सोमवार, 20 मई 2013

Nagrik Posts 20 May, 2013


* मुझे होने वाला था 
उनसे 'प्यार' ,
होते होते हो गया 
मुझे उनसे 'प्रेम' |

* आप अच्छे लगे तो 
आपका घर, आपका द्वार 
खिड़की दरवाज़ा सब 
अच्छा लगने लगा  
आपके हाथ का व्यंजन, 
आपकी चाय, सब 
आपकी झिड़की |
#   

* इसलिए मैं निष्कर्ष निकालता हूँ  मनुष्य के कल्याण के लिए भी किन्ही मनुष्यों की हत्या उचित नहीं है | इससे अच्छा है ऐसे कल्याण किये ही न जायँ, ऐसे कल्याण की बात सोची ही न जाए | 

* मैं जो कुछ भी कहता हूँ यह जान कर कहता हूँ कि उन्हें कोई मानने नहीं जा रहा है | 

* फिर , हर आदमी हर काम करे ही क्यों | जिसकी जैसी प्रेरणा हो करे | यह समझना  तो भूल होगी कि चिंतन कार्य कुछ फ़िज़ूल का काम है, इसमें कोई ऊर्जा नहीं लगती थकान नहीं होती, बड़े आराम का काम है यह | ज़नाब चिन्दियाँ उड़ जाती हैं, यदि ईमानदार हैं आप | फिर भी आयेंगे क्यों नहीं , किसी सार्थक काम में | यदि भरोसा दिल दें की उसमे आपका कोई नितांत निजी स्वार्थ निहित नहीं है ,और वह सचमुच सार्वजनिक कार्य है | व्यवधान तो होगा पर समय निकाला जा सकता है      [Shrinivas]

नर्सरी क्लास में छोटे बच्चों से पूछा गया-भगवान कहां है?
एक बच्चे ने हाथ उठाया, बोला- मुझे पता है!
टीचर ने कहा- अच्छा बताओ।
बच्चे ने बताया- हमारे बाथरूम में।
एक पल के लिए टीचर चुप! फिर संभलते हुएबोली, तुम्हें कैसे पता?
बच्चा बोला- रोज सुबह जब पापा उठते हैं,बाथरूम का दरवाजा पीटते हुए कहते हैं। हेभगवान! तुम अब तक अन्दर ही हो!

* कोई MBA है कोई ENGINEER है कोई डॉक्टर, IAS है , लेकिन कोई भी अपनी शादी करने में समर्थ नहीं है | यह उनके बाप दादा करते हैं | और उसी दकियानूसी तरीके से कि लगता ही नहीं ये देश के अग्रगामी लोग हैं |

* सरकारों को कम से कम हिंसा और न्यूनतम कर पर गुज़ारा करना चाहिए |   

[ विज्ञान के खिलाफ }
एक बार एक नागरिक जी छत से गिर गए | कुछ दुरुस्त होते ही नामज़द रिपोर्ट लिखवाने थाने पहुँच गए |
" मुझे पटकने में दोनों की सम्मिलित साज़िश थी | मैं छत पर चक्कर न्रत्य [सूफी] कर रहा था | इतने में Centrifugal Force [ केंद्र बाह्य बल ] ने मुझे बाहर फेंक दिया | फिर उसके साथी Law of Gravitation ने मुझे ज़मीन पर पटक दिया | "

* अनुमान [ही] है कि अब सभ्य लोग शादियों में सड़कों पर नाच गानों, बैंड बाजों, डी जे वगैरह से शीघ्र ही ऊब जायेंगे और इन्हें बंदकर देंगे | शायद हिन्दू विधि की रतजगा शादियों से भी इनका कुछ मन उचटे ?  

* जो भी काम है हमारा सब सरकार के विरोध में है | इसके अतिरिक्त तो कोई काम मुझे सूझ नहीं रहा है ! [ [ इस पंक्ति के कुछ गहरे व्यंग्यात्मक निहितार्थ हैं ]

*दाढ़ी बनाना आया नहीं, चले हैं दुनिया बदलने ! 
or ,
शेव करने का शऊर नहीं , चले हैं दुनिया बदलने !  


* तार्किक दृष्टि अलौकिक दृष्टि से अधिक ताक़तवर होती है और प्रामाणिक |
[ दरअसल , दृष्टि कोई अलौकिक नहीं होती | वह तो कहने और मूर्ख बनाने की बात है | [To Niranjan]

* हमसे और नीति की बात !
गधा - घास संप्रीति की बात ?        

* यह 'वाद ' वह वाद और तमाम वादियाँ ,
इन्ही के बीच से ही रास्ता निकले कोई |

* समाजवाद परिवारवाद के रास्ते गुज़रता है |

* घर में बिजली के करेंट मारने के कई सामान बाज़ार से आ गए हैं - हीटर , कूलर - - | मेरा तो सी पी यू भी मुझे करेंट मारता है | 

* संदीप वर्मा लखनऊ आये नहीं कि मेरी सिगरेट की डिब्बी डर से दुबक गयी | पिछली बार मुंबई से आकर उन्होंने उसे बहुत डाँटा था | आज सुबह से अभी 9 -40 पर मेरी पहली सिगरेट थी, जब कि अब तक तो चार पी चुका होता | सचमुच यह यदि मुझसे छूट जाय तो यह मेरे जीवन की नई शुरुआत होगी |   

* पार्टी कार्यकर्ता हैं | हाँ कविता - कहानी भी लिख लेते हैं |

* जैसे मुलायम सिंह समाजवादी , वैसे हम मार्क्सवादी |

* अमावट आ गया जब मार्केट में आम से पहले ,
तो क्यों मजदूर मजदूरी न माँगे काम से पहले ?
[ इसीलिये  लेखक = लेखन मजदूर लेखक संगठनों = ? ? का सदस्य होता है | विचारधारा को मारो गोली [ उसे कहीं नहीं देखा जाता, राजनीतिक पार्टियों में भी नहीं ] जहाँ से नाम संवर्धन - पिष्टपेषण प्राप्त हो तो उसका मंगल गान भला लेखक, वह भी भारतीय लेखक भला क्यूँ न करेगा ?]
संघवादी तो छोडिये, अब गाँधीवादी लेखक संघ में जाकर कोई क्या पायेगा ? चारो तरफ से लताड़ दुत्कार और दलितों की मार ?
लेकिन यह सब बड़े लोगों की बातें हैं | मैं कविकीय - लेखकीय दौड़ में नहीं हूँ | उनका एक कहना है कि जिस तरह का लेखन वे करते हैं उसमे बड़े खतरे हैं और संगठित न हों तो उन्हें लिखने ही न दिया जाय |पर इसे तो अभिवैयक्तिक मंच से भी लड़ा जा सकता है,लोकतंत्र के | असल बात " संघे शक्ति कलौयुगे " का है | अध्यक्ष - महामंत्री -सचिव आदि हैं तो ज़ाहिर है बड़े लेखक हैं फ़िराक , पन्त , महादेवी , या निर्मल वर्मा से | तो जब लिखने से पहले ही लेखक का रुतबा और राजनीतिक सत्ता के पथ प्रदर्शक होने का हनक मिलता हो तो क्यों न जाएँ संगठन में | संगठन की सदस्यता ही आपके लेखक होने का प्रमाणपत्र है | तो वही उर्दू का शेर :--
अमावट आ गया जब मार्केट में आम से पहले ,
तो क्यों मजदूर मजदूरी न माँगे काम से पहले ?
हाँ यह इसका ख़ास गुण है और उपलब्धि भी | यही क्रिया कर्म इसे जिंदा और गतिशील बनाये हुए है | लेकिन इनमे इतर स्वतंत्र लेखकों को अमान्य - दरकिनार क्यों किया जाता है ? यह पार्टी का कारकुन क्यों हो जाता है ? अंततः तानाशाही रवैये में क्यों ढल जाता है ? बटोही के सवाल का जवाब है - यहाँ निश्चय ही न सिर्फ कापियाँ जाँची जाती हैं बल्कि गतिविधियाँ भी आँकी जातीं , कैमरे के तले रहती हैं | उदय प्रकाश ने गोरखपुर में क्या किया ? मंगलेश डबराल ने राकेश सिन्हा आयोजन में भाषण क्यों दिया ? मित्र ! ऊपर से सब ठीक ठाक है, भीतर क्या है बहुत मुश्किल है जानना | [ Keshav Pandey]
मेरे निजी ख्याल से लेखक कभी बंधन में नही रह सकता | " प्रतिबद्ध " विशेषण से महिमामंडित करने से भी इसमें कोई फर्क नहीं पड़ता | यूँ भी सच्चा लेखक किसी का दुश्मन नई होता, और दोस्त तो किसी का नहीं | होता है तो मनुष्यता का मित्र और मूर्खता का शत्रु | इसे यूँ समझें कि यह भी क्या बात हुई कि यदि मैं आलोचना कर दूँ तो मैं आप का दुश्मन हो गया, और प्रशंसा कर दूँ तो दोस्त ? करनी तो नहीं चाहिए निजी बात सार्वजानिक मंच पर मैं वाम - दक्षिण -दलित -सवर्ण - गांधीवाद -राष्ट्रवाद सबमे मीन मेख खोद खोद कर निकाला करता हूँ, लेकिन मैं हूँ इनके अंश भर इनके परम मित्र | यहाँ तक कि नास्तिकता, जिसका मैं अपने को अलमबरदार कहता हूँ उसमे भी पेंच निकाला, खिल्ली उड़ाया करता हूँ | हाँ , याद आया लेखक मूलतः व्यंग्यकार होता है | ऐसा मेरा ख्याल है | लेकिन मैं लेखक नहीं हूँ | लिखता ज़रूर हूँ - अपनों को चिट्ठियाँ | [sri niwas rai shankar]
भूपट जी ! इससे इन्कार नहीं है | समूह संगठन के महत्व को मानना तो पड़ेगा, अन्यथा इतने बुद्धिमान, पढ़े लिखे लोग क्या निरे मूर्ख हैं जो संगठनों / पार्टियों में है ? हमेशा से रहे हैं | कुछ कुछ यह मुझे जींस/ डी एन ए / का मामला लगता है | जैसे मुझे व्यक्तिगत स्वातंत्र्य ज्यादा प्रिय है | इसमें मैं ज्यादा मुखर, भरपूर क्रियाशील हो पाता हूँ | संगठनों में हूँ, लेकिन जड़ीभूत सम | शायद पृथक जी का भी यही हाल है कुछ - उन पर उनके अध्ययन का मनोबल अतिरिक्त है |    


* जबसे बैल गए, बैलगाड़ी गयी, तब से यही नहीं याद रहा कि बैल " त ता " कहने पर किस ओर मुड़ते थे और " वो वो " कहने पर किस ओर ? कब दाहिने, कब बाएँ ?   

* किसी को गुरु बनाना, फिर उसका अन्धतः अनुकरण करना एक समस्या तो है ही, लेकिन इसके पीछे भी मूल में एक समस्या है - महानुभावों में गुरु बनने/कहलाने की चाह, शिष्यगण समूह बनाने की ललक, पाँव पुजवाने- गुरु दक्षिणा पाने की लालच | मैं बहुत दुखी हुआ यह देखकर कि ओशो जैसा नवीन प्रवाचक भी गुरु [ सदगुरु कह देते हैं अपना सर बचने के लिए ] की महिमा गाने से अपने को नहीं बचा पाया |            
[ मेरी निजी पूरी कोशिश है इन दोनों अवगुणों से अपने को बचाने की |]

* प्लान बनाया 
दिमाग खर्च किया 
तब तो हुआ ?

* कोई बताये 
खेल है या व्यापार 
आई पी एल ?

* जो भी हो जाय 
प्रेम के नाम पर 
वह कम है, 
ईश्वर के नाम से 
तो कुछ भी संभव |

* कब बनोगे 
ब्राह्मण , मेरे भाई -
दलित जन ?

* कभी इनके 
झाँसे में मत आना 
प्रतिमाएँ हैं |

* कितना सोचूँ
मन तडपत है 
जितना सोचूँ | 

* हुआ तो है ही 
होने वाला भी तो है 
हो ही रहा है !

* क्या फ़िज़ूल की 
बातें करते हो जी 
ऐसा नहीं है |

* कवितायेँ हैं 
संवाद का माध्यम  
बातें करतीं |

* टालते जाओ 
मिलने का समय 
प्रतीक्षानन्द ?

* आया रे आया 
हाइकु  जपान से 
लघु कविता,
और चटपटाता    
चाऊमिन चीन से |

* एक ब्राह्मण 
सबका किरकिरा 
दूजा मैकाले | 

* अपनी वाली 
तो हम हाँकेंगे ही 
सुनो न सुनो !

* बदनामी का 
सम्बन्ध बन जाय 
तो आनंद आये |

* उनका कहीं 
मन नहीं लगता 
मेरा भी नहीं |

* बनाया ? 
ठीक है ईश्वर ने तुमको 
और दुनिया को बनाया 
इसलिए उसकी पूजा करते हो,
गुण गाते हो, बहुत अच्छी बात है | 
लेकिन दुनिया में जिन लोगों ने 
तमाम कुछ उपयोगी चीज़ें बनायीं,  
जिन्हें तुम रोज़ इस्तेमाल करते हो, 
जिनके बगैर जीवन दूभर है तुम्हारा ,
बिजली, बल्ब, पंखा, कूलर, ए सी,
टी वी, फ्रिज, सायकिल, मोटर सायकिल, कार 
बनाने वालों को कभी प्रणाम किया, धन्यवाद दिया ?
टेलीफोन, जहाज़, हवाई जहाज़ का आविष्कार 
करने वालों के नाम तो तुम्हे पता ही नहीं होंगे ,
और दुनिया को सजाने- सँवारने वाले विचारकों 
दार्शनिकों, धरा के कर्मकारों चर्मकारों 
अरे हाँ, याद आया - जूते चप्पल बनाने वालों की 
कितनी पूजा की तुमने ?
धिक्कार है तुमको, ईश्वरप्रेमियों !
# # #                 

[ पाँच पतियों से चार पत्नियों तक की सभ्यता की यात्रा ]
सोचता हूँ कैसे हुआ होगा यह सब ? द्रोपदी का प्रकरण बताता है कि पहले औरतों को 5 पति रखने की सुविधा थी | फिर सभ्यता के चलते 4 फिर 3 फिर 2 फिर एक पर आये होंगे | फिर सभ्यता आगे बढ़ी [ नीचे गिरी या ऊपर चढ़ी, इसका निर्णायक मैं नहीं ], तो अब पुरुषों की बन आई होगी | पहले कहाँ एक बटे पाँच पत्नी का हिस्सा पाते थे, अब पूरी एक पत्नी पाने लगे होंगे | फिर सभ्यता आगे बढ़ी तो [ नीचे गिरी या ऊपर चढ़ी, इसका ज़िम्मेदार फिर भी मैं नहीं ] डबल पत्नी रखने लगे होंगे | आगे, दशरथ की तीन रानियाँ थीं | फिर इस्लाम के आते आते उसने अपने लिए चार बीवियां जायज़ कर लीं | [ सभ्यता नीचे गिरी या ऊपर चढ़ी, इसे क मैं नहीं जानता ] |   

* आज के हमारे नेता चाहे जितना ही राक्षसी प्रवृत्तियों से ग्रस्त हों, लेकिन वे कभी रावण कुम्भकरण की तरह ठठाकर राक्षसी हुंकार भरते नहीं देखे गए, जैसा कि हम राक्षसों को रामलीला या ऐसे सीरियलों में देखते हैं | कितने तो सौम्य, शालीन और सभ्यतापूर्ण आचरण करते हैं हमारे नेता ? 

* किसी संस्था का नाम = 
SANSTHA - संस्था =
Secular Atheist Nationalist Scholar and Tarkik Humanist Association .  

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