शनिवार, 13 अप्रैल 2013

Nagrik Blog 12 April 2013


* क्यों जल रहा है सूर्य तू 
साधारण पृथ्वी से 
ईर्ष्यावश ?
यह तो देख 
इधर शातिर मनुष्य 
चाहता है कि तू जले 
जलने में प्रसन्नता का 
अनुभव करे और यह आदमी 
तुम्हारे ताप से 
ऊर्जा प्राप्त करे और 
तुम्हारी मदद से वह  
जीवन सामग्री  जुटाए | 
यह देखो सूर्य 
वह तुम्हारा जल से 
अभिषेक कर रहा है |
तुम्हे अर्घ्य चढ़ा रहा है 
तुम क्यों जल रहे हो सूर्य ?
# # # 

* यह तो कहिये कि अभी कुछ अपढ़ बाक़ी हैं दुनिया में , जिनके भरोसे दुनिया चल रही है | वरना पढ़े लिखे लोग तो इसे कब का खोद खा कर बेच बिकिन चुके होते !

* यदि आपको अपनी बहुओं की शिकायतें सुननी अच्छी लगती हैं, तो आप अच्छे सास श्वसुर नहीं हैं |
  
* लोग गलत कहते हैं कि पुरुष ताक़तवर होता है | असली ताक़त तो होती है स्त्रियों की - - मुट्ठी में |


हिन्दू कहे सो हिन्दू होय |

* जात पात पूछे नहिं कोय ,
हरि को भजे सो हरि का होय |
- यह हम लोगों का , और हम लोगों का ही क्यों, हम सभी लोगों का, जो जात पात में विश्वास नहीं करते [ भले Absolute ढंग से बरत न पायें , अत्यंत प्रिय दोहा है | इसे किसने कहा मुझे तो यह भी नहिं मालूम | पता है तो बस कि जात पात मत पूछो  | 
अब इसमें थोडा फेर बदल करके इसका उल्था बनाया जाए तो भी आजकल के लिए प्रासंगिक एक अच्छा दोहा बनता है |]  
जात पात पूछे नहिं कोय ,
हिन्दू कहे सो हिन्दू होय |
[ इधर इस विषय पर कुछ चर्चा चल रही थी , इसलिए बोला ]

* हुकुम  के गुलाम  [ Evangelist ]
हम तो ईश्वर के हुक्म [हुकुम ] के गुलाम हैं | जो वह कहता है वह हम करते हैं | या जो कुछ हम करते हैं उसी के आदेश पर करते हैं | ऐसा माना जाना चाहिए |  इतना सामर्थ्यवान है वह |

* स्थिति बदल गयी है तो इतना मत इतराइए | ब्राह्मण भी कभी ऐसे ही इतराते थे |
[ To whom it may concern ]

* लेकिन ईश्वर है नहीं |

[ कहानी ]        " नासमझी  "
* न्यायाधिकारी  -- " तुमने जो पाप किया है उसके लिए मृत्युदंड  कुछ भी नहीं है | "
 पापी --- " जो मैंने आनंद पाया उसके लिए मृत्युदंड सचमुच कुछ नहीं है |"


* ज्यादा उत्साह में मत आइये | यही लिफ्ट नीचे भी ले जाने का काम करती है |

* अब वैवाहिक / पारिवारिक बंधन के अवसर पर पति -पत्नी, और यदि उनके पूर्व पत्नी / पति से बच्चे हों तो सबको एक साथ एक शपथ और जोड़नी  चाहिए कि = " हम केवल सेल पर लगे वस्तुओं, कपड़ों - जूतों और अन्य  सामानों  का ही प्रयोग करेंगे और उन्ही से काम चलाएँगे | नए सामानों पर फ़िज़ूल खर्ची नहीं करेंगे | " 

* लोग फ़िज़ूल बात करते हैं | कहाँ है स्वतंत्रता ? कभी नहीं होगी आज़ादी | सवेरे सवेरे या कभी भी फोन आता है | मैं धीरे से बात करता हूँ | पत्नी पूछताछ करती है - किसका फोन था ? अब कैसे कह दूँ [मैं लड़की होता तो Boyfriend ] मेरी गर्लफ्रेंड का ? सो कह देता हूँ - इंश्योरेंस / मोबाईल कंपनी की और से था | मैं झूठ बोलता हूँ | कहाँ है सच ? सच कभी नहीं आएगा |  


* सच कहें तो गीता भले ही हमारे पास हो लेकिन कर्म के मामले में हम उतने ही महा नाकारे हैं, जितनी  महान है यह पुस्तक | अब तो सिद्धांत ही उलट गया | हम फल की चाह करते हैं , कर्म की परवाह नहीं करते |

* जब मैं कोई साजिश रचता हूँ तो सोचता हूँ मैं सफल हो जाऊँ | लेकिन कोई दूसरा यदि मुझसे थोडा भी लाभ उठाना चाहे तो मैं उसे स्वार्थी कहकर उसकी भर्त्सना करता हूँ | है या नहीं यह, मेरा कमीनापन ? 

* यदि कोई मुझसे सिगरेट छोड़ने को न कहे तो मैं कहना चाहता हूँ कि वह बहुत मँहगी हो गयी है | और हर सरकार अपनी नैतिकता दिखाने के लिए इसकी कीमत बढ़ाती ही बढ़ाती है |

* पहले औरतें कहाँ लेती थीं अपने पति का नाम ? अब लेने लगीं न ? समय के अनुसार, अब दैनिक जीवन की आवश्यकता के दबाव में ?  तो , ऐसे ही और बदलेंगी, मजबूरन बदलेंगी औरतें | यह ज़रूर है कि इनका  बदलना ज़रा धीरे हो रहा है |


* * मान लिया जाय कि मोटे तौर पर अपनी निम्नतर अवस्था में हिन्दू अंधविश्वास का धर्म है | तो भी वह कोई हवा में तो रहता नहीं है, न किसी टापू Iceland  पर | वह भी अपने आस पड़ोस से प्रभावित होता है | वह देखता है कि इस्लाम तो परमविश्वासी मज़हब है | अतः दोनों में कोई दूध का धुला नहीं है | बल्कि हिन्दू का अंधविश्वास तो उसके अपने लिए ही घातक है , जब कि मुसलमान का इस्लाम पर परमविश्वास पूरी दुनिया को नचाये हुए है | इसलिए जब तक मुसलमान अपना विश्वास वैज्ञानिक नहीं बनाता, हिन्दू भी अपने विश्वासों से चिपका रहना चाहता है | प्रतिद्वंद्विता में या अपने स्वतंत्र सरवाईवल के लिए उसे वह छोड़ना नहीं चाहता | उसे संदेह है कि इस्लाम का घड़ियाल उसे खाने की ताक में हैं और खा ही जायगा यदि वह एकजुट ताक़तवर नहीं हुआ, जिस तरह उसने बाहर से आकर भारत पर कब्ज़ा जमा लिया | इसके लिए अब उसके पास कोई एक कुरआन तो है नहीं, जिसके ऊपर सब एक साथ मर मिटें ? न कोई एक मोहम्मद, न एकमात्र अल्लाह जिनके लिए वह आसमान सर पर उठाने को सन्नद्ध हो जाए ? दर्शन के स्तर पर तो उसके पास इतनी विविधता, इतने आयाम हैं कि उस धरातल पर तो वह एकताबद्ध हो नहीं सकता, विभाजित भले हो जाय | राजनीतिक विकल्प भी उसे असंभव दिख रहा है | उसने भाजपा का भी हश्र देखा, और बहुजन वादी मायावती को भी परखा | सो, उसके पास कुछ कामन/ साझा अंधविश्वास ही बचते है एकता का प्लेटफार्म बनने के लिए | तो कभी राम, कभी रामसेतु ही उसके हाथ आते हैं | इस महीन बात को भारत के महान हिन्दू विचारक नहीं समझते, अब तो वे अपने आप को हिन्दू ही नहीं बोलते  | या जान बूझकर उदघाटित नहीं करते क्योंकि इससे उनकी महामत्ता पर ग्रहण जो लग सकता है ! सही है, हिन्दू को बड़े दिल बड़े दिमाग का होना ही चाहिए | लेकिन हम छोटे विचार खिलाडियों का अनुमान है कि संसार के छोटे छोटे गुणांकों को नज़रअंदाज़ करना कोई बड़प्पन का चिन्ह नहीं है | आसुरी शक्तियों की साजिशों को समझना भी बुद्धिमानों की ज़िम्मेदारी में शामिल होना चाहिए |   
और मिस्टर हट्टीन्गटन कहते या नहीं कहते यह तो मानना ही होगा कि इस्लाम की गैर दुनियावी / अन्यसंसारपरक अवैज्ञानिक दृढ़ धारणाओं और कठोर मान्यताओं के खिलाफ हिन्दू या अमरीका- बर्मा- ब्रिटेन  क्या होंगे, स्वयं स्वस्थ मानस के मुसलमानों को भी होना पड़ेगा, यदि मानव सभ्यता को बचाना है तो | ऐसा नहीं कि इस्लाम में जो कुछ है वह सारा गलत ही है, या हम उनके नैतिक पक्षों के चिरविरोधी है,  बल्कि इसलिए कि वे जो कुछ भी मानते हैं उसे ही एकमात्र सत्य मानते हैं , उसके खिलाफ कुछ भी सुनना उन्हें गवांरा नहीं, उसे सबसे मनवाना भी चाहते हैं -मनुष्य को Free inquiry छोड़ मज़हबी बनाना अपना परम कर्तव्य मानते हैं | लादेन सिर्फ मुसलमान नहीं होते, वे बुश से भी इस्लाम कुबूल करने की तजवीज़ करते हैं | वह भी सहमति से नहीं, भय और आतंक का माहौल देकर | यह तो गलत ही है न ?            


* Ambrish Kumar
भारतीय कालबोध और कालगणना

सृष्टि छान्दोग्य है। इसका अन्तस् छन्दस् है। छन्द की अपनी लय होती है। प्रकृति सदा से है। यह लय में प्रकट होती है और प्रलय में अप्रकट। प्रलय में भी लय बची रहती है। ऋग्वेद के एक मंत्र में कहते हैं कि “वह वायुहीन स्थिति में भी अपने दम पर सांस ले रहा था - आनादीवातं स्वधया तदेंक। ‘स्वधा’ उस एक प्रकृति की अनंत प्राण ऊर्जा है। इसलिए वायु नहीं है तो भी सांस जारी है। ऋग्वेद का ‘वह एक-तदेकं’ बड़ा दिलचस्प है। इसी ‘वह एक’ को विद्वान-विप्र इन्द्र, मित्र, अग्नि मातरिश्वन गरूण आदि देव नामों से पुकारते हैं लेकिन वह ‘एकं सद्’ - एक ही सत्य है - एकंसद् विप्रा बहुधा वदन्ति। (ऋ0 1.164.46) सृष्टि सृजन परिवर्तन की ही कार्रवाई है। परिवर्तन के भीतर गति होती है। जहां गति है, वहीं समय है। सृष्टि के पहले देवता भी नहीं है। ऋग्वेद के ऋषि कहते हैं “देवानां युगे प्रथमऽसतः सद जायत - देवों के युग के पहले असत् से सत् की उत्पत्ति हुई। यहां असत् का अर्थ सृष्टि का पूर्वकाल है। यही व्यक्त होता है तो सत्।’

प्रकृति जन्म नहीं लेती। वह अजन्मा है। ऋग्वेद (10.82.6) के अनुसार “सृष्टि के आदि से ही विद्यमान वह एक अज-अजन्मा है। इसी अज की नाभि में सभी भुवन समाहित थे।” ‘अज’ आधुनिक ब्रह्माण्ड विज्ञानियों का ‘कासमोस’ है। वह एक अज गतिशील हुआ। गति से परिवर्तन आया। विज्ञान की दृष्टि से प्रत्येक सृजन/परिवर्तन के पीछे एक ऊर्जा है। ऊर्जा का रूपायन सृष्टि है। यही सृष्टि सर्जना है। प्रकृति की शक्तियां उगीं। ऋषियों के अनुसार वे देवता थीं। बृहस्पति कहते हैं “व्यापक जलों में देवता थे- यद् देवा सलिले सुसंरब्धा अतिष्ठत्। उनके नृत्य से तेज गति वाले रेणु अणु-परमाणु प्रकट हुए।” (10.72.6) ऋग्वेद (10.190.1, 2) में कहते हैं “तप से ऋत व सत्य (व्यक्त जगत्) प्रकट हुए। अंधकार-रात्रि और अगाध जल समुद्र आये। समुद्रों से संवत्सर प्रकट हुआ - समुद्रादर्ण वादधि संवत्सरों अजायत्।” सृष्टि के साथ काल उगा। इसी काल का प्रथम दर्शन ही संवत्सर है।

भारतीय दर्शन में सृष्टि और प्रलय का क्रम जारी बताया गया है। है लेकिन प्रलयकाल में भी समूची ऊर्जा का नाश नहीं होता। प्रलय के बाद फिर से सृष्टि होती है। गति का मूल ऊर्जा है। ऊर्जा अविनाशी है। गति का नाश नहीं होता। समय भी अविनश्वर है। प्रलय के बाद भी ऊर्जा, गति और समय शेष बचते हैं। सृष्टि बार-बार आती है। भारतीय दर्शन में इसीलिए ‘कालचक्र’ है। उसका पहिया घूमता है और बार-बार सृष्टि व प्रलय लाता है। सृष्टि और प्रलय के खेल प्रकृति की इकाईयों में भी चला करते हैं। प्रकृति में द्वैत दिखाई पड़ते हैं - यहां रात-दिन हैं। जीवन-मृत्यु हैं। प्रकाश-अंधकार हैं। रात्रि ऋत है, दिन सत्य है। दिन ज्ञान है, रात्रि तमस हैं। दिन सक्रियता है, रात्रि विश्रांति है। सृष्टि अपने छन्द्स में गतिशील है। काल रथ का पहिया घूम रहा है। पूर्वजों में कालबोध था। कालबोध ही दूसरे सीमित रूप में इतिहासबोध है।

खूबसूरत रथ पर सवार काल हर बरस मधुमय नवसम्वत्सर लाता है। वे काल सर्वशक्तिमान देवता हैं। अथर्ववेद (9.53) के ऋषि भृगु ने उनकी महिमा गायी है, “काल-अश्व विश्वरथ का नियन्ता है। वह सहस्त्र आंखों वाला है। सबको देखता है। समस्त लोक कालरथ के चक्र हैं। ज्ञानी इस रथ पर बैठते हैं। यह काल सात चक्रों का वाहक है। इसकी सात नाभियां हैं। इसकी धुरी में अमृत है। ज्ञानी इस काल को विभिन्न रूपों में देखते हैं।” कैसे देखते हैं? भृगु ने बताया है “काल से ही सृष्टि सर्जक प्रजापति आये। काल स्वयंभू है। वह स्वयं किसी से नहीं जन्मा। काल से ही विश्वजन्मा। काल में तप हैं। काल में मन है। काल में ज्ञान है। काल विश्व पालक और सबका पिता तथा पुत्र है। काल में पृथ्वी की गतिशीलता है। काल से ही सूर्योदय और सूर्यास्त हैं। काल में ही भूत, भविष्य और वर्तमान हैं।” सृष्टि का उद्भव शून्य से नहीं हो सकता। सृष्टि रचना के पहले कोई एक आदि द्रव्य है। इसी आदि द्रव्य में सृष्टि का समूचा पदार्थ-जड़ और समस्त ऊर्जा-चेतन एकत्रित है। फिर आदि द्रव्य में परिवर्तन हुआ, जो अव्यक्त था, अप्रकट था वह व्यक्त होने लगा। प्रत्येक परिवर्तन का मूल गति है। परिवर्तन से ही काल बोध होता है।

वैदिक ‘निरूक्त’ में यास्क ने ठीक ही काल का सम्बन्ध गति से जोड़ा है। काल अखण्ड सत्ता है। काल पिता है, वही पुत्र भी है। काल की अनुकम्पा आयु है, काल का कोप मृत्यु है। काल में सर्जन है, काल में ही विसर्जन है। भारतीय कालबोध ऋग्वेद से भी पुराना है। यही कालबोध प्राचीन काल में ईरान पहुंचा। अथर्ववेद का ‘काल’ ईरानी ग्रंथ अवेस्ता में ‘जुर्वान’ है। जैसे अथर्ववेद का काल प्रतिष्ठित देवता है, वैसे ही अवेस्ता का जुर्वान भी एक देव है। भारतीय काल सबका नियंता है और प्रजापति का पिता है। इसके भीतर प्रकाश और अंधकार है। दिवस और रात्रि है। ‘जुर्वान’ भी अनंत है। संसार के रचयिता अहुरमज्दा उसकी संतान हैं। अहुरमज्दा भारतीय प्रजापति हैं। इस विचार के अनुसार जब न आकाश था, न पृथ्वी, न कोई जीव तब ‘जुर्वान’ था। यहां सीधे ऋग्वेद के सृष्टि सूक्त की प्रतिध्वनि है। भारतीय नववर्ष की शुरूवात किसी ऋषि, महात्मा या महापुरूष की जन्मतिथि से नहीं होती। बेशक इस तिथि में अनेक महापुरूष उगे, अनेक निर्वाण को प्राप्त हुए। युधिष्ठिर विक्रमादित्य सहित अनेक पूर्वजों ने अपने संवत्सर भी चलाये। अंग्रेजी कालगणना ईसा से शुरू होती है। लेकिन प्रथम संवत्सर का प्रथम आलोक, प्रथम दिवस और प्रथम तिथि की गणना अनूठी है। सृष्टि जिस क्षण शुरू होती है, उसी समय संवत्सर का प्रारम्भ हो जाता है। संवत्सर का प्रारम्भ सार्वभौमिक है। संवत्सर व्यक्त सृष्टि का प्रथम ऊषाकाल है। यह सम्पूर्ण जगत् का प्रथम सूर्योदय है। सृष्टि ब्रह्म का प्रथम सुप्रभात है। इसलिए अंतर्राष्ट्रीय नववर्ष है। वैदिक संवत्सर की धारणा अद्वितीय है।

भारतीय काल गणना के पहले कालबोध है। फिर काल गणना है। इस गणना में सृष्टि की आयु एक अरब 95 करोड़, 58 लाख, 85 हजार एक सौ तेरह वर्ष हो चुकी है। वैज्ञानिक अनुमान भी यही हैं। इस संवत्सर का केन्द्र सूर्य हैं, पूरा सौर-परिवार है। ऋग्वेद (1.164) में कहते हैं “सूर्य को हमने सात पुत्रों - किरणों (वर्णो) के साथ देखा है। इनके मध्यम भाई वायु हैं, उनके तीसरे भाई अग्नि हैं। ऋत का 12 अरों वाला चक्र इस द्युलोक में घूमता है। यह चक्र कभी जीर्ण नहीं होता। इसके 720 पुत्र इस चक्रम में हैं।” यहां ऋत प्रकृति की व्यवस्था है और अरे 12 माह हैं। एक वर्ष में दिन रात मिलाकर 720 अहोरात्र हैं। विश्वदर्शन, काव्य सृजन या चिन्तन की किसी भी पद्धति में काल का ऐसा अध्ययन विवेचन और विश्लेषण नहीं मिलता। सृष्टि सर्जन के पहले काल बोध नहीं है, सम्वत्सर भी नहीं है। सम्वत्सर और सृष्टि साथ-साथ।

टाइम और काल (समय) पर्यायवाची नहीं है। काल अखण्ड है, टाइम इसके खण्ड का माप है। ऋग्वेद में अदिति, अज और पुरूष प्रतीकों की अनुभूति गहरी है। ऋषि कहते हैं “जो अब तक हो चुका और भविष्य में जो होगा वह सब अदिति हैं। वह सब यही पुरूष है।” वैदिक अनुभूति में समूची कालसत्ता अखण्ड है। यूरोपीय दृष्टि में भूत-पास्ट एक टेन्स-तनाव है। भूत का अस्तित्व वर्तमान में स्मृति है। इसी तरह फ्यूचर टेन्स भविष्य का आकर्षण है। तनाव मस्तिष्क गत कार्रवाई है। प्रजेन्ट फ्यूचर या पास्ट टेन्स कालगणना नहीं है। भारतीय कालबोध का क्षण सृष्टि की शुरूवात है। फिर युग है। महाभारत युद्ध के 36 वर्ष बाद यानी ईसा पूर्व 3103 वर्ष से कलियुग चल रहा है। युगाब्ध की दृष्टि से भारत की 52वीं सदी है। विक्रमसंम्वत् की दृष्टि से यह 2070 सम्वत् है। यही शकसंवत्सर 1934 है। लेकिन ईसा की दृष्टि से यह 21वीं सदी ही है। भारत की प्रतीति, अनुभूति वैज्ञानिक है।
[हृदयनारायण दीक्षित]

* पत्रकारिता 
टिटहरी की टाँग
थामे आकाश |

* बुद्धि शुद्ध हो 
ह्रदय पवित्र हो 
यही साधना |

* केवल कर्म 
वाद - विवाद मुक्त 
चिर साधना |

* मान लीजिये 
मसलन यही कि
मैं भी आदमी  |

* असहमत 
मैं किसी भी बात से 
हो सकता हूँ |

* कोई अवस्था 
आपत्तिजनक है 
कैसे तय हो ?

* मिल गए हो 
तो साथ ही रहना 
दूर न जाना |

* सब देखेगे 
दिखाई जो पड़ेगा 
यह तय है |

* सारी औरतें 
भूखी प्यासी नहीं हैं 
आपके लिए |

* खुद ही बनो 
 जो कुछ बनना हो   
वही 'बनना' |         

* बोलता तो हूँ 
नैतिकता विरुद्ध 
जा नहीं पाता |      

* प्यार ही बोलो 
नाटक करना हो 
जब भी कभी |

* सारा साहित्य 
कहने की बातें हैं 
सुन लीजिये |

* गुंडई करो 
सिद्धांतविहीन हो 
सफल बनो |

* जाति का नहीं 
व्यक्ति का, आदमी का 
विकास सोचो |

* आप तो हैं न ?
मुझे किसी और की 
ज़रुरत क्या ? 
किसी भगवान की  
मुझे क्या चाह ?
[हाइकू ]


* Ugra Nath Nagrik 
       Acivist 
         @
" EXTRA  FUNCTIONS "
L - V - L , ALIGANJ ,
Lucknow - 226024    


* इंशा अल्लाह , शायद - संभवतः का पर्यायवाची है | बस !

Shraddhanshu Shekhar Bhagwaan hi jaanta hai = MUJE NAHI MALUM ka paryayvachi
-- हाँ बिल्कुल | हम इसी तरह उसका " इस्तेमाल " करेंगे  | साँप  [ईश्वर ] भी मर जाए, लाठी [मानुषिक / पारस्परिक  व्यवहार ] भी न टूटे  | 

[ कविता ?]
* सोचे रहता हूँ 
झगड़े की भूमिका 
झंझट की ज़मीन
ताड़े रहता हूँ 
विवादों के जड़ 
जिससे वे झगडा -
झंझट - विवाद के वक़्त 
काम आयें ,
मैं कह तो सकूँ -
तुमने यह कहा नहीं था ? 
ऐसा बोला था या नहीं मुझसे ?
तो फिर ?
जब कि मेरा दुश्मन 
उन बातों को बिल्कुल
भूल चूका होता है |
लेकिन मैं याद रखता हूँ 
तैयार रखता हूँ 
दुश्मनी की भावभूमि 
जिससे वे समय पर काम  आयें |
# # 

[ कविता ?]
* ज्यादा सतर्क रहने की 
ज़रुरत नहीं है नागरिक !
कुछ नहीं होगा ,
विश्वास में धोखा है 
तो चालाकी में भी 
हार जाओगे |
भरोसे में तो फिर भी 
जीत जाने की संभावना है |
हर दम चौकन्ने 
मत रहो नागरिक |
# #    

* I am pleased that the Time Line of  House of Commons [ group ] has been changed from a collage of political leaders to photos of us people on basically my request to its Admin supported by other many members . Thanks Admin .

* वीरता तो है 
यदि सच पूछो तो 
कबीरता में |
[Haiku Poem inspired by Advait]

* परदे पर 
हीरो - हीरोइन के 
चुम्बन देखकर 
क्या करुँगी ?
उससे अच्छा तो तब था 
जब उसने मेरा आँचल
छुआ था |


मानवीय पक्ष [ A Party ]
? ? ? ? ? ? - - 

* मैंने अपना वचन जिया :-- 
All India Peoples Science Congress के पिछले फरवरी में लखनऊ के आयोजन में बिहार के कुछ साथी मिले थे | यहाँ कोलकाता आने और प्रवास दीर्घ हो जाने पर उनसे मिलने का कार्यक्रम बना | 4 अप्रेल से 6 अप्रेल तक कटिहार में गोदावरी देवी और सुरेन्द्र कुमार के साथ रहा - खाया पिया - घूमा फिरा | लेकिन यकीन मानिए, उनसे मैंने उनकी जाति नहीं पूछी, न अन्य प्रकार से ही जानना चाहा | मैंने अपनी स्वनिर्मित नियम का पालन किया | लोग कहते हैं जाति जाने बिना काम नहीं चलता | मेरी जिद है मैं किसी से उसकी जाति नहीं पूछता |   I feel good .
  

* I can love you too much, if I am subjected to spend my money too less on you .
# # # # # ################################################################### end 

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