जानते हैं क्या कहेगा ? वह घोषणा करेगा , आह्वान फैलाएगा कि प्रगतिशील लेखकों को अथवा उसकी पार्टी के कार्यकर्ताओं को अज्ञेय कि जन्म सदी सभा में भाग नहीं लेना चाहिए | वह यह भी कह दे कि रवींद्र नाथ ठाकुर की सभा में , जन गण मन अधिनायक के गायन में , या स्वतंत्रता दिवस समारोह में वन्दे मातरम नहीं कहना चाहिए तो इस पर हिंद वासियों को आश्चर्य नहीं होना चाहिए | गोया ,या तो यह तय है कि ये किसी जनता के ,जन गुट के नेता हैं या तो इन्हें इसकी निश्चय ही गफलत है | तो यह अहंकार से भी बड़ी बुराई हुयी कि नहीं ?
- *Dekhiye , yeh jo aap log kar rahe hain , pooja-paath,bhajan -keertan ,yagna-havan,teerath-baat vagairah , sab ekmusht zindgi ko aasan karne ka rasta hai , ZINDGI NAHI HAI . Ab thoda zaroorat hai ,ZINDGI JEENE KI . Bhale wh thoda kashkar ho , MANUSHYATA KE HIT ME .. ##
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