गुरुवार, 18 जुलाई 2013

नागरिक लेखन 14 - 18 जुलाई , 2013

* इसमें कोई संदेह नहीं कि तुलसीदास जी की भक्तिप्रियता और प्रोत्साहन से भारत में वैज्ञानिक सोच का नितांत अभाव पैदा हुआ जिससे देश का बड़ा नुकसान हुआ |

* vs यादव जी, निश्चय ही आपका साहस सराहनीय है जो आपने अपने वोट डालने की बात सपष्ट की | ज़ाहिर है आप साहसी तो हैं | मेरे विचार से आपको ही नहीं पूरे भारत को बस तीन छलांग लगाने हैं | तो लगा दीजिये | एक कूद में जातिवाद के बंधन से निकलिए, दूसरे में धर्म की जकडनों  से बाहर आइये | और फिर तीसरी छलांग में ईश्वर के घनचक्कर से निकल आइये | शुभकामनाओं सहित |

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Byomkesh Mishra उग्रदेव, कल आपके एक कथन पे मन कुछ देर टिका रहा, "अज्ञान पर अनास्था ही नास्तिकता है" (आपकी पुस्तक "सुनो भारत" से उद्धृत) । फिर लगा मेरी "आस्तिकता" के स्वरुप की अविरत खोज, जो कि "ज्ञान पर अडिग आस्था" के इर्द -गिर्द ही सदा रही, की भी परिभाषा, या कहें प्रमेय का उपप्रमेय भी तो यही होगा, यही तो है । कदाचित आपकी "नास्तिकता" कहीं मेरी "आस्तिकता" की सहोदर ज्येष्ठा तो नहीं ? या एक ही है ?
ugranath  हाँ एक ही है , बिल्कुल एक सी | छोटो बड़ी, ऊँची नीची का मूल्यांकन करना होगा, तो कहूँगा "आप की आस्तिकता "  "मेरी नास्तिकता " की ज्येष्ठा है | वह यूँ कि पहले छोटी सी उगी "अज्ञान पर अनास्था ", फिर आया थोडा सा ज्ञान, और फिर जमी  "ज्ञान पर डगमग आस्था", और तब आपकी  "ज्ञान पर अडिग आस्था" | तब तो ऊँच नीच का भाव भी तिरोहित हो जाता है | अतः , आपकी  "ज्ञान पर अडिग आस्था" ही मेरी  "अज्ञान पर अडिग, अविचलित, Un abashed आस्था" है, और मेरी "अज्ञान पर दृढ़ आस्था" ही आपकी "ज्ञान पर अडिग आस्था" है |  और संक्षेप करें तो आपकी आस्तिकता मेरी नास्तिकता तथा मेरी नास्तिकता  आपकी आस्तिकता है | मैं आस्तिक हूँ और आप हैं नास्तिक | इस प्रकार सही नास्तिकता और सच्ची आस्तिकता में कोई भेद नहीं रह जाता | वस्तुस्थिति भी यही है | कोफ़्त होती है जब नव - नास्तिक और सतही आस्तिक नासमझी में दोनों में भेद करके विवाद खड़ा करते हैं | अलबत्ता प्राथमिकता तय करने की बात है | अंध आस्तिकों के प्राथमिक पाठशाला के लिए मैं प्रारंभिक पाठ के रूप में ' नास्तिकता ' ही Curriculum में रखता हूँ | आप शायद कहना चाहें कि बस उनकी आस्तिकता को दुरुस्त कर दे | नहीं, अनुभव विपरीत हैं | वे हमें निगल जायेंगे जैसे कबीर रैदास को तुलसी | इसलिए मैं आध्यात्मिकता की कोई बात ही नहीं करता | वह नितांत निजी संप्राप्ति / Attainment है | सच्ची आध्यात्मिकता का मार्ग नास्तिकता   से होकर गुज़रता है | निश्चय ही वह आप की आस्तिकता से निचले पायदान पर है | धन्यवाद कि आपने मेरी बात पर मन टिकाया !
* सदैव स्वागत होगा | मैं स्वयं एक सतत उथल पुथल में रहता हूँ | नास्तिकता बड़ी जिम्मेदारियां देता है , कर्तव्य भाव जगाता है मनुष्यता के प्रति | चैन से बैठने नहीं देता | आप बोलेंगे तो सुख मिलेगा | आपने उग्रदेव नाम तो दिया लेकिन मैं देवता नहीं हूँ o.

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* देखिये Sandeep Verma जी फिर से पढ़िये और देखिये शम्भुनाथ जी क्या कह रहे है ? और वर्षों से मैं क्या चिल्ला रहा हूँ ? है कोई अन्तर दोनों बातों में ? बस यह है की उनका लक्ष्य मायावती को कुर्सी दिलाना है , और मेरा उद्देश्य कोई और राष्ट्रीय हित है , जिसे आप अभी नहीं मानते | कोई बात नहीं अभी शंभू जी के प्रस्ताव से इत्तेफाक कीजिये | उसके बाद तो हमारा काम भी पूरा हो जायगा |
Shambhunath Shukla
मुस्लिमों, ब्राह्मणों तथा अन्य सेकुलर लोगों के हित में यही है कि वे मायावती का समर्थन करें। अकेले मायावती ही नरेंद्र मोदी के हिंदू राष्ट्रवादी होने के दंभ को चूर-चूर कर सकती हैं। पूरे देश में अगर दलितों के साथ मुस्लिम और ब्राह्मण जुड़ गया तो फिर कोई ताकत मोदी को दिल्ली की गद्दी के आसपास भी नहीं फटकने देगी।
Sandeep Verma ब्राम्हण +दलित+मुस्लिम ...यह था कांग्रेस का चालीस वर्षो तक राज का गुप्त कारण .समीकरण तो वही है बस ड्राइवर बदला है .और ड्राइवर बदलने का तो हक भी बनता है और दस्तूर भी है . आज समय दलित नेत्रत्व में ब्राम्हण और मुस्लिमो को दिल्ली पर राज करने के सपने का है .

* ugra nath  यह बात मैं वर्षों से कह रहा हूँ सवर्णों से कि अब भारत पर शासन का श्रेय और नम्बर दलितों [ Read Mayavati here ] है | अतः केवल दलित उम्मीदवारों को ही वोट दें | अलबत्ता मेरी दृष्टि यह भी अतिरिक्त थी कि उनका शासन इस्लामी आतंकवाद का भी सफाया करेगा | [Ref - shambhu nath shukla ]
* Sandeep Verma Ugra Nath इस कमेन्ट की आत्मा तो आपके सानिंध्य से आयी है . इसलिए कोई धन्यवाद नहीं . और अब कहा कहा आपका नाम लेते फिरू , इसलिए कापीराईट पर भी कोई दावा मंजूर नहीं होगा .
* Sorry संदीप जी, मैं नहीं समझता था की हर बात की तरह इस बात को भी आप उलटे ढ़ंग से लेंगे | मैं अपनी बात वापस लेता हूँ | मुझे नहीं चाहिए कोई क्रेडिट कोई धन्यवाद | कोपीराईट का दावा तो मैंने अपनी पर्सनल Personal writings का भी अपने पास नहीं रखा है, यहाँ तक कि कविताओं का भी | तो फिर सार्वजानिक विचारों का क्या रखूँगा |
Sandeep Verma अरे ,आप तो गलत समझ गये . यह तो अपना धन्यवाद कहने का तरीका था . मै उल्टा नहीं ले रहा , मै उल्टा बोल रहा हूँ . मस्ती में . और अगर अपना कमेन्ट आपने डिलीट नहीं किया ...फेसबुक शब्दों को वापस लेने का अधिकार जो देता है ....तो मै भी अपना कमेन्ट वापस ले लूँगा .

Ugranath हाँ , इन्कार नहीं करूँगा , ख़ुशी अवश्य होती है , और हुई | जब किसी बड़े, पढ़े लिखे, स्थापित समझदार व्यक्ति की राय मेरी अभिव्यक्ति से टैली कर जाती है |
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Shriniwas Rai Shankar मनुष्य की अल्पज्ञता ...उसका भय और चिर सुख की खोज ही ईश्वर के जन्म का वायस बनी है.
Anshuman Pathak श्रीनिवास भाई ! जो जन्म ले वो ईश्वर क्यूँकर हो सकता है ?"आपका "ईश्वर जन्म ले सकता है, हमारा नहीं
Shriniwas Rai Shankar जो ईश्वर को मानते हैं..उनके लिए ही है..जो मानते ही नहीं...उनके लिए क्या प्रयोजन .

वन्दिता जी का प्रश्न तो भावात्मक था इसलिए आसानी से ह्रदय को उघाड़ गया | अब निवास जी [ जिनका निकनेम जहाँ तक मुझे स्मरण हो रहा है ' अद्वैत ' है ] सरीखे शिक्षक एक विद्यार्थी से प्रश्न करेंगे, तो उसका उत्तर वह क्या दे सकता है सिवा सहमति जताने के | तथापि सम्पूर्ण आदर के साथ [ मैं इनका कुछ कारणों से बड़ा आदर करता हूँ ] कहना चाहता हूँ कि अब चेला भी कुछ कुछ शक्कर डालने लगा है | :)  
तो, " मनुष्य की अल्पज्ञता ...उसका भय और चिर सुख की खोज ही ईश्वर के जन्म का वायस बनी है." से मैं सहमत हूँ, बल्कि इसमें जोड़ना चाहता हूँ कि मनुष्य की अल्पज्ञता अभी समाप्त नहीं हुई है, इसलिए ईश्वर अभी है | और यह अल्पज्ञता कभी नहीं होगी, इसलिए ईश्वर की आवश्यकता इसे सदैव रहेगी | [इस लाईन पर सम्प्रति मै काम कर रहा हूँ] लेकिन अंतर यह होगा, नहीं है तो होना चाहिए कि मनुष्य के ज्ञान में अभिवृद्धि के साथ ही साथ मनुष्य के ईश्वर को भी तब्दील होकर  Rationalise होते जाना चाहिए | अथवा कथित ईश्वर तो वही हो, मनुष्य की उसके प्रति भावना और धारणा बदलनी चाहिए | ऐसा नहीं हुआ, नहीं हो रहा है [शायद इसकी नियति यही है ], इसलिए ईश्वर हमारा सहायक होने के बजाय पूरे संसार की समस्या बन रहा है, और हम बुद्धिवादी नास्तिक होने हेतु विवश रहे हैं | जब कि मात्र आस्तिकता तो कोई समस्या नहीं है, सारी बुराई आस्तिक होने में ही नहीं है | यदि उसका इस्तेमाल वैज्ञानिक तरीके से व्यक्ति और व्यष्टि के हितार्थ हो |
आगे, {यद्यपि यह आपका सवाल नहीं है, तथापि नए मित्रों के लिए } दृढ़तापूर्वक कह दूँ [भले कुछ मुझे इस वास्ते अमित्र भी कर दें] कि ईश्वर का अस्तित्व, जैसा उसे धर्म क्षेत्र में जाना माना जाता है, संभव ही नहीं है \ सिद्ध ही नहीं हो सकता वह | तर्क विवेक की ज़रा सी फूंक से धराशायी हो जाता है वह | होता तो क्या मैं न मानता ? मेरी क्या मजाल, क्या हिम्मत जो उसे अस्वीकार करता ? जब कि उसी ने मुझे कथित रूप से बनाया है ? हम उसे नकार सकते हैं, यही पर्याप्त प्रमाण है उसके अनस्तित्व का |
    दूसरे एक सड़क छाप, लंठई वाली वार्ता | अल्लाह का नाम सुना है आपने, और गॉड का ? अच्छा तो जानते हैं आप उन्हें ? लेकिन उन्हें मानते नहीं, उनकी पूजा इबादत नहीं करते | क्योंकि आप हिन्दू हैं और आप को यह सिखाया नहीं गया | वे ईसाई - मुसलमान हैं, इसलिए वे उन्हें मानते हैं, उनकी आराधना करते हैं | वे किसी अन्य, यानी आपके ईश्वर की प्रार्थना नहीं करते | तो यह सब क्या मजाक है ? ईश्वर न हुआ अंधों का हाथी हो गया | तो भाई, न तो हम अंधे हैं, न हमारा कोई हाथी है | स्पष्टतः ईश्वर - अल्लाह - गॉड अपूर्ण मानवीय अवधारणाएं हैं | जबकि इन सबके बारे में अलग अलग कहा जाता है की वह सम्पूर्ण सृष्टि का निर्माता और संचालक है | दुनिया बनाने वाला वह कोई भी है, उसे खोजने बताने का काम विज्ञान का काम है - इसे उस पर छोड़ा जाय | यथा उसने बताया god particle | तो भी हम उसकी पूजा अर्चना तो नहीं करने लगे ? सचल कल्पनाओं का स्वागत है लेकिन कोई अपने निर्माता को कैसे जान सकता है ? मुझे तो यह भी नहीं पता कि जिस कुर्सी पर मैं बैठा हूँ उसे किसने बनाया ? और जानने की ज़रुरत क्या है ? क्या कर लेंगे हम जानकर ? अब यह तो नहीं हो सकता कि हिन्दू को ईश्वर बनाये, मुसलमान को अल्लाह और ईसाई को गॉड ! भाई इतनी तो अवमानना न कीजिये परमपिता की ! :) इससे कहीं नैतिक है नास्तिक बन जाना |
          एक पूरक संबोधन अंशुमान जी से | जन्म देने का आशय कोई ज़रूरी नहीं अंडज - पिंडज जैसा | विचार के रूप में भी / बल्कि इसी रूप में ही ईश्वर ने जन्म लिया | क्या इस बात पर एक हास्य संभालेंगे ?
" जो जन्म न ले वह हो ही कैसे सकता है ? उसका ईश्वर अनीश्वर होना तो बाद की बात है | " जो जन्म ही नहीं लेता, जिसने जन्म लिया ही नहीं, उसका अस्तित्व ही कैसे हुआ ? जी हाँ, नहीं हुआ | कतई नहीं है उसका अस्तित्व | सोचकर देखिये - सब खामख्याली है | न यह है न वह है - नेति ही नेति है | समुचित जलवायु, संसाधन से जीव पैदा होते/ बनते हैं जैसे डिब्बे में बंद अचार में फंगस, गेहूं में घुन (विज्ञानं का विषय) | ईश्वर के विषय में (विज्ञानं की उपकरणों के बिना) चिंतन समय की बर्बादी के सिवा कुछ नहीं | भावी पीढ़ी को यह बता दिया जाय तो उनका बहुत समय बचेगा | और व्यक्तियों में "उसे" जानने / जान लेने का अहंकार भी पैदा न होगा |
          अंतिम पैरा अद्वैत जी के " जो मानते ही नहीं...उनके लिए क्या प्रयोजन " को समर्पित | यही तो रोना - विडंबना है shankar जी, कि हम ईश्वर को मानते नहीं फिर भी ईश्वर से हमारा प्रयोजन बनता है | इसलिए हम उससे वाबस्ता होते हैं | कारण कि मनुष्य उसे मानते हैं, हमारे आस पास इर्द गिर्द के लोग हमारे दोस्त - साथी - संगती, परिजन - रिश्तेदार उस अयथार्थ काल्पनिक ईश्वर के पीछे जान दिए पड़े है [ कोई कोई तो अपनी जीभ - आँख - कान -नाक भी काटने को तैयार हैं] | उनसे भला कैसे हमारा मतलब न होगा ? कोई व्यक्ति समाज में टापू नहीं हो हो सकता, निर्विकार, सबसे सर्वथा निरपेक्ष | और सिद्धांत की बात - हमारे चिंतन और कर्म में जब ईश्वर नहीं है तो उसके केंद्र में मनुष्य तो है ? उसका सुख दुःख, पीड़ा हास्य, ज्ञान अज्ञान ! सब तो हमारा है | इसीलिए हमारी चिंता अधिक है उनकी अपेक्षा जो किसी ईश्वर के चरणों में निश्चिन्त पड़े हैं | धन्यवाद !        

                 

         
Anshuman Pathak सर कुछ प्रश्न :- १. पसंदीदा कवि २.पसंदीदा काव्य/गद्य विधा ३. पसंदीदा स्वरचित रचना ४. पसंदीदा लेखक ५. पसंदीदा पुस्तक
Vandita जी, बहुत पुरानी दिलीप kumar / मोतीलाल वाली | आपने नहीं देखी होगी | गजब का किरदार character था मोतीलाल का ! दुर्लभ है वह कला और वे लोग | इसीलिए मुझे लगता है तकनीक और साधनों के आधुनिक होने के साथ लोक कला , संगीत , नृत्य आदि टें बोल गए | इसलिए वर्षों हो जाते है हाल में सिनेमा देखे | और घर पर जो TV है उससे लेपटोप जोड़ रखा है | पसंद भी नहीं आते कानफोडू संगीत और असंगत कहानियां | हो सकता है बुढ़भस के चलते मीन मेख निकलने की प्रवृत्ति इसका कारण हो | तब बचपना था - रोता था सिनेमा के दृश्यों पर | बात चली तो बताऊँ कि असफल प्रेम की कथाएं प्रिय लगती थीं | मधुमती, मेला, आर पार, महल फिर अनुराधा, अनुपमा (अद्वितीय बलराज-लीला नायडू), गाइड, हम दोनों, हकीकत, मैं तुलसी - - - , तेरे मेरे सपने ( इसके एक गीत के आधार पर मैंने अपनी बेटी 1971 का नाम भी रजनीगंधा रखा ) | उनके गाने अभी भी गता हूँ | स्वर मेरा अच्छा है | कोई मित्र कहते हैं कविता लिखना छोड़ संगीत सीखे होते तो कुछ पैसे भी जेब में होते | :)
अब तो केवल उच्च कलात्मक या भाववादी e.g. ऐश्वर्या का रेनकोट सरीखी फ़िल्में ही मुझे रोक पाती हैं | अभी की एक लोकप्रिय फिल्म [शायद इश्किया ?] बीच में छोड़ आया | या फिर टोटल मनोरंजन वाली, जासूसी, भूत प्रेतिनी वाली हो |  - -  अधिक बोल गया , क्षमा करेंगी !          

* शुक्रिया सादिक भाई , मैं बहुत दिमागी उथल पुथल में रहता हूँ | इनके विरुद्ध कुछ कह दो तो ये आस्तीनें चढ़ा लेते हैं , इस्लाम के कुछ खिलाफ हो जाए तो वह नाराज़ होने लगते हैं | जबकि अपनी तरफ से मैं पूरी इंसानी मोहब्बत के साथ अपने दिल - दिमाग की सच्ची बातें लिखता हूँ | क्या मैं झूठ बोलना सीखूं ? कोशिश कर तो रहा हूँ |

* वैसे भी love कुछ होता नहीं , हार्मोन्स के क्षणिक उन्माद हैं विज्ञानं के अनुसार | मै आजकल इसके छद्म का भंडाफोड़ करने , इसे हतित्साहित करने में लगा हूँ , जिसके पीछे पीढ़ी पागल है |

सारे खुराफात एक साथ :-
1 - इनके भी दिन बहुरें =
जैसे दलितों के दर्द भुगतने का नाटक करके समृद्ध दलित और पिछड़ों के दिन बहुरे , भगवन करे ऐसे ही कभी बसपा की सेवा करके ब्राह्मणों के दिन भी बहुरें |
2 - मंहगाई, असुरक्षा, अव्यवस्था के मद्दे नज़र तमाम लोग यह कहते तो सुने जाते हैं कि इससे अच्छा तो अंग्रेजों का शासन था | लेकिन इतनी परेशानियों में भी कोई यह नहीं कहता कि इससे भला तो मुगलों / नवाबों का शासन था !
3 - राम ने शम्बूक की हत्या भले की हो | लेकिन आज भी दलित वर्ग में " रामू " या राम से लगने वाले नाम बहुतायत में हैं | हाँ लेकिन नामकरण में हरामी ब्राह्मणों की साज़िश भी तो हो सकती है ? बेचारे दलित / पिछड़े क्या करें ?
4 - इस्लामी देश अंतरराष्ट्रीय स्तर पर Blasphemy Law इस्लाम की इज्ज़त , मान - सम्मान बचने के लिए पारित करवाने में जी - जान से जुटे हैं | आश्चर्य नहीं कि इस्लाम ही विश्व में सबसे बदनाम मज़हब हो गया है !
5 - कहावत है टब के गंदे जल के साथ बच्चे को नहीं फेंका जाता | देख रहे हैं इस्लाम टस से मस नहीं हो रहा है | इसी प्रकार secularism भी भारत में राजनीतिक दलों द्वारा तमाम misappropriations के बावजूद फेंक कर बहा देने वाली नीति नहीं है |  

6 - जब मंदिर मस्जिद गुरुद्वारा के लिए जानें लेते हो, तब तो बड़ा मज़ा आता है | पर जब इन्ही के चलते [विपरीत धार्मिकों द्वारा ] तुम्हारी / तुम्हारे परिजनों की जानें ली जातीं तब बुरा लगने लगता है ! तब तो मानवाधिकार चिल्लाने लगते हो / मानवता की पुकार करने लगते हो ! यह दोगली बात क्यों ? मारते हो तो मरने के लिए तैयार रहो |

7 - मानववाद यह नहीं कहता कि आदमी ईश्वर हो गया | वह यह चाहता है कि ईश्वर आदमी हो जाए |

8 - सारी कर्मनिष्ठा - कर्तव्य परायणता तो सांप्रदायिक जन छेंके हुए हैं | और हम कहते हैं कि वे सेक्युलर नहीं हो रहे हैं ! हिन्दू कार्मिक अरब मुल्क जाकर खूब पैसे अपने घर भेज रहा है , इसमें उसे कोई एतराज़ नहीं है | मुस्लिम बच्चे मोटर सायकिल / कर मरम्मत जैसे तकनीकी कामों में माहिर हैं और रोज़ी कम रहे हैं , व्यवसाय में भी सफल हैं | कम्युनिस्ट सम्प्रदाय तो नहीं , पर उनके बच्चे भी भविष्य सुधारने अमरीका जा रहे हैं , कोई दिक्कत नहीं है | बस सिद्धांतवादी सेक्युलर बड़ी आरामतलबी के साथ संगठन - संस्था में या प्रोफेसरी में व्यस्त फतवे जारी कर रहे हैं, सबको सेक्युलर बनाने के |

9 - बड़ा टेन्सन है भाइयो ! सब और से लतियाये जा रहे हैं , जिसको देखो वही ! जिनके मुंह में चार दांत भी नहीं हैं वह भी बहस पर बहस किये जा रहा है | सोचता हूँ इश्वर कदापि स्वीकार तो नहीं है तो भी आस्तिकता का नाटक तो किया जा सकता है | " जिंदगी एक नाटक ही तो है " | कम से कम इज्ज़त तो बचे | पाखंडी साधु संत बनकर बड़ों को तो चरणों में गिरा न पाऊँ समोसा खिला कर बेहोश भले न कर पाऊँ, पर उनके संकारिक बच्चे तो पैर छूकर आदर देंगे | और हाँ , इस पर सिद्धात का मुलम्मा भी चढ़ा सकता हूँ , नैतिकता की चासनी में डुबोकर | धर्म व्यक्तिगत मामला है यार , मेरी नास्तिकता मेरे ह्रदय में है - जैनेन्द्र की प्रेमिका की तरह | हा हा हा , बात बन गयी | :) लेकिन यह साली आस्था , कमीनी नास्तिकता मुंह से निकल ही जाती है |

10 - चलो माना कि वेद सत्य हैं | लेकिन क्या यह सत्य नहीं कि उन्ही में लिखा है - नेति नेति , नहीं यह नहीं - यह भी नहीं ?
Aarti Barnwal एक चीज़ जोड़ना है.... नेति नेति का एक अर्थ 'इतना ही नहीं आगे भी' यह भी कहा जाता है

11 - [ शेर ]
खुदा कहते कहते जो नींद आ गयी ,
बहिश्तों [ या फरिश्तों ?] के दिल में उम्मीद आ गयी |  [गुड है न ?]

12 - मै एक बात समझ नहीं पा रहा कि दलितों [ और पिछड़ों ] को जब सदियों की ब्राह्मनिक त्रास की भरपाई में आरक्षण और संवैधानिक सुविधा प्राप्त हो गयी, उनका वे उपभोग भी कर रहे हैं , तो अब उनकी परेशानी क्या है ? जो अनवरत मनुवाद - ब्राह्मणवाद के अवगुणानुवाद गए जा रहे हैं ? अब तो उन्हें संयत - संभ्रांत व्यवहार करना चाहिए, प्रसन्न होना चाहिय ? मुस्कराइए की अब विजेता हैं आप ! उन्हें तो अब घोषणा करना चाहिए - अरे लोगो डरो मत, हम आ गए हैं सम्पूर्ण समतावादी हैं, विभाजक - विभेदकारी ब्राह्मण नहीं | हमारे शासन में सब लोग निश्चिन्त रहो | हम अल्पसंख्यक मुस्लिमों को पूरा आदर सत्कार और जन्म से दुष्ट ब्राह्मणजनों को भी उनके जान माल की पूरी सुरक्षा देंगे |    

13 - ब्राह्मणवाद धीमा आन्दोलन था , जैसे मीठा ज़हर | धीरे धीरे , बिना बताये , चुपके से इसने जनमानस में घर बनाया और उन्होंने उसे पुरे समाज पर लागू कर दिया | पर अब तो ब्राह्मण [ ब्राह्मणवाद तो क्या ? :) ] का ज़माना है | तो विरोधी क्या कर रहे हैं ? वे पूरे गाजे बाजे के साथ शोर मचाते उछल कूद रहे है | देखो आततायी ब्राम्हणों मैं तुम्हे मारने मिटाने आ रहा हूँ ! खाक कर पाएंगे | युद्ध के लिए भी बुद्धि चाहिये | और अब तो यादव वर्ग भी उनके पीछे खड़ा ललकारने के लिए उपलब्ध है ! भगवान् ही मालिक है |

14 - [कविता ]
हाँ बच्चो , मूर्ख तो हैं तुम्हारी दादियाँ
उन्हें अंग्रेजी डिमोक्रेसी के मूल्य पता नहीं -
व्यक्तिगत स्वतंत्रता उसने जानी ही नहीं
प्राईवेसी का आदर वह क्या जाने ?
तुम आधे कपडे पहनकर बाहर निकलती हो
तो वह टोक देती है ,
भाई घुटनों के बल गिर जाता है
वह दौड़ कर धूल झाडती है
तेल मालिश करती, काजल लगा देती
और माथे पर दिठौना ,
उसके गले से नहीं उतरता कि अंग्रेजी  डॉक्टर ने
यह सब करने से मना क्यों किया है ?
चलो अच्छा हुआ, अब वह गाँव भेज दी गयी
लेकिन क्या हुआ ? कल से जब से फोन आया
छुटकी को बुखार आ गया है , वह तड़प रही है |
मुझे हर घंटे बोलती है फोन करो, पूछो हाल !
बूढ़ा तो मैं भी हूँ, लेकिन थोड़ी दुनिया जानता हूँ
समझाता हूँ आज़ादी की बात - किसी की
व्यक्तिगत स्वतंत्रता में दखल नहीं देना चाहिए ,
लेकिन वह मानती ही नहीं
मूर्ख जो है न ! तुमारी दादी |
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* यह आपने अच्छा मुद्दा उठाया | क्या वोटर को उम्मीदवार का जाति धर्म देखकर समर्थन या वोट देना चाहिए ? इस पर संदीप verma ज्यादा कुछ बोल सकते हैं ,  उनको  बुलाएँ | हम मानव वादियों की  स्थिति स्पष्ट है | हम जाति धर्म और उसके मूल "ईश्वर "में  ही विश्वास नहीं करते | हम इसे सर्वथा दृढ़ता   पूर्वक गलत मानते हैं | हम नीति नैतिकता और विचार के आधार पर वोट देते | [ वस यादव ]

* ईश्वर से नाराज़गी नहीं है | वह तो है ही नहीं | बस ईश्वर के नाम पर मनुष्य जो अमानुषिक करता है, उसके कारण असल क्षोभ तो मनुष्य से ही है | अब चूँकि मनुष्य यह सब वाया ईश्वर के करता है. इसलिए ईश्वर निशाने पर आ जाता है | जैसे एक मूल आपत्ति - ईश्वर ने अपने को ईश्वर - अल्लाह के रूप में क्यों विभाजित किया, और उनके अनुयाय के आधार पर [e.g.] दो कौमे परस्पर दुश्मन के कगार तक , क्यों बनाने का कारण बना ?
तथापि मैं ईश्वर को मानने के पक्ष में भी हूँ, यदि उसे पूरी समझ के साथ मना जाय कि वह हमारी कलाकृति है, वास्तविक अस्तित्व नहीं |
ईश्वर का कोई ठेकेदार नहीं | हमारी - आपकी अज्ञानता ही उन्हें ताक़त देती है | मानववाद, निरीश्वरवाद मनुष्य को अपनी गिरेबान झांकना सिखाता है , न कि ब्राहमण , पादरी , मौलाना की बात मानना और फिर उनको दोष देना  ![
अब आप बोलिए QA

*  मायावती के सर्वजन आन्दोलन से फेसबुक के दलित आन्दोलन को भो सबक लेनी चाहिए | और ब्राह्मणों को गालियाँ न देकर उनसे मित्रता रखनी चाहिए | ऐसा वे करेंगे भी, लेकिन देखियेगा , पिछड़ा वर्ग जो आरक्षण पाकर नए और भद्र-सशक्त दलित / दलित पक्षधर बने हैं वे इसमें बाधा बनेंगे | दलित -ब्राह्मण संयोग द्वारा बसपा के सशक्तीकरण को सपा का पिछड़ा वर्ग अपनी शक्ति भर नहीं होना देगा , न स्वीकार करेगा |

* ज्यादातर धारणा यही है कि दलित आन्दोलन घृणा ग्रस्त है, जो कोई इलाज नहीं है | देखिये माया जी ने पैंतरा बदला | फिर यह तो सच है की  मैं दलित नहीं हूँ | तो संस्कार तो सवर्ण होंगे ही | मुझसे इसकी अपेक्षा ही क्यों की जाये , जब मैं विश्वसनीय नहीं हो सकता ? #
ठीक है फिर o.k. आप अपना काम कीजिये, जिसमे आप का हित हो | सवर्ण, या अन्य कोई भी इतर, भी , स्वाभाविक है , अपने हित का काम करेगा | सब आदमी हैं , कोई देवता नहीं है |
main nastik [क्योंकि तमाम भेदभाव ईश्वर की मान्यता के कारण है, जिसे आप ब्राह्मण पर थोप देते हैं मानो वह कोई महाशक्ति हो, मनुष्य नहीं  ] समता का पक्षधर हूँ | अब यह तो मैं ही जनता हूँ कि मैं इसमें कितना ईमानदार हूँ | इसका सबुत आप मांगते हैं | मैं नहीं देता | तो यही मानकर चलिए कि हम आपके विरोधी ब्राह्मणवादी हैं | इससे आपको भी सुकून मिलेगा और हमें भी लगेगा कि हमें  दलित प्रेम का दिखावा करने की ज़रुरत नै है | आपने संवाद किया , इसके लिए धन्यवाद !      [ to PC ]

* हाँ बिल्कुल ! बल्कि Radical Islam के विरुद्ध एक Radical [ उग्र, लेकिन मैं नहीं ] सुगबुगाहट यह उठ रही है कि पाक बनने  के बाद भारतीय मुसलमानों को सत्य इस्लामी न्याय और नैतिकता के आधार पर अपना Right to vote सरेंडर कर देना चाहिए, जो Indian democracy & secularism ने उन्हें प्रदान किया हुआ है | क्योंकि ऐसे अधिकार, सुविधा - सम्मान इस्लामी देश इस्लामेतर धर्मावलम्बियों को नहीं मुहैया करते |
# [ श्री निवास shankar राव ]  बवाल करा देंगे आप सर ...भारत कोई धार्मिक राज्य तो बना नहीं..जैसा की पकिस्तान बनाने वालों को भ्रम था..वे दोयम दर्जे की नागरिकता की आशंका कर रहे थे..जबकी भारत के संविधान बे न सिर्फ मुसलमानों को सभी सामान अधिकार दिए अपितु..संरक्षण के विशेषाधिकार भी दिए..बावजूद इसके राजनैतिक दुश्चक्र के कारण उनकी उन्नति नहीं होने दी गयी..तो आज वे इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते की उनके पाकिस्तानी भाइयों ने जो आग लगायी थी..स्की तो कोई कीमत इन्होने चुकाई ही नहीं..बल्कि..जो पाकिस्तान गए उनको कितनी कीमत चुकानी पडी है..यह मुहाजिर अल्ताफ हुसैन की पीड़ा से समझा जा सकताहै.भारतीय मुसलमानों को अल्ताफ के बयान के निहितार्थ और अपने सौभाग्य को समझने की जरुरत है..दुनिया के किसी भी मुल्क से जयादा वे भारत में हैं..आखिर वे खुद को कटघरे में कब तक खड़ा करते रहेंगे...?
# तो आप ऐसे विषय उठाते क्यों हैं ? और मुझे पढ़ाते ? जैसे अल्ताफ जी ने अपनी भावना व्यक्त दी, वैसे ही मैंने ईमानदारी से एक सुगबुगाहट बता दी | शांति स्थापित करने के मुझे आप unfriend  कर सकते है | पर मेरा नुक्सान यह होगा कि मैं आपके पोस्ट नहीं देख पाउँगा जो कि मुझे प्रिय लगते हैं |
# Shriniwas Rai Shankar हा..हा..हा..सर बवाल से मुझे भय नहीं..मैंने रोचकता बढ़ाने के लिए..इस शब्द का प्रयोग किया है..आप फ्रेंड हैं..और रहेंगे..शांति तो आती जाती रहती है. मुझे स्वयं आपकी पोस्ट से लगाव रहता है.
# तो मैं ही कौन सा डरता हूँ ? जब लोगों ने विभाजन की मांग की थी तो क्या वे डरे थे, ज़रा भी हमारा लिहाज़ किया था ? हाँ हिंसा से ज़रूर, स्वाभाविक भय खाता हूँ , जैसे हम " तब ? डायरेक्ट एक्शन " से डर गए थे | वरना नहीं |

* " भाषा "
हम हिंसा की भाषा में पटु नहीं हैं | लेकिन आपकी तो भाषा ही यही है |  तो क्या करें ? आपसे बोलें बतियाएं नहीं ? जैसे हम अंग्रेजों से गलत सलत बोलकर संवाद करते हैं !


* कहते हैं कि दलितों ने स्वतंत्रता की खूब लड़ाईयां लड़ीं और देश में आज़ादी लायी | सादर साभार स्वीकार है | लेकिन अब संदेह पनपता है कि दलितवाद की लडाई देश की आज़ादी को ले जायेगी !

* मैं अपने अनौपचारिक मित्रों को फोन पर " प्रणाम वाले कुम " कहता रहा हूँ | खबर है इस नाम की फिल्म आने वाली है | निर्माता - संजय mishra , अभिनेत्री - शिल्पा शुक्ला |
[Ref - हिंदुस्तान 14 /7 /2013  / Movie मैजिक - p 2 ]

* आज बहुत दिन बात संपादक के नाम एक पोस्ट कार्ड लिखा :-
"" उथल पुथल ""   by - उग्रनाथ ( नागरिक लखनऊ )
सम्पादक महोदय , दैनिक हिंदुस्तान , विभूति खंड , गोमतीनगर, लखनऊ -10
महोदय ,
यह जो आप अपने अखबार में ' रमजान ' का पाठ पढ़ाते हैं, उसके बारे में मेरी ' निरर्थक वार्ता ' यह है की , उस पर मुझे, थोडा बहुत नहीं, सख्त ऐतराज़ है |
मेरा ख्याल है कि समुदायों को अपने त्यौहार अपने तरीकों से स्वयं अपनी मान्यतानुसार स्वतंत्रतापूर्वक     मनाने दिया जाना चाह चाहिए | अखबारों को इसमें [ बाधक न बनें तो न बनें पर ] साधक भी बनने की भूमिका में नहीं आना चाहिए |

# Sandeep Verma तो अब होली दीवाली भी अखबार में पढ़ानी बंद करनी पड़ेगी . तब ठीक है .

# [ To संदीप ] यदपि कुछ reservations हमारे हैं, पर वे आपकी फाइल से बाहर हो जायेंगे, क्योंकि आप कुछ ख़ास मुवक्किलों के वकील हैं | तिस पर भी जो आप हमसे कहलाना चाहते हैं, वह भी हम शताब्दियों :) से कहते आ रहे हैं | होली दीवाली की कुछ ' घटनाओं ' के समाचार पिछले पृष्ठों पर देना पर्याप्त होगा, उन्हें मनाने के तरीकों में दखल देने की ज़रुरत नहीं है | जब अखबार नहीं थे तब की तरह समुदायों को उन्हें मनाने दें | इसके अतिरिक्त [ आप जान लेंगे तो हिन्दुओं की खिलाफत में आसानी होगी ] हम राशिफल, गण्डा - तावीज, सिद्ध यंत्र/बाबाओं के विज्ञापन, परलौकिक लेख आदि प्रकाशित करने के विरुद्ध रहे हैं | हमने यह तो आरोप लगाया ही नहीं कि मुस्लिम समाज  [हाँ सहरी - इफ्तार के समय की जानकारी अख़बार के लिए जायज़ है] उनसे यह अपेक्षा रखता है | अख़बार अपने, और आप अपने हित में मेरी बात को सांप्रदायिक रंग दे रहे हैं , अलबत्ता

# हाँ आप लोग इस मुद्दे को भी उठायें तो उठायें , लेकिन मुस्लिम समाज ती यह मांग नहीं कर रहा है कि अरब की तरह हिंदुस्तान में भी जुम्मा के दिन सरकारी साप्ताहिक अवकाश घोषित किया जाय ? कोशिश जारी रखें, हिन्दुओं का क्या , उसके लिए तो जैसे रविवार वैसे शुकरवार | दोनों ही अपने, दोनों ही विदेशी !

Q -सवर्ण दूसरो का मैला उठाने के काम का प्रति माह कितनी तनख्वाह लेना पसंद करेंगे ?

Ans * Shashank Bharadwaj = aap kitni tankhwah loge

Ugra Nath = आप तय कीजिये मजदूरी माई बाप, जो कुछ भी दीजिये ! उठा तो रहा है देश आपका मैला | और वह उसे उठाकर कहीं फेंक भी नहीं पा रहा है - ढो रहा है सहर्ष | लेकिन आप "दूसरे " कहाँ,आप तो अपने हैं | यह तो दूसरों का भी मैला सदियों से उठाने में अभ्यस्त है | कीजिये और दूसरों से करवाइए मैला | कुछ शुद्ध होगा भी तो नहीं आप के पास

* ढोंग का नाम राजनीति !
हम इसलिए आस्तिकता का ढोंग करना चाहते हैं क्योंकि हम 20 + की आबादी के रूबरू नास्तिकता की चर्चा तक नहीं कर सकते | " सिर गिनने वाली " लोकतंत्र में यह संख्या काफी होती है , और महत्वपूर्ण भी | लेकिन हमारी विपदा तब भी कम होगी क्या ? मूर्ति लगा लें तो शिर्क हो जाय ? मूर्ति न लगायें तो देशभक्त न रह जाएँ ? आखिर हम क्या करें ? यही सब देख - सुन - समझ कर तो हम नास्तिक हुए थे !

* It is in the betterment of your future , not to get involved in love like affairs .

* लड़कियों से अपनी लटें और जुल्फें तो संभलती नहीं , आफिस क्या सम्भालेंगीं ? बिना सहारा जयमाल के स्टेज तक नहीं जा पातीं | इसका कारण यह हो सकता है कि उस अवसर पर वे जीन्स में नहीं होती ! तो प्रश्न है , क्यों नहीं होतीं ?

* यह अपना प्यारा दोस्त भी खूब है | सौ रूपये किलो टमाटर का भाव तो बताता है लेकिन सौ रूपये में पांच किलो आम की चर्चा नहीं करता | सरकार विरोधी दल का है क्या ?

* जो जाल में फंसता है, मूर्ख बनता है , उसका भी कुछ दोष बनता है !

* नित्य बनता हूँ , नित्य बिगड़ता हूँ ; अपने शरीर की कोशिकाओं की भांति |
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* नींद न आयी
वाकयी दिन रात
जाने क्या बात !

* तुम्हारी बात
अकाट्य मानकर
मानता गया |

* सेक्युलरिज्म
मज़ाक का विषय
यूँ था तो नहीं !
[ कैसे हो गया ?]

* कहाँ से आये
इतने आततायी
देश में भाई ?

* रोज़ बढ़ना
एक कदम आगे
आगे ही आगे |

 * प्रकृति वार्ता
चाहता है हाइकु
मैं तो न करूँ !

* हमने कहा
छोटा सा घर मेरा
कहाँ रहोगे ?
उसने कहा अच्छा
तो घर में अदृश्य |

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