।। एक मजदूर का धर्म और कर्म।।
वैसे तो मजदूर कोई भी हो सकता है चाहे वह किसी भी जाति, समाज या राज्य का हो। एक मजदूर इन सभी के बंधनों से मुक्त होता है।
चाहे कोई हिंदू हो, मुस्लिम हो, सिक्ख हो, ईसाई हो, दलित हो, सवर्ण हो, अल्पसंख्यक हो या बहुसंख्यक हो सभी ने कभी न कभी प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से मजदूरी किया होगा। मजदूरी करने के लिए किसी विशेष जाति या मजहब, समाज या समुदाय को अपनाने की कोई आवश्यकता नहीं होती, एक मजदूर के लिए कर्म ही प्रधान होता है। निरंतर कर्म करते रहना ही एक मजदूर का परम कर्तव्य होता है, परंतु अक्सर यह देखा गया है कि निरंतरता हमेशा बनी नहीं रहती।
एक मजदूर अक्सर जाति- पांति, वर्तमान में व्याप्त तथाकथित धर्मों, वैचारिक, सामाजिक व आर्थिक असमानता के कारण अपने पथ से विमुख हो कर राजशाही के विषैले कुएं में डूब जाता है।
और इसका मुख्य कारण है कि मजदूर का कोई संवैधानिक, सर्वव्यापी धर्म के आस्तित्व का ना होना। यदि मजदूरों का भी कोई व्यापक धर्म होता और उस धर्म का पालन करने के लिए विशेष विचारधारा होती तो कोई मजदूर कभी पथभ्रष्ट नहीं होता और निरंतरता हमेशा बनी रहती।
आवश्यकता है एक ऐसी विचारधारा की जो व्यक्ति को मजदूर बनाए रखे और एक पहचान की जिससे कि विचारधारा को लागू किया जा सके। पहचान को बनाए रखने के लिए ही आज इतने धर्म आस्तित्व में आये हैं, या समझ लीजिए कि पहचान को बनाए रखने के लिए जो विधि कार्य करती है उसी को धर्म कहा जाता है।
तो क्यों ना एक ऐसा सर्वव्यापी धर्म हो जिससे कि कर्म प्रधान व्यक्तियों का आस्तित्व कायम रह सके? क्यों ना एक एक नए धर्म को आस्तित्व में लाया जाये जिसे मजदूरों के धर्म की संज्ञा दी जा सके और एक पहचान मिल सके?
उग्रनाथ'नागरिक'(1946, बस्ती) का संपूर्ण सृजनात्मक एवं संरचनात्मक संसार | अध्यात्म,धर्म और राज्य के संबंध में साहित्य,विचार,योजनाएँ एवं कार्यक्रम @
बुधवार, 17 जुलाई 2019
मजदूर आंदोलन
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