रविवार, 15 सितंबर 2013

नागरिक पत्रिका 10 सितं से 15 सितम्बर तक

* ग्रह नक्षत्र तो मैं जानता नहीं | लेकिन सितारों को जानता हूँ | हमारे सितारे चड्ढी और चूरन का प्रचार  कर रहे हैं |

* इसे विडम्बना कहकर मैं टालना नहीं चाहता कि तमाम महापुरुषों का जन्म कुमारी माताओं की कोख से हुआ !

* सौ सौ चूहे खाय बिलाई हज को चली |
इसे अन्यथा न लें , यह कहावत है |

* Personally , I would, rather like to be called as - " Poetic Humanist " [ PH= फ ]

  • हाँ निवास जी , मैं हिंसा और सख्ती का अंध विरोधी नहीं हूँ ( इस शर्त के साथ कि उसका अधिकार सक्रिय राज्य के पास होना चाहिए , जिससे प्रत्येक नागरिक को इसका सहारा और कानून को हाथ में न लेना पड़े | हिंसा राज्य का विशेषाधिकार है ) | और आपने ठीक तो कहा कि न्याय तुरत होना चाहिए | पकडे जाने के 24 घंटे के अंदर , त्वरित सुनवाई द्वारा |
  • Ugra Nath और दूसरी बात यह कि यदि कानून बन सके तो यह कि पीड़ित पक्ष के दो या दस परिजनों का अपराधी - वध के समय उपस्थित होना अनिवार्य हो | तब तो सार्वजनिक मृत्युदंड की स्वीकार्यता बनती है | वर्ना पब्लिक इसे देखते देखते स्वयं अ -संवेदनशील हो जायगी | यह मनोवैज्ञानिक खतरा है |
  • Ugra Nath तीसरी बात , मैं आसाराम जी के मामले में लिख चूका हूँ , फिर दुहराता हूँ कि इनकी मौत के पहले विश्व विद्यालयों के मनोविज्ञान विभाग और अपराध अनुसंधान के शोधार्थियों को इनके ऐसे मानस के की तह में जाने के लिए जाना चाहिए और इनकी आपबीती , डायरी , सामाजिक -आर्थिक - सांस्कृतिक पृष्ठभूमि आदि का पूरा विवरण लेकर शोध प्रबंध लिखना और प्रस्तुत करना चाहिए , जिससे मानव सभ्यता ऐसी मनोवृत्ति के पनपने के कारणों से अनभिज्ञ न रहे , और इससे निजात के उपाय सोचे , अमल में लाये | इतने मानव शरीरों के अंत के द्वारा मानवजाति कुछ सांस्कृतिक लाभ तो उठाये | इनकी हत्या निरर्थक न जाए | कृपया मृत्यु दंड को केवल राजनीतिक शब्दावली में तो न सोचें , इतना तो मेरा आग्रह सुना जा सकता है , यदि Capital Punishment मिटाया न जा सके तो |



  • * भाई , कहा कुछ भी जाय जब एक बार नीति बन गयी तो बन गयी | मैं मृत्यु दंड के पक्ष में तो नहीं जाऊँगा !


* अच्छा बहाना भी है राजनीति | कह दो सब राजनीति है , विरोधियों ने किया | बस छुट्टी, बच गए जिम्मेदार से | अरे भाई, लड़की से छेड़खानी हुयी थी या नहीं | उसका भाई जब विरोध करने गया था , तब माफ़ी ही मांग लेते | पर उससे उलटे मारपीट कि गयी या नहीं ? फिर उसके बाद तो किसने कम मारा , किसके ज्यादा मरे , यह हिसाब नहीं चलता | और इन हकीकत के झगड़ो में क्या चाहते हैं सम्प्रदाय को सामने नहीं आना चाहिए , वरना वह सांप्रदायिकता हो जायगी ? फिर जातियों - सम्प्रदायों का काम ही क्या रह जायगा ?

* सुना है, लखनऊ में कुछ सीनियर छात्र बड़े " मैनर " वाले हो गए हैं और नए, जूनियर छात्रों की रैगिंग करके  उन्हें सिखा रहे हैं | भले खुद एक फ्यूज़ वायर न बाँध पायें | ऐसे लड़कों से सख्ती से निपटा जाना चाहिए क्योंकि ये नए छात्रों को आतंकित करते हैं | भय की प्रतिष्ठा होना अत्यंत आपत्तिजनक बात है | यह तो सरासर गुंडागर्दी हैं | खबर है, किसी लड़की ने आत्महत्या कार ली ति किसी ने कोशिश की | संस्थान परिचय सम्मेलन स्वयं आयोजित करे और उसके अतिरिक्त जो छात्र किसी छात्र को अनुचित परेशान करे उन्हें फ़ौरन निष्काषित कर दिया जाय | स्कूल में उन्ही को रखा जाय जिनकी इच्छा और उद्देश्य पढ़ना हो | जिन्हें बकैती करनी हो, मैनर सिखाना हो, वे पुलिस विभाग में जायँ, या फिर किसी संत के आश्रम में | सचमुच पढ़ने कि चाह रखने वाले छात्रो कि कोई कमी नहीं है, जो इन्हें इनकी बदतमीजियों के बावजूद भी स्कूल में रखा जाय ! मेरा अनुमान है रैगिंग करने वाले सवर्ण श्रेणी से होंगे |  

* कुछ मौतें मुझे तनिक भी पीड़ा नहीं देतीं | आज एक युवक मोबाईल से बात करते करते रेलवे फाटक पर शहीद हो गया | तो ठीक ही हुआ | भाई बात करने का अधिकार है तो उसके लिए जान देने का भी उन्हें हक है | ऐसे ही रेलवे ट्रैक पर भी दुर्घटना हुयी थी | उन्हें तो लाखों के मुआवज़े भी दिए गए | क्यों भला ? दुर्घटना न हो , इसकी व्यवस्था तो सरकार को करन चाहिए | लेकिन जो मरना ही चाहे, उन्हें कौन रोक सकता है | इसलिए उन्हें मुआवजा न देकर, उलटे उसके परिवार से जुर्माना वसूल किया जाना चाहिए |

* तमाम संगीत -नृत्य के शिक्षक लड़कियों को संगीत -नृत्य सिखाते हैं, लेकिन उन्क्के बारे में ऐसा कुछ सुनने में नहीं आता | और उनकी आयु ७० - ७२ से ज्यादा होती हो , ऐसा भी नहीं !

* कोई मनोविज्ञान का विभाग, किसी भी विश्व विद्यालय का, या सरकारी विभाग - संस्थान आसाराम बापू के पास उनके मानस का अध्ययन करने उनके पास नहीं गया | जाना चाहिए | एक एक केस हिस्ट्री पर शोधप्रबंध आयोजित किये जाने चाहिए !

* यह हिन्दुस्तान है प्यारे ! दिखाइए, और देखिये - पीड़ितों के माता पिता ही हाय ! न कह दें तो कहिये ! यह बदला लेकर - खून का बदला खून, आँख के बदले आँख लेकर खुश होना वाला समाज नहीं है | हम तो चाहते हैं आप संगसारी दिखाएँ, फांसी चढ़ाया जाते दिखाइए | काम हमारा सिद्ध हो जायगा - जनमानस मृत्युदंड के खिलाफ हो जायगा

* इतनी धार्मिक विविधताओं के बीच नास्तिक [ धर्मों से असम्बद्ध / निर्मोही ] कारकुन, पुलिस कर्मी, अधिकारी, न्यायाधिकारी, राजनेता ,शिक्षक ही, यहाँ तक कि चपरासी और सफाईकर्मी भी  सेक्युलर राज्य के सही संवाहक हो सकते हैं | वर्ना यह मंत्री लाखों की भीड़ में पहले स्नान करेगा (भीड़ कुचल कर मरे तो मरे ), राज्य में नरसंहार करेगा या वह मंत्री हज के लिए विदेश यात्रा कर लेगा | कोई क्या कर लेगा उनका ? कौन समझाए , कौन रोकेगा उन्हें ? आखिर वह व्यक्ति हैं अपनी धार्मिक आस्था के साथ और साथ ही राज्य के सूबेदार भी हैं | हम कौन है और आप कौन हैं ? पलटते रहिये शब्दों की किताबी परिभाषाएं ! तब तक तो वह बहुत कुछ अंजाम दे चूका होगा | आधी सदी से अधिक तो ले ही लिया इसने ! मित्र , बाहरी शब्दों को अपनी ज़मीनी यथार्थ से जोड़ कर सोचना होगा | तभी सटीक परिभाषा निकलेगी | मच्छिका स्थाने मच्छिका बैठाने से नहीं |  

* मैं दो तीन निवेदन सार में रखकर दो तीन दिन के लिए गाँव जाऊँगा - ऑफलाइन |यह धृष्टता मैं इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि मेरी इसमें हार्दिक रूचि है, और मैं इसका एक्टिविस्ट भी हूँ ( तथापि विवाद खींचना मेरी फितरत में नहीं ) |  पहला - सेक्युलर सरकार का यह संवैधानिक कर्तव्य भी है कि वह जनता में वैज्ञानिक चेतना का प्रसार करे और सामाजिक स्वास्थ्य और नैतिकता के विरुद्ध कुछ न होने दे | तो - - ? दूसरे - व्यक्ति का प्रिथक्करण यदि संभव नहीं तो जो लोग उच्च पदस्थ अधिकारी - नेता - देश निर्माता हैं उन्हें तो चाहिए कि घरके अंदर और बाहर की सार्वजनिक स्वरुप को अलग अलग करें ! उन्हें इसकी समझ तो हो कि बस , यहाँ मेरी आस्था की सीमा समाप्त होती है और सेक्युलारिस्म (की मारो गोली ), समता और सामान्य न्याय कि दृष्टि से अपनी आस्था को समेट लेना चाहिए | एक लघुतम उदहारण = माथे पर लंबा गहरा टीका लगाना आपकी आध्यात्मिक आवश्यकता और धार्मिक आस्था हो सकती है | लेकिन इसका सार्वजनिक प्रदर्शन ? बहुत झीना , महीन भेद है | लेकिन उसे समझना,  पालन करना तो  होगा , कम से कम राज्य कि संस्थाओं और उनसे जुड़े व्यक्तियों को ? या नहीं तो फिर सारा राज्य PSU को दे दीजिये | क्या सोचा आपने - - - ? तीसरे - secular की ही धाराएँ, भाई पडोसी हैं  Secular morality (Religious  morality- as said  for Gandhi ), Humanism, Rationalism, Anti-superstitions, Godlessness , Non theist , anti -theist, Atheist etc etc | इन्हें आप धर्म कह सकते हैं - धारणीय अवश्य | तो हैं तो हैं , जैसे अन्य धार्मिक हैं | उनसे बड़ी सहानुभूति है तो थोड़ी हमसे क्यों नहीं ? हम तो विज्ञानं के अनुचर व्यक्ति - समाज है , जब कि वे कहीं ऊपर स्वर्ग से संचलित होते हैं | इसलिए हम तो नहीं कह सकते कि हम आसाराम की भांति   नैतिक और इन्द्र के स्वर्ग की स्थापना कर देंगे ! हम सिर्फ मनुष्य हैं और मनुष्य जितना कर पायेगा करेगा | ज़ाहिर है तब भी द्वन्द्व होगा, तनाव, लडाई झगड़े होंगे , पर ईश्वर, उसकी किताब - देवदूत को लेकर तो नहीं | वे दुनियावी होंगे | बोलिए अस्वीकार है - - - ? और अंतिम - Secularism की व्यावहारिक परिभाषा Charles Bradlaugh से निकलती है | याद कीजिये , हम कृतग्य हैं उन्होंने God का स्थान पर सत्यनिष्ठा की शपथ को मान्यता दिलाई | उनसे कुछ मुलायम Holyoke साहब के साथ उनके द्वन्द्व को याद कीजिये और फिर बताइए हम उनके मुकाबले कहाँ खड़े हैं आज , इतने अरसा बाद - - -  ?          


* लखनऊ में कुछ विज्ञानं मिजाजी लोग अन्धविश्वास के विरुद्ध " हम सब दाभोलकर " नाम से संस्था / कार्यक्रम बना रहे हैं | वह तो बनायेंगे लेकिन उससे पहले कुछ बुढ़भस लोग " हम सब आसाराम " बोल रहे हैं | वह बयान जारी करने को हैं | यार उतने देर तक कन्या आसाराम के साथ रही | यद्यपि कानूनी तौर पर वह नाबालिग होगी लेकिन इतनी भोली और छोटी भी तो नहीं ! वह तनिक सी हरकत पर भी उनका हाथ झिड़क देती , बूढ़े में इतनी ताकत तो नहीं कि वह इतना जबरदस्ती कर पाता | बाहर तो अन्य लोग , माता पिता भी थे शायद  | कोई जंगल नहीं था वह | चीख पुकार करती तो लोग  सुन लेते | दरवाज़ा खोल कर वह भाग भी सकती थी | अंदर से बंद दरवाजे कि सिटकिनी इतनी ऊंची तो न रही होगी ? वह भी क़द में लगभग आसाराम के बराबर ही होगी ? यार यह तो ठीक कि संत रसिक हैं , लेकिन यह भी बलात कैसे हुआ | कहीं ऐसा तो नहीं कि सब कुछ हो जाने देने के बाद - - - - ? ?

* - क्या देख रहे हो ? - महिला ने पूछा |
- तुम्हारी साड़ी का रंग और डिजाईन | मेरी पत्नी पर खूब फबेगा !

* शायद दीपा ने ही लिखा था - महिलाओं की दो समस्याओं पर | एक तो पहनने को कुछ नहीं है , और दुसरे रखने कि जगह नहीं है |
मेरे विचार से दो ऐसी ही और समस्याएँ हैं उनके साथ | एक तो यह कि वह आदमी मुझे देख क्यों रहा है ? दुसरे यह कि वह आदमी मुझे देख क्यों नहीं रहा है ?

* आदमी से हमेशा प्रेम से बतियाना नहीं , कभी कडाई से भी बोलना चाहिए | बेरुखी से भी पेश आना चाहिए | ज़रुरत ही पड़ जाती है इसकी |यह दुनियादारी कि बात है | पुराणी विनम्रता कि सीख अब हर वक़्त काम नहीं करती |

* आश्चर्य की बात है जो एक संस्था बनाने के लिए सात व्यक्तियों की ज़रूरत पड़ती है ! हर आदमी स्वयं एक संस्था क्यों नहीं होता ?

* Corruption is not as much great an issue as Poverty is .

* औरतें इसलिए परेशान हैं क्योंकि वह मेरी बात नहीं मानतीं | वे मानती ही नहीं कि नहीं कि कुछ ही मामलों में सही , उनमे और मर्दों में अन्तर है ! समानता का भूत सवार है उन पर , तो भुगतें ! मैंने तो देखा है बिटिया की बिदाई और बेटे के गुडगाँव जाते समय माएँ बहुत रोती हैं , बाप बहुत कम ! पर वह मानेंगी नहीं कि उनका दिल अपेक्षाकृत कमज़ोर होता है | नहीं मानतीं तो भुगतें | हम क्या करें ?

* हम इस बात का इंतज़ार नहीं करते कि औरत कहे तब हम उसका काम करें | नहीं हम सेवा भावी  इन्सान हैं | वह आदमी ही क्या जो कहने पर मदद करे ? हम तो बिना उसके कहे ही उसकी मदद को तत्पर रहते हैं |
तब तक , जब तक वह यह कहना सीख न जाय कि नहीं , मुझे तुम्हारी सेवा कि अभी आवश्यकता नहीं है | और यह भी कि जब उसे आवश्यकता हो तो बेझिझक हमारी सेवा मांग ले !

* इतना सत्य
कैसे बोल देता मैं
उन्हें दुखाता !

* किसी से नहीं
न तन, न धन से
मन से हारा |

* फिर भी कुछ
तो है ही जीवन में
जो सुंदर है !

* पहले डुबो
फिर तो पानी पियो
गहराई का !

* थोड़ी बहुत
ऊर्जा बचा रखूँगा
अंत के लिए |

* सितम तेरे
कौन याद रखता
मैं भूल गया |

* शायद नहीं
लेकिन शायद हाँ
हो सकता है |

* देर हो गई
दुर दुर करते
पाप न भागा |

* तुमने कहा
" भुला देना मुझको "
लो , भुला दिया |

* अब भला क्यों
चेहरे ढाँपती हैं
ये लडकियाँ ?

* नहीं पसन्द
मेरे हाइकु तुझे
तेरे मुझको !

* बहुत अच्छे
देखता हूँ स्वप्न मैं
जागरण में |

* यह क्या किया ?
तुमने जगा दिया
मैं स्वप्न में था !

* देखो तब भी /
नाराज़ हो जाते हैं /
न देखो तो भी |
 :)



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