शनिवार, 26 अक्तूबर 2013

[ नागरिक पत्रिका ] 16 से 26 अक्टूबर , 2013

* श्रद्धेय स्व अमृत लाल नागर की 97 वीं जयंती 19 अक्तूबर को जयशंकर प्रसाद सभागार में संपन्न |

[ कविता ]    " चश्मा "

* चश्मा मुझे
अखबार - किताब पढ़ाता है ,
चश्मा मुझे
देश - दुनिया दिखाता है ,
लेकिन चश्मे को मैं
कहाँ देख पाता हूँ ?
वह अपने को मुझसे छिपाता है |
#  #

* मैं ही क्यों आऊँ
तुम्हारे पास ?
तुम क्यों न आओं
हमारे पास ?
#  #

* ग़ालिब के भी अशआर अब गालिबन हुए ,
कोई असर करते नहीं उजड़े दयार में |
[ कैसी रही by - ugranath ]

* " जैसा मेरा मन कहता है , वैसा मेरा ईश्वर कहता है ."

* सेक्युलर सरकार वह जो देश के धर्मों के आचरणों पर भी निगाह रखे, उनमे दखल दे और उन्हें नियंत्रण में रखे | [मजहबों]

* " देवा में दबे पाँव "
मैंने देवा मेले गया था | पीछे से से एक एम्बेसडर काफिला हूटर बजाते प्रवेश द्वार से मेले में घुसा | अच्छा नहीं लगा | It was a shear disgrace to the Holy soul , a Blasphemy ?

  • दलित और पिछड़े जब ब्राह्मणवादी काम करने लगते हैं, तब वे हिंदुत्व का बड़ा नुक्सान करते हैं | उदाहरणार्थ कल्याण सिंह का बाबरी मस्जिद ध्वन्सीकरण का कार्य देख लीजिये |




  • अन्यथा न लेंगे , सचमुच मैं अपने भीतर एक शीर्ष नेता का अनुभव कर रहा हूँ , सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक |

* " हिन्दू कोई धर्म नहीं किताबों का ढेर है | लाइब्रेरी है | तमाम लाइब्रेरियन हैं |"
[ आप भी एक लिख दो | वह भी हिन्दू हो जायगा | मसलन ' लज्जा ' ही ]

* सार्वजनिक चेहरों पर चंदन टीका [ Personal Identity Mark ] कुछ अच्छे नहीं लगते , शोभा नहीं देते | मुझे नहीं लगता इससे कोई राजनीतिक लाभ मिलने का !

* जैसे मैं कहता हूँ कि धर्म को बस धर्म होना चाहिए , जैसे हिन्दू , जिसका कोई धर्म नहीं | जब जैसा बनाना मानना चाहो , यह हाज़िर | उसी प्रकार पार्टी भी एक , यथा कांग्रेस होनी चाहिए | उसी के अंदर  तमाम विचारधाराओं के गुट - समूह हों , और अपना प्रभाव , दबाव पार्टी पर डालें | जो सशक्त होगा उसी का पी एम बने | * मुझे कोई एक व्यक्ति ढंग का नहीं मिल रहा है , जो व्यक्ति भी बेहतरीन हो और सामाजिक सोच में भी उम्दा हो | वर्ना मैं अभी एक पार्टी बनाकर उसे PM घोषित कर देता | फिर भी मैं एक "गरीब नवाज़ "  पार्टी बनाना चाहता हूँ | पटना के बुद्धिवादी मित्र डा रमेन्द्र का एक लेख ( किताब ) प्राप्त - पीटर सिंगर के विचार पर उनकी समीक्षा |
जो पढ़ना चाहें वे अपना ईमेल ID भेजें |

* यह अनुभव यूँ तो काफी पुराना है ,लेकिन इसमें नया अध्याय आज जुडा तो लिखना पड़ रहा है | मैं अपने एक समृद्ध मित्र के घर पर था | देखा बात बात पर पूरा घर छोटे से नौकर के भरोसे था | रामू , एक गिलास पानी / रामू , मेरा जूता लाना / रामू , मेरा क्रिकेट बैट / रामू , ये कपड़े फैला / रामू यह , रामू वह | तब मेरे मन में विचार कौंधा की असल मालिक कौन है और कौन असली गुलाम ?
अब पलटकर आता हूँ हिन्दुओं पर निरंतर डाले जा रहे लांछनों पर | सारांशतः हिन्दू कौम इतनी लिद्धड और नालायक है , यह दकियानूस है अन्धविश्वासी, डरपोक, राजनीति में फिसड्डी , धन दौलत से अरुचि पैदा करते इनके संत , इस दुनिया से ज्यादा स्वर्ग की चिंता करता राष्ट्र ! हुंह, इसे तो गुलाम होना ही था , शासित | कभी इनकी , कभी उनकी |
लेकिन क्या यह सच है ? मैं अपना पुराना अनुभव प्रयोग में लाता हूँ | मेरा मित्र मालिक था या उनका नौकर रामू ? दार्शनिक दिमाग लगाईये तो रामू मालिक हुआ | लेकिन सच्चाई तो यह है कि रामू नौकर था और मित्र के टुकड़ों पर पल रहा था | वह उसे गाँव से ले आये थे | इसी तरह मैं उपमा लगता हूँ कि हमारे शासक हमारे नौकर थे , हमारे सेवक जिन्हें हमने इस काम पर लगाया था | इसका मतलब यह नहीं कि वह हमारे मालिक हो गये और हम गुलामी झेलने के लिए अभिशप्त हो गये | गलत आरोप लगते हैं हिंदुत्व पर | वह जो है, जैसा है वह है | वह हिन्दू ही रहेगा | क्या वह अंग्रेजों की तरह लालची हो जाय और आक्रान्तों की भाँति हिंसक ? नहीं , यह जिनका काम है उन्ही को मुबारक | ऐसे काम मैं उन्ही से लेता हूँ | मैं शासन करने की ड्यूटी पर किन्ही को लगाऊँ , इससे मैं उनका गुलाम नहीं हो जाता | हिन्दू कौम को इसके लिए अपमानित करना , किया जाना बंद होना चाहिए |

* साहित्यकार की व्यथा =
कैसे कहूँ कि यह सचमुच एक साहित्यकार की व्यथा ही व्यथा है , लेकिन जरूर है यह मेरी दशा | भले मैं परंपरागत रूप से साहित्यकार की श्रेणी में नहीं आता | कहा जाता है साहित्यकार के कुछ सरोकार , सामाजिक दायित्व होते हैं , जिसके तहत वह लिखता है | ज़रूर होता होगा , और ऐसे साहित्यकार अनेकानेक हैं | वे पत्र - पत्रिकाओं में छपते हैं , पैसा - नाम और पुरस्कार पाते हैं | मैं इस कसौटी पर खरा नहीं उतरता | मेरा लेखक अपने मन और बुद्धि के सरोकार और उत्पाद लिखता है | मैं किसी अन्य की नहीं लिखता | और यदि किसी को यह लगता है की मेरी बात तो सृष्टि और समूची मानव संस्कृति को संबोधित है तो ऐसा इसलिए होता है की वह सृष्टि वह दुनिया  मेरे भीतर होती है , वह स्वयं मैं होता हूँ |
मेरे विचार से साहित्यकार समकालीन समाज को चित्रित नहीं करता | या होते होंगे ऐसे भी साहित्य और साहित्यकार ] | साहित्यकार तो वह जो अपने समय के सीने पर पैर रखकर आगे की और छलांग लगा देता है | वह लिखता तो आज है , लेकिन कल की, भावी समय लिखता है | आज का लेखन तो पत्रकार , नेता और लेखक चिंतक जन करते हैं | लेकिन वे साहित्यकार नहीं होते | उन्हें साहित्यकार समझने की भूल की जाती है , लेकिन यह सच नहीं होता | साहित्यकार के लेखन पर तो कल का समय निर्मित होता है , क्योंकि वह आगे की पीढ़ियों के लिए होता | आगे की पीढ़ी ही उसे ठीक से समझ पाती है | इसीलिए यह आश्चर्य की बात नहीं कि किसी भी साहित्य को उसका सृजन काल में समझा नहीं जा पाता , और भविष्य उन्हें पलक पांवड़े उठा लेता है | मैं वैसा लिखता हूँ इसलिए मैं वस्तुतः साहित्कार हूँ यह कहना मेरा आशय नहीं है | बल्कि मैं यह कहना चाहता हूँ कि ऐसी ही रचनाओं को मैं साहित्य मानता हूँ , और इन्हें लिखने वालों को ही साहित्यकार | ज़ाहिर है , साहित्यकार एक दुर्लभ जीव है |
मेरे समसामयिक साहित्यकार न हो सकने का एक संकट और है | सामयिक जीवन को चूँकि अभी , इसी वक्त जीना होता है , इसलिए उसके साथ मैं तालमेल , सामंजस्य स्थापित कर लेता हूँ | अधिकाँश द्वंद्व तो समाप्त हो जाते हैं | तो बिना विसंगति के साहित्य कैसे रचा जा सकता है ? विसंगति तो साहित्यकार अपने भावी इच्छित , आदर्श या मनचाही स्थिति के साथ पैदा करता है, बनाता है | जिसे जीने की उसे बाध्यता -विवशता नहीं होती , और तब वह उसे खुल कर लिख पाता है | इसीलिए कहा गया है कि साहित्यकार आगे की लिखता है , अभी की नहीं |और यह भी कि जहां न जाए रवि वहाँ जाए कवि | अभी का लेखन तो जिलाधिकारी के नाम प्रार्थनापत्र अथवा पुलिस को दी जाने वाली यफ़ आई आर ही हो सकती है | और यही कारण है कि जो साहित्यकार जीते भी इसी समय को हैं और लिखते भी इसी समय को हैं ,उसे कितना भी सामाजिक सरोकारों से युक्त बता उसका गुणगान करें ,वह निम्न स्तर का ही होकर रह जाता है | फिर भी तुर्रा यह की उसे वे कालजयी कहे जाने का हठ पाल लेते हैं | कोशिश पैरवी से पुरस्कार - सम्मान पा तो लेते हैं लेकिन चूँकि वह उसे डिज़र्व नहीं करते , तो एक अतिरिक्त , अनावश्यक दंभ और घमंड से भरे हुए वे बड़ी आसानी से समाज में देखे जा सकते हैं |
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कोफ़्त [agony]
संतों के सपनों में अब ईश्वर तो आते नहीं | आता है तो सोना , स्वर्ण , सुवर्ण | वह भी तोला - दस तोला नहीं, कई कई कुन्तल | और ईमानदार इतने कि खुद नहीं खोद पाए, भले इनके बताये अन्य स्थानों पर चोर बदमाश खुदाई करने लगे | लेकिन ये कोई वो तो नहीं ! इसलिए इन्होने सरकार को चिट्ठी लिखी, सपना बताया | अब पूरे देश में वैज्ञानिक दृष्टि  फ़ैलाने की ज़िम्मेदारी की तहत सरकार ने भी फौरन अपने वैज्ञानिक अंग को खुदायी पर लगा दिया | अरे नहीं नहीं,सोने के लिए नहीं भाई , पुरातात्विक अन्वेषण के लिए | अब पीटा करें माथा अपना हम जैसे लोग !
कहना था सरकार को - " संत जी सोना है तो उसे 'सोने ' दीजिये | आप का सपना हमने सुन लिया यही बहुत है | अब हम इसे अपने ढंग से देखेंगे | और अब आप सोने का सपना देखना बंद कर कुछ ईश चिन्तन कीजिये | आप के लिए स्वर्ण का दर्शन आपकी भाषा में 'पाप ' है | देखिये एक बाबा का हश्र , जो " सुवर्णा " के चक्कर में पड़े थे |"
हमें कहना पड़ेगा कि डोभालकर की हत्या का दोषी उनके हत्यारे नहीं , स्वयं यह बेपेंदी का लोटा सरकार है |
[ सपनो का भी एक विज्ञान है | घोर अवचेतन में दबी छिपी कामना , -- - ]

* मैं सोच रहा था कि चलो मोदी तो पी एम् तो हो गए | लेकिन अन्य मंत्री कौन होंगे ? क्या एम् एम् जोशी मंत्रिमंडल से बाहर होंगे ? और तब कए होगा ? मोदी राम मंदिर को हवा नहीं देते , पर अन्य जन तो उसे जीवन मरण का प्रश्न बनाये हुए हैं | तब क्या सरकार चल पाएगी ?

* You said ," that's good ". So ,  that's good . आप खुश हो सकते हैं कि आपने एक नास्तिक के कार्य की तारीफ़ की और साथ में अपने धार्मिक कार्यों की सूची भी थमा दी | लेकिन फर्क है और बहुत बड़ा है | नाज़ शहनाज़ का छोटा सा भी काम आपके बड़े बड़े कार्यों से श्रेष्ठतर है क्योंकि उसने जो भी किया अपनी मानवीय प्रेरणा से किया | जबकि धार्मिक जन जो जन हितैषी कार्य करते हैं वह स्वर्ग - जन्नत की चाह में, अपने भगवान् को खुश करने , उनकी कृपा दृष्टि प्राप्त करने के लिए करता है | इसलिए उसका कार्य दोयम और दूषित हो जाता है, क्योंकि वह स्वार्थ प्रेरित होता है | उधर नाज़ को कुछ मिलना नहीं, पाना नहीं है | फिर भी वह कर रही है, थोडा भुत, जो भी उससे बन पड़ रहा है | इसलिए उसका पलड़ा भारी है | इसलिए अपना धार्मिक कार्यों पर गुरूर न कीजिये, बावजूद इसके कि हम आपकी प्रशसा करते हैं | दो बातें और = पहला तो यह कि नाज़ की जगह पर यदि आपने मुझसे पूछा होता तो मैं गीता के प्रभाव में आपसे कहता ," जी नहीं, मैं कुछ नहीं करता, कोई सेवा मनुष्य की नहीं कर पाता " | और इस तरह मैं अपने कर्मों को दरिया में डाल देता, भले तब आपकी प्रशंसा का पात्र न होता | दुसरे यह कि मित्र, आखिर यह कौन सोचेगा कि वह कौन सा खुदा और ईश्वर है कि जिसके होते आप इतना सब दान करने की स्थिति में हैं और इतने सारे लोग आपके सामने हाथ फ़ैलाने की दशा में हैं ? इस स्तर तक सोचेंगे तब आप नास्तिक हो जायेंगे और ऐसा समाज बनाने की सोचेंगे जहाँ दान पूण्य जैसे कार्यों की ज़रूरत न हो |   आमीन !


* कह तो दिया
भूखा तो हूँ लेकिन
भेड़िया नहीं |

* मैं कुछ बोला
सुनकर हो गए
आग बबूला |

* लोग कहते
मैं सुनता रहता
सिर धुनता |

* सद्दःस्नात हूँ
विचारों से मैं कोई
व्यक्ति नहीं हूँ |

* स्वार्थ विहीन
पीड़ा से परिपूर्ण
पार्टी है मेरी |

* पैदा होना तो
एक दुर्घटना है
हिन्दू - मुस्लिम |

* छोटे से हाथ
छोटे छोटे लुकमे
फिर भी भूखे |

* अशुभ न हो
पर कुछ तो है जो
शुभ नहीं है |

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