शुक्रवार, 16 अगस्त 2013

Black & White Board ending 15 August 2013

* [ कविता ?]
हाँ मैं बीमार हूँ
लेकिन आपको बता दूँ
मैं आपकी जाति का नहीं हूँ
आप मेरी नाड़ी देखें या नहीं ,
हाँ मैं बीमार हूँ
लेकिन आपको बता दूँ
मैं आपके धर्म से सम्बंधित नहीं हूँ
आप मेरा सर दबाएँ या न दबाएँ ,
हाँ मैं निश्चित अस्वस्थ हूँ
लेकिन मैं आपको बता दूँ
मैं आपके सम्प्रदाय का नहीं हूँ
आप मेरे लिए दवा लायें या न लायें ,
हाँ मैं मरण शैया पर हूँ
लेकिन आपको बता दूँ
मैं आपकी पार्टी का नहीं हूँ
चाहे आप मुझे दफनायें या न दफनायें ,
अलबत्ता मैं आदमी हूँ
और फिलहाल बीमार हूँ |
#  #

* Indian democracy nascent stage में है | प्रौढ़ नहीं है | बन्दर के हाथों में उस्तरे न पकडाईए - ये RTI , right तो recall वगैरह | ये बहुत पढ़े लिखे लोगों के राजनीतिक सोसे हैं | अभी तो यहाँ मौलिक नागरिक चेतना का ही इतना अभाव है | ये इन अधिकारों को संभाल न पायेगे और सिवा इनके दुरूपयोग के और कुछ न होगा | हाँ यदि इस लूली लंगड़ी आज़ादी को चलने न देना हो , अड़ंगे ही लगाना हो तो और बात है | और दूंध कर  लाईये कुछ अधिकार | मैंने भी एक ढूँढा है - right to die of Hunger Strike | समर्थन करेंगे न ?

नास्तिकता का उपरान्त :-
यह मैं बहुत पहले से सोच रहा हूँ , आज व्यक्त कर रहा हूँ | कि दुनिया की असली समस्या तो नास्तिकता के बाद शुरू होती है | ईश्वर तो एक झूठी समस्या है जिसे आस्तिकों ने अनावश्यक कड़ी कर दी और उसे हटाने के लिए हमें अपनी शक्ति जाया करनी पड़ी | लेकिन असली जिन्दगी कि लडाई तो इसके आगे है | मित्र पुष्प जी अभी अपनी व्यथा बता रहे थे कि मुझे भी कल साक्षात कई झटके लगे | एक नास्तिक तो सुबह से शाम तक ब्राह्मणों को गाली ही देते रहते हैं |पुष्पेन्द्र जी सोचते हैं कि इन लोगों को जाति कि सीमाओं से निकल चुकना अपेक्षित था | कल एक विज्ञानवादी जी ने फरमाया - इस्लाम सर्वाधिक वैज्ञानिक धर्म है | किसी ने कहा उम्दा साहित्य केवल वामपंथी सृजित करते है | आदि आदि | अब क्या किया जाए | तब हम यह रास्ता निकलते हैं कि नास्तिकता भी एक व्यक्तिगत आस्था ही हो सकती है | उसके आगे तो व्यक्ति स्वतंत्र है अपने निर्णय लेने में |सबका अपना दिमाग है , ठीक है कि वह ईश्वर या धर्म द्वारा संचालित नहीं है | पर वह फर्क फर्क तो है | नास्तिकता एक सीमित एकता का आधार ही बन सकती है | तदुपरांत कोई कम्युनिस्ट होगा कोई भाजपाई, हिंदी वादी - अंग्रेजी वादी होगा , इत्यादि लौकिक तफरके | और हममें कोई मौलाना तो है नहीं जो फतवे जारी कर दे [औरत को अपना चेहरा केवल अपने भाई -बाप को ही दिखाना चाहिए, कल का ताज़ा फ़तवा ] और सबको एकमत कर दे |
इसलिए हमें इसकी आशा छोड़ देनी होगी | यही लोकतंत्र का तकाज़ा है | सभी को अपना विचार बनाने की स्वतंत्रता है | नास्तिकता कि यह पहली शर्त है | पुष्पेन्द्र जी , सविता जी, दीपा जी और मैं उग्रनाथ यह सुन लें कि हमें संतोष करके अपने अभियान में यहीं रुक जाना चाहिए | सबकी वैचारिक / अभिव्यक्तिगत स्वतंत्रता का आदर करना चाहिए | मानना होगा कि हमारी तरह सबके पास बुद्धि है और उसका प्रयोग करना उनका अधिकार है | हमने बस इतना किया कि धर्म और ईश्वर से मुक्त अपना चिंतन करो | बस यही तो ? फिर हम यह क्यों जिद करें कि सब मेरी ही तरह सोचें ? फिर तो हम धर्म की तरह हो जायेंगे, जो हम बिलकुल नहीं चाहेंगे, चाहे कितना ही नुकसान हो जाय संगठन का |
यही क्या कम है कि हम नास्तिकता तक सहमत है ? फिर सेक्युलरवाद की वह परिभाषा याद आती है कि धर्म एक व्यक्तिगत चीज़ है | उसी प्रकार नास्तिकता भी व्यक्तिगत आस्था क्यों न बना लें हम भी ? इसीलिए मैं कह्देता हूँ - नास्तिकता हमारा धर्म है , तो मित्र नाराज़ हो जाते हैं | नहीं नाराज़  होना चाहिए | उसी उत्साह केसाथ हमें इसका प्रचार प्रसार करना चाहिए | मनुष्य का मानस मुक्त होगा तो वह कभी न कभी कोई न कोई सही रास्ता निकाल ही लेगा | अपने को माँजते रहने कि ज़रुरत है |हमारी दृष्टि से यह ओझल नहीं है कि जो सारे लोग नास्तिक हैं वे सब सचमुच " नास्तिक " हुए नहीं है |फिर भी हमें उनके बुद्धि - विवेक पर विशवास करके ही आगे बढ़ना होगा | आगे कि असहमतियां अलग रखें , अभी हम यह देखें कि कोई भी जन नास्तिक होने के नाते समाज में अपमानित न होने पाए | मनुष्य कि गरिमा हमारे लिए सर्वोच्च है | उनकी भी जो अंध आस्था के गर्त में पड़े हुए हैं | मनुष्य से प्रेम हमारा कर्तव्य ही नहीं , हमारी ज़िम्मेदारी है | क्योंकि हम ईश्वर को नहीं मानते |

* यूँ तो सर्व 'काम' मय सब जग जानी , लेकिन मेरे ख्याल से आलिंगन - चुम्बन को सेक्स की श्रेणी में नहीं रखा जाना चाहिए |

* छोडो यार, क्या ईश्वर के चक्कर  में पड़े हो ? वह बहुत दूर कहीं ऊपर रहता है | वहाँ तक पहुंचोगे तब भी वह मिलेगा यह निश्चित नहीं है | और अगर कहीं चढ़ते चढ़ते धर्म की कोई रस्सी हाथ से छूट गयी तो ऐसा गिरोगे कि हड्डी पसली एक भी ढूँढने से न मिलेगी | और उसके पास कोई ट्रामा सेंटर भी नहीं है जहाँ तुम्हारा इलाज हो सके | उसके पास सिर्फ मर्चरी, स्वर्ग-नर्क ,यानी केवल मरने के बाद का ही प्रबंध है | जिंदगी के तो सारे सामान यहीं, इसी दुनिया में हैं | इसे छोड़ कही न जाओ भाई , जब तक जिंदा हो | और न किसी ईश्वर को ध्याओ |

* विशिष्ट अभिव्यक्ति :-
" सारे भ्रम जानकर
सारे भ्रम में पड़ा | "
# #

* परिवर्तन की हवा ज्यादा तेज़ हो तो दियासलाई की तीली भी बुझ जाती है |

* अतिसुन्दर ! बड़ा ही सजावटी चित्र है यह | संभाल कर रखो | कैलेन्डर छपवाने के काम आएगा |

मौत जीते हैं हम, क्षण क्षण | ज़िन्दगी नहीं जीते , जिंदगी भर !

* हम जिधर भी चल रहे हों , यदि उधर देखा करें ,
बुरी घटनाएं बहुत सी राह से हटती बनें |

* मेरा मतलब यह था कहने का -
एक हमारा घर हो रहने का |
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मैं अनुमान कर रहा था कि यदि मनु न होते, या अभी ब्राह्मण न होते | तो ये तमाम दलित लेखक क्या एक दो भी लाइन लिखना सीख / जान पाए होते ? अभी तो ब्राह्मण विरोध में लिखकर कुछ अभ्यास हो जाता है लिखने का , हाथ साफ़ हो जाता है |
क्या माना जाय कि यह भी ब्राह्मणों की एक सूक्ष्म साजिश / चाल है जिससे ये कुछ इसी बहाने पढ़ना लिखना सीख जाएँ ?
मैं सोच रहा था यदि किसी विद्यालय में मनुवाद की शिक्षा पाठ्यक्रम में रखी जाय तो उसे पढ़ाने के लिए दलित शिक्षक ही रखे जाएँ | मनुवाद की सबसे अच्छी शिक्षा वे ही दे सकते हैं |
[ भूल चूक माफ़ करेंगे ]

3 अगस्त / मैथिलि शरण गुप्त जी की 128 जयंती पर राय उमानाथ सभागार के कवि सम्मेलन में श्री नासिर अली नदीम ने इतनी सुंदर शुद्ध हिंदी की ग़ज़लें सुनाई कि फिर उसके बाद कुछ सुनने को बाक़ी न रहा | उन्होंने मुशायरा जीत लिया | और मैं फिर चला आया |

जानने का अधिकार RTI के बारे में मैं कभी निश्चित नहीं रहा | हाँ बताने का अधिकार { RTI - Right to Inform ] को अवश्य उपयोगी मानता हूँ |

एक मित्र अपनी नास्तिकता का श्रेय धर्मों कि तुलना को देते हैं | वैसा कुछ तो मेरे साथ भी हुआ , लेकिन उससे ज्यादा मिझे मेरे गाँव कि बुनावट ने नास्तिक बनाया | जब मुझे अपने धर्म जाति सम्प्रदाय का बोध कराया जाता तभी मैं सोचता कि यदि मैं अपने घर के दस मीटर दायें पैदा होता तो मैं बनिया होता | सौ मीटर बाएं उत्तर दिशा में पैदा होता तो खां मुसलमान और दो सौ मीटर आगे मालिक मुसलमान होता | फिर अगर सौ ही मीटर दाएँ दक्षिण ओर किसी घर में जन्म लेता तो चमार , और सौ ही मीटर सामने पूरब के किसी घर में टपकता तो पासी होता |
तो ऐसा क्या हो गया जो घटना - दुर्घटना / संयोगवश इसी घर में पैदा हुआ ? बस इतने भर से इतना अंतर कैसे हो गया ?

* नास्तिकता को चलने दीजिये ऐसे ही , फैशन के तौर पर ही सही | कुछ तो असर करेगी आप लोगों की संगत उन पर ? मुस्लिम मित्र भी हैं | जो भी उनकी मजबूरियाँ हों या चाहतें | जो यहाँ आये हैं अपने मन , अपनी इच्छा और प्रेरणा से आये हैं | मेरा ख्याल है जो खुद को नास्तिक कहता है वह पर्याप्त नास्तिक है हमारे लिए | जैसे यदि कोई अपना परिचय हिन्दू , मुसलमान, यादव आदि कहकर देता है तो क्या हम उससे पूछने जाते हैं - तुम क्या क्या मानते , पालन करते हो ? आगे का काम उन्ही पर छोड़ दिया जाय | हमारा काम एक सीमित सहमति बनाना है |

कम्युनिस्टों के बारे में एक बात तो पता चलती है कि ये बहुत पढ़ते हैं (केवल एक किस्म की किताब ), पढ़ने वाले लोग होते हैं , पढ़े हुए | लेकिन बस , इसके आगे कुछ नहीं |

* पोस्ट्स को पढ़ने का एक मकसद जनमत को जानना भी है / होना चाहिए | सिर्फ जिदपूर्वक विवाद करना नहीं |

* जैसे आस्तिक हिन्दू आदमी होते हैं , मुसलमान -सिख -ईसाई भी आदमी होते हैं | वैसे ही नास्तिक भी आदमी होते होंगे ! चलिए मिलकर देखा जाय !

फिर नागरिकता का मतलब क्या हुआ ?
मेरा आशय था कि देश मात्र रैखिक सीमायें नहीं बल्कि सांस्कृतिक अवगुंठन भी होते हैं , और उस सांस्कृतिक नीचता या महानता को देश के भीतर रहने वालों को और विदेशी आव्रजनों को स्वीकार करना चाहिये | तब मित्र नाराज़ हुए थे | मैं हिन्दू संस्कृति क्यों मुसलमानों पर थोपना चाहता हूँ - ऐसा कुछ ऐतराज़ था उनका | जब कि मैंने स्पष्ट किया था कि इस प्रकार तो मैं अरब की इस्लामी संस्कृति के संरक्षण की कोशिश कर रहा हूँ | न मैं अमरीका में मंदिर बनाऊं , न कोई भारत में दारुलिस्लाम फैलाये |
चलिए विरोध के चलते मैं अपनी बात वापस तो ले लूं | लेकिन एक प्रश्न छोड़ने के बाद | कि फिर नागरिकता का मतलब क्या हुआ ? क्या जेब में कागज़ एक देश कि नागरिकता का और मन में संलग्नता किसी अन्य मुल्क की सिटिजनशिप की ?

* यह देश अपनी महानता के कारण बर्बाद होगा | और महानता है कि इसके बगैर यह देश रह नहीं सकता |
भारत के नागरिक बड़े महान हैं |

* धर्म का मेरे लिए मतलब होता है Concern से | जब मैं पूछूं आपका धर्म क्या है , तो समझिये मैं पूछ रहा हूँ आपके जीवन का उद्देश्य क्या है ? क्या सोच रहे हैं आप ?

* वैज्ञानिकता और नास्तिकता एक ही चीज़ें हैं , और वे भारत की धरोहर हैं | देखिये कही ये धरी की धरी न रह जाएँ !
अलबत्ता वैज्ञानिकता में वह महानता, वह आकर्षण कहाँ, जो लफ्फाजी में है |

* हमारी कोई गलती नहीं | हमें कोई अहंकार नहीं | हम कोई गुस्ताखी नहीं करते | दरअसल ईश्वर है नहीं तो हम क्या करें ? उसी बात का प्रचार करते हैं | उसका होना तो लोगों ने झूठ मूठ फैलाया हुआ है , और उसके बहाने मनुष्य का शोषण कर रहे हैं , आदमी का जीना दूभर किये हुए हैं | तो क्या हम उस धुंध को न मिटायें ? नहीं तो जैसा आप लोग कहिये |

* :) अज्ञात व्यक्ति / हर व्यक्ति को सम्मान देना लोकतंत्र का वृहद् अनुशासन है | जान कर ही सम्मान दिया तो क्या दिया ? अनजान को भी सम्मान दें , इसमें इंसानियत कि पराकाष्ठा है | बच्चों का मामला ज़रूर है | चाहे पैर छुवाये  या कुछ और , हर समाज में सम्मान प्रदर्शन की कवायदें हैं | और उसे दम्पति अपने संतानों को सिखाएगा ही | चाहे जापानी तरीके से झुककर  या अंग्रेजी - इस्लामी विधि से हाथ मिलाकर | निजी तौर पर मुझे पैर छूना , हाथ मिलाना नहीं अच्छा लगता | दोनों हाथ जोडकर प्रणाम करना भर मुझे प्रिय है |इसमे स्त्री पुरुष का भेद नहीं बरतना पड़ता | बच्चों को भी नमस्कार करना भर बताया | अब दुसरे लोग और उनके बच्चे मेरे साथ कैसा व्यवहार करते हैं उस पर मेरा कोई वश नहीं , न मैं उसमे हस्तक्षेप करता हूँ | लेकिन एक बात [ निंदा का पात्र बनने का खतरा उठाकर भी ] कहना चाहूँगा कि यदि  चरणस्पर्श भी किसी का सांस्कारिक अभिवादन है तो इससे उस व्यक्ति या समाज की हेठी नहीं हो जाती | उस दशा में जब कि हम देखते हैं एक दुसरे के नक् से नाक रगड़ना , चुम्बन लेना भी अभिवादन के तरीकों में शुमार है | मनुष्य का पैर कोई गन्दा वस्तु तो नहीं है भाई !

* कोई भी धर्म मनुष्य कि इच्छा के बगैर उसे नैतिक नहीं बना सका , नहीं बना सकता | अपनी नैतिकता स्वयं आविष्कार - अंगीकार कीजिये |

* Shraddhanshu Shekhar asks :-
Why do human being give importance to self centered activities ?
और यह हमारी चिंता का विषय है, हमेशा रहा है | बल्कि हमारी नास्तिकता एक वैकल्पिक नैतिकता के रूप में हमें इसीलिए ग्राह्य हुयी क्योंकि हमने देखा कि धर्म मनुष्य को नैतिक बनाने में असफल रहा है , बल्कि उससे उसका बुद्धि विवेक छीन कर उसे अनैतिक बना दिया | लेकिन अब तो हमारा दिमाग स्वतंत्र है अपनी नैतिकता विकसित करने के लिए | फिर ऐसा क्यों हो रहा है कि स्वार्थ सर चढ़कर बोल रहा है ?
मैं तो कभी आश्चर्यचकित होता हूँ कि किस प्रकार कथित विज्ञानवादी अपनी बुद्धि को किसी व्यक्ति या वाद के प्रति अंधसमर्पित कर देते हैं |और वह भी किसी cause, उद्देश्य के लिए नहीं,बल्कि छोटे स्वार्थों के लिए - हमारा नाम हो, पहचान हो, सामूहिक ताक़त हो etc | वे सही हो सकते हैं और अपना मार्ग चुनने की उन्हें आज़ादी है , लेकिन कभी कभी सामने रखे स्पष्ट तथ्य और तर्क को जब वे नज़र अंदाज़ कर देते है, और रूढ़ विचार रखते हैं, तब पीड़ा होती है | अरे, कुछ तो अपनी बुद्धि का इनपुट होना चाहिए, कुछ अपनी प्रज्ञा - अपना संकल्प, अपनी व्यक्तिमत्ता, या सब कुछ किसी विचार का अनुगमन, भले ही वह विचारक व्यक्ति कितना ही बड़ा हो ? [ऐसा तो हमारे गौतम ही कह गए ] |
कहना पड़ता है गज़ब है सृष्टि का सर्जक तत्व, जिसे ज्यादातर लोग ईश्वर कहते हैं ! क्या उसने मनुष्य को इसी तरह, इसीलिए बनाया ही है कि वह हमेशा दिमाग से गुलाम रहे ? मनुष्य की मुक्ति का मार्ग क्या है ? निश्चय ही स्वार्थ साधना इसमें एक बड़ा बाधक है | स्वार्थ से मुक्ति ही मानव मुक्ति है |इसीलिए पूछते हैं मित्र  -Shraddhanshu Shekhar :- Why do human being give importance to self centered activities ?
क्या कोई उत्तर है किसी के पास ? और कोई तरीका ?

[मैं अपनी त्रुटि स्वीकार करता हूँ कि यह नास्तिकता के आगे का प्रश्न है ,जिसे हम इस समूह में नहीं बढ़ाना चाहते थे |इसलिए इसे सामान्य चर्चा के लिए " प्रिय सम्पादक " समूह में भी ले जा रहे हैं , जहां आस्तिक मित्र भी होंगे ]

* वन डे मातरम् !
वन्दे मातरम् के वोर्ध में कुछ आपत्तियां है जो स्वयं आपत्तिजनक है | हर मुल्क कुछ नाटक गढ़ता है , अपना होना सिद्ध करने के लिए , जिसे देश केसारे नागरिक मिलकर अभिनीत करते हैं | एक झंडा , एक राष्ट्र गान कुछ राष्ट्रीय प्रतीक | इनका कोई तर्क नहीं होता | तमाम अंधविश्वासों और धार्मिक मान्यताओं को आँख बंद करके वन्दे गीत में तर्क ढूंढते हैं तो या तो विज्ञानवादी आशा जगती है या फिर हंसी और रुलाई आती है | लेकिन जीवन और समाज के सारे काम तर्क से नहीं चलते , यह वह भी जानते हैं और हम भी | तब वन्दे का विरोध समझ से बाहर हो जाता है | हम भी कोई देशभक्त नहीं हैं, बल्कि हम नास्तिक तो देश के नाम पर कलंक कहे जाते हैं | फिर भी राष्ट्र धुन पर उठ खड़े होते हैं | उठाना चाहिए | यह देश ही नहीं आन्तरदेशीय नियम और परंपरा है | हर देश में इसके उल्लंघन पर सजा का प्राविधान है | न भी हो कानून तो क्या बिना सर पर रूमाल बांधे या टोपी लगाये कोई फुरुद्वारा में जाता है या नमाज़ पढ़ता है | इसी तरह झंडा गान भी एक सेक्युलर आडम्बर है | फिर , कौन देखता है खड़े होकर कौन क्या करता है | बहुत से केवल चुप खड़े रहते हैं, और कोई एतराज़ नहीं करता | क्या यह भी कोई मुश्किल काम है ? हमने बहुत से कौम के युवकों , अभिनेता , कलाकारों को कैसे कैसे तो गाने गाते  नाचते देखा है, हम अनभिग्य नहीं हैं क्या क्या कौन क्या करता है | तो वाही गाईये रैप संगीत में - वन डे मातरम् ! हम सुन लेंगे आप गा रहे हो - वन्दे मातरम् ! ध्वनियों में हम इतना फर्क नहीं करते | लिखने में करते हैं | तो आपसे अपनी देशभक्ति का प्रमाणपत्र  लिख कर देने को कौन कह रहा है ? जबानी जमा खर्च है भाई | क्या इतना भी नाटक नहीं कर सकते ? नहीं कर सकते तो भी सही | लेकिन यह घोषित करना कि हम नहीं करेंगे एक अपराध है, जिससे किसी का लाभ नहीं होता | लेकिन नुक्सान होता है ऐसी कौम का | क्योंकि जिस तरह आप राष्ट्र गान न गाने को स्वतंत्र हो उसी प्रकार शेष जनता आप के बारे में कोई राय बनाने के लिए भी तो स्वतंत्र होगी ? कोई उसे कैसे रोक सकता है ?  

खुदा के अतिरिक्त किसी के आगे सर नही झुकायेंगे |
लेकिन यह है कौन 'खुदा '? यह भारत या हिन्दुस्तान में पूछा जायगा | यहाँ प्रश्न चिन्ह कि परंपरा है | है तो शास्त्रार्थ कि भी , जिसे हमने सम्प्रति बंद कर रखा है | तो , कहाँ रहता है खुदा ?बास्तिकों की बात कोई नहीं मानता तो आप भी न मानिए |अलबत्ता इसकी पूरी और सशक्त परंपरा भारत / हिंदुस्तान में है |लेकिन संशयवादियों [ agnostics] की  तो  सुनिए , जो ईश्वर के बबरे में परिभाषित करते हैं - "वह इस कमरे में नहीं है "|इसे सेक्युलर देश के सन्दर्भ में सेक्युलर आन्दोलन के पुरोधा / प्रणेता चार्ल्स ब्रॉड ला के हवाले से कहा जा सकता है - ' इस देश में ईश्वर नहीं रहता ' | तो फिर किसके आगे सर झुकाओगे ? किसी के भी आगे सर न झुकाऔ | न देश की  वंदना करो न भगवान् की |

[उवाच ]
* अपनी कमजोरी मान लेना भी बहुत बड़ी ताक़त है !

* यदि हम उसके व्यवहार से प्रभावित हैं तो चलें उसकी बातें भी सुनें !
[Means - Behavior is the most influential talk ] , talkatism ?  ? ha ha ha :)

ईश्वर ही ईश्वर
समझ में नहीं आता , मेरे मन के चारो तरफ , हर कोने में ईश्वर ही ईश्वर ही ईश्वर क्यों बैठा हुआ है , जिसका विरोध करने को मैं विवश हो जाता हूँ ? :)

* रिहाई हो रिहाई
Amnesty का में बहुत पुराना समर्थक  हूँ , और कट्टर मृत्यु दंड विरोधी | राजनीतिक नुकसान कुछ भी हो | मैंने अफज़ल / कसाव ककी  माफ़ी के लिए ऐसे मंचों से बोल दिया कि सेक्युलर मित्र भी सकते में आ गए |
लेकिन यहाँ तो मामला महज़ रिहाई का है | समस्या आसान है इसलिए सुलझाना कठिन | कोई मंच बना हुआ है | आमंत्रण मुझे भी था पर मैं शामिल नहीं हुआ | यह केवल मुसलमानों के हितार्थ  है |शामिल कोई भी हो सकता है, इसलिए तमाम सेक्युलर / वामपंथी इससे जुड़े हैं | विडम्बना यही है कि इनके सारे कार्यक्रम सिर्फ मुस्लिमों के लिए होते हैं | ये न भोपाल गैस काण्ड पर बोलेंगे , न 1984 के खिलाफ |
तो सम्प्रति मुद्दा निर्दोष मुस्लिम युवकों को पुलिस द्वारा आतंकवाद के आरोप में फंसाने के खिलाफ है और ये उन्हें छुड़ाना चाहते हैं | मुलायम सरकार भी तैयार है | न्यायपालिका को कुछ दिक्कत है लेकिन वह कितने दिन कायम रहेगी | उनकी शंका और आपत्ति दूर कार दी जायगी क्योंकि जैसा कि कथन से स्पष्ट है इन्होने यह पक्के तौर पर मान लिया है कि ऐसे सारे के सारे मुस्लिम युवक " सर्वथा और पूर्णतया निर्दोष " हैं , भले उनके खिलाफ ऍफ़ आई आर पर जांच भी कुछ , या बहुत आगे बढ़ चुकी हो ||फिर तो क्या दिक्कत है ?
मेरी दिक्कत यह है कि मृत्युदंड की मुखालिफत करनी होती तो चल जाता | लेकिन यहाँ तो राज्य की सुरक्षा व्यवस्था और न्याय प्रणाली को ही धुल चाटना है | अब क्या करें यदि मान भी लें कि हमारी पुलिस कुछ पूर्वाग्रह ग्रस्त और अत्याचारी है | कहाँ से लाये निष्पक्ष फिर भी स्मार्ट पुलिस फ़ोर्स ? इनके बारे में तो सामान्य मान्यता है कि इनसे न दोस्ती अच्छी , न दुश्मनी | और यह भी कि इनके द्वारा अपराधी कम भले सज्जन ज्यादा प्रताड़ित होते हैं | लेकिन यह सबके लिए है कवक मुस्लिमों के लिए नहीं | अब सबके लिए तो बोलने वाले कोई नहीं है , इनकी सुविधा के लिए रिहाई मंच ज़रूर बना हुआ है |
तो राजनीतिक रूप से मरता क्या न करता | गोकुला में जो रहना है तो राधे राधे कहना है | और जब कहना ही है तो यह क्यों न कहें कि हमारे इन मोअज्जिज़ मेहमान के युवा संतानों को किसी भी दशा में पुलिस न पकडे , न जेल भेजे , भले ये रेंज हाथों इस भ्रष्ट पुलिस द्वारा पकडे जाएँ | केवल वाही युवक छुए जाएँ जिन्हें रिहाई मंच खुद पकड़ कर लाये और लिखित अनुरोध करे कि इन्हें सजा दी जाय | अब तो शायद यह प्रस्ताव ठीक है !

मुझे मालूम था कि
प्यार के चक्कर में
नहीं पड़ना , नहीं पड़ना ,नहीं पड़ना |
जाने क्या बात हुई -
ऐन वक़्त भूल गया |

[ लेकिन बात के दम में कुछ कमी खटक रही है | क्या इसे इस प्रकार लिखा जाय ? :-
मेरा यह प्रण था
मुझे प्यार के चक्कर में
नहीं पड़ना ,
नहीं पड़ना ,नहीं पड़ना |
जाने क्या बात हुई -
ऐन वक़्त भूल गया | ]

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